पद्मपुराण - पर्व 109: Difference between revisions
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<p>अथानंतर किसी समय अनेक साधुओं के साथ इस पृथ्वी पर विहार करते हुए नंदिवर्धन नामक मुनिराज उस शालिग्राम में आये ।।4।।<span id="42" /> वे मुनि अवधिज्ञान से समस्त जगत् को देखते थे तथा आकर गाँव के बाहर मुनियों के योग्य उद्यान में ठहर गये ॥42॥<span id="43" /> तदनंतर उत्कृष्ट आत्मा के धारक मुनियों का आगमन सुन शालिग्राम के सब लोग वैभव के साथ बाहर निकले।॥43॥<span id="44" /> तत्पश्चात् अग्निभूति और वायुभूति ने उन नगरवासी लोगों को जाते देख किसी से पूछा कि ये गाँव के लोग परस्पर एक दूसरे से मिल कर समुदाय रूप में कहाँ जा रहे हैं ? ॥44॥<span id="45" /> तब उसने उन दोनों से कहा कि एक निर्वस्त्र दिगंबर मुनि आये हुए हैं । उन्हीं की वंदना करने के लिए वे सब लोग जा रहे हैं ॥45॥<span id="46" /> तदनंतर क्रोध से भरा अग्निभूति, भाई के साथ निकल कर बाहर आया और कहने लगा कि मैं समस्त मुनियों को वाद में अभी जीतता हूँ ॥46॥<span id="47" /> तत्पश्चात् पास जाकर उसने ताराओं के बीच में उदित चंद्रमा के समान मुनियों के बीच में बैठे हुए उनके स्वामी नंदिवर्द्धन मुनि को देखा ॥47॥<span id="48" /> तदनंतर सात्यकि नामक प्रधान मुनि ने उनसे कहा कि हे विप्रो ! आओ और गुरु से कुछ पूछो ! ॥48।।<span id="49" /> तब अग्निभूति ने हंसते हुए कहा कि हमें आप लोगों से क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तर में मुनि ने कहा कि यदि आप लोग यहाँ आ गये हैं तो इसमें दोष नहीं है ॥49॥<span id="50" /> उसी समय एक ब्राह्मण ने कहा कि ये दोनों इन मुनियों को वाद में जीतने के लिए आये हैं इस समय दूर क्यों बैठे हैं ॥50॥<span id="51" /> तदनंतर 'अच्छा, ऐसा ही सही' इस प्रकार कहते हुए क्रोध से युक्त दोनों ब्राह्मण, मुनिराज के सामने बैठ गये और बड़े अहंकार में चूर होकर बार-बार कहने लगे कि बोल क्या जानता है ? बोल क्या जानता है ? ॥51॥<span id="52" /> तदनंतर अवधिज्ञानी मुनिराज ने कहा कि आप दोनों कहाँ से आ रहे हैं ? इसके उत्तर में विप्र-पुत्र बोले कि क्या तुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि हम दोनों शालिग्राम से आये हैं ॥52॥<span id="53" /> तदनंतर मुनिराज ने कहा कि आप शालिग्राम से आये हैं यह तो मैं जानता हूँ । मेरे पूछने का अभिप्राय यह है कि इस अनादि संसार रूपी वन में घूमते हुए आप इस समय किस पर्याय से आये हैं ? ॥53॥<span id="54" /> तब उन्होंने कहा कि इसे क्या और भी कोई जानता है या मैं ही जानूँ। तत्पश्चात् मुनिराज ने कहा कि अच्छा विप्रो ! सुनो मैं कहता हूँ ॥54॥<span id="55" /></p> | <p>अथानंतर किसी समय अनेक साधुओं के साथ इस पृथ्वी पर विहार करते हुए नंदिवर्धन नामक मुनिराज उस शालिग्राम में आये ।।4।।<span id="42" /> वे मुनि अवधिज्ञान से समस्त जगत् को देखते थे तथा आकर गाँव के बाहर मुनियों के योग्य उद्यान में ठहर गये ॥42॥<span id="43" /> तदनंतर उत्कृष्ट आत्मा के धारक मुनियों का आगमन सुन शालिग्राम के सब लोग वैभव के साथ बाहर निकले।॥43॥<span id="44" /> तत्पश्चात् अग्निभूति और वायुभूति ने उन नगरवासी लोगों को जाते देख किसी से पूछा कि ये गाँव के लोग परस्पर एक दूसरे से मिल कर समुदाय रूप में कहाँ जा रहे हैं ? ॥44॥<span id="45" /> तब उसने उन दोनों से कहा कि एक निर्वस्त्र दिगंबर मुनि आये हुए हैं । उन्हीं की वंदना करने के लिए वे सब लोग जा रहे हैं ॥45॥<span id="46" /> तदनंतर क्रोध से भरा अग्निभूति, भाई के साथ निकल कर बाहर आया और कहने लगा कि मैं समस्त मुनियों को वाद में अभी जीतता हूँ ॥46॥<span id="47" /> तत्पश्चात् पास जाकर उसने ताराओं के बीच में उदित चंद्रमा के समान मुनियों के बीच में बैठे हुए उनके स्वामी नंदिवर्द्धन मुनि को देखा ॥47॥<span id="48" /> तदनंतर सात्यकि नामक प्रधान मुनि ने उनसे कहा कि हे विप्रो ! आओ और गुरु से कुछ पूछो ! ॥48।।<span id="49" /> तब अग्निभूति ने हंसते हुए कहा कि हमें आप लोगों से क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तर में मुनि ने कहा कि यदि आप लोग यहाँ आ गये हैं तो इसमें दोष नहीं है ॥49॥<span id="50" /> उसी समय एक ब्राह्मण ने कहा कि ये दोनों इन मुनियों को वाद में जीतने के लिए आये हैं इस समय दूर क्यों बैठे हैं ॥50॥<span id="51" /> तदनंतर 'अच्छा, ऐसा ही सही' इस प्रकार कहते हुए क्रोध से युक्त दोनों ब्राह्मण, मुनिराज के सामने बैठ गये और बड़े अहंकार में चूर होकर बार-बार कहने लगे कि बोल क्या जानता है ? बोल क्या जानता है ? ॥51॥<span id="52" /> तदनंतर अवधिज्ञानी मुनिराज ने कहा कि आप दोनों कहाँ से आ रहे हैं ? इसके उत्तर में विप्र-पुत्र बोले कि क्या तुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि हम दोनों शालिग्राम से आये हैं ॥52॥<span id="53" /> तदनंतर मुनिराज ने कहा कि आप शालिग्राम से आये हैं यह तो मैं जानता हूँ । मेरे पूछने का अभिप्राय यह है कि इस अनादि संसार रूपी वन में घूमते हुए आप इस समय किस पर्याय से आये हैं ? ॥53॥<span id="54" /> तब उन्होंने कहा कि इसे क्या और भी कोई जानता है या मैं ही जानूँ। तत्पश्चात् मुनिराज ने कहा कि अच्छा विप्रो ! सुनो मैं कहता हूँ ॥54॥<span id="55" /></p> | ||
<p>इस गाँव की सीमा के पास वन की भूमि में दो शृगाल साथ-साथ रहते थे। वे दोनों ही परस्पर एक दूसरे से अधिक प्रेम रखते थे तथा दोनों ही विकृत मुख के धारक थे ॥55।।<span id="56" /><span id="57" /> इसी गाँव में एक प्रामरक नाम का पुराना किसान रहता था। वह एक दिन अपने खेत पर गया । जब सूर्यास्त का समय आया तब वह भूख से पीड़ित होकर घर गया और अभी वापिस आता हूँ यह सोचकर अपने उपकरण खेत में ही छोड़ आया ॥56-57।।<span id="58" /><span id="59" /> वह घर आया नहीं कि इतने में अकस्मात् उठे तथा अंजनगिरि के समान काले बादल पृथिवीतल को डुबाते हुए रात-दिन बरसने लगे। वे मेघ सात दिन में शांत हुए अर्थात् सात दिन तक झड़ी लगी रही। ऊपर जिन दो शृंगालों का उल्लेख कर आये हैं वे भूख से पीड़ित हो रात्रि के घनघोर अंधकार में वन से बाहर निकले ॥58-59॥<span id="60" /><span id="61" /> </p> | <p>इस गाँव की सीमा के पास वन की भूमि में दो शृगाल साथ-साथ रहते थे। वे दोनों ही परस्पर एक दूसरे से अधिक प्रेम रखते थे तथा दोनों ही विकृत मुख के धारक थे ॥55।।<span id="56" /><span id="57" /> इसी गाँव में एक प्रामरक नाम का पुराना किसान रहता था। वह एक दिन अपने खेत पर गया । जब सूर्यास्त का समय आया तब वह भूख से पीड़ित होकर घर गया और अभी वापिस आता हूँ यह सोचकर अपने उपकरण खेत में ही छोड़ आया ॥56-57।।<span id="58" /><span id="59" /> वह घर आया नहीं कि इतने में अकस्मात् उठे तथा अंजनगिरि के समान काले बादल पृथिवीतल को डुबाते हुए रात-दिन बरसने लगे। वे मेघ सात दिन में शांत हुए अर्थात् सात दिन तक झड़ी लगी रही। ऊपर जिन दो शृंगालों का उल्लेख कर आये हैं वे भूख से पीड़ित हो रात्रि के घनघोर अंधकार में वन से बाहर निकले ॥58-59॥<span id="60" /><span id="61" /> </p> | ||
