जीव: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | | ||
<p class="HindiText">संसार या मोक्ष दोनों में जीव प्रधान तत्त्व है। यद्यपि ज्ञानदर्शन स्वभावी होने के कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशा में प्राण | |||
== सिद्धांतकोष से == | |||
<p class="HindiText">संसार या मोक्ष दोनों में जीव प्रधान तत्त्व है। यद्यपि ज्ञानदर्शन स्वभावी होने के कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशा में प्राण धारण करने से जीव कहलाता है। वह अनंतगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तीक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, न ही पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ है। संसारी दशा में शरीर रहते हुए भी शरीर से पृथक् लौकिक विषयों को करता व भोगता हुआ भी वह उनका केवल ज्ञाता है। वह यद्यपि लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परंतु संकोच-विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता है। कोई एक ही सर्व व्यापक जीव हो ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। वे अनंतानंत हैं। उनमें से जो भी साधना विशेष के द्वारा कर्मों व संस्कारों का क्षय कर देता है वह सदा अतींद्रिय आनंद का भोक्ता परमात्मा बन जाता है। तब वह विकल्पों से सर्वथा शून्य हो केवल ज्ञाता दृष्टा भाव में स्थिति पाता है। जैन दर्शन में उसी को ईश्वर या भगवान् स्वीकार किया है उससे पृथक् किसी एक ईश्वर को वह नहीं मानता।</p> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong> भेद, लक्षण व निर्देश</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव सामान्य का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.1 | जीव सामान्य का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के पर्यायवाची नाम।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.2 | जीव के पर्यायवाची नाम।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव को अनेक नाम देने की विवक्षा।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.3 | जीव को अनेक नाम देने की विवक्षा।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के भेदप्रभेद (संसारी, मुक्त आदि)।<br /> | <ol start"3"> | ||
<li class="HindiText">[[#1.3.1 | जीव कहने की विवक्षा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.2 | अजीव कहने की विवक्षा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.3 | जड़ कहने की विवक्षा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.4 | शून्य कहने की विवक्षा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.5 | प्राणी, जंतु आदि कहने की विवक्षा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#1.3.6 | कर्ता भोक्ता आदि कहने की विवक्षा]]</li></p><br /> | |||
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<li class="HindiText">[[#1.4 | जीव के भेदप्रभेद (संसारी, मुक्त आदि)।]]<br /> | |||
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<li class="HindiText"> जीवों के जलचर थलचर आदि भेद।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.5 | जीवों के जलचर थलचर आदि भेद।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीवों के गर्भज आदि भेद।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.6 | जीवों के गर्भज आदि भेद।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> गर्भज व उपपादज जन्म निर्देश–देखें [[ जन्म ]]।<br /> | <li class="HindiText"> गर्भज व उपपादज जन्म निर्देश–देखें [[ जन्म ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्मूर्छिम जन्म व जीव निर्देश–देखें [[ | <li class="HindiText"> सम्मूर्छिम जन्म व जीव निर्देश–देखें [[ संमूर्च्छिम]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जन्म, योनि व कुल आदि–देखें [[ | <li class="HindiText"> जन्म, योनि व कुल आदि–देखें [[ जन्म ]], [[ योनि ]], [[ कुल ]], <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मुक्त जीव का लक्षण व निर्देश–देखें [[ मोक्ष ]]<br /> | <li class="HindiText"> मुक्त जीव का लक्षण व निर्देश–देखें [[ मोक्ष ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> संसारी, त्रस, स्थावर व पृथिवी आदि–देखें [[ | <li class="HindiText"> संसारी, त्रस, स्थावर व पृथिवी आदि–देखें [[ संसारी ]], [[ त्रस ]], [[ स्थावर]], <br /> | ||
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<li class="HindiText"> संज्ञी असंज्ञी जीव के लक्षण व निर्देश–देखें [[ संज्ञी ]]<br /> | <li class="HindiText"> संज्ञी असंज्ञी जीव के लक्षण व निर्देश–देखें [[ संज्ञी ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सूक्ष्म-बादर जीव के लक्षण व निर्देश–देखें [[ सूक्ष्म ]]<br /> | <li class="HindiText"> सूक्ष्म-बादर जीव के लक्षण व निर्देश–देखें [[ सूक्ष्म ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> एकेंद्रियादि जीवों के भेद निर्देश–देखें [[ इंद्रिय#4 | इंद्रिय - 4]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रत्येक साधारण व निगोद जीव–देखें [[ वनस्पति ]]<br /> | <li class="HindiText"> प्रत्येक साधारण व निगोद जीव–देखें [[ वनस्पति ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">[[#1.7 | कार्य कारण जीव का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पुण्यजीव व पापजीव के लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[#1.8 | पुण्यजीव व पापजीव के लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">[[#1.9 | नोजीव का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> षट्द्रव्यों में जीव-अजीव विभाग–देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]<br /> | <li class="HindiText"> षट्द्रव्यों में जीव-अजीव विभाग–देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव | <li class="HindiText"> जीव अनंत है।–देखें [[ द्रव्य#2 | द्रव्य - 2]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अनंत जीवों का लोक में अवस्थान–देखें [[ आकाश#3 | आकाश - 3]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के द्रव्य भाव प्राणों | <li class="HindiText"> जीव के द्रव्य भाव प्राणों संबंधी–देखें [[ प्राण#2 | प्राण - 2]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव अस्तिकाय है–देखें [[ अस्तिकाय ]]<br /> | <li class="HindiText"> जीव अस्तिकाय है–देखें [[ अस्तिकाय ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> संसारी जीव का कथंचित् मूर्तत्व–देखें [[ मूर्त#10 | मूर्त - 10]]<br /> | <li class="HindiText"> संसारी जीव का कथंचित् मूर्तत्व–देखें [[ मूर्त#10 | मूर्त - 10]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव कर्म के परस्पर | <li class="HindiText"> जीव कर्म के परस्पर बंध संबंधी–देखें [[ बंध ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म में परस्पर कार्यकारण | <li class="HindiText"> जीव व कर्म में परस्पर कार्यकारण संबंध–देखें [[ कारण#III.3 | कारण - III.3]],5<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व शरीर की भिन्नता–देखें [[ कारक#2 | कारक - 2]]<br /> | <li class="HindiText"> जीव व शरीर की भिन्नता–देखें [[ कारक#2 | कारक - 2]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव में कथंचित् शुद्ध अशुद्धपना तथा सर्वगत व देहप्रमाणपना–देखें [[ जीव#3 | जीव - 3]]<br /> | <li class="HindiText"> जीव में कथंचित् शुद्ध अशुद्धपना तथा सर्वगत व देहप्रमाणपना–देखें [[ जीव#3 | जीव - 3]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, | <li class="HindiText"> जीव विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व–देखें [[ सत् ]], [[संख्या#3 | संख्या 3 ]], [[ क्षेत्र#1.3 | क्षेत्र 1.3 ]], [[स्पर्श_विषयक_प्ररूपणाएँ| स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ ]], [[ काल_02 ]], [[ अंतर]] , [[भाव ]], [[ अल्पबहुत्व ]] <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मुक्त में जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित हो।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.1 | मुक्त में जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित हो।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> औपचारिक होने से सिद्धों में जीवत्व नहीं है।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.2 | औपचारिक होने से सिद्धों में जीवत्व नहीं है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मार्गणास्थान आदि जीव के लक्षण नहीं है।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.3 | मार्गणास्थान आदि जीव के लक्षण नहीं है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तो फिर जीव की सिद्धि कैसे हो।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.4 | तो फिर जीव की सिद्धि कैसे हो।