अंतरंग परिग्रह की प्रधानता: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">बाह्य परिग्रह, परिग्रह नहीं अंतरंग ही है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/3 </span><span class="SanskritText">बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति; आध्यात्मिकस्य संग्रहात्। सत्यमेवमेतत्; प्रधानत्वादभ्यंतर एव संगृहीतः असत्यपि बाह्ये ममेदमिति संकल्पवान् सपरिग्रह एव भवति। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> बाह्य वस्तु को परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता क्योंकि ‘मूर्च्छा’ इस शब्द से अभ्यंतर का संग्रह होता है? <strong>उत्तर -</strong> यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से अभ्यंतर का ही संग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह के न रहने पर भी ‘यह मेरा है’ ऐसा संकल्पवाला पुरुष परिग्रह सहित ही होता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/7/17/3,545/6 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/214/ कलश 146</span><span class="SanskritGatha"> पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः। तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिगह-भावम्। 146।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/215 </span><span class="SanskritText">वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात्। </span>= <span class="HindiText">पूर्व बद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, परंतु राग के वियोग के कारण वास्तव में उपभोग परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता। 146। केवल वियोगबुद्धि से (हेय बुद्धि से) ही प्रवर्तमान वह (उपभोग) वास्तव में परिग्रह नहीं है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/5/57 </span><span class="SanskritGatha">द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निर्वृतिरेनसां। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृतिः पुनः। 57।</span> = <span class="HindiText">जो मनुष्य केवल द्रव्यरूप से विषयों से विरक्त हैं, उनके पापों की निवृत्ति नहीं, किंतु जो भावरूप से निवृत्त हैं, उन्हीं के वास्तविकरूप से कर्मों का संवर होता है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong>तीनों काल | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong>तीनों काल संबंधी परिग्रह में इच्छा की प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/215 </span><span class="SanskritText">अतीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं विभर्ति। अनागतस्तु आकांक्ष्याण एव परिग्रहभावं विभृयात् प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्धया प्रवर्तमानो दृष्टः। </span>= <span class="HindiText">अतीत उपभोग है वह अतीत के कारण ही परिग्रह भाव को धारण नहीं करता। भविष्य का उपभोग यदि वांछा में आता हो तो वह परिग्रह भाव को धारण करता है, और वर्तमान का उपभोग है वह यदि रागबुद्धि से हो रहा हो तो ही परिग्रह भाव को धारण करता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/220/296/20 </span><span class="SanskritText">विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरंगपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धिं कर्त्तुं नायाति।</span> = <span class="HindiText">विद्यमान वा अविद्यमान बहिरंग परिग्रह की अभिलाषा रहने पर निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप चित्त की शुद्धि करने में नहीं आती। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong>अभ्यंतर के कारण बाह्य है, बाह्य के कारण अभ्यंतर नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/218/292/20 </span><span class="SanskritText"> अध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादि-परिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण। </span>= <span class="HindiText">अंतरंग मूर्च्छारूप रागादिपरिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बहिरंग परिग्रह के अनुसार नहीं। <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/हिंन्दी/9/46/767 </span> <span class="HindiText">विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है... जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा। बहुरि जो विषय ग्रहण कू तो कारण कहे अर मूर्च्छा कूं कारण न कहे, तिनके मत में विषय रूप जो परिग्रह तिनकैं न होते मूर्च्छा का उदय नाहीं सिद्ध होय है। (तातैं नग्नलिंगी भेषी को नग्नपने का प्रसंग आता है।)<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> | <li class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> अंतरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है</strong> <br /> | ||
देखें [[ परिग्रह#2.2 | परिग्रह - 2.2 ]]में | देखें [[ परिग्रह#2.2 | परिग्रह - 2.2 ]]में <span class="GRef"> नियमसार/60 </span>निरपेक्ष भाव से किया गया त्याग ही महाव्रत है। <br /> | ||
देखें [[ परिग्रह#1.2 | परिग्रह - 1.2 ]]प्रमाद ही वास्तव में परिग्रह है, उसके अभाव में निज गुणों में मूर्च्छा का भी अभाव होता है। <br /> | देखें [[ परिग्रह#1.2 | परिग्रह - 1.2 ]]प्रमाद ही वास्तव में परिग्रह है, उसके अभाव में निज गुणों में मूर्च्छा का भी अभाव होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong>अंतरंग त्याग के बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/3,5,89</span> <span class="PrakritText">बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स। 3। परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेइ बाहरे य जई। बाहिरगंधच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ। 5। बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं। 89। </span>=<span class="HindiText"> जो अंतरंग परिग्रह अर्थात् रागादि से युक्त है उसके बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। 3। जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होतैं बाह्य ग्रंथ कूँ छोडै़ं तौ बाह्य परिग्रह का त्याग है सो भाव रहित मुनि कै कहा करै? कछु भी नहीं करै। 5। जो पुरुष भावनारहित है, तिनिका बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरि, कंदराओं आदि में आवास तथा ध्यान अध्ययन आदि सब निरर्थक है। 89। <span class="GRef">( भावपाहुड़/ मूल/48-54)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार/75 </span><span class="PrakritText">चागो वैरग्ग विणा एदंदो वारिया भणिया। 75। </span>= <span class="HindiText">वैराग्य के बिना त्याग विडंबना मात्र है। 75। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>बाह्य त्याग में | <li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>बाह्य त्याग में अंतरंग की ही प्रधानता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/207 </span><span class="PrakritGatha">को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं। अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो। 207। </span>= <span class="HindiText">अपने आत्मा को ही नियम से पर द्रव्य जानता हुआ कौन सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है। 207। <span class="GRef">( समयसार/34 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/207-213 </span><span class="SanskritText"> कुतो ज्ञानी परद्रव्यं न गृह्णातीति चेत्।... आत्मानमात्मनः परिग्रहं नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णति। 207। इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति।... ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म (अधर्म, अशनं, पानम् 2-11-213) नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्म (आदि) परिग्रहो नास्ति। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति 285-286 </span><span class="SanskritText">यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति च यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकर्तैव स्यात्। 285। समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार आत्मख्याति टीका/265</span><span class="SanskritText"> किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः। अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। भावं प्रत्याचष्टै। 286।</span> = | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ज्ञानी पर को क्यों ग्रहण नहीं करता? <strong>उत्तर -</strong> आत्मा को ही नियम से आत्मा का परिग्रह जानता है, इसलिए ‘यह मेरा’ ‘स्व’ नहीं है, ‘मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा जानता हुआ परद्रव्य का परिग्रह नहीं करता। 207।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है - जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है, और अज्ञानमयभाव ज्ञानी के नहीं होता है।... इसलिए अज्ञानमय भावरूप इच्छा के अभाव होने से ज्ञानी धर्म को, (अधर्म को, अशन को, पान को) नहीं चाहता; इसलिए ज्ञानी के धर्मादि का परिग्रह नहीं है। 210-213।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जब निमित्तरूप परद्रव्य का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करता है, तब उसके नैमित्तिक रागादि भावों का भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान हो जाता है, तब वह साक्षात् अकर्ता ही है। 285। समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। 286। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अध्यवसान के प्रतिषेधार्थ ही बाह्यवस्तु का प्रतिषेध है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/220 </span><span class="SanskritText">उपधेर्विधीयमानः प्रतिषेधोऽंतरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्। </span>= <span class="HindiText">किया जानेवाला उपधि का निषेध अंतरंग छेद का ही निषेध है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/387 </span><span class="PrakritGatha"> बाहिरंगथविहीणा दलिद्द-मणुवा सहावदो होंति। अव्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदेको विछंडेदु। 387।</span> =<span class="HindiText"> बाह्य परिग्रह से रहित द्ररिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किंतु अंतरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता। 387। </span></li> | |||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
- अंतरंग परिग्रह की प्रधानता
- बाह्य परिग्रह, परिग्रह नहीं अंतरंग ही है
सर्वार्थसिद्धि/7/17/355/3 बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति; आध्यात्मिकस्य संग्रहात्। सत्यमेवमेतत्; प्रधानत्वादभ्यंतर एव संगृहीतः असत्यपि बाह्ये ममेदमिति संकल्पवान् सपरिग्रह एव भवति। = प्रश्न - बाह्य वस्तु को परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता क्योंकि ‘मूर्च्छा’ इस शब्द से अभ्यंतर का संग्रह होता है? उत्तर - यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से अभ्यंतर का ही संग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह के न रहने पर भी ‘यह मेरा है’ ऐसा संकल्पवाला पुरुष परिग्रह सहित ही होता है। ( राजवार्तिक/7/17/3,545/6 )।
समयसार / आत्मख्याति/214/ कलश 146 पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः। तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिगह-भावम्। 146।
समयसार / आत्मख्याति/215 वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात्। = पूर्व बद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, परंतु राग के वियोग के कारण वास्तव में उपभोग परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता। 146। केवल वियोगबुद्धि से (हेय बुद्धि से) ही प्रवर्तमान वह (उपभोग) वास्तव में परिग्रह नहीं है।
योगसार (अमितगति)/5/57 द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निर्वृतिरेनसां। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृतिः पुनः। 57। = जो मनुष्य केवल द्रव्यरूप से विषयों से विरक्त हैं, उनके पापों की निवृत्ति नहीं, किंतु जो भावरूप से निवृत्त हैं, उन्हीं के वास्तविकरूप से कर्मों का संवर होता है।