<p>अथानंतर वर्षा से भीगे और कीचड़ तथा पत्थरों में पड़े वे सब उपकरण जिन्हें कि किसान छोड़ आया था दोनों शृंगालों ने खा लिये। खाते ही के साथ उनके उदर में भारी पीड़ा उठी । अंत में वर्षा और वायु से पीड़ित दोनों शृगाल अकामनिर्जरा कर मरे और सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र हुए ॥60-61॥<span id="62" /> तदनंतर वह प्रामरक किसान अपने उपकरण ढूँढ़ता हुआ खेत में पहुँचा तो वहाँ उसने इन मरे हुए दोनों शृंगालों को देखा। किसान उन मृतक शृगालों को लेकर घर गया और वहाँ उसने उनकी मशकें बनाई ॥62।।<span id="63" /> वह प्रामरक भी जल्दी ही मर गया और मरकर अपने ही पुत्र के पुत्र हुआ। उस पुत्र को जाति-स्मरण हो गया जिससे वह गूंगा बनकर रहने लगा ॥63॥<span id="64" /> 'मैं अपने पूर्वभव के पुत्र को पिता के स्थान में समझ कर कैसे बोलूँ तथा पूर्वभव की पुत्र-वधू को माता के स्थान में जानकर कैसे बोलूं' यह विचार कर ही वह मौन को प्राप्त हुआ है ॥64॥<span id="65" /> यदि तुम्हें इस बात का ठीक ठीक विश्वास नहीं है तो वह ब्राह्मण मेरे दर्शन करने के लिए यहाँ आया है तथा अपने परिवार के बीच में बैठा है ॥65।।<span id="66" /> मुनिराज ने उसे बुलाकर कहा कि तू वही प्रामरक किसान है और इस समय अपने पुत्र का ही पुत्र हुआ है ॥66॥ | <p>अथानंतर वर्षा से भीगे और कीचड़ तथा पत्थरों में पड़े वे सब उपकरण जिन्हें कि किसान छोड़ आया था दोनों शृंगालों ने खा लिये। खाते ही के साथ उनके उदर में भारी पीड़ा उठी । अंत में वर्षा और वायु से पीड़ित दोनों शृगाल अकामनिर्जरा कर मरे और सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र हुए ॥60-61॥<span id="62" /> तदनंतर वह प्रामरक किसान अपने उपकरण ढूँढ़ता हुआ खेत में पहुँचा तो वहाँ उसने इन मरे हुए दोनों शृंगालों को देखा। किसान उन मृतक शृगालों को लेकर घर गया और वहाँ उसने उनकी मशकें बनाई ॥62।।<span id="63" /> वह प्रामरक भी जल्दी ही मर गया और मरकर अपने ही पुत्र के पुत्र हुआ। उस पुत्र को जाति-स्मरण हो गया जिससे वह गूंगा बनकर रहने लगा ॥63॥<span id="64" /> 'मैं अपने पूर्वभव के पुत्र को पिता के स्थान में समझ कर कैसे बोलूँ तथा पूर्वभव की पुत्र-वधू को माता के स्थान में जानकर कैसे बोलूं' यह विचार कर ही वह मौन को प्राप्त हुआ है ॥64॥<span id="65" /> यदि तुम्हें इस बात का ठीक ठीक विश्वास नहीं है तो वह ब्राह्मण मेरे दर्शन करने के लिए यहाँ आया है तथा अपने परिवार के बीच में बैठा है ॥65।।<span id="66" /> मुनिराज ने उसे बुलाकर कहा कि तू वही प्रामरक किसान है और इस समय अपने पुत्र का ही पुत्र हुआ है ॥66॥<span id="67" /><span id="68" /> यह संसार का स्वभाव है। जिस प्रकार रंगभूमि के मध्य नट राजा होकर दास बन जाता है और दास प्रभुता को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पिता भी पुत्रपने को प्राप्त हो जाता है, और पुत्र पितृ पर्याय को प्राप्त हो जाता है। माता पत्नी हो जाती है और पत्नी माता बन जाती है ॥67-68॥<span id="69" /> यह संसार अरहट के घटीयंत्र के समान है । इसमें जीव कर्म के वशीभूत हो ऊपर-नीची अवस्था को प्राप्त होता रहता है ॥69॥<span id="70" /> इसलिए हे वत्स ! संसार दशा को अत्यंत निंदित जानकर इस समय गूंगापन छोड़ और वचनों की उत्तम क्रिया कर अर्थात् प्रशस्त वचन बोल ॥70॥<span id="71" /> </p> | ||
<p>मुनिराज के इतना कहते ही वह अत्यंत हर्षित होता हुआ उठा, वह ऐसा प्रसन्न हुआ मानो उसका ज्वर उतर गया हो, उसके शरीर में सघन रोमांच निकल आये, तथा उसके नेत्र और मुख हर्ष से फूल उठे ॥71॥<span id="72" /> भूत से आक्रांत हुए के समान उसने मुनि की प्रदक्षिणाएँ दीं। तदनंतर कटे वृक्ष के समान मस्तक के बल उनके चरणों में गिर पड़ा ॥72॥<span id="73" /> उसने आश्चर्यचकित हो जोर से कहा कि हे भगवन् , आप सर्वज्ञ हैं। यहाँ बैठे-बैठे ही आप समस्त लोक की संपूर्ण स्थिति को देखते रहते हैं ॥73॥<span id="74" /> मैं इस भयंकर संसार-सागर में डूब रहा था सो आपने प्राण्यनुकंपा से हे नाथ ! मेरे लिए रत्नत्रय रूप बोधि का दर्शन कराया है॥74।।<span id="75" /> आप दिव्यबुद्धि हैं अत: आपने मेरा मनोगत भाव जान लिया। इस प्रकार कहकर उस प्रामरक के जीव ब्राह्मण ने रोते हुए भाई. बांधवों को | <p>मुनिराज के इतना कहते ही वह अत्यंत हर्षित होता हुआ उठा, वह ऐसा प्रसन्न हुआ मानो उसका ज्वर उतर गया हो, उसके शरीर में सघन रोमांच निकल आये, तथा उसके नेत्र और मुख हर्ष से फूल उठे ॥71॥<span id="72" /> भूत से आक्रांत हुए के समान उसने मुनि की प्रदक्षिणाएँ दीं। तदनंतर कटे वृक्ष के समान मस्तक के बल उनके चरणों में गिर पड़ा ॥72॥<span id="73" /> उसने आश्चर्यचकित हो जोर से कहा कि हे भगवन् , आप सर्वज्ञ हैं। यहाँ बैठे-बैठे ही आप समस्त लोक की संपूर्ण स्थिति को देखते रहते हैं ॥73॥<span id="74" /> मैं इस भयंकर संसार-सागर में डूब रहा था सो आपने प्राण्यनुकंपा से हे नाथ ! मेरे लिए रत्नत्रय रूप बोधि का दर्शन कराया है॥74।।<span id="75" /> आप दिव्यबुद्धि हैं अत: आपने मेरा मनोगत भाव जान लिया। इस प्रकार कहकर उस प्रामरक के जीव ब्राह्मण ने रोते हुए भाई. बांधवों को छोड़कर दीक्षा धारण कर ली ॥75।।<span id="76" /> प्रामरक का यह ऐसा व्याख्यान सन लोग मुनि तथा श्रावक हो गये ॥76॥<span id="77" /> सब लोगों ने उसके घर जाकर पूर्वोक्त शृंगालों के शरीर से बनी मशकें देखीं जिससे सब ओर कलकल तथा आश्चर्य छा गया ॥77॥<span id="78" /></p> | ||
<p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! लोगों ने यह कहकर उन ब्राह्मणों की बहुत हँसी की कि ये वे ही पशुओं का मांस खाने वाले शृगाल ब्राह्मण पर्याय को प्राप्त हुए हैं ॥78॥<span id="79" /> 'सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है' इस प्रकार के ब्रह्माद्वैतवाद में मूढ एवं पशुओं की हिंसा में आसक्त रहने वाले इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक समस्त प्रजा को लूट डाला है ।।79॥<span id="80" /> तपरूपी धन से युक्त ये शुद्ध मुनि ब्राह्मणों से अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि यथार्थ में ब्राह्मण वे ही कहलाते हैं जो अहिंसा व्रत को धारण करते हैं ॥80॥<span id="81" /> जो महाव्रत रूपी लंबी चोटी धारण करते हैं, जो क्षमारूपी यज्ञोपवीत से सहित हैं, जो ध्यानरूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शांत हैं तथा मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर हैं वे ही ब्राह्मण कहलाते हैं ॥81॥<span id="82" /> इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त हैं तथा जो निरंतर कुशील में लीन रहते हैं वे केवल यह कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं परंतु क्रिया से ब्राह्मण नहीं हैं ।।82॥<span id="83" /> जिस प्रकार कितने ही लोग सिंह, देव अथवा अग्नि नाम के धारक हैं उसी प्रकार व्रत से भ्रष्ट रहने वाले ये लोग भी ब्राह्मण नाम के धारक हैं इनमें वास्तविक ब्राह्मणत्व कुछ भी नहीं है ॥83॥<span id="84" /> जो ऋषि, संयत, धीर, क्षांत, दांत और जितेंद्रिय हैं ऐसे ये मुनि ही धन्य हैं तथा वास्तविक ब्राह्मण हैं ।।84॥<span id="85" /> जो भद्रपरिणामी हैं, संदेह से रहित हैं, ऐश्वर्य संपन्न हैं, अनेक तपस्वियों से सहित हैं, यति हैं और वीर हैं ऐसे मुनि ही लोकोत्तर गुणों के धारण करने वाले हैं ॥85॥<span id="86" /> जो परिग्रह को संसार का कारण समझ उसे छोड़ मुक्ति को प्राप्त करते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं सो यथार्थ में मोहरहित निर्ग्रंथ मुनि ही परिव्राजक हैं ऐसा जानना चाहिए । ॥86॥<span id="87" /> चूंकि ये मुनि क्षीणराग तथा क्षमा से सहित होकर तप के द्वारा अपने आपको कृश करते हैं, पाप को नष्ट करते हैं इसलिए क्षपण कहे गये हैं ॥87।।<span id="88" /> ये सब यमी, वीतराग, निर्मुक्त शरीर, निरंबर, योगी, ध्यानी, ज्ञानी, निःस्पृह और बुध हैं अतः ये ही वंदना करने योग्य हैं ।।88।।<span id="89" /> चूंकि ये निर्वाण को सिद्ध करते हैं इसलिए साधु कहलाते हैं, और उत्तम आचार का स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरों को भी आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहे जाते हैं ।।89॥<span id="90" /> ये गृहत्यागी के गुणों से सहित हैं तथा शुद्ध भिक्षा से भोजन करते हैं इसलिए भिक्षुक कहलाते हैं और उज्ज्वल कार्य करने वाले हैं, अथवा कर्मों का नष्ट करने वाले हैं तथा परम निर्दोष श्रम में वर्तमान हैं इसलिए श्रमण कहे जाते हैं ।।90॥<span id="91" /> इस प्रकार साधुओं की स्तुति और अपनी निंदा सुनकर वे अहंकारी विप्रपुत्र लज्जित, अपमानित तथा निष्प्रभ हो एकांत में जा बैठे ॥91॥<span id="92" /> </p> | <p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! लोगों ने यह कहकर उन ब्राह्मणों की बहुत हँसी की कि ये वे ही पशुओं का मांस खाने वाले शृगाल ब्राह्मण पर्याय को प्राप्त हुए हैं ॥78॥<span id="79" /> 'सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है' इस प्रकार के ब्रह्माद्वैतवाद में मूढ एवं पशुओं की हिंसा में आसक्त रहने वाले इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक समस्त प्रजा को लूट डाला है ।।79॥