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.5 | जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पूर्वोक्त लक्षणों के मतार्थ।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.6 | पूर्वोक्त लक्षणों के मतार्थ।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के भेद-प्रभेदादि जानने का प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText">[[#2.7 | जीव के भेद-प्रभेदादि जानने का प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> जीव के गुण व धर्म</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के 21 सामान्य विशेष स्वभाव।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.1 | जीव के 21 सामान्य विशेष स्वभाव।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के सामान्य विशेष गुण।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.2 | जीव के सामान्य विशेष गुण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव के अन्य अनेकों गुण व धर्म।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.3 | जीव के अन्य अनेकों गुण व धर्म।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव में सूक्ष्म, महान् आदि विरोधी धर्म।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.4 | जीव में सूक्ष्म, महान् आदि विरोधी धर्म।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विरोधी धर्मों की सिद्धि व समन्वय–देखें [[ | <li class="HindiText"> विरोधी धर्मों की सिद्धि व समन्वय–देखें [[ अनेकांत#5 | अनेकांत - 5]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव में कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.5 | जीव में कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव कथंचित् सर्वव्यापी है।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.6 | जीव कथंचित् सर्वव्यापी है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव कथंचित् देह प्रमाण है।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.7 | जीव कथंचित् देह प्रमाण है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सर्वव्यापीपने का निषेध व देहप्रमाणत्व की सिद्धि।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.8 | सर्वव्यापीपने का निषेध व देहप्रमाणत्व की सिद्धि।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव संकोच विस्तार स्वभावी है।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.9 | जीव संकोच विस्तार स्वभावी है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> संकोच विस्तार धर्म की सिद्धि।<br /> | <li class="HindiText">[[#3.10 | संकोच विस्तार धर्म की सिद्धि।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव की | <li class="HindiText"> जीव की स्वभाव व्यंजन पर्याय सिद्धत्व है–देखें [[ सिद्धत्व ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव में | <li class="HindiText"> जीव में अनंतों धर्म हैं–देखें [[ गुण#3.10 | गुण - 3.10]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> जीव के प्रदेश</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव असंख्यात प्रदेशी है।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.1 | जीव असंख्यात प्रदेशी है।]]<br /> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li class="HindiText"> संसारी जीव के आठ मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकार के।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.2 | संसारी जीव के आठ मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकार के।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शुद्धद्रव्यों व शुद्धजीव के प्रदेश अचल ही होते हैं।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.3 | शुद्धद्रव्यों व शुद्धजीव के प्रदेश अचल ही होते हैं।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विग्रहगति में जीव प्रदेश चल ही होते हैं।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.4 | विग्रहगति में जीव प्रदेश चल ही होते हैं।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीवप्रदेशों के चलितपने का तात्पर्य | <li class="HindiText">[[#4.5 | जीवप्रदेशों के चलितपने का तात्पर्य परिस्पंदन व भ्रमण आदि।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीवप्रदेशों की अनवस्थिति का कारण योग है।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.6 | जीवप्रदेशों की अनवस्थिति का कारण योग है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अचलप्रदेशों में भी कर्म अवश्य | <li class="HindiText"> अचलप्रदेशों में भी कर्म अवश्य बँधते हैं–देखें [[ योग#2 | योग - 2]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> चलाचल प्रदेशों | <li class="HindiText">[[#4.7 | चलाचल प्रदेशों संबंधी शंका समाधान।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीव प्रदेशों के साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार चल अचल होते हैं।<br /> | <li class="HindiText">[[#4.8 | जीव प्रदेशों के साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार चल अचल होते हैं।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव प्रदेशों में | <li class="HindiText"> जीव प्रदेशों में खंडित होने की संभावना–देखें [[ वेदनासमुद्घात#4 | वेदनासमुद्घात - 4]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">भेद, लक्षण व निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> जीव सामान्य का लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> दश प्राणों से जीवे सो जीव</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/147 </span><span class="PrakritGatha">पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं। सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता।147।</span> =<span class="HindiText">जो चार प्राणों से (या दश प्राणों से) जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है, फिर भी प्राण तो पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न हैं। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/30 )</span>; <span class="GRef">( धवला/1/1,1,2/119/3 )</span>; <span class="GRef">( महापुराण/24/204 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/110 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/3 )</span>; <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/17 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/2/8/6 )</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/29/329/19 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/4/7/25/27 </span><span class="SanskritText">दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् ‘जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति’ इति वा जीव:। </span>=<span class="HindiText">दश प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणों के द्वारा जो जीता है, जीता था व जीवेगा इस त्रैकालिक जीवनगुण वाले को जीव कहते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> उपयोग, चैतन्य, कर्ता, भोक्ता आदि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/27 </span><span class="PrakritText">जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो...।</span> =<span class="HindiText">आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोग विशेष वाला है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय </span>मू./109) <span class="GRef">( प्रवचनसार/127 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/49 </span><span class="PrakritGatha">अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंट्ठाणं।49।</span>= <span class="HindiText">हे भव्य! तू जीव को रस रहित, रूप रहित, गंध रहित, अव्यक्त अर्थात् इंद्रिय से अगोचर, चेतना गुणवाला, शब्द रहित, किसी भी चिह्न को अनुमान ज्ञान से ग्रहण न होने वाला और आकार रहित जान। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/127 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार/172 )</span>; <span class="GRef">(भावपाहुड़/मूल/64)</span>; <span class="GRef">( धवला 3/1,2,1/ गाथा 1/2)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/148</span><span class="PrakritGatha"> कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।148। </span>=<span class="HindiText">जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञान उपयोगमयी है, ऐसा जिनवरेंद्र द्वारा निर्दिष्ट है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/27 )</span>; <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/31)</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/4/14/26/11 )</span>; <span class="GRef">( महापुराण/24/92 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,2/ गाथा 1/118)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/106 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/2 )</span>; </span><br /> | |||
