पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 49 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="G_HindiText"> | <div class="G_HindiText"> | ||
<p>अब गुण-गुणी के कथंचित् एकत्व को छोड़कर अन्य कोई भी समवाय नहीं है, ऐसा समर्थन करते हैं --</p> | <p>अब गुण-गुणी के कथंचित् एकत्व को छोड़कर अन्य कोई भी समवाय नहीं है, ऐसा समर्थन करते हैं --</p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[समवत्ती]</span> समवृत्ति, सहवृत्ति, गुण-गुणी के कथंचित् एकत्व होने से अनादि तादात्म्य सम्बन्ध है -- ऐसा अर्थ है । <span class="SansWord">[समवाओ]</span> जैनमत में वह ही समवाय है, दूसरा कोई भी परिकल्पित समवाय नहीं है । <span class="SansWord">[अपुधब्भूदो य]</span> गुण-गुणी के संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी प्रदेश-भेद का अभाव होने से वह ही अपृथग्भूतत्व कहलाता है । <span class="SansWord">[अजुदसिद्धा य]</span> दण्ड-दण्डी के समान भिन्न प्रदेश लक्षण युतसिद्धत्व का अभाव होने से वह ही अयुतसिद्धत्व कहलाता है । <span class="SansWord">[तम्हा]</span> उस कारण <span class="SansWord">[दव्वगुणाणं]</span> द्रव्य-गुणों के <span class="SansWord">[अजुदासिद्धित्ति]</span> अयुतसिद्धि है, कथंचित् अभिन्नत्व सिद्धि है -- ऐसा <span class="SansWord">[णिदिदट्ठं]</span> निर्दिष्ट है, कहा गया है ।</p> | ||
<p></p> | <p></p> | ||
<p>इस व्याख्यान में जैसे ज्ञान गुण के साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध प्रतिपादित किया है, उसे उसीप्रकार जीव के साथ देख लेना चाहिए; तथा जो अव्याबाधरूप, असीम, अविनश्वर, स्वाभाविक, रागादि दोषों से रहित, परमानन्द एक स्वभाव-मय पारमार्थिक सुख है; तत्प्रभृति केवलज्ञान में अन्तर्भूत जो अनन्तगुण हैं, उनके साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध का श्रद्धान करना चाहिए, ज्ञान करना चाहिए और उसीप्रकार समस्त रागादि विकल्पों के त्यागपूर्वक उसका ध्यान करना चाहिए-ऐसा अभिप्राय है ॥५६॥</p> | <p>इस व्याख्यान में जैसे ज्ञान गुण के साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध प्रतिपादित किया है, उसे उसीप्रकार जीव के साथ देख लेना चाहिए; तथा जो अव्याबाधरूप, असीम, अविनश्वर, स्वाभाविक, रागादि दोषों से रहित, परमानन्द एक स्वभाव-मय पारमार्थिक सुख है; तत्प्रभृति केवलज्ञान में अन्तर्भूत जो अनन्तगुण हैं, उनके साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध का श्रद्धान करना चाहिए, ज्ञान करना चाहिए और उसीप्रकार समस्त रागादि विकल्पों के त्यागपूर्वक उसका ध्यान करना चाहिए-ऐसा अभिप्राय है ॥५६॥</p> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब गुण-गुणी के कथंचित् एकत्व को छोड़कर अन्य कोई भी समवाय नहीं है, ऐसा समर्थन करते हैं --
[समवत्ती] समवृत्ति, सहवृत्ति, गुण-गुणी के कथंचित् एकत्व होने से अनादि तादात्म्य सम्बन्ध है -- ऐसा अर्थ है । [समवाओ] जैनमत में वह ही समवाय है, दूसरा कोई भी परिकल्पित समवाय नहीं है । [अपुधब्भूदो य] गुण-गुणी के संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी प्रदेश-भेद का अभाव होने से वह ही अपृथग्भूतत्व कहलाता है । [अजुदसिद्धा य] दण्ड-दण्डी के समान भिन्न प्रदेश लक्षण युतसिद्धत्व का अभाव होने से वह ही अयुतसिद्धत्व कहलाता है । [तम्हा] उस कारण [दव्वगुणाणं] द्रव्य-गुणों के [अजुदासिद्धित्ति] अयुतसिद्धि है, कथंचित् अभिन्नत्व सिद्धि है -- ऐसा [णिदिदट्ठं] निर्दिष्ट है, कहा गया है ।
इस व्याख्यान में जैसे ज्ञान गुण के साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध प्रतिपादित किया है, उसे उसीप्रकार जीव के साथ देख लेना चाहिए; तथा जो अव्याबाधरूप, असीम, अविनश्वर, स्वाभाविक, रागादि दोषों से रहित, परमानन्द एक स्वभाव-मय पारमार्थिक सुख है; तत्प्रभृति केवलज्ञान में अन्तर्भूत जो अनन्तगुण हैं, उनके साथ अनादि तादात्म्य सम्बन्ध का श्रद्धान करना चाहिए, ज्ञान करना चाहिए और उसीप्रकार समस्त रागादि विकल्पों के त्यागपूर्वक उसका ध्यान करना चाहिए-ऐसा अभिप्राय है ॥५६॥
इस प्रकार समवाय के निराकरण की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।