पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 83 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>[अगुरुगलघुगेहिं सदा तेहिं अणंतेहिं परिणदं] सदा उन अनन्त अगुरुलघुकों द्वारा परिणमित है; प्रति-समय होने वाली षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि रूप अनन्त अविभाग परिच्छेद से परिणमित जो अगुरुलघुक गुण हैं, उनसे स्वरूप-प्रतिष्ठत्व का निबंधन / कारण-भूत है । पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय-रूप परिणमित होने पर भी द्रव्यार्थिक-नय से [णिच्चं] नित्य है। [गतिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं] गतिक्रिया-युक्तों को कारण-भूत है । जैसे सिद्ध भगवान उदासीन होने पर भी सिद्ध गुणों के प्रति अनुराग-रूप से परिणमित भव्यों के लिए वे सिद्ध-गति में सहकारी कारण हैं; उसी प्रकार धर्म भी उदासीन होने पर भी स्वभाव से ही गति-रूप परिणत जीव-पुद्गलों को गति में सहकारी कारण होता है । [सयमकज्जं] स्वयं अकार्य है । जैसे सिद्ध अपने शुद्ध अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अन्य किसी के द्वारा कृत नहीं हैं, अत: अकार्य हैं; उसी प्रकार धर्म भी अपने अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अकार्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥९१॥</p> | <p><span class="SansWord">[अगुरुगलघुगेहिं सदा तेहिं अणंतेहिं परिणदं]</span> सदा उन अनन्त अगुरुलघुकों द्वारा परिणमित है; प्रति-समय होने वाली षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि रूप अनन्त अविभाग परिच्छेद से परिणमित जो अगुरुलघुक गुण हैं, उनसे स्वरूप-प्रतिष्ठत्व का निबंधन / कारण-भूत है । पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय-रूप परिणमित होने पर भी द्रव्यार्थिक-नय से <span class="SansWord">[णिच्चं]</span> नित्य है। <span class="SansWord">[गतिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं]</span> गतिक्रिया-युक्तों को कारण-भूत है । जैसे सिद्ध भगवान उदासीन होने पर भी सिद्ध गुणों के प्रति अनुराग-रूप से परिणमित भव्यों के लिए वे सिद्ध-गति में सहकारी कारण हैं; उसी प्रकार धर्म भी उदासीन होने पर भी स्वभाव से ही गति-रूप परिणत जीव-पुद्गलों को गति में सहकारी कारण होता है । <span class="SansWord">[सयमकज्जं]</span> स्वयं अकार्य है । जैसे सिद्ध अपने शुद्ध अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अन्य किसी के द्वारा कृत नहीं हैं, अत: अकार्य हैं; उसी प्रकार धर्म भी अपने अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अकार्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥९१॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[अगुरुगलघुगेहिं सदा तेहिं अणंतेहिं परिणदं] सदा उन अनन्त अगुरुलघुकों द्वारा परिणमित है; प्रति-समय होने वाली षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि रूप अनन्त अविभाग परिच्छेद से परिणमित जो अगुरुलघुक गुण हैं, उनसे स्वरूप-प्रतिष्ठत्व का निबंधन / कारण-भूत है । पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्यय-रूप परिणमित होने पर भी द्रव्यार्थिक-नय से [णिच्चं] नित्य है। [गतिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं] गतिक्रिया-युक्तों को कारण-भूत है । जैसे सिद्ध भगवान उदासीन होने पर भी सिद्ध गुणों के प्रति अनुराग-रूप से परिणमित भव्यों के लिए वे सिद्ध-गति में सहकारी कारण हैं; उसी प्रकार धर्म भी उदासीन होने पर भी स्वभाव से ही गति-रूप परिणत जीव-पुद्गलों को गति में सहकारी कारण होता है । [सयमकज्जं] स्वयं अकार्य है । जैसे सिद्ध अपने शुद्ध अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अन्य किसी के द्वारा कृत नहीं हैं, अत: अकार्य हैं; उसी प्रकार धर्म भी अपने अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण अकार्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥९१॥