( तत्त्वार्थसूत्र/2/8 ) <span class="SanskritText">उपयोगो लक्षणम् ।</span>=<span class="HindiText">उपयोग जीव का लक्षण है। ( नयचक्र बृहद्/119 )।</span><br /> | <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/2/8 )</span> <span class="SanskritText">उपयोगो लक्षणम् ।</span>=<span class="HindiText">उपयोग जीव का लक्षण है। <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/119 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/3 </span><span class="SanskritText">तत्र चेतनालक्षणो जीव:। </span>=<span class="HindiText">जीव का लक्षण चेतना है। <span class="GRef">( धवला 15/33/6 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/390 </span><span class="PrakritText">लक्खणमिह भणियमादाज्झेओ सब्भावसंगदो सोवि। चेयण उवलद्धी दंसण णाणं च लक्खणं तस्स।</span> =<span class="HindiText">आत्मा का लक्षण चेतना तथा उपलब्धि है, और वह उपलब्धि ज्ञान दर्शन लक्षण वाली है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/3 </span><span class="PrakritText"> णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/2/8/5 </span><span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन...शुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेन ...द्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीव:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चय से यद्यपि शुद्ध चैतन्य लक्षण निश्चय प्राणों से जीता है, तथापि अशुद्धनय से द्रव्य व भाव प्राणों से जीता है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/16; 60/67/12 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/8 </span><span class="SanskritText">कर्मोपाधिसापेक्षज्ञानदर्शनोपयोगचैतन्यप्राणेन जीवंतीति जीवा:। </span>=<span class="HindiText">(अशुद्ध निश्चयनय से) कर्मोपाधि सापेक्ष ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राणों से जीते हैं वे जीव हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/3 )</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">औपशमिकादि भाव ही जीव है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/3;8/38 </span><span class="SanskritText">औपशमिकादिभावपर्यायो जीव: पर्यायादेशात् ।3। पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।8। औपशमिकादिभावसाधनश्च व्यवहारत:।9।</span> <span class="HindiText">=पर्यायार्थिक नय से औपशमिकादि भावरूप जीव है।3। निश्चयनय से जीव अपने अनादि पारिणामिक भावों से ही स्वरूपलाभ करता है।8। व्यवहारनय से औपशमिकादि भावों से तथा माता-पिता के रजवीर्य आहार आदि से भी स्वरूप लाभ करता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/2 </span><span class="SanskritText">अन्यासाधारणा भावा: पंचौपशमिकादय:। स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीव: स व्यपदिश्यते।2। </span>=<span class="HindiText">औपशमिकादि पाँच भाव (देखें [[ भाव ]]) जिस तत्त्व के स्वभाव हों वही जीव कहाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> जीव के पर्यायवाची नाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/ गाथा 81,82/118-119</span> <span class="PrakritGatha">जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो।81। सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो। असंकडो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य।82।</span> =<span class="HindiText">जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जंतु है, मानी है, मायावी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अंतरात्मा है।81-82।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/24/103 </span><span class="SanskritGatha">जीव: प्राणी च जंतुश्च क्षेत्रज्ञ: पुरुषस्तथा। पुमानात्मांतरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्यय:।103। </span>=<span class="HindiText">जीव, प्राणी, जंतु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अंतरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाचक शब्द हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> जीव को अनेक नाम देने की विवक्षा</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> जीव कहने की विवक्षा देखें [[ जीव का लक्षण नं#1 | जीव का लक्षण नं - 1]]।</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> जीव कहने की विवक्षा देखें [[ जीव का लक्षण नं#1 | जीव का लक्षण नं - 1]]।</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> अजीव कहने की विवक्षा</strong><br /> | ||
देखें [[ जीव#2.1 | जीव - 2.1 ]]में | देखें [[ जीव#2.1 | जीव - 2.1 ]]में <span class="GRef"> धवला/14 </span>‘सिद्ध’ जीव नहीं हैं, अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/121 </span><span class="PrakritGatha">जो हु अमुत्तो भणिओ जीवसहावो जिणेहिपरमत्थो। उवयरियसहावादो अचेयणो मुत्तिसंजुत्तो।121।</span> =<span class="HindiText">जीव का जो स्वभाव जिनेंद्र भगवान् द्वारा अमूर्त कहा गया है वह उपचरित स्वभाव रूप से मूर्त व अचेतन भी है, क्योंकि मूर्तीक शरीर से संयुक्त है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> जड़ कहने की विवक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/53 </span><span class="PrakritGatha">जे णियबोहपरिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु। इंदिय जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु।53। </span>=<span class="HindiText">जिस अपेक्षा आत्मा ज्ञान में ठहरे हुए (अर्थात् समाधिस्थ) जीवों के इंद्रियजनित ज्ञान नाश को प्राप्त होता है, हे योगी ! उसी कारण जीव को जड़ भी जानो।</span><br /> | |||
आराधनासार/81 <span class="SanskritText">अद्धैतापि हि वेत्ता जगति चेत् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्, तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागं जड़ता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापक:।...।81। </span>=<span class="HindiText">इस जगत् में जो योगी अद्वैत दशा को प्राप्त हो गये हैं, वे दर्शन व ज्ञान के भेद को ही त्याग देते हैं, अर्थात् वे केवल चेतनस्वरूप रह जाते हैं। और सामान्य (दर्शन) तथा विशेष (ज्ञान) के अभाव से वे एक प्रकार से अपने अस्तित्व का ही त्याग कर देते हैं। उसके त्याग से चेतन भी वे जड़ता को प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि व्याप्य के बिना व्यापक भी नहीं होता।</span><br /> | <span class="GRef"> आराधनासार/81</span> <span class="SanskritText">अद्धैतापि हि वेत्ता जगति चेत् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्, तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागं जड़ता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापक:।...।81। </span>=<span class="HindiText">इस जगत् में जो योगी अद्वैत दशा को प्राप्त हो गये हैं, वे दर्शन व ज्ञान के भेद को ही त्याग देते हैं, अर्थात् वे केवल चेतनस्वरूप रह जाते हैं। और सामान्य (दर्शन) तथा विशेष (ज्ञान) के अभाव से वे एक प्रकार से अपने अस्तित्व का ही त्याग कर देते हैं। उसके त्याग से चेतन भी वे जड़ता को प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि व्याप्य के बिना व्यापक भी नहीं होता।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/27/2 </span><span class="SanskritText">पंचेंद्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदनलक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेंद्रियबोधाभावाज्जड:, न च सर्वथा सांख्यमतवत् ।</span>=<span class="HindiText">पाँचों इंद्रियों और मन के विषयों के विकल्पों से रहित समाधिकाल में, आत्मा के अनुभवरूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी बाहरी विषयरूप इंद्रियज्ञान के अभाव से आत्मा जड़ माना गया है, परंतु सांख्यमत की तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> शून्य कहने की विवक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/55</span><span class="PrakritGatha"> अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस ण जेंण। सुद्धहँ एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण। </span>=<span class="HindiText">जिस कारण आठों ही अनेक भेदों वाले कर्म तथा अठारह दोष, इनमें से एक भी शुद्धात्माओं के नहीं है, इसलिए उन्हें शून्य भी कहा जाता है।<br /> | |||