<span id="80" /> तपरूपी धन से युक्त ये शुद्ध मुनि ब्राह्मणों से अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि यथार्थ में ब्राह्मण वे ही कहलाते हैं जो अहिंसा व्रत को धारण करते हैं ॥80॥<span id="81" /> जो महाव्रत रूपी लंबी चोटी धारण करते हैं, जो क्षमारूपी यज्ञोपवीत से सहित हैं, जो ध्यानरूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शांत हैं तथा मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर हैं वे ही ब्राह्मण कहलाते हैं ॥81॥<span id="82" /> इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त हैं तथा जो निरंतर कुशील में लीन रहते हैं वे केवल यह कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं परंतु क्रिया से ब्राह्मण नहीं हैं ।।82॥<span id="83" /> जिस प्रकार कितने ही लोग सिंह, देव अथवा अग्नि नाम के धारक हैं उसी प्रकार व्रत से भ्रष्ट रहने वाले ये लोग भी ब्राह्मण नाम के धारक हैं इनमें वास्तविक ब्राह्मणत्व कुछ भी नहीं है ॥83॥<span id="84" /> जो ऋषि, संयत, धीर, क्षांत, दांत और जितेंद्रिय हैं ऐसे ये मुनि ही धन्य हैं तथा वास्तविक ब्राह्मण हैं ।।84॥<span id="85" /> जो भद्रपरिणामी हैं, संदेह से रहित हैं, ऐश्वर्य संपन्न हैं, अनेक तपस्वियों से सहित हैं, यति हैं और वीर हैं ऐसे मुनि ही लोकोत्तर गुणों के धारण करने वाले हैं ॥85॥<span id="86" /> जो परिग्रह को संसार का कारण समझ उसे छोड़ मुक्ति को प्राप्त करते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं सो यथार्थ में मोहरहित निर्ग्रंथ मुनि ही परिव्राजक हैं ऐसा जानना चाहिए । ॥86॥<span id="87" /> चूंकि ये मुनि क्षीणराग तथा क्षमा से सहित होकर तप के द्वारा अपने आपको कृश करते हैं, पाप को नष्ट करते हैं इसलिए क्षपण कहे गये हैं ॥87।।<span id="88" /> ये सब यमी, वीतराग, निर्मुक्त शरीर, निरंबर, योगी, ध्यानी, ज्ञानी, निःस्पृह और बुध हैं अतः ये ही वंदना करने योग्य हैं ।।88।।<span id="89" /> चूंकि ये निर्वाण को सिद्ध करते हैं इसलिए साधु कहलाते हैं, और उत्तम आचार का स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरों को भी आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहे जाते हैं ।।89॥<span id="90" /> ये गृहत्यागी के गुणों से सहित हैं तथा शुद्ध भिक्षा से भोजन करते हैं इसलिए भिक्षुक कहलाते हैं और उज्ज्वल कार्य करने वाले हैं, अथवा कर्मों का नष्ट करने वाले हैं तथा परम निर्दोष श्रम में वर्तमान हैं इसलिए श्रमण कहे जाते हैं ।।90॥<span id="91" /> इस प्रकार साधुओं की स्तुति और अपनी निंदा सुनकर वे अहंकारी विप्रपुत्र लज्जित, अपमानित तथा निष्प्रभ हो एकांत में जा बैठे ॥91॥<span id="92" /> </p> | ||
<p>अथानंतर जो अपने शृगालादि पूर्व भवों के उल्लेख से अत्यंत दुःखी थे ऐसे दोनों पुत्र सूर्य के अस्त होने पर खोज करते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कि वे भगवान् नंदिवर्धन मुनींद्र विराजमान थे ॥92॥<span id="93" /><span id="94" /><span id="95" /> वे मुनींद्र संघ छोड़, निःस्पृह हो वन के एकांत भाग में स्थित उस श्मशान प्रदेश में विद्यमान थे कि जो अत्यधिक गर्तों से युक्त था, नरक कालों से परिपूर्ण था, नाना प्रकार की चिताओं से व्याप्त था, मांसभोजी वन्य पशुओं के शब्द से व्याप्त था, पिशाच और सर्पों से आकीर्ण था, सुई के द्वारा भेदने योग्य― | <p>अथानंतर जो अपने शृगालादि पूर्व भवों के उल्लेख से अत्यंत दुःखी थे ऐसे दोनों पुत्र सूर्य के अस्त होने पर खोज करते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कि वे भगवान् नंदिवर्धन मुनींद्र विराजमान थे ॥92॥<span id="93" /><span id="94" /><span id="95" /> वे मुनींद्र संघ छोड़, निःस्पृह हो वन के एकांत भाग में स्थित उस श्मशान प्रदेश में विद्यमान थे कि जो अत्यधिक गर्तों से युक्त था, नरक कालों से परिपूर्ण था, नाना प्रकार की चिताओं से व्याप्त था, मांसभोजी वन्य पशुओं के शब्द से व्याप्त था, पिशाच और सर्पों से आकीर्ण था, सुई के द्वारा भेदने योग्य― गाढ़ अंधकार से आच्छादित था, और जिसका देखना तीव्र घृणा उत्पन्न करने वाला था । ऐसे श्मशान में जीव-जंतु रहित शिलातल पर प्रतिमायोग से विराजमान उन मुनिराज को उन दोनों पापियों ने देखा ॥93-95॥<span id="96" /> उन्हें देखते ही जिन्होंने तलवार खींचकर हाथ में ले ली थी तथा जो अत्यंत कुपित हो रहे थे ऐसे उन ब्राह्मणों ने एक साथ कहा कि लोग आकर तेरे प्राणों की रक्षा करें । अरे श्रमण ! अब तू कहाँ जायगा ? ॥96॥<span id="97" /> हम ब्राह्मण पृथिवी में श्रेष्ठ हैं तथा प्रत्यक्ष देवता स्वरूप हैं और तू महादोषों से भरा निर्लज्ज है फिर भी हम लोगों को तू 'शृगाल थे’ ऐसा कहता है ॥97॥<span id="98" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जो अत्यंत तीव्र क्रोध से युक्त थे, दुष्ट थे, लाल-लाल नेत्रों के धारक थे, बिना विचारे काम करने वाले थे और दया से रहित थे ऐसे उन दोनों ब्राह्मणों को यक्ष ने देखा ॥98॥<span id="99" /> उन्हें देखकर वह देव विचार करने लगा कि अहो ! देखो; ये ऐसे निर्दोष, शरीर से निःस्पृह और ध्यान में तत्पर मुनि को मारने के लिए उद्यत हैं ॥99॥<span id="100" /> तदनंतर तलवार चलाने के आसन से खड़े होकर उन्होंने अपनी-अपनी तलवार ऊपर उठाई नहीं कि यक्ष ने उन्हें कील दिया जिससे वे मुनिराज के आगे उसी मुद्रा में निश्चल खड़े रह गये ॥100॥<span id="101" /> महामुनि के विरुद्ध उपसर्ग करने की इच्छा रखने वाले वे दोनों दुष्ट उनकी दोनों ओर इस प्रकार खड़े थे मानो उनके अंगरक्षक ही हों ।।101।।<span id="102" /></p> | <p>तदनंतर जो अत्यंत तीव्र क्रोध से युक्त थे, दुष्ट थे, लाल-लाल नेत्रों के धारक थे, बिना विचारे काम करने वाले थे और दया से रहित थे ऐसे उन दोनों ब्राह्मणों को यक्ष ने देखा ॥98॥<span id="99" /> उन्हें देखकर वह देव विचार करने लगा कि अहो ! देखो; ये ऐसे निर्दोष, शरीर से निःस्पृह और ध्यान में तत्पर मुनि को मारने के लिए उद्यत हैं ॥99॥<span id="100" /> तदनंतर तलवार चलाने के आसन से खड़े होकर उन्होंने अपनी-अपनी तलवार ऊपर उठाई नहीं कि यक्ष ने उन्हें कील दिया जिससे वे मुनिराज के आगे उसी मुद्रा में निश्चल खड़े रह गये ॥100॥<span id="101" /> महामुनि के विरुद्ध उपसर्ग करने की इच्छा रखने वाले वे दोनों दुष्ट उनकी दोनों ओर इस प्रकार खड़े थे मानो उनके अंगरक्षक ही हों ।।101।।<span id="102" /></p> | ||
<p>तदनंतर निर्मल प्रातःकाल के समय सूर्योदय होनेपर वे मुनिराज योग समाप्त कर एकांत स्थान से निकल बाहर मैदान में बैठे ॥102॥<span id="103" /><span id="104" /> उसी समय चतुर्विध संघ तथा शालिग्रामवासी लोग उन योगिराज के पास आये सो यह दृश्य देख आश्चर्यचकित हो बोले कि अरे ! ये कौन पापी हैं ? हाय-हाय! कष्ट पहुँचाने के लिए उद्यत इन पापियों को धिक्कार है । अरे! ये उपद्रव करने वाले तो वे ही आततायी अग्निभूति और वायुभूति हैं ॥103-104॥<span id="105" /> अग्निभूति और वायुभूति भी विचार करने लगे कि अहो ! महामुनि का यह कैसा उत्कृष्ट प्रभाव है कि जिन्होंने बल का दर्प रखने वाले हम लोगों को कीलकर स्थावर बना दिया ॥105॥<span id="106" /> इस अवस्था से छुटकारा होनेपर यदि हम जीवित रहेंगे तो इन उत्तम मुनिराज के दर्शन अवश्य करेंगे ॥106॥<span id="107" /></p> | <p>तदनंतर निर्मल प्रातःकाल के समय सूर्योदय होनेपर वे मुनिराज योग समाप्त कर एकांत स्थान से निकल बाहर मैदान में बैठे ॥102॥<span id="103" /><span id="104" /> उसी समय चतुर्विध संघ तथा शालिग्रामवासी लोग उन योगिराज के पास आये सो यह दृश्य देख आश्चर्यचकित हो बोले कि अरे ! ये कौन पापी हैं ? हाय-हाय! कष्ट पहुँचाने के लिए उद्यत इन पापियों को धिक्कार है । अरे! ये उपद्रव करने वाले तो वे ही आततायी अग्निभूति और वायुभूति हैं ॥103-104॥<span id="105" /> अग्निभूति और वायुभूति भी विचार करने लगे कि अहो ! महामुनि का यह कैसा उत्कृष्ट प्रभाव है कि जिन्होंने बल का दर्प रखने वाले हम लोगों को कीलकर स्थावर बना दिया ॥105॥<span id="106" /> इस अवस्था से छुटकारा होनेपर यदि हम जीवित रहेंगे तो इन उत्तम मुनिराज के दर्शन अवश्य करेंगे ॥106॥<span id="107" /></p> | ||