- तीनों काल संबंधी परिग्रह में इच्छा की प्रधानता
समयसार / आत्मख्याति/215 अतीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं विभर्ति। अनागतस्तु आकांक्ष्याण एव परिग्रहभावं विभृयात् प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्धया प्रवर्तमानो दृष्टः। = अतीत उपभोग है वह अतीत के कारण ही परिग्रह भाव को धारण नहीं करता। भविष्य का उपभोग यदि वांछा में आता हो तो वह परिग्रह भाव को धारण करता है, और वर्तमान का उपभोग है वह यदि रागबुद्धि से हो रहा हो तो ही परिग्रह भाव को धारण करता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/220/296/20 विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरंगपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धिं कर्त्तुं नायाति। = विद्यमान वा अविद्यमान बहिरंग परिग्रह की अभिलाषा रहने पर निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप चित्त की शुद्धि करने में नहीं आती।
- अभ्यंतर के कारण बाह्य है, बाह्य के कारण अभ्यंतर नहीं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/218/292/20 अध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादि-परिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण। = अंतरंग मूर्च्छारूप रागादिपरिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बहिरंग परिग्रह के अनुसार नहीं।
राजवार्तिक/हिंन्दी/9/46/767 विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है... जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा। बहुरि जो विषय ग्रहण कू तो कारण कहे अर मूर्च्छा कूं कारण न कहे, तिनके मत में विषय रूप जो परिग्रह तिनकैं न होते मूर्च्छा का उदय नाहीं सिद्ध होय है। (तातैं नग्नलिंगी भेषी को नग्नपने का प्रसंग आता है।)
- अंतरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है
देखें परिग्रह - 2.2 में नियमसार/60 निरपेक्ष भाव से किया गया त्याग ही महाव्रत है।
देखें परिग्रह - 1.2 प्रमाद ही वास्तव में परिग्रह है, उसके अभाव में निज गुणों में मूर्च्छा का भी अभाव होता है।
- अंतरंग त्याग के बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है
भावपाहुड़/ मूल/3,5,89 बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स। 3। परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेइ बाहरे य जई। बाहिरगंधच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ। 5। बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं। 89। = जो अंतरंग परिग्रह अर्थात् रागादि से युक्त है उसके बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। 3। जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होतैं बाह्य ग्रंथ कूँ छोडै़ं तौ बाह्य परिग्रह का त्याग है सो भाव रहित मुनि कै कहा करै? कछु भी नहीं करै। 5। जो पुरुष भावनारहित है, तिनिका बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरि, कंदराओं आदि में आवास तथा ध्यान अध्ययन आदि सब निरर्थक है। 89। ( भावपाहुड़/ मूल/48-54)।
नियमसार/75 चागो वैरग्ग विणा एदंदो वारिया भणिया। 75। = वैराग्य के बिना त्याग विडंबना मात्र है। 75।
- बाह्य त्याग में अंतरंग की ही प्रधानता है
समयसार/207 को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं। अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो। 207। = अपने आत्मा को ही नियम से पर द्रव्य जानता हुआ कौन सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है। 207। ( समयसार/34 )।
समयसार / आत्मख्याति/207-213 कुतो ज्ञानी परद्रव्यं न गृह्णातीति चेत्।... आत्मानमात्मनः परिग्रहं नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णति। 207। इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति।... ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म (अधर्म, अशनं, पानम् 2-11-213) नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्म (आदि) परिग्रहो नास्ति।
समयसार / आत्मख्याति 285-286 यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति च यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकर्तैव स्यात्। 285। समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं।
समयसार आत्मख्याति टीका/265 किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः। अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। भावं प्रत्याचष्टै। 286। =- प्रश्न - ज्ञानी पर को क्यों ग्रहण नहीं करता? उत्तर - आत्मा को ही नियम से आत्मा का परिग्रह जानता है, इसलिए ‘यह मेरा’ ‘स्व’ नहीं है, ‘मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा जानता हुआ परद्रव्य का परिग्रह नहीं करता। 207।
- इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है - जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है, और अज्ञानमयभाव ज्ञानी के नहीं होता है।... इसलिए अज्ञानमय भावरूप इच्छा के अभाव होने से ज्ञानी धर्म को, (अधर्म को, अशन को, पान को) नहीं चाहता; इसलिए ज्ञानी के धर्मादि का परिग्रह नहीं है। 210-213।
- जब निमित्तरूप परद्रव्य का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करता है, तब उसके नैमित्तिक रागादि भावों का भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान हो जाता है, तब वह साक्षात् अकर्ता ही है। 285। समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। 286।
- अध्यवसान के प्रतिषेधार्थ ही बाह्यवस्तु का प्रतिषेध है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/220 उपधेर्विधीयमानः प्रतिषेधोऽंतरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्। = किया जानेवाला उपधि का निषेध अंतरंग छेद का ही निषेध है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/387 बाहिरंगथविहीणा दलिद्द-मणुवा सहावदो होंति। अव्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदेको विछंडेदु। 387। = बाह्य परिग्रह से रहित द्ररिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किंतु अंतरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता। 387।
- बाह्य परिग्रह, परिग्रह नहीं अंतरंग ही है