देखें [[ शुक्लध्यान#1.4 | शुक्लध्यान - 1.4 ]][शुक्लध्यान उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करके योगी शून्य हो जाता है, क्योंकि, रागादि से रहित स्वभाव स्थित ज्ञान ही शून्य कहा गया है। वह वास्तव में रत्नत्रय की एकता स्वरूप तथा बाह्य पदार्थों के | देखें [[ शुक्लध्यान#1.4 | शुक्लध्यान - 1.4 ]][शुक्लध्यान के उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करके योगी शून्य हो जाता है, क्योंकि, रागादि से रहित स्वभाव स्थित ज्ञान ही शून्य कहा गया है। वह वास्तव में रत्नत्रय की एकता स्वरूप तथा बाह्य पदार्थों के अवलंबन से रहित होने के कारण ही शून्य कहलाता है।] </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/172-173 </span><span class="SanskritGatha"> तदा च परमैकाग्र्याद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यत:।172। अतएवान्यशून्योऽपि नात्मा शून्य: स्वरूपत:। शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते।173। </span>=<span class="HindiText">उस समाधिकाल में स्वात्मा में देखने वाले योगी की परम एकाग्र्यता के कारण बाह्यपदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उसे आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता।172। इसीलिए अन्य बाह्यपदार्थों से शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूप से शून्य नहीं होता। आत्मा का यह शून्यता और अशून्यतामय स्वभाव आत्मा के द्वारा ही उपलब्ध होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/27/3 </span><span class="SanskritText"> रागादिविभावपरिणामापेक्षया शून्योऽपि भवति न चानंतज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् ।</span>=<span class="HindiText">आत्मा राग, द्वेष आदि विभाव परिणामों की अपेक्षा से शून्य होता है, किंतु बौद्धमत के समान अनंत ज्ञानादि की अपेक्षा शून्य नहीं है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5"> प्राणी, जंतु आदि कहने की विवक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/24/105-108 </span><span class="SanskritGatha">प्राणा दशास्य संतीति प्राणी जंतुश्च जन्मभाक् । क्षेत्रं स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते।105। पुरुष: पुरुभोगेषु शयनात् परिभाषित:। पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते।106। भवेष्वतति सातत्याद् एतीत्यात्मा निरुच्यते। सोऽंतरात्माष्टकर्मांतर्वर्तित्वादभिलप्यते।107। ज्ञ: स्याज्ज्ञागुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स:। पर्यायशब्दैरेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधै:।</span>=<span class="HindiText">दश प्राण विद्यमान रहने से यह जीव प्राणी कहलाता है, बार-बार जन्म धारण करने से जंतु कहलाता है। इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं, उस क्षेत्र को जानने से यह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।105। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भोगों में शयन करने से अर्थात् प्रवृत्ति करने से यह पुरुष कहा जाता है, और अपने आत्मा को पवित्र करने से पुमान् कहा जाता है।106। नर नारकादि पर्यायों में ‘अतति’ अर्थात् निरंतर गमन करते रहने से आत्मा कहा जाता है। और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा कहा जाता है।107। ज्ञान गुण सहित होने से ‘ज्ञ’ और ज्ञानी कहा जाता है। इसी प्रकार यह जीव अन्य भी अनेक शब्दों से जानने योग्य है।108।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.6" id="1.3.6"> कर्ता भोक्ता आदि कहने की विवक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/119/3 </span><span class="PrakritText"> सच्चमसच्चं संतमसंतं वददीदि वत्ता। पाणा एयस्स संतीति पाणी। अमर-णर-तिरिय-णारय-भेएण चउव्विहे संसारे कुसलमकुसलं भुंजदि त्ति भोत्ता। छव्विह-संठाणं बहुविह-देहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो। सुख-दुक्खं वेदेदि त्ति वेदो, वेत्ति जानातीति वा वेद:। उपात्तदेहं व्याप्नोतीति विष्णु:। स्वयमेव भूतवानिति स्वयंभू। सरीरमेयस्स अत्थि त्ति सरीरी। मनु: ज्ञानं तत्र भव इति मानव:। सजण-संबधं-मित्त-वग्गादिसु संजदि त्ति सत्ता। चउग्गइ-संसारे जायदि जणयदि त्ति जंतू। माणो एयस्स अत्थि त्ति माणी। माया अत्थि त्ति मायी। जोगो अत्थि त्ति जोगी। अइसण्ह-देह-पमाणेण संकुडदि त्ति संकुडो। सव्वं लोगागासं वियापदि त्ति असंकुडो। क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञ:। अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्तिअंतरप्पा। </span>=<span class="HindiText">सत्य, असत्य और योग्य, अयोग्य वचन बोलने से वक्ता है; दश प्राण पाये जाने से प्राणी है; चार गतिरूप संसार में पुण्यपाप के फल को भोगने से भोक्ता है; नाना प्रकार के शरीरों द्वारा छह संस्थानों को पूरण करने व गलने से पुद्गल है; सुख और दु:ख का वेदन करने से वेद है; अथवा जानने के कारण वेद है; प्राप्त हुए शरीर को व्याप्त करने से विष्णु है, स्वत: ही उत्पन्न होने से स्वयंभू है; संसारावस्था में शरीरसहित होने से शरीरी है; मनु ज्ञान को कहते हैं, उसमें उत्पन्न होने से मानव है; स्वजन संबंधी मित्र आदि वर्ग में आसक्त रहने से सक्ता है; चतुर्गतिरूप संसार में जन्म लेने से जंतु है; मान कषाय पायी जाने से मानी है; माया कषाय पायी जाने से मायी है; तीन योग पाये जाने से योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलने से संकुचित होता है, इसलिए संकुट है; संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करता है, इसलिए असंकुट है; लोकालोकरूप क्षेत्र को अथवा अपने स्वरूप को जानने से क्षेत्रज्ञ है; आठ कर्मों में रहने से अंतरात्मा है <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड/जीवतत्वप्रदीपिका./365-366/779/2)</span>।<br /> | |||
देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]] (जीव को कर्ता व अकर्ता कहने | देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]] (जीव को कर्ता व अकर्ता कहने संबंधी–)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">जीव के भेद प्रभेद</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.1" id="1.4.1">संसारी व मुक्त दो भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/10 </span><span class="SanskritText">संसारिणो मुक्ताश्च।10।</span> =<span class="HindiText">जीव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/109 )</span>, (मू.आ./204), <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/105 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.2" id="1.4.2"> संसारी जीवों के अनेक प्रकार के भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/11-14/7 </span><span class="SanskritText">जीवभव्याभव्यत्वानि च।7। समनस्कामनस्का:।11। संसारिणस्त्रसस्थावरा:।12। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:।13। द्वींद्रियादयस्त्रसा:।14। </span>=<span class="HindiText">जीव दो प्रकार के हैं भव्य और अभव्य।7। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/120 )</span> मनसहित अर्थात् संज्ञी और मनरहित अर्थात् असंज्ञी के भेद से भी दो प्रकार के हैं।11। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/12/29 )</span> संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं (नयचक्रवृहद्वृ/123) तिनमें स्थावर पाँच प्रकार के हैं–पृथिवी, अप्, तेज, वायु, व वनस्पति।13। (और भी देखो [[ स्थावर ]]) त्रस जीव चार प्रकार है–द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय व पंचेंद्रिय।14। (और भी देखें [[ इंद्रिय#4 | इंद्रिय - 4]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/15/5/458/9 </span><span class="SanskritText"> द्विविधा जीवा: बादरा: सूक्ष्माश्च।</span> =<span class="HindiText">जीव दो प्रकार के हैं–बादर और सूक्ष्म–(देखें [[ सूक्ष्म ]])।<br /> | |||
देखें [[ आत्मा ]]–बहिरात्मा, | देखें [[ आत्मा ]]–बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा की अपेक्षा 3 प्रकार हैं।<br /> | ||
देखें [[ काय#2 | देखें [[ काय#2 | काय - 2]]/1 पाँच स्थावर व एक त्रस, ऐसे काय की अपेक्षा 6 भेद हैं।<br /> | ||
देखें [[ गति#2.3 | गति - 2.3 ]]नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति की अपेक्षा चार प्रकार का है।<br /> | देखें [[ गति#2.3 | गति - 2.3 ]]नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति की अपेक्षा चार प्रकार का है।<br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/622/1075 </span>पुण्यजीव व पापजीव का निर्देश है। (देखें [[ आगे पुण्य व पाप जीव का लक्षण ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/12/4/2,9/ सूत्र 3/296 </span><span class="PrakritText">सिया णोजीवस्स वा/3/</span>=<span class="HindiText">’कथंचित् वह नोजीव के होती है’ इस सूत्र में नोजीव का निर्देश किया गया है।<br /> | |||
देखें [[ पर्याप्त ]]–जीव के पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन भेद हैं।<br /> | देखें [[ पर्याप्त ]]–जीव के पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन भेद हैं।<br /> | ||