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<p>तदनंतर मुनिराज ने कहा कि हे कमललोचन ! सुंदर ! यक्ष ! जिनका चित्त मोह से अत्यंत जड़ हो रहा है ऐसे इन दोनों का दोष क्षमा कर दिया जाय ॥121॥<span id="122" /> तुझ पुण्यात्मा ने जिन-शासन के साथ वात्सल्य दिखलाया यह ठीक है किंतु हे भद्र ! मेरे निमित्त यह प्राणिवध करना उचित नहीं है ॥122॥<span id="123" /> तत्पश्चात् 'जैसी आप आज्ञा करें' यह कहकर यक्ष ने दोनों विप्र पुत्रों को छोड़ दिया । तदनंतर दोनों ही विप्र-पुत्र समाधान होकर भक्तिपूर्वक गुरु के चरण-मूल में पहुँचे ॥123।।<span id="124" /><span id="125" /> और दोनों ने ही हाथ जोड़ मस्तक से लगा प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया तथा साधु दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। परंतु साधु-संबंधी कठिन चर्या को ग्रहण करने के लिए उन्हें शक्तिरहित देख मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों सम्यग्दर्शन से विभूषित होकर अणुव्रत ग्रहण करो। आज्ञानुसार वे गृहस्थ धर्म के सुख में लीन विवेकी श्रावक हो गये ।।124-125।।<span id="126" /> इनके माता-पिता समीचीन श्रद्धा से रहित थे इसलिए मरकर धर्म के बिना संसार सागर में भ्रमण करते रहे ॥126॥<span id="127" /><span id="128" /> परंतु अग्निभूति और वायुभूति संदेह छोड़ जिनशासन की भावना से ओत-प्रोत हो गये थे, तथा हिंसादिक लौकिक कार्य उन्होंने विष के समान छोड़ दिये थे इसलिए वे मरकर उस सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुए जहाँ कि समस्त इंद्रियों और मन को आह्लादित करने वाला दिव्य महान् सुख उपलब्ध था ॥127-128।।।<span id="129" /> </p> | <p>तदनंतर मुनिराज ने कहा कि हे कमललोचन ! सुंदर ! यक्ष ! जिनका चित्त मोह से अत्यंत जड़ हो रहा है ऐसे इन दोनों का दोष क्षमा कर दिया जाय ॥121॥<span id="122" /> तुझ पुण्यात्मा ने जिन-शासन के साथ वात्सल्य दिखलाया यह ठीक है किंतु हे भद्र ! मेरे निमित्त यह प्राणिवध करना उचित नहीं है ॥122॥<span id="123" /> तत्पश्चात् 'जैसी आप आज्ञा करें' यह कहकर यक्ष ने दोनों विप्र पुत्रों को छोड़ दिया । तदनंतर दोनों ही विप्र-पुत्र समाधान होकर भक्तिपूर्वक गुरु के चरण-मूल में पहुँचे ॥123।।<span id="124" /><span id="125" /> और दोनों ने ही हाथ जोड़ मस्तक से लगा प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया तथा साधु दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। परंतु साधु-संबंधी कठिन चर्या को ग्रहण करने के लिए उन्हें शक्तिरहित देख मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों सम्यग्दर्शन से विभूषित होकर अणुव्रत ग्रहण करो। आज्ञानुसार वे गृहस्थ धर्म के सुख में लीन विवेकी श्रावक हो गये ।।124-125।।<span id="126" /> इनके माता-पिता समीचीन श्रद्धा से रहित थे इसलिए मरकर धर्म के बिना संसार सागर में भ्रमण करते रहे ॥126॥<span id="127" /><span id="128" /> परंतु अग्निभूति और वायुभूति संदेह छोड़ जिनशासन की भावना से ओत-प्रोत हो गये थे, तथा हिंसादिक लौकिक कार्य उन्होंने विष के समान छोड़ दिये थे इसलिए वे मरकर उस सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुए जहाँ कि समस्त इंद्रियों और मन को आह्लादित करने वाला दिव्य महान् सुख उपलब्ध था ॥127-128।।।<span id="129" /> </p> | ||
<p>तदनंतर वे दोनों अयोध्या आकर वहाँ के समुद्र सेठ की धारिणी नामक स्त्री के उदर से नेत्रों को आनंद देने वाले पुत्र हुए ॥129॥<span id="130" /> पूर्णभद्र और काश्चनभद्र उनके नाम थे। ये दोनों भाई सुख से समय व्यतीत करते थे। तदनंतर पुनः श्रावक धर्म धारणकर उसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुए ॥130॥<span id="131" /><span id="132" /> अबकी बार वे दोनों, स्वर्ग से च्युत हो अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ और उनकी रानी अमरावती के इस संसार में मधु, कैटभ नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुए। ये दोनों भाई अजेय, सुंदर तथा यमराज के समान विभ्रम को धारण करने वाले थे ॥131-132।।<span id="133" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिस प्रकार विद्वान् लोग अपनी बुद्धि को अपने आधीन कर लेते हैं उसी प्रकार इन दोनों ने सामंतों से भरी हुई इस पृथिवी को आक्रमण कर अपने आधीन कर लिया था ॥133।।<span id="134" /> किंतु एक भीम नाम का महाबलवान् राजा उनकी आज्ञा नहीं मानता था। जिस प्रकार चमरेंद्र नंदन वन को पाकर प्रफुल्लित होता है उसी प्रकार वह पहाड़ी दुर्ग का आश्रय कर प्रफुल्लित था ॥134॥<span id="135" /> राजा मधु के एक भक्त सामंत वीरसेन ने उसके पास इस आशय का पत्र भी भेजा कि हे नाथ ! इधर भीमरूपी अग्नि ने पृथिवी के समस्त घर उजाड़ कर दिये हैं ॥135॥<span id="136" /></p> | <p>तदनंतर वे दोनों अयोध्या आकर वहाँ के समुद्र सेठ की धारिणी नामक स्त्री के उदर से नेत्रों को आनंद देने वाले पुत्र हुए ॥129॥<span id="130" /> पूर्णभद्र और काश्चनभद्र उनके नाम थे। ये दोनों भाई सुख से समय व्यतीत करते थे। तदनंतर पुनः श्रावक धर्म धारणकर उसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुए ॥130॥<span id="131" /><span id="132" /> अबकी बार वे दोनों, स्वर्ग से च्युत हो अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ और उनकी रानी अमरावती के इस संसार में मधु, कैटभ नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुए। ये दोनों भाई अजेय, सुंदर तथा यमराज के समान विभ्रम को धारण करने वाले थे ॥131-132।।<span id="133" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिस प्रकार विद्वान् लोग अपनी बुद्धि को अपने आधीन कर लेते हैं उसी प्रकार इन दोनों ने सामंतों से भरी हुई इस पृथिवी को आक्रमण कर अपने आधीन कर लिया था ॥133।।<span id="134" /> किंतु एक भीम नाम का महाबलवान् राजा उनकी आज्ञा नहीं मानता था। जिस प्रकार चमरेंद्र नंदन वन को पाकर प्रफुल्लित होता है उसी प्रकार वह पहाड़ी दुर्ग का आश्रय कर प्रफुल्लित था ॥134॥<span id="135" /> राजा मधु के एक भक्त सामंत वीरसेन ने उसके पास इस आशय का पत्र भी भेजा कि हे नाथ ! इधर भीमरूपी अग्नि ने पृथिवी के समस्त घर उजाड़ कर दिये हैं ॥135॥<span id="136" /></p> | ||
<p>तदनंतर उसी क्षण क्रोध को प्राप्त हुआ राजा मधु, अपनी सब सेनाओं के समूह तथा योद्धाओं से परिवृत हो राजा भीम के प्रति चल पड़ा ॥136।।<span id="137" /> क्रम-क्रम से चलता हुआ वह मार्गवश उस न्यग्रोध नगर में पहुँचा जहाँ कि उसका भक्त वीरसेन रहता था। राजा मधु ने | <p>तदनंतर उसी क्षण क्रोध को प्राप्त हुआ राजा मधु, अपनी सब सेनाओं के समूह तथा योद्धाओं से परिवृत हो राजा भीम के प्रति चल पड़ा ॥136।।<span id="137" /> क्रम-क्रम से चलता हुआ वह मार्गवश उस न्यग्रोध नगर में पहुँचा जहाँ कि उसका भक्त वीरसेन रहता था। राजा मधु ने बड़े प्रेम के साथ उसमें प्रवेश किया ॥137।।<span id="138" /><span id="139" /> वहाँ जाकर जगत के चंद्र स्वरूप राजा मधु ने वीरसेन की चंद्राभा नाम की चंद्रमुखी भार्या देखी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि इसके साथ विंध्याचल के वन में निवास करना अच्छा है । इस चंद्राभा के बिना मेरा राज्य सार्वभूमिक नहीं है― अपूर्ण है ।।138-139॥<span id="140" /> ऐसा विचार करता हुआ राजा उस समय आगे चला गया और युद्ध में भीम को जीतकर अन्य शत्रुओं को भी उसने वश किया। परंतु यह सब करते हुए भी उसका मन उसी चंद्राभा में लगा रहा ॥140॥<span id="141" /> फलस्वरूप उसने अयोध्या आकर राजाओं को अपनी-अपनी पत्नियों के सहित बुलाया और उन्हें बहुत भारी भेंट देकर सम्मान के साथ विदा कर दिया ॥141॥<span id="142" /> राजा वीरसेन को भी बुलाया सो वह अपनी पत्नी के साथ शीघ्र ही गया और अयोध्या के बाहर बगीचे में सरयू नदी के तट पर ठहर गया ॥142।।<span id="143" /><span id="144" /> तदनंतर सन्मान के साथ बुलाये जाने पर उसने अपनी रानी के साथ मधु के भवन में प्रवेश किया। कुछ समय बाद उसने विशेष भेंट के द्वारा सन्मान कर वीरसेन को तो विदा कर दिया और चंद्राभा को अपने अंतःपुर में भेज दिया परंतु भोला वीरसेन अब भी यह नहीं जान पाया कि हमारी सुंदरी प्रिया यहाँ रोक ली गई है ॥143-144॥<span id="145" /> </p> | ||