देखें [[ जीवसमास ]] | देखें [[ जीवसमास ]]–एकेंद्रिय आदि तथा पृथिवी अप् आदि तथा सूक्ष्म बादर, तथा उनके ही पर्याप्तापर्याप्त आदि विकल्पों से अनेकों भंग बन जाते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/ गाथा 76-77/198</span> <span class="PrakritGatha">एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्ति लक्खणो भणिदो। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य।76। छक्कापक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिंसब्भावो। अट्ठासवो णवठ्ठो जीवो दस ठाणिओ भणिदो।77। </span>=<span class="HindiText">वह जीव महात्मा चैतन्य या उपयोग सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार है। ज्ञान, दर्शन, या संसारी-मुक्त, या भव्य-अभव्य, या पाप-पुण्य की अपेक्षा दो प्रकार है। ज्ञान चेतना, कर्म चेतना कर्मफल चेतना, या उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, या द्रव्य-गुण पर्याय की अपेक्षा तीन प्रकार है। चार गतियों में भ्रमण करने की अपेक्षा चार प्रकार है। औपशमिकादि पाँच भावों की अपेक्षा या एकेंद्रिय आदि की अपेक्षा पाँच प्रकार है। छह दिशाओं में अपक्रम युक्त होने के कारण छह प्रकार का है। सप्तभंगी से सिद्ध होने के कारण सात प्रकार का है। आठकर्म या सम्यक्त्वादि आठ गुणयुक्त होने के कारण आठ प्रकार का है। नौ-पदार्थों रूप परिणमन करने के कारण नौ प्रकार का है। पृथिवी आदि पाँच तथा एकेंद्रियादि पाँच इन दस स्थानों को प्राप्त होने के कारण दस प्रकार का है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">जीवों के जलचर, स्थलचर आदि भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/219</span> <span class="PrakritText">सकलिंदिया य जलथलखचरा...। </span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय जीव जलचर, स्थलचर व नभचर के भेद से तीन प्रकार हैं। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/117 )</span> <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/129 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> जीवों के गर्भज आदि भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/73 </span><span class="PrakritGatha">अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उब्भिंदिमोववादिम णेया पंचिंदिया जीवा।73।</span> =<span class="HindiText">अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, स्वेदज, सम्मूर्च्छिम, उद्भेदिम और औपपादिक जीवों के पंचेंद्रिय जानना चाहिए। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,33/ </span>गा.139/246), <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/130 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">कार्य कारण जीव के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 </span><span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:। ...शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीव:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध सद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्य शुद्धजीव’ (सिद्ध पर्याय) है। शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि परमस्वभाव गुणों का आधार होने के कारण (त्रिकाली शुद्ध चैतन्य) कारण शुद्धजीव है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> पुण्य-पाप जीव का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/622-623/1075 </span><span class="PrakritText">जीवदुगं उत्तट्ठं जीवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा। वदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवंति त्ति। मिच्छाइट्ठी पावा णंताणंता य सासणगुणा वि।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/643/1095/1 </span><span class="SanskritText"> मिश्रा: पुण्यपापमिश्रजीवा: सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात् । </span>=<span class="HindiText">पहले दो प्रकार के जीव कहे गये हैं। उनमें से जो सम्यक्त्व गुण युक्त या व्रतयुक्त होय सो पुण्य जीव हैं और इनसे विपरीत पाप जीव हैं। मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव पापजीव हैं। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व रूप मिश्र परिणामों से युक्त मिश्र गुणस्थानवर्ती, पुण्य-पाप मिश्र जीव हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9">नोजीव का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,6,3/296/8 </span><span class="PrakritText"> णोजीवो णाम अणंताणंतविस्सासुवचएहिं उवचिदकम्मपोग्गलक्खंधो पाणधारणाभावादो णाणदंसणाभावादो वा। तत्थतणजीवो वि सिया णोजीवो; तत्तो पुधभूतस्स तस्स अणुवलंभादो। </span>=<span class="HindiText">अनंतानंत विस्रसोपचयों से उपचय को प्राप्त कर्मपुद्गलस्कंध (शरीर) प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शन से रहित होने के कारण नोजीव कहलाता है। उससे संबंध रखने वाला जीव भी कथंचित् नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> मुक्त जीव में जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/4/7/25/27 </span><span class="SanskritText">तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धं जीवितपूर्वत्वात् । संप्रति न जीवंति सिद्धा भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामौपचारिकत्वं, मुख्यं चेष्यते; नैष दोष: भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनात् सांप्रतिकमपि जीवत्वमस्ति। अथवा रूढिशब्दोऽयम् । रूढो वा क्रिया व्युत्पत्त्यथे वेति कादाचित्कं जीवनमपेक्ष्यं सर्वदा वर्तते गोशब्दवत् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–‘जो दशप्राणों से जीता है...’ आदि लक्षण करने पर सिद्धों के जीवत्व घटित नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–सिद्धों के यद्यपि दशप्राण नहीं हैं, फिर भी वे इन प्राणों से पहले जीये थे, इसलिए उनमें भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–सिद्ध वर्तमान में नहीं जीते। भूतपूर्व गति की उनमें जीवत्व कहना औपचारिक है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भावप्राण रूप ज्ञानदर्शन का अनुभव करने से वर्तमान में भी उनमें मुख्य जीवत्व है। अथवा रूढिवश क्रिया को गौणता से जीव शब्द का निर्वचन करना चाहिए। रूढि में क्रिया गौण हो जाती है। जैसे कभी-कभी चलती हुई देखकर गौ में सर्वदा गो शब्द की वृत्ति देखी जाती है, वैसे ही कदाचित्क जीवन की अपेक्षा करके सर्वदा जीव शब्द की वृत्ति हो जाती है। <span class="GRef">( भगवती आराधना </span>वि./37/131/13) <span class="GRef">( महापुराण/24/104 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> औपचारिक होने से सिद्धों में जीवत्व नहीं है।</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,16/13/3 </span><span class="SanskritText"> तं च अजोगिचरिमसमयादो उवरि णत्थि, सिद्धेसु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो। तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि। सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, उवयारस्स सच्चत्ताभावादो। सिद्धे सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं किंतु कम्मविवागजं। </span>=<span class="HindiText">आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह अयोगी के अंतिम समय से आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिक से अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। <strong>प्रश्न</strong>–सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, सिद्धों में जीवत्व उपचार से है, और उपचार को सत्य मानना ठीक नहीं है। सिद्धों में प्राणों का अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है, कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है, किंतु वह कर्मों के विपाक से उत्पन्न होता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> मार्गणास्थानादि जीव के लक्षण नहीं है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति अधिकार/1/57</span><span class="SanskritGatha"> गुणजीवादय: संति विंशतिर्या प्ररूपणा:। कर्मसंबंधनिष्पंनास्ता जीवस्य न लक्षणम् ।57। </span>=<span class="HindiText">गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान, पर्याप्ति आदि जो 20 प्ररूपणाएँ हैं वे भी कर्म के संबंध से उत्पन्न हैं, इसलिए वे जीव का लक्षण नहीं हो सकती।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तो फिर जीव की सिद्धि कैसे हो</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/19/288/8 </span><span class="SanskritText">अत एवात्मास्तित्वसिद्धि:। यथा यंत्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति तथा प्राणापानादिकर्मोऽपि क्रियावंतमात्मानं साधयति। </span>=<span class="HindiText">इसी से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है। जैसे यंत्रप्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता के अस्तित्व का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण और अपान आदिरूप कार्य भी क्रियावाले आत्मा के साधक हैं। <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/7/234/20 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/8/18/121/13 </span><span class="SanskritText"> ‘नास्त्यात्मा अकारणत्वात् मंडूकशिखंडवत्’ इति। हेतुरयमसिद्धो विरुद्धोऽनैकांतिकश्च। कारणवानेवात्मा इति निश्चयो न:, नरकादिभवव्यतिरिक्तद्रव्यार्थाभावात्, तस्य च मिथ्यादर्शनादिकारणत्वादसिद्धता। अतएव द्रव्यार्थाभावात् च पर्यायांतरानाश्रयत्वाद आश्रयाभावादप्यसिद्धता। अकारणमेव ह्यस्ति सर्वं घटादि, तेनायं द्रव्यार्थिकस्य विरुद्ध एव। सतोऽकारणत्वात् यदस्ति तन्नियमेनैवाकारणम्, न हि किंचिदस्ति च कारणवच्च। यदि तदस्त्येव किमस्य कारणेन नित्यवृत्तत्वात् । कारणवत्त्वं चाप्तत एव कार्यार्थत्वात् कारणस्येति विरुद्धार्थता। मंडूकशिखंडकादीनाम् असत्प्रत्ययहेतुत्वेन परिच्छिन्नसत्त्वानामभ्युपगमोत्तेषां च कारणाभावात् उभयपक्षवृत्तेरनैकांतिकत्वम् ।<br /> | |||
दृष्टांतोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल:...एकजीवसंबंधित्वात् मंडूकशिखंड इत्यस्ति।...<br /> | |||
नास्त्यात्मा | नास्त्यात्मा अप्रत्यक्षत्वाच्छशशृंगवदिति: अयमपि न हेतु: असिद्धविरुद्धानैकांतिकत्वाप्रच्युते:। सकलविमलकेवलज्ञानप्रत्यक्षत्वाच्छुद्धात्मां प्रत्यक्ष:, कर्मनोकर्मपरतंत्रपिंडात्मा च अवधिमन:पर्ययज्ञानयोरपि प्रत्यक्ष इति ‘अप्रत्यक्षत्वात्’ इत्यसिद्धो हेतु:। इंद्रियप्रत्यक्षाभावादप्रत्यक्ष इति चेत्; न; तस्य परोक्षत्वाभ्युपगमात् । अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत् ।... असति च शशशृंगादौ सति च विज्ञानादौ अप्रत्यक्षत्वस्य वृत्तेरनैकांतिका। अथ विज्ञानादे: स्वसंवेद्यत्वात् योगिप्रत्यक्षत्वाच्च हेतोरभाव इति चेत्; आत्मनि कोऽपरितोष:। दृष्टांतोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल: पूर्वोक्तेन विधिना अप्रत्यक्षत्वस्य नास्ति त्वस्य चासिद्धे:।<br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/8/19/122/25 </span>ग्रहणविज्ञानासंभविफलदर्शनाद् गृहीतृसिद्धि:।19। यान्यमूनि ग्रहणानि...यानि च ज्ञानानि तत्संनिकर्षजानि तानि, तेष्वसंभविफलमुपलभ्यते। किं पुनस्तत् । आत्मस्वभावस्थानज्ञानविषयसंप्रतिपत्ति:। तदेतद् ग्रहणानां तावन्न संभवति: अचेतनत्वात्, क्षणिकत्वाच्च...ततो व्यतिरिक्तेन केनचिद्भवितव्यमिति गृहीतृसिद्धि:।<br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/8/20/123/1 </span>योऽयमस्माकम् ‘आत्माऽस्ति’ इति प्रत्यय: स संशयानध्यवसायविपर्ययसम्यक्प्रत्ययेषु य: कश्चित् स्यात्, सर्वेषु च विकल्पेष्विष्टं सिध्यति। न तावत्संशय: निर्णयात्मकत्वात् । सत्यपि संशये तदालंबनात्मसिद्धि:। न हि अवस्तुविषय: संशयो भवति। नाप्यनध्यवसायो जात्यंधवधिररूपशब्दवत्; अनादिसंप्रतिपत्ते:। स्याद्विपर्यय:; एवमप्यात्मास्तित्वसिद्धि: पुरुषे स्थाणुप्रतिपत्तौ स्थाणुसिद्धिवत् । स्यात्सम्यक्प्रत्यय:; अविवादमेतत्–आत्मास्तित्वमिति सिद्धो न पक्ष:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उत्पादक कारण का अभाव होने से, मंडूकशिखावत् आत्मा का भी अभाव है ? <strong>उत्तर</strong>–आपका हेतु असिद्ध, विरुद्ध व अनैकांतिक तीनों दोषों से युक्त है। | |||
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<li class="HindiText"> नरनारकादि पर्यायों से पृथक् आत्मा नहीं मिलता, और वे | <li class="HindiText"> नरनारकादि पर्यायों से पृथक् आत्मा नहीं मिलता, और वे पर्याएँ मिथ्यादर्शनादि कारणों से होती हैं, अत: यह हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक् आत्मद्रव्य की सत्ता न होने से यह हेतु आश्रयासिद्ध भी है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जितने घटादि सत् पदार्थ हैं वे सब स्वभाव से ही सत् हैं न कि किसी कारण विशेष से। जो सत् है वह तो अकारण ही होता है। जो स्वयं सत् है उसकी नित्यवृत्ति है अत: उसे अन्य कारण से क्या प्रयोजन। जिसका कोई कारण होता है वह असत् होता है, क्योंकि वह कारण का कार्य होता है, अत: यह हेतु विरुद्ध है। </li> | <li class="HindiText"> जितने घटादि सत् पदार्थ हैं वे सब स्वभाव से ही सत् हैं न कि किसी कारण विशेष से। जो सत् है वह तो अकारण ही होता है। जो स्वयं सत् है उसकी नित्यवृत्ति है अत: उसे अन्य कारण से क्या प्रयोजन। जिसका कोई कारण होता है वह असत् होता है, क्योंकि वह कारण का कार्य होता है, अत: यह हेतु विरुद्ध है। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मंडूकशिखंड भी ‘नास्ति’ इस प्रत्यय के होने से सत् तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है, अत: यह हेतु अनैकांतिक भी है। मंडूकशिखंड दृष्टांत भी साध्य, साधन व उभय धर्मों से विकल होने के कारण दृष्टांताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षा से कारण बन जो हैं और वह कथंचित् सत् भी सिद्ध हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–आत्मा नहीं है, क्योंकि गधे के सींगवत् वह प्रत्यक्ष नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–यह हेतु भी असिद्ध, विरुद्ध व अनैकांतिक तीनों दोषों से दूषित है। </li> | ||
<li class="HindiText"> शुद्धात्मा तो सकल विमल केवलज्ञान के प्रत्यक्ष है और कर्म नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा अवधि मन:पर्यय ज्ञान के भी प्रत्यक्ष है अत: उपरोक्त हेतु असिद्ध है। <strong>प्रश्न</strong> | <li class="HindiText"> शुद्धात्मा तो सकल विमल केवलज्ञान के प्रत्यक्ष है और कर्म नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा अवधि मन:पर्यय ज्ञान के भी प्रत्यक्ष है अत: उपरोक्त हेतु असिद्ध है। <strong>प्रश्न</strong>–इंद्रिय प्रत्यक्ष न होने से वह अप्रत्यक्ष है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इंद्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष ही माना गया है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होते हैं, जेसे कि धूम से अनुमित अग्नि। असद्भूत शशशृंगादि तथा सद्भूत विज्ञानादि दोनों ही अप्रत्यक्ष हैं, अत: उपरोक्त हेतु अनैकांतिक है। यदि बौद्ध लोग यह कहें कि विज्ञान तो स्वसंवेदन तथा योगियों के प्रत्यक्ष है इसलिए आपका हेतु ठीक नहीं है, तो हम कह सकते हैं कि फिर आत्मा को ही स्वसंवेदन व योगिप्रत्यक्ष मानने में क्या हानि है। शशशृंगका दृष्टांत भी साध्य, साधन व उभय धर्मों से विकल होने के कारण दृष्टांताभास है, क्योंकि मंडूक शिखवत् शशशृंग भी कथंचित् सत् है। इसलिए उसे अप्रत्यक्ष कहना असिद्ध है। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> इंद्रियों और तज्जनित ज्ञानों में जो संभव नहीं है ऐसा जो, ‘जो मैं देखने वाला था वही चलने वाला हूँ’ यह एकत्वविषयक फल सभी विषयों व ज्ञानों में एकसूत्रता रखने वाले गृहीता आत्मा के सद्भाव को सिद्ध करता है। आत्मस्वभाव के होने पर भी ज्ञान की व विषयों की प्राप्ति होती है, इंद्रियों के उसका संभवपना नहीं है, क्योंकि वे अचेतन व क्षणिक हैं। इसलिए उन इंद्रियों से व्यतिरिक्त कोई न कोई ग्रहण करने वाला होना चाहिए, यह सिद्ध होता है। <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/17/233/16 )</span>; </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> यह जो हम सबको ‘आत्मा है’ इस प्रकार का ज्ञान होता है, वह संशय, अनध्यवसाय, विपर्यय या सम्यक् इन चार विकल्पों में से कोई एक तो होना ही चाहिए। कोई सा भी विकल्प हमारे इष्ट की सिद्धि कर देता है। यदि यह ज्ञान संशयरूप है तो भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है, अत: यह ज्ञान अनध्यवसाय नहीं हो सकता। यदि इसे विपरीत कहते हैं, तो भी आत्मा की क्वचित् सत्ता सिद्ध हो जाती है, क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय ज्ञान नहीं होता। और सम्यक् रूप में तो आत्मसाधक है ही।</span><br /> | ||
<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/232/5 </span>अहं सुखी अहं दु:खी इति अंतर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालंबनतयैवोपपत्ते:। =यत्पुन: अहं गौर: अहं श्याम इत्यादि बहिर्मुख: प्रत्यय: स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते। यथा प्रियभृत्येऽहमिति व्यपदेश:।<br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/232/26 </span>यच्च, अहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् तत्रेयं वासना। ...यथा बीजं...न तस्यांकुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की। तस्या: कथंचिन्नित्यत्वात् । एवमात्मा सदा संनिहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । ...रूपाद्युपलब्धि: सकर्तृका, क्रियात्वात्, छिदिक्रियावत् । यश्चास्या: कर्ता स आत्मा। न चात्र चक्षुरादीनां कर्तृत्वम् । तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतंत्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाचेतनत्वात्, परप्रेर्यत्वात्, प्रयोक्तृव्यापारानिरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् ।<br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/234/20 </span>तथा च साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्टक्रियात्वात्, रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितम्, विशिष्टक्रियाश्रयत्वात्, रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, सारथिवत् ।<br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/235/14 </span>तथा प्रेर्यं मन: अभिमतविषयसंबंधनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्, दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरक: स आत्मा इति। ...तथा अस्त्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसांकेतिकशुद्धपर्यायवाच्य:, स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति, यथा घटादि:। ...तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि, गुणत्वाद्, रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा। इत्यादिलिंगानि। तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिद्ध:। </span></li> | |||