<p>तदनंतर महादेवी के अभिषेक द्वारा, अभिषेक को प्राप्त हुई चंद्राभा सब देवियों के ऊपर स्थान को प्राप्त हुई। भावार्थ― सब देवियों में प्रधान देवी बन गई ।।145।।<span id="146" /> भोगों से जिसका मन अंधा हो रहा था ऐसा राजा मधु, लक्ष्मी के समान उस चंद्राभा के साथ सुखरूपी सागर में निमग्न होता हुआ अपने आपको इंद्र के समान मानने लगा ॥146॥<span id="147" /></p> | <p>तदनंतर महादेवी के अभिषेक द्वारा, अभिषेक को प्राप्त हुई चंद्राभा सब देवियों के ऊपर स्थान को प्राप्त हुई। भावार्थ― सब देवियों में प्रधान देवी बन गई ।।145।।<span id="146" /> भोगों से जिसका मन अंधा हो रहा था ऐसा राजा मधु, लक्ष्मी के समान उस चंद्राभा के साथ सुखरूपी सागर में निमग्न होता हुआ अपने आपको इंद्र के समान मानने लगा ॥146॥<span id="147" /></p> | ||
<p>इधर राजा वीरसेन को जब पता चला कि हमारी प्रिया हरी गई है तो वह पागल हो गया और किसी भी स्थान में रति को प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगा ।।147।।<span id="148" /> अंत में मूर्ख मनुष्यों को आनंद देने वाला राजा वीरसेन किसी मंडव नामक तापस का शिष्य हो गया और मूर्ख मनुष्यों को आश्चर्य में डालता हुआ पंचाग्नि तप तपने लगा ॥148।।<span id="149" /><span id="150" /></p> | <p>इधर राजा वीरसेन को जब पता चला कि हमारी प्रिया हरी गई है तो वह पागल हो गया और किसी भी स्थान में रति को प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगा ।।147।।<span id="148" /> अंत में मूर्ख मनुष्यों को आनंद देने वाला राजा वीरसेन किसी मंडव नामक तापस का शिष्य हो गया और मूर्ख मनुष्यों को आश्चर्य में डालता हुआ पंचाग्नि तप तपने लगा ॥148।।<span id="149" /><span id="150" /></p> |
Latest revision as of 18:33, 24 November 2023
एक सौ नवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिसकी चेष्टाएँ समस्त संसार में प्रसिद्धि पा चुकी थीं ऐसी सीता पति तथा पुत्र का परित्याग कर तथा दीक्षित हो जो कुछ करती थी वह तेरे लिए कहता हूँ सो सुन ॥ 1 ॥ उस समय यहाँ उन श्रीमान् सकलभूषण केवली का विहार हो रहा था जो कि दिव्यज्ञान के द्वारा लोक-अलोक को जानते थे ॥2॥ जिन्होंने समस्त अयोध्या को गृहाश्रम का पालन करने में निपुण, संतोष से उत्तम अवस्था को प्राप्त एवं समीचीन धर्म से सुशोभित किया था ॥3॥ उन भगवान् के वचन में स्थित समस्त प्रजा ऐसी सुशोभित होती थी मानो साम्राज्य से युक्त राजा ही उसका पालन कर रहा हो ॥4॥ उस समय के मनुष्य समीचीन धर्म के उत्सव करने वाले, महाभ्युदय से संपन्न, सम्यग्ज्ञान से युक्त एवं साधुओं की पूजा करने में तत्पर रहते थे।।5।। मुनिसुव्रत भगवान का वह संसारापहारी तीर्थ उस तरह अत्यधिक सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि अरनाथ और मल्लिनाथ जिनेंद्र का अंतर काल सुशोभित होता था ॥6॥
तदनंतर जो सीता देवांगनाओं की भी सुंदरता को जीतती थी वह तप से सूखकर ऐसी हो गई जैसी जली हुई माधवी लता हो ॥7॥ वह सदा महासंवेग से सहित तथा खोटे भावों से दूर रहती थी तथा स्त्री पर्याय को सदा अत्यंत निंदनीय समझती रहती थी ॥8॥ पृथिवी की धूलि से मलिन वस्त्र से जिसका वक्षःस्थल तथा शिर के बाल सदा आच्छादित रहते थे, जो स्नान के अभाव में पसीना से उत्पन्न मैल रूपी कंचुक को धारण कर रही थी, जो चार दिन, एक पक्ष तथा ऋतुकाल आदि के बाद शास्त्रोक्त विधि से पारणा करती थी, शीलव्रत और मूलगुणों के पालन करने में तत्पर रहती थी, राग-द्वेष से रहित थी, अध्यात्म के चिंतन में तत्पर रहती थी, अत्यंत शांत थी, जिसने अपने आपको अपने मन के अधीन कर रक्खा था, जो अन्य मनुष्यों के लिए दुःसह, अत्यंत कठिन तप करती थी, जिसका समस्त शरीर मांस से रहित था, जिसकी हड्डी और आँतों का पंजर प्रकट दिख रहा था, जो पार्थिव तत्त्व से रहित लकड़ी आदि से बनी प्रतिमा के समान जान पड़ती थी, जिसके कपोल भीतर घुस गये थे, जो केवल त्वचा से आच्छादित थी, जिसका भ्रकुटितल ऊँचा उठा हुआ था तथा उससे जो सूखी नदी के समान जान पड़ती थी। युग प्रमाण पृथिवी पर जो अपनी सौम्यदृष्टि रखकर चलती थी, जो तप के कारण शरीर की रक्षा के लिए विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करती थी, जो उत्तम चेष्टा से युक्त थी, तथा तप के द्वारा उस प्रकार अन्यथा भाव को प्राप्त हो गई थी कि विहार के समय उसे अपने पराये लोग भी नहीं पहिचान पाते थे ॥9-15॥ ऐसी उस सीता को देखकर लोग सदा उसी की कथा करते रहते थे। जो लोग उसे एक बार देखकर पुनः देखते थे वे उसे 'यह वही है। इस प्रकार नहीं पहिचान पाते थे ॥16॥ इस प्रकार बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप कर तथा तैंतीस दिन की उत्तम सल्लेखना धारणकर उपभुक्त विस्तर के समान शरीर को छोड़कर वह आरण-अच्युत युगल में आरूढ़ हो प्रतींद्र पद को प्राप्त हुई ॥17-18॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो! जिन-शासन में धर्म का ऐसा माहात्म्य देखो कि यह जीव स्त्री पर्याय को छोड़ देवों का स्वामी पुरुष हो गया ॥19॥
जहाँ मणियों की कांति से आकाश देदीप्यमान हो रहा था तथा जो सुवर्णादि महाद्रव्यों के कारण विचित्र एवं परम आश्चर्य उत्पन्न करने वाला था ऐसे उस अच्युत स्वर्ग में वह अपने परिवार से युक्त सुमेरु के शिखर के समान विमान में परम ऐश्वर्य से संपन्न प्रतींद्र पद को प्राप्त हुई ॥20-21॥ वहाँ लाखों देवियों के नेत्रों का आधारभूत वह प्रतींद्र, तारागणों के परिवार से युक्त चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहा था ।।22।। इस प्रकार राजा श्रेणिक ने श्रीगौतम गणधर के मुखारविंद से अन्य उत्तमोत्तम चरित्र तथा पापों को नष्ट करने वाले अनेक पुराण सुने ॥23॥
तदनंतर राजा श्रेणिक ने कहा कि उस समय आरणाच्युत कल्प में देवों का ऐसा कौन अधिपति अर्थात् इंद्र सुशोभित था कि सीतेंद्र भी तपोबल से जिसका प्रतिस्पर्धी था ॥24॥ इसके उत्तर में गणधर भगवान् ने कहा कि उस समय वह मधु का जीव आरणाच्युत स्वर्ग का इंद्र था, जिसका भाई कैटभ था तथा जिसने बाईस सागर तक इंद्र के महान् ऐश्वर्य का उपभोग किया था ॥25।। अनुक्रम से कुछ अधिक चौंसठ हजार वर्ष बीत जाने पर अवशिष्ट पुण्य के प्रभाव से वे मधु और कैटभ के जीव भरतक्षेत्र की द्वारिका नगरी में महाराज श्रीकृष्ण के प्रद्युम्न तथा शांब नाम के पुत्र हुए ॥26-27॥ इस तरह रामायण और महाभारत का अंतर कुछ अधिक चौंसठ हजार वर्ष जानना चाहिए ॥28॥ अरिष्टनेमि तीर्थंकर के तीर्थ में मधु का जीव स्वर्ग से च्युत होकर इसी भरत क्षेत्र में श्रीकृष्ण की रुक्मिणी नामक स्त्री से प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ ॥29॥
यह सुनकर राजा श्रेणिक ने गौतम स्वामी से कहा कि हे नाथ ! जिस प्रकार धनवान् मनुष्य धन के विषय में तृप्ति को प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार मैं भी आपके वचन रूपी अमृत के विषय में तृप्ति को प्राप्त नहीं हो रहा हूँ ॥30।। हे भगवन् ! आप मुझे अच्युतेंद्र मधु का पूरा चरित्र कहिए। मैं सुनने की इच्छा करता हूँ, मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ॥31॥ इसी प्रकार हे ध्यान में तत्पर गणराज ! मधु के भाई कैटभ का भी पूर्ण चरित कहिए क्योंकि आपको वह अच्छी तरह विदित है ॥32॥ उसने पूर्वभव में कौन सा उत्तम कार्य किया था तथा तीनों जगत् में श्रेष्ठ अतिशय दुर्लभ रत्नत्रय की प्राप्ति उसे किस प्रकार हुई थी ? ॥33॥ हे भगवन् ! आपकी यह वाणी क्रम-क्रम से प्रकट होती है, और मेरी बुद्धि भी क्रम-क्रम से पदार्थ को ग्रहण करती है तथा मेरा चित्त भी अनुक्रम से अत्यंत उत्सुक हो रहा है इस तरह सब प्रकरण उचित ही जान पड़ता है ॥34॥
तदनंतर गौतम गणधर कहने लगे कि जो सर्व प्रकार के धान्य से संपन्न है, जहाँ चारों वर्ण के लोग अत्यंत प्रसन्न हैं, जो धर्म, अर्थ और काम से सहित है, सुंदर-सुंदर चैत्यालयों से युक्त है, पुर ग्राम तथा खानों आदि से व्याप्त है, नदियों और बाग-बगीचों से अत्यंत सुंदर है, मुनियों के संघ से युक्त है ऐसे इस मगध नामक देश में उस समय नित्योदित नाम का बड़ा राजा था। उसी देश में नगर की समता करने वाला एक शालिग्राम नाम का गाँव था ॥35-37॥ उस ग्राम में एक सोमदेव नाम का ब्राह्मण था। अग्निला उसकी स्त्री थी और उन दोनों के अग्निभूति तथा वायुभूति नाम के दो पुत्र थे ॥38॥ वे दोनों ही पुत्र संध्या-वंदनादि षट कर्मों की विधि में निपुण, वेद-शास्त्र के पारंगत, और 'हमसे बढ़ कर दूसरा कौन है' इस प्रकार पांडित्य के अभिमान में चूर थे ॥39॥ अभिमान रूपी महादाह के कारण जिन्हें अत्यधिक उन्माद उत्पन्न हुआ था ऐसे वे दोनों भाई ‘सदा भोग ही सेवन करने योग्य हैं।‘ यह सोच कर धर्म से विमुख रहते थे ॥40॥
अथानंतर किसी समय अनेक साधुओं के साथ इस पृथ्वी पर विहार करते हुए नंदिवर्धन नामक मुनिराज उस शालिग्राम में आये ।।4।। वे मुनि अवधिज्ञान से समस्त जगत् को देखते थे तथा आकर गाँव के बाहर मुनियों के योग्य उद्यान में ठहर गये ॥42॥ तदनंतर उत्कृष्ट आत्मा के धारक मुनियों का आगमन सुन शालिग्राम के सब लोग वैभव के साथ बाहर निकले।॥43॥ तत्पश्चात् अग्निभूति और वायुभूति ने उन नगरवासी लोगों को जाते देख किसी से पूछा कि ये गाँव के लोग परस्पर एक दूसरे से मिल कर समुदाय रूप में कहाँ जा रहे हैं ? ॥44॥ तब उसने उन दोनों से कहा कि एक निर्वस्त्र दिगंबर मुनि आये हुए हैं । उन्हीं की वंदना करने के लिए वे सब लोग जा रहे हैं ॥45॥ तदनंतर क्रोध से भरा अग्निभूति, भाई के साथ निकल कर बाहर आया और कहने लगा कि मैं समस्त मुनियों को वाद में अभी जीतता हूँ ॥46॥ तत्पश्चात् पास जाकर उसने ताराओं के बीच में उदित चंद्रमा के समान मुनियों के बीच में बैठे हुए उनके स्वामी नंदिवर्द्धन मुनि को देखा ॥47॥ तदनंतर सात्यकि नामक प्रधान मुनि ने उनसे कहा कि हे विप्रो ! आओ और गुरु से कुछ पूछो ! ॥48।। तब अग्निभूति ने हंसते हुए कहा कि हमें आप लोगों से क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तर में मुनि ने कहा कि यदि आप लोग यहाँ आ गये हैं तो इसमें दोष नहीं है ॥49॥ उसी समय एक ब्राह्मण ने कहा कि ये दोनों इन मुनियों को वाद में जीतने के लिए आये हैं इस समय दूर क्यों बैठे हैं ॥50॥ तदनंतर 'अच्छा, ऐसा ही सही' इस प्रकार कहते हुए क्रोध से युक्त दोनों ब्राह्मण, मुनिराज के सामने बैठ गये और बड़े अहंकार में चूर होकर बार-बार कहने लगे कि बोल क्या जानता है ? बोल क्या जानता है ? ॥51॥ तदनंतर अवधिज्ञानी मुनिराज ने कहा कि आप दोनों कहाँ से आ रहे हैं ? इसके उत्तर में विप्र-पुत्र बोले कि क्या तुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि हम दोनों शालिग्राम से आये हैं ॥52॥ तदनंतर मुनिराज ने कहा कि आप शालिग्राम से आये हैं यह तो मैं जानता हूँ । मेरे पूछने का अभिप्राय यह है कि इस अनादि संसार रूपी वन में घूमते हुए आप इस समय किस पर्याय से आये हैं ? ॥53॥ तब उन्होंने कहा कि इसे क्या और भी कोई जानता है या मैं ही जानूँ। तत्पश्चात् मुनिराज ने कहा कि अच्छा विप्रो ! सुनो मैं कहता हूँ ॥54॥
इस गाँव की सीमा के पास वन की भूमि में दो शृगाल साथ-साथ रहते थे। वे दोनों ही परस्पर एक दूसरे से अधिक प्रेम रखते थे तथा दोनों ही विकृत मुख के धारक थे ॥55।। इसी गाँव में एक प्रामरक नाम का पुराना किसान रहता था। वह एक दिन अपने खेत पर गया । जब सूर्यास्त का समय आया तब वह भूख से पीड़ित होकर घर गया और अभी वापिस आता हूँ यह सोचकर अपने उपकरण खेत में ही छोड़ आया ॥56-57।। वह घर आया नहीं कि इतने में अकस्मात् उठे तथा अंजनगिरि के समान काले बादल पृथिवीतल को डुबाते हुए रात-दिन बरसने लगे। वे मेघ सात दिन में शांत हुए अर्थात् सात दिन तक झड़ी लगी रही। ऊपर जिन दो शृंगालों का उल्लेख कर आये हैं वे भूख से पीड़ित हो रात्रि के घनघोर अंधकार में वन से बाहर निकले ॥58-59॥
अथानंतर वर्षा से भीगे और कीचड़ तथा पत्थरों में पड़े वे सब उपकरण जिन्हें कि किसान छोड़ आया था दोनों शृंगालों ने खा लिये। खाते ही के साथ उनके उदर में भारी पीड़ा उठी । अंत में वर्षा और वायु से पीड़ित दोनों शृगाल अकामनिर्जरा कर मरे और सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र हुए ॥60-61॥ तदनंतर वह प्रामरक किसान अपने उपकरण ढूँढ़ता हुआ खेत में पहुँचा तो वहाँ उसने इन मरे हुए दोनों शृंगालों को देखा। किसान उन मृतक शृगालों को लेकर घर गया और वहाँ उसने उनकी मशकें बनाई ॥62।। वह प्रामरक भी जल्दी ही मर गया और मरकर अपने ही पुत्र के पुत्र हुआ। उस पुत्र को जाति-स्मरण हो गया जिससे वह गूंगा बनकर रहने लगा ॥63॥ 'मैं अपने पूर्वभव के पुत्र को पिता के स्थान में समझ कर कैसे बोलूँ तथा पूर्वभव की पुत्र-वधू को माता के स्थान में जानकर कैसे बोलूं' यह विचार कर ही वह मौन को प्राप्त हुआ है ॥64॥ यदि तुम्हें इस बात का ठीक ठीक विश्वास नहीं है तो वह ब्राह्मण मेरे दर्शन करने के लिए यहाँ आया है तथा अपने परिवार के बीच में बैठा है ॥65।। मुनिराज ने उसे बुलाकर कहा कि तू वही प्रामरक किसान है और इस समय अपने पुत्र का ही पुत्र हुआ है ॥66॥ यह संसार का स्वभाव है। जिस प्रकार रंगभूमि के मध्य नट राजा होकर दास बन जाता है और दास प्रभुता को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पिता भी पुत्रपने को प्राप्त हो जाता है, और पुत्र पितृ पर्याय को प्राप्त हो जाता है। माता पत्नी हो जाती है और पत्नी माता बन जाती है ॥67-68॥ यह संसार अरहट के घटीयंत्र के समान है । इसमें जीव कर्म के वशीभूत हो ऊपर-नीची अवस्था को प्राप्त होता रहता है ॥69॥ इसलिए हे वत्स ! संसार दशा को अत्यंत निंदित जानकर इस समय गूंगापन छोड़ और वचनों की उत्तम क्रिया कर अर्थात् प्रशस्त वचन बोल ॥70॥
मुनिराज के इतना कहते ही वह अत्यंत हर्षित होता हुआ उठा, वह ऐसा प्रसन्न हुआ मानो उसका ज्वर उतर गया हो, उसके शरीर में सघन रोमांच निकल आये, तथा उसके नेत्र और मुख हर्ष से फूल उठे ॥71॥ भूत से आक्रांत हुए के समान उसने मुनि की प्रदक्षिणाएँ दीं। तदनंतर कटे वृक्ष के समान मस्तक के बल उनके चरणों में गिर पड़ा ॥72॥ उसने आश्चर्यचकित हो जोर से कहा कि हे भगवन् , आप सर्वज्ञ हैं। यहाँ बैठे-बैठे ही आप समस्त लोक की संपूर्ण स्थिति को देखते रहते हैं ॥73॥ मैं इस भयंकर संसार-सागर में डूब रहा था सो आपने प्राण्यनुकंपा से हे नाथ ! मेरे लिए रत्नत्रय रूप बोधि का दर्शन कराया है॥74।। आप दिव्यबुद्धि हैं अत: आपने मेरा मनोगत भाव जान लिया। इस प्रकार कहकर उस प्रामरक के जीव ब्राह्मण ने रोते हुए भाई. बांधवों को छोड़कर दीक्षा धारण कर ली ॥75।। प्रामरक का यह ऐसा व्याख्यान सन लोग मुनि तथा श्रावक हो गये ॥76॥ सब लोगों ने उसके घर जाकर पूर्वोक्त शृंगालों के शरीर से बनी मशकें देखीं जिससे सब ओर कलकल तथा आश्चर्य छा गया ॥77॥
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! लोगों ने यह कहकर उन ब्राह्मणों की बहुत हँसी की कि ये वे ही पशुओं का मांस खाने वाले शृगाल ब्राह्मण पर्याय को प्राप्त हुए हैं ॥78॥ 'सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है' इस प्रकार के ब्रह्माद्वैतवाद में मूढ एवं पशुओं की हिंसा में आसक्त रहने वाले इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक समस्त प्रजा को लूट डाला है ।।79॥ तपरूपी धन से युक्त ये शुद्ध मुनि ब्राह्मणों से अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि यथार्थ में ब्राह्मण वे ही कहलाते हैं जो अहिंसा व्रत को धारण करते हैं ॥80॥ जो महाव्रत रूपी लंबी चोटी धारण करते हैं, जो क्षमारूपी यज्ञोपवीत से सहित हैं, जो ध्यानरूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शांत हैं तथा मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर हैं वे ही ब्राह्मण कहलाते हैं ॥81॥ इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त हैं तथा जो निरंतर कुशील में लीन रहते हैं वे केवल यह कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं परंतु क्रिया से ब्राह्मण नहीं हैं ।।82॥ जिस प्रकार कितने ही लोग सिंह, देव अथवा अग्नि नाम के धारक हैं उसी प्रकार व्रत से भ्रष्ट रहने वाले ये लोग भी ब्राह्मण नाम के धारक हैं इनमें वास्तविक ब्राह्मणत्व कुछ भी नहीं है ॥83॥ जो ऋषि, संयत, धीर, क्षांत, दांत और जितेंद्रिय हैं ऐसे ये मुनि ही धन्य हैं तथा वास्तविक ब्राह्मण हैं ।।84॥ जो भद्रपरिणामी हैं, संदेह से रहित हैं, ऐश्वर्य संपन्न हैं, अनेक तपस्वियों से सहित हैं, यति हैं और वीर हैं ऐसे मुनि ही लोकोत्तर गुणों के धारण करने वाले हैं ॥85॥ जो परिग्रह को संसार का कारण समझ उसे छोड़ मुक्ति को प्राप्त करते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं सो यथार्थ में मोहरहित निर्ग्रंथ मुनि ही परिव्राजक हैं ऐसा जानना चाहिए । ॥86॥ चूंकि ये मुनि क्षीणराग तथा क्षमा से सहित होकर तप के द्वारा अपने आपको कृश करते हैं, पाप को नष्ट करते हैं इसलिए क्षपण कहे गये हैं ॥87।। ये सब यमी, वीतराग, निर्मुक्त शरीर, निरंबर, योगी, ध्यानी, ज्ञानी, निःस्पृह और बुध हैं अतः ये ही वंदना करने योग्य हैं ।।88।। चूंकि ये निर्वाण को सिद्ध करते हैं इसलिए साधु कहलाते हैं, और उत्तम आचार का स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरों को भी आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहे जाते हैं ।।89॥ ये गृहत्यागी के गुणों से सहित हैं तथा शुद्ध भिक्षा से भोजन करते हैं इसलिए भिक्षुक कहलाते हैं और उज्ज्वल कार्य करने वाले हैं, अथवा कर्मों का नष्ट करने वाले हैं तथा परम निर्दोष श्रम में वर्तमान हैं इसलिए श्रमण कहे जाते हैं ।।90॥ इस प्रकार साधुओं की स्तुति और अपनी निंदा सुनकर वे अहंकारी विप्रपुत्र लज्जित, अपमानित तथा निष्प्रभ हो एकांत में जा बैठे ॥91॥
अथानंतर जो अपने शृगालादि पूर्व भवों के उल्लेख से अत्यंत दुःखी थे ऐसे दोनों पुत्र सूर्य के अस्त होने पर खोज करते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कि वे भगवान् नंदिवर्धन मुनींद्र विराजमान थे ॥92॥ वे मुनींद्र संघ छोड़, निःस्पृह हो वन के एकांत भाग में स्थित उस श्मशान प्रदेश में विद्यमान थे कि जो अत्यधिक गर्तों से युक्त था, नरक कालों से परिपूर्ण था, नाना प्रकार की चिताओं से व्याप्त था, मांसभोजी वन्य पशुओं के शब्द से व्याप्त था, पिशाच और सर्पों से आकीर्ण था, सुई के द्वारा भेदने योग्य― गाढ़ अंधकार से आच्छादित था, और जिसका देखना तीव्र घृणा उत्पन्न करने वाला था । ऐसे श्मशान में जीव-जंतु रहित शिलातल पर प्रतिमायोग से विराजमान उन मुनिराज को उन दोनों पापियों ने देखा ॥93-95॥ उन्हें देखते ही जिन्होंने तलवार खींचकर हाथ में ले ली थी तथा जो अत्यंत कुपित हो रहे थे ऐसे उन ब्राह्मणों ने एक साथ कहा कि लोग आकर तेरे प्राणों की रक्षा करें । अरे श्रमण ! अब तू कहाँ जायगा ? ॥96॥ हम ब्राह्मण पृथिवी में श्रेष्ठ हैं तथा प्रत्यक्ष देवता स्वरूप हैं और तू महादोषों से भरा निर्लज्ज है फिर भी हम लोगों को तू 'शृगाल थे’ ऐसा कहता है ॥97॥
तदनंतर जो अत्यंत तीव्र क्रोध से युक्त थे, दुष्ट थे, लाल-लाल नेत्रों के धारक थे, बिना विचारे काम करने वाले थे और दया से रहित थे ऐसे उन दोनों ब्राह्मणों को यक्ष ने देखा ॥98॥ उन्हें देखकर वह देव विचार करने लगा कि अहो ! देखो; ये ऐसे निर्दोष, शरीर से निःस्पृह और ध्यान में तत्पर मुनि को मारने के लिए उद्यत हैं ॥99॥ तदनंतर तलवार चलाने के आसन से खड़े होकर उन्होंने अपनी-अपनी तलवार ऊपर उठाई नहीं कि यक्ष ने उन्हें कील दिया जिससे वे मुनिराज के आगे उसी मुद्रा में निश्चल खड़े रह गये ॥100॥ महामुनि के विरुद्ध उपसर्ग करने की इच्छा रखने वाले वे दोनों दुष्ट उनकी दोनों ओर इस प्रकार खड़े थे मानो उनके अंगरक्षक ही हों ।।101।।
तदनंतर निर्मल प्रातःकाल के समय सूर्योदय होनेपर वे मुनिराज योग समाप्त कर एकांत स्थान से निकल बाहर मैदान में बैठे ॥102॥ उसी समय चतुर्विध संघ तथा शालिग्रामवासी लोग उन योगिराज के पास आये सो यह दृश्य देख आश्चर्यचकित हो बोले कि अरे ! ये कौन पापी हैं ? हाय-हाय! कष्ट पहुँचाने के लिए उद्यत इन पापियों को धिक्कार है । अरे! ये उपद्रव करने वाले तो वे ही आततायी अग्निभूति और वायुभूति हैं ॥103-104॥ अग्निभूति और वायुभूति भी विचार करने लगे कि अहो ! महामुनि का यह कैसा उत्कृष्ट प्रभाव है कि जिन्होंने बल का दर्प रखने वाले हम लोगों को कीलकर स्थावर बना दिया ॥105॥ इस अवस्था से छुटकारा होनेपर यदि हम जीवित रहेंगे तो इन उत्तम मुनिराज के दर्शन अवश्य करेंगे ॥106॥
इसी बीच में घबड़ाया हुआ सोमदेव अपनी अग्निला स्त्री के साथ वहाँ आ पहुँचा और उन मुनिराज को प्रसन्न करने लगा ॥107॥ पैर दबाने में तत्पर दोनों ही स्त्री पुरुष, बार-बार प्रणाम करके तथा अनेक मीठे वचन कहकर उनकी सेवा करने लगे ॥108॥ उन्होंने कहा कि हे देव ! ये मेरे दुष्ट पुत्र जीवित रहें, क्रोध छोड़िए, हे नाथ ! हम सब भाई-बांधवों सहित आपके आज्ञाकारी हैं ॥109॥
इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा कि मुनियों को क्या क्रोध है जो तुम यह कह रहे हो। हम तो सबके ऊपर दयासहित हैं तथा मित्र शत्रु भाई बांधव आदि सब हमारे लिए समान हैं ॥110।। तदनंतर जिसके नेत्र अत्यंत लाल थे ऐसा यक्ष अत्यधिक गंभीर स्वर में बोला कि यह कार्य इन गुरु महाराज का है ऐसा जनसमूह के बीच नहीं कहना चाहिए ॥111।। क्योंकि जो मनुष्य साधुओं को देखकर उनके प्रति घृणा करते हैं वे शीघ्र ही अनर्थ को प्राप्त होते हैं। दुष्ट मनुष्य अपनी दुष्टता तो देखते नहीं और साधुओं पर दोष लगाते हैं ॥112॥ जिस प्रकार दर्पण में अपने आपको देखता हुआ कोई मनुष्य मुख को जैसा करता है उसे अवश्य ही वैसा देखता है ॥113।। उसी प्रकार साधु को देखकर सामने जाना, खड़े होना आदि क्रियाओं के करने में उद्यत मनुष्य जैसा भाव करता है वैसा ही फल पाता है ॥114॥ जो मुनि की हँसी करता है वह उसके बदले रोना प्राप्त करता है । जो उनके प्रति कठोर शब्द कहता है वह उसके बदले कलह प्राप्त करता है, जो मुनि को मारता है वह उसके बदले मरण को प्राप्त होता है, जो उनके प्रति विद्वेष करता है वह उसके बदले पाप प्राप्त करता है ॥115॥ इस प्रकार साधु के विषय में किये हुए निंदनीय कार्य से उसका करने वाला वैसे ही कार्य के साथ समागम प्राप्त करता है ।।116॥ हे विप्र ! तेरे ये पुत्र अपने ही द्वारा संचित दोष और अपने ही द्वारा कृत कर्मों से प्रेरित होते हुए मेरे द्वारा कीले गये हैं साधु महाराज के द्वारा नहीं ॥117॥ जो वेद के अभिमान से जल रहे हैं, अत्यंत कठिन हैं, निंदनीय क्रिया का आचरण करने वाले हैं तथा संयमी साधु की हिंसा करने वाले है ऐसे तेरे ये पुत्र मृत्यु को प्राप्त हों इसमें क्या हानि है ? ।।118॥ हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये हुए ब्राह्मण, इस प्रकार कहते हुए, तीव्र क्रोधयुक्त तथा शत्रु भयदायी यक्ष और मुनिराज― दोनों को प्रसन्न करने लगा ॥119॥ जिसने अपनी भुजा ऊपर उठाकर रक्खी थी, जो अत्यधिक चिल्लाता था, अपनी तथा अपने पुत्रों की निंदा करता था, और अपनी छाती पीट रहा था ऐसा विप्र अग्निला के साथ अत्यंत पीड़ित हो रहा था ॥120॥
तदनंतर मुनिराज ने कहा कि हे कमललोचन ! सुंदर ! यक्ष ! जिनका चित्त मोह से अत्यंत जड़ हो रहा है ऐसे इन दोनों का दोष क्षमा कर दिया जाय ॥121॥ तुझ पुण्यात्मा ने जिन-शासन के साथ वात्सल्य दिखलाया यह ठीक है किंतु हे भद्र ! मेरे निमित्त यह प्राणिवध करना उचित नहीं है ॥122॥ तत्पश्चात् 'जैसी आप आज्ञा करें' यह कहकर यक्ष ने दोनों विप्र पुत्रों को छोड़ दिया । तदनंतर दोनों ही विप्र-पुत्र समाधान होकर भक्तिपूर्वक गुरु के चरण-मूल में पहुँचे ॥123।। और दोनों ने ही हाथ जोड़ मस्तक से लगा प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया तथा साधु दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। परंतु साधु-संबंधी कठिन चर्या को ग्रहण करने के लिए उन्हें शक्तिरहित देख मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों सम्यग्दर्शन से विभूषित होकर अणुव्रत ग्रहण करो। आज्ञानुसार वे गृहस्थ धर्म के सुख में लीन विवेकी श्रावक हो गये ।।124-125।। इनके माता-पिता समीचीन श्रद्धा से रहित थे इसलिए मरकर धर्म के बिना संसार सागर में भ्रमण करते रहे ॥126॥ परंतु अग्निभूति और वायुभूति संदेह छोड़ जिनशासन की भावना से ओत-प्रोत हो गये थे, तथा हिंसादिक लौकिक कार्य उन्होंने विष के समान छोड़ दिये थे इसलिए वे मरकर उस सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुए जहाँ कि समस्त इंद्रियों और मन को आह्लादित करने वाला दिव्य महान् सुख उपलब्ध था ॥127-128।।।