<li class="HindiText">–मैं सुखी | <li class="HindiText">–मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ ऐसे अंतर्मुखी प्रत्ययों की आत्मा के आलंबन से ही उत्पत्ति होती है। और मैं गोरा, मैं काला ऐसे बहिर्मुखी प्रत्यय भी शरीर मात्र के सूचक नहीं हैं, क्योंकि प्रिय नौकर में अहंबुद्धि की भाँति यहाँ भी अहं प्रत्यय का प्रयोग आत्मा के उपकार करने वाले में किया गया है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/5,50 )</span>; </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अहं प्रत्यय में कादाचित्कत्व के प्रति भी उत्तर यह है कि जिस प्रकार बीज में अंकुर की अनित्यता को देखकर उसमें अंकुरोत्पादन की शक्ति को कादाचित्क नहीं कह सकते, उसी प्रकार अहं प्रत्यय के अनित्य होने से उसे कादाचित्क नहीं कह सकते हैं (अर्थात् भले ही उपयोग में अहं प्रत्यय कादाचित्क हो, पर लब्धरूप से वह नित्य रहता है)। </li> | ||
<li class="HindiText"> क्रिया होने के कारण रूपादि की उपलब्धि का कोई कर्ता होना चाहिए, जैसे कि लकड़ी काटनेरूप क्रिया का कोई न कोई कर्ता अवश्य देखा जाता है। जो इसका कर्ता है वही आत्मा है। | <li class="HindiText"> क्रिया होने के कारण रूपादि की उपलब्धि का कोई कर्ता होना चाहिए, जैसे कि लकड़ी काटनेरूप क्रिया का कोई न कोई कर्ता अवश्य देखा जाता है। जो इसका कर्ता है वही आत्मा है। यहाँ चक्षु आदि इंद्रियों में कर्तापना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो ज्ञान के प्रति करण होने से परतंत्र हैं, जैसे कि छेदन क्रिया के प्रति कुठारादि। इनका करणत्व भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि पौद्गलिक होने के कारण ये अचेतन हैं और पर के द्वारा प्रेरित की जाती हैं। इसका भी कारण यह है कि प्रयोक्ता के व्यापार से निरपेक्ष करण की प्रवृत्ति नहीं होती। </li> | ||
<li class="HindiText"> हितरूप साधनों का ग्रहण और अहितरूप साधनों का त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि वह यह क्रिया है, जैसे कि रथ की क्रिया। विशिष्ट क्रिया का आश्रय होने से शरीर प्रयत्नवान् का आधार है जैसे कि रथ सारथी का आधार है। और जो इस शरीर की क्रिया का अधिष्ठाता है वह आत्मा है, जैसे कि रथ की क्रिया का अधिष्ठाता सारथी है।</li> | <li class="HindiText"> हितरूप साधनों का ग्रहण और अहितरूप साधनों का त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि वह यह क्रिया है, जैसे कि रथ की क्रिया। विशिष्ट क्रिया का आश्रय होने से शरीर प्रयत्नवान् का आधार है जैसे कि रथ सारथी का आधार है। और जो इस शरीर की क्रिया का अधिष्ठाता है वह आत्मा है, जैसे कि रथ की क्रिया का अधिष्ठाता सारथी है।</li> | ||
<li class="HindiText"> जिस प्रकार बालक के हाथ पत्थर का गोला उसकी प्रेरणा से ही नियत स्थान पर | <li class="HindiText"> जिस प्रकार बालक के हाथ पत्थर का गोला उसकी प्रेरणा से ही नियत स्थान पर पहुँच सकता है, उसी प्रकार नियत पदार्थों की ओर दौड़ने वाला मन आत्मा की प्रेरणा से ही पदार्थों की ओर जाता है। अतएव मन के प्रेरक आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य स्वीकार करना चाहिए। </li> | ||
<li class="HindiText"> ‘आत्मा’ शुद्धनिर्विकार पर्याय का वाचक है, इसलिए उसका अस्तित्व अवश्य होना चाहिए। जो शब्द बिना संकेत के शुद्ध पर्याय के वाचक होते हैं उनका अस्तित्व अवश्य होता है, जैसे घट आदि। जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते। </li> | <li class="HindiText"> ‘आत्मा’ शुद्धनिर्विकार पर्याय का वाचक है, इसलिए उसका अस्तित्व अवश्य होना चाहिए। जो शब्द बिना संकेत के शुद्ध पर्याय के वाचक होते हैं उनका अस्तित्व अवश्य होता है, जैसे घट आदि। जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते। </li> | ||
<li class="HindiText"> सुख-दु:ख आदि किसी द्रव्य के आश्रित हैं, क्योंकि वे गुण हैं। जो गुण होते हैं वे द्रव्य के आश्रित रहते हैं, जैसे रूप। जो इन गुणों से युक्त है वही आत्मा है। इत्यादि अनेक साधनों से अनुमान द्वारा आत्मा की सिद्धि होती है।<br /> | <li class="HindiText"> सुख-दु:ख आदि किसी द्रव्य के आश्रित हैं, क्योंकि वे गुण हैं। जो गुण होते हैं वे द्रव्य के आश्रित रहते हैं, जैसे रूप। जो इन गुणों से युक्त है वही आत्मा है। इत्यादि अनेक साधनों से अनुमान द्वारा आत्मा की सिद्धि होती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/21 </span><span class="SanskritText">कश्चिदाह। यथैकोऽपि चंद्रमा बहुषु जलघटेषु भिन्नभिन्नरूपो दृश्यते तथैकोऽपि जीवो बहुशरीरेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यते इति। परिहारमाह। बहुषु जलघटेषु चंद्रकिरणोपाधिवशेन जलपुद्गला एव चंद्राकारेण परिणता न चाकाशस्थचंद्रमा। अत्र दृष्टांतमाह। यथा देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणानां पुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणमंति, न च देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणमति, यदि परिणमति तदा दर्पणस्थं मुखप्रतिबिंबं चैतन्यं प्राप्तनोति; न च तथा। तथैकचंद्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति। किं च। न चैकब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते प्रत्यक्षेण यश्चंद्रवंनानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्राय:। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार एक ही चंद्रमा बहुत से जल के घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता है, वैसे एक भी जीव बहुत से शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता हे। <strong>उत्तर</strong>–बहुत से जल के घड़ों में तो वास्तव में चंद्रकिरणों की उपाधि के निमित्त से जलरूप पुद्गल ही चंद्राकार रूप से परिणत होता है, आकाशस्थ चंद्रमा नहीं। जैसे कि देवदत्त के मुख का निमित्त पाकर नाना दर्पणों के पुद्गल ही नाना मुखाकार रूप से परिणमन कर जाते हैं न कि देवदत्त का मुख स्वयं नाना रूप हो जाता है। यदि ऐसा हुआ होता तो दर्पणस्थ मुख के प्रतिबिंबों को चैतन्यपना प्राप्त हो जाता, परंतु ऐसा नहीं होता है। इसी प्रकार एक चंद्रमा का नानारूप परिणमन नहीं समझना चाहिए दूसरी बात यह भी तो है कि उपरोक्त दृष्टांतों में तो चंद्रमा व देवदत्त दोनों प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, तब उनका प्रतिबिंब जल व दर्पण में पड़ता है, परंतु ब्रह्म नाम का कोई व्यक्ति तो प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं देता, जो कि चंद्रमा की भाँति नानारूप होवे। (परमात्मप्रकाश/मूल या टीका/2/99)<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">पूर्वोक्त लक्षणों का मतार्थ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय 37 </span>तथा तात्पर्यवृति में उसका उपोद्घात/76/8<span class="SanskritText"> अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषेण निराकरोति</span>–<span class="PrakritGatha">‘‘सस्सदमध उच्छेदं भव्यमभव्वं च सुण्णमिदरं च। विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे।37।’’ </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/6 </span><span class="SanskritText"> सामान्यचेतनाव्याख्यानं सर्वमतसाधारणं ज्ञातव्यम्; अभिन्नज्ञानदर्शनोपयोगव्याख्यानं तु नैयायिकमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थं; मोक्षोपदेशकमोक्षसाधकप्रभुत्वव्याख्यानं वीतरागसर्वप्रणीतं वचनं प्रमाणं भवतीति, ‘‘रयणदिवदिणयरुंदम्हि उडुदाउपासणुसुणरुप्पफलिहउ अगणि णवदिट्ठंता जाणु’’ इति दोहकसूत्रकथितनवदृष्टांतैर्भट्टचार्वाकमताश्रिताशिष्यापेक्षया सर्वज्ञसिद्धयर्थं; शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वव्याख्यानं तु नित्यकर्तृत्वैकांतसांख्यमतानुयायिशिष्यसंबोधनार्थं; भोक्तत्वव्याख्यानं कर्ता कर्मफलं न भुंक्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थं; स्वदेहप्रमाणं व्याख्यानं नैयायिकमीमांसककपिलमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं; अमूर्तत्वव्याख्यानं भट्टचार्वाकमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं; द्रव्यभावकर्मसंयुक्तव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य:।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जीव का अभाव ही मुक्ति है ऐसा मानने वाले सौगत (बौद्धमत) का निराकरण करने के लिए कहते हैं–कि यदि मोक्ष में जीव का सद्भाव न हो तो शाश्वत या नाशवंत, भव्य या अभव्य, शून्य या अशून्य तथा विज्ञान या अविज्ञान घटित ही नहीं हो सकते।37। अथवा कर्ता स्वयं अपने कर्म के फल को नहीं भोगता ऐसा मानने वाले बौद्धमतानुसारी शिष्य के जीव को भोक्ता कहा गया है। </li> | <li class="HindiText"> जीव का अभाव ही मुक्ति है ऐसा मानने वाले सौगत (बौद्धमत) का निराकरण करने के लिए कहते हैं–कि यदि मोक्ष में जीव का सद्भाव न हो तो शाश्वत या नाशवंत, भव्य या अभव्य, शून्य या अशून्य तथा विज्ञान या अविज्ञान घटित ही नहीं हो सकते।37। अथवा कर्ता स्वयं अपने कर्म के फल को नहीं भोगता ऐसा मानने वाले बौद्धमतानुसारी शिष्य के जीव को भोक्ता कहा गया है। </li> | ||