तदनंतर वे दोनों अयोध्या आकर वहाँ के समुद्र सेठ की धारिणी नामक स्त्री के उदर से नेत्रों को आनंद देने वाले पुत्र हुए ॥129॥ पूर्णभद्र और काश्चनभद्र उनके नाम थे। ये दोनों भाई सुख से समय व्यतीत करते थे। तदनंतर पुनः श्रावक धर्म धारणकर उसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुए ॥130॥ अबकी बार वे दोनों, स्वर्ग से च्युत हो अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ और उनकी रानी अमरावती के इस संसार में मधु, कैटभ नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुए। ये दोनों भाई अजेय, सुंदर तथा यमराज के समान विभ्रम को धारण करने वाले थे ॥131-132।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिस प्रकार विद्वान् लोग अपनी बुद्धि को अपने आधीन कर लेते हैं उसी प्रकार इन दोनों ने सामंतों से भरी हुई इस पृथिवी को आक्रमण कर अपने आधीन कर लिया था ॥133।। किंतु एक भीम नाम का महाबलवान् राजा उनकी आज्ञा नहीं मानता था। जिस प्रकार चमरेंद्र नंदन वन को पाकर प्रफुल्लित होता है उसी प्रकार वह पहाड़ी दुर्ग का आश्रय कर प्रफुल्लित था ॥134॥ राजा मधु के एक भक्त सामंत वीरसेन ने उसके पास इस आशय का पत्र भी भेजा कि हे नाथ ! इधर भीमरूपी अग्नि ने पृथिवी के समस्त घर उजाड़ कर दिये हैं ॥135॥
तदनंतर उसी क्षण क्रोध को प्राप्त हुआ राजा मधु, अपनी सब सेनाओं के समूह तथा योद्धाओं से परिवृत हो राजा भीम के प्रति चल पड़ा ॥136।। क्रम-क्रम से चलता हुआ वह मार्गवश उस न्यग्रोध नगर में पहुँचा जहाँ कि उसका भक्त वीरसेन रहता था। राजा मधु ने बड़े प्रेम के साथ उसमें प्रवेश किया ॥137।। वहाँ जाकर जगत के चंद्र स्वरूप राजा मधु ने वीरसेन की चंद्राभा नाम की चंद्रमुखी भार्या देखी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि इसके साथ विंध्याचल के वन में निवास करना अच्छा है । इस चंद्राभा के बिना मेरा राज्य सार्वभूमिक नहीं है― अपूर्ण है ।।138-139॥ ऐसा विचार करता हुआ राजा उस समय आगे चला गया और युद्ध में भीम को जीतकर अन्य शत्रुओं को भी उसने वश किया। परंतु यह सब करते हुए भी उसका मन उसी चंद्राभा में लगा रहा ॥140॥ फलस्वरूप उसने अयोध्या आकर राजाओं को अपनी-अपनी पत्नियों के सहित बुलाया और उन्हें बहुत भारी भेंट देकर सम्मान के साथ विदा कर दिया ॥141॥ राजा वीरसेन को भी बुलाया सो वह अपनी पत्नी के साथ शीघ्र ही गया और अयोध्या के बाहर बगीचे में सरयू नदी के तट पर ठहर गया ॥142।। तदनंतर सन्मान के साथ बुलाये जाने पर उसने अपनी रानी के साथ मधु के भवन में प्रवेश किया। कुछ समय बाद उसने विशेष भेंट के द्वारा सन्मान कर वीरसेन को तो विदा कर दिया और चंद्राभा को अपने अंतःपुर में भेज दिया परंतु भोला वीरसेन अब भी यह नहीं जान पाया कि हमारी सुंदरी प्रिया यहाँ रोक ली गई है ॥143-144॥
तदनंतर महादेवी के अभिषेक द्वारा, अभिषेक को प्राप्त हुई चंद्राभा सब देवियों के ऊपर स्थान को प्राप्त हुई। भावार्थ― सब देवियों में प्रधान देवी बन गई ।।145।। भोगों से जिसका मन अंधा हो रहा था ऐसा राजा मधु, लक्ष्मी के समान उस चंद्राभा के साथ सुखरूपी सागर में निमग्न होता हुआ अपने आपको इंद्र के समान मानने लगा ॥146॥
इधर राजा वीरसेन को जब पता चला कि हमारी प्रिया हरी गई है तो वह पागल हो गया और किसी भी स्थान में रति को प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगा ।।147।। अंत में मूर्ख मनुष्यों को आनंद देने वाला राजा वीरसेन किसी मंडव नामक तापस का शिष्य हो गया और मूर्ख मनुष्यों को आश्चर्य में डालता हुआ पंचाग्नि तप तपने लगा ॥148।।
किसी एक दिन राजा मधु धर्मासन पर बैठकर मंत्रियों के साथ राज्यकार्य का विचार कर रहा था । सो ठीक ही है क्योंकि राजाओं के आचार से संपन्न सत्य ही हर्षदायक होता है। उस दिन राज्यकार्य में व्यस्त रहने के कारण धीर-वीर राजा अंतःपुर में तब पहुँचा जब कि सूर्य अस्त होने के सन्मुख था ।।149-150॥ खेदखिन्न चंद्राभा ने राजा से कहा कि नाथ ! आज इतनी देर क्यों की ? हम लोग भूख से अब तक पीडित रहे ॥151॥ राजा ने कहा कि यतश्च यह परस्त्री संबंधी व्यवहार (मुकद्दमा) टेढ़ा व्यवहार था अतः बीच में नहीं छोड़ा जा सकता था इसीलिए आज देर हई है ॥152॥ तब चंद्राभा ने हँसकर कहा कि परस्त्री से प्रेम करने में दोष ही क्या है ? जिसे परस्त्री प्यारी है उसकी तो इच्छानुसार पूजा करनी चाहिए ॥153॥ उसके उक्त वचन सुन राजा मधु ने क्रुद्ध होकर कहा कि जो दुष्ट परस्त्री-लंपट हैं वे अवश्य ही दंड देने के योग्य हैं इसमें संशय नहीं है ॥154।। जो परस्त्री का स्पर्श करते हैं अथवा उससे वार्तालाप करते हैं ऐसे दुष्ट नीच पुरुष भी पाँच प्रकार के दंड से दंडित करने योग्य हैं तथा देश से निकालने के योग्य हैं फिर जो पाप से निवृत्त नहीं होने वाले परस्त्रियों में अत्यंत मोहित हैं अर्थात् परस्त्री का सेवन करते हैं उनका तो अधःपात― नरक जाना निश्चित ही है ऐसे लोग पूजा करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥155-156॥
तदनंतर कमललोचना देवी चंद्राभा ने बीच में ही बात काटते हुए कहा कि अहो ! आप बड़े धर्मात्मा हैं ? तथा पृथिवी का पालन करने में उद्यत हैं ॥157॥ यदि परदाराभिलाषी मनुष्यों का यह बड़ा भारी दोष माना जाता है तो हे राजन् ! अपने आपके लिए भी आप यह दंड क्यों नहीं देते ? ॥158।। परस्त्रीगामियों में प्रथम तो आप ही हैं फिर दूसरों को दोष क्यों दिया जाता है क्योंकि यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है कि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है ॥159।। जहाँ राजा स्वयं क्रूर एवं परस्त्रीगामी है वहाँ व्यवहार-अभियोग देखने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? सर्वप्रथम आप स्वस्थता को प्राप्त होइए ॥160॥ जिससे अंकुरों की उत्पत्ति होती है तथा जो जगत्का जीवनस्वरूप है उस जल से भी यदि अग्नि उत्पन्न होती है तब फिर और क्या कहा जाय ? ॥161॥ इस प्रकार के वचन सुनकर राजा मधु निरुत्तर हो गया और ‘इसी प्रकार है।‘ यह वचन बार-बार चंद्राभा से कहने लगा ॥162।। इतना सब हुआ फिर भी ऐश्वर्यरूपी पाश से वेष्टित हुआ वह दुःखरूपी सागर से निकल नहीं सका। सो ठीक है क्योंकि भोगों में आसक्त मनुष्य कर्म से छूटता नहीं है ॥163।।
अथानंतर सम्यक̖प्रबोध और सुख से सहित बहुत भारी समय बीत जाने के बाद एक बार महागुणों के धारक सिंहपाद नामक मुनि अयोध्या आये ॥164॥ और वहाँ के अत्यंत सुंदर सहस्राम्र वन में ठहर गये । यह सुन अपनी पत्नी तथा अनुचरों से सहित राजा मधु उनके पास गया ॥165।। वहाँ विधिपूर्वक गुरु को प्रणाम कर वह पृथिवीतल पर बैठ गया तथा जिनेंद्र प्रतिपादित धर्म श्रवणकर भोगों से विरक्त हो गया ॥166॥ जो उच्च कुलीन थी तथा सौंदर्य के कारण जो पृथ्वी पर अपनी सानी नहीं रखती थी ऐसी राजपुत्री तथा विशाल राज्य को उसने दुर्गति की वेदना जान तत्काल छोड़ दिया ॥167।। उधर मधु का भाई कैटभ भी ऐश्वर्य को चंचल जानकर मुनि हो गया। तदनंतर मुनिव्रतरूपी महाचर्या से क्लेश का अनुभव करता हुआ मधु पृथ्वी पर विहार करने लगा ॥168॥ स्वजन और परजन-सभी के नेत्रों को आनंद देने वाला कुलवर्धन राजा मधु की विशाल पृथ्वी और राज्य का पालन करने लगा ॥169॥ महामनस्वी मधु मुनि सैकड़ों वर्षों तक अत्यंत कठिन एवं उत्कृष्ट तपश्चरण करते रहे। अंत में विधिपूर्वक मरणकर रण से रहित आरणाच्युत स्वर्ग में इंद्रपद को प्राप्त हुए ॥170।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो! जिनशासन का प्रभाव आश्चर्यकारी है क्योंकि जिनका पूर्व जीवन ऐसा निंदनीय रहा उन लोगों ने भी इंद्रपद प्राप्त कर लिया। अथवा इंद्रपद प्राप्त कर लेने में क्या आश्चर्य है ? क्योंकि प्रयत्न करने से तो मोक्षनगर तक पहुँच जाते हैं ॥171।। हे श्रेणिक ! मैंने तेरे लिए उस मधु इंद्र की उत्पत्ति कही जिसकी कि प्रतिस्पर्धा करने वाली सीता प्रतींद्र हुई है ॥172॥ हे राजाओं के सूर्य ! श्रेणिक महाराज ! अब मैं इसके आगे विद्वानों के चित्त को हरने वाला, आठ वीर कुमारों का वह चरित्र कहता हूँ कि जो पाप का नाश करने वाला है, उसे तू श्रवण कर ।।173।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मधु का वर्णन करने वाला एक सौ नौवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।109॥