<li class="HindiText"> सामान्य चैतन्य का व्याख्यान सर्वमत साधारण के जानने के लिए है। </li> | <li class="HindiText"> सामान्य चैतन्य का व्याख्यान सर्वमत साधारण के जानने के लिए है। </li> | ||
<li class="HindiText"> अभिन्न ज्ञानदर्शनोपयोग का व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ है। (क्योंकि वे ज्ञानदर्शन को जीव से पृथक् मानते हैं)। </li> | <li class="HindiText"> अभिन्न ज्ञानदर्शनोपयोग का व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ है। (क्योंकि वे ज्ञानदर्शन को जीव से पृथक् मानते हैं)। </li> | ||
<li class="HindiText"> स्वदेह प्रमाण का व्याख्यान नैयायिक, मीमांसक व कपिल (सांख्य) मतानुसारी शिष्य का | <li class="HindiText"> स्वदेह प्रमाण का व्याख्यान नैयायिक, मीमांसक व कपिल (सांख्य) मतानुसारी शिष्य का संदेह दूर करने के लिए है, (क्योंकि वे जीव को विभु या अणु प्रमाण मानते हैं)। </li> | ||
<li class="HindiText"> शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापने का व्याख्यान सांख्यमतानुयायी शिष्य के संबोधनार्थ है, (क्योंकि वे जीव या पुरुष को नित्य अकर्ता या अपरिणामी मानते हैं।) </li> | <li class="HindiText"> शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापने का व्याख्यान सांख्यमतानुयायी शिष्य के संबोधनार्थ है, (क्योंकि वे जीव या पुरुष को नित्य अकर्ता या अपरिणामी मानते हैं।) </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य व भावकर्मों से संयुक्तपने का व्याख्यान सदाशिव वादियों का निराकरण करने के लिए है, (क्योंकि वे जीव को सर्वथा शुद्ध व मुक्त मानते हैं)। </li> | <li class="HindiText"> द्रव्य व भावकर्मों से संयुक्तपने का व्याख्यान सदाशिव वादियों का निराकरण करने के लिए है, (क्योंकि वे जीव को सर्वथा शुद्ध व मुक्त मानते हैं)। </li> | ||
<li class="HindiText"> मोक्षोपदेशक, मोक्षसाधक, प्रभु, तथा वीतराग सर्वज्ञ के वचन प्रमाण होते हैं, ऐसा व्याख्यान; अथवा रत्न, दीप, सूर्य, दही, दूध, घी, पाषाण, सोना, | <li class="HindiText"> मोक्षोपदेशक, मोक्षसाधक, प्रभु, तथा वीतराग सर्वज्ञ के वचन प्रमाण होते हैं, ऐसा व्याख्यान; अथवा रत्न, दीप, सूर्य, दही, दूध, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ये जीव के नौ दृष्टांत चार्वाक् मताश्रित शिष्य की अपेक्षा सर्वज्ञ की सिद्धि करने के लिए किये गये हैं। अथवा–अमूर्तत्व का व्याख्यान भी उन्होंने संबोधनार्थ किया गया है। (क्योंकि वे किसी चेतन व अमूर्त जीव को स्वीकार नहीं करते, बल्कि पृथिवी आदि पाँच भूतों के संयोग से उत्पन्न होने वाला एक क्षणिक तत्त्व कहते हैं)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> जीव के भेद-प्रभेदादि जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/32/69/18 </span><span class="SanskritText"> अत्र जीविताशारूपरागादिविकल्पत्यागेन सिद्धजीवसदृश: परमाह्लादरूपसुखरसास्वादपरिणतनिजशुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेयमिति भावार्थ:।</span> =<span class="HindiText">यहाँ (जीव के संसारी व मुक्तरूप भेदों में से) जीने की आशारूप रागादि विकल्पों का त्याग करके सिद्धजीव सदृश परमाह्लादरूप सुखरसास्वादपरिणत निजशुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय समझना। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/2/10/6 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> जीव के गुण व धर्म</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">जीव के 21 सामान्य विशेष स्वभावों का नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/4 </span><span class="SanskritText">स्वभावा: कथ्यंते–अस्तिस्वभाव:, नास्तिस्वभाव:, नित्यस्वभाव:, अनित्यस्वभाव:, एकस्वभाव:, अनेकस्वभाव:, भेदस्वभाव:, अभेदस्वभाव:, भव्यस्वभाव:, अभव्यस्वभाव:, परमस्वभाव:–द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावा:। चेतनस्वभाव:, अचेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभाव:, अमूर्तस्वभाव:, एकप्रदेशस्वभाव:, अनेकप्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभाव:, शुद्धस्वभाव:, अशुद्धस्वभाव:, उपचरितस्वभाव:–एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावा:। जीवपुद्गलयोरेकविंशति:। ‘एकविंशतिभावा: स्युर्जीवपुद्गलयोर्मता:।‘ टिप्पणी–जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभाव:, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तत्वस्वभाव:। तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तुभावोऽभिधीयते। तस्य एकप्रदेशसंभवात् ।</span>=<span class="HindiText">स्वभावों का कथन करते हैं–अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव हैं। और–चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव और उपचरित स्वभाव ये दस विशेष स्वभाव हैं। कुल मिलकर 21 स्वभाव हैं। इनमें से जीव व पुद्गल में 21 के 21 हैं। प्रश्न–(जीव में अचेतन स्वभाव, मूर्तस्वभाव और एकप्रदेश स्वभाव कैसे संभव है)। उत्तर–असद्भूत व्यवहारनय से जीव में अचेतन व मूर्त स्वभाव भी संभव है क्योंकि संसारावस्था में यह अचेतन व मूर्त शरीर से बद्ध रहता है। एक प्रदेशस्वभाव भाव की अपेक्षा से है। वर्तमान पर्यायाक्रांत वस्तु को भाव कहते हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा वह एकप्रदेशी कहा जा सकता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">जीव के गुणों का नाम निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> ज्ञान दर्शन आदि विशेष गुण</strong> <br /> | ||
देखें [[ जीव#1.1 | जीव - 1.1 ]](चेतना व उपयोग जीव के लक्षण हैं)।</span><br /> | देखें [[ जीव#1.1 | जीव - 1.1 ]](चेतना व उपयोग जीव के लक्षण हैं)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/2 </span><span class="SanskritText">षोडशविशेषगुणेषु जीवपुद्गलयो: षडिति। जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट् ।</span>=<span class="HindiText">सोलह विशेष गुणों में से (देखें [[ गुण#3 | गुण - 3]]) जीव व पुद्गल में छह छह हैं। तहाँ जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व ये छह हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/945 </span><span class="SanskritGatha">तद्यधायथं जीवस्य चारित्रं दर्शनं सुखम् । ज्ञानं सम्यक्त्वमित्येते स्युर्विशेषगुणा: स्फुटम् ।945। </span>=<span class="HindiText">चारित्र, दर्शन, सुख, ज्ञान और सम्यक्त्व ये पाँच रीति से जीव के विशेष गुण हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2">वीर्य अवगाह आदि सामान्य गुण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/946 </span><span class="SanskritText">वीर्यं सूक्ष्मोऽवगाह: स्यादव्याबाधश्चिदात्मक:। स्याद्गुरुलघुसंज्ञं च स्यु: सामान्यगुणा इमे।</span> =<span class="HindiText">चेतनात्मक वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व ये पाँच जीव के सामान्य गुण हैं।<br /> | |||
देखें [[ मोक्ष ]]/3 (सिद्धों के आठ गुणों में भी इन्हें गिनाया है)।<br /> | देखें [[ मोक्ष ]]/3 (सिद्धों के आठ गुणों में भी इन्हें गिनाया है)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">जीव के अन्य अनेकों गुण व धर्म</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/27 </span><span class="PrakritText">जीवों त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।27। </span>=<span class="HindiText">आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोगलक्षिता है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, देहप्रमाण है, अमूर्त है और कर्मसंयुक्त है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/109 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार/127 )</span>; <span class="GRef">( भावपाहुड़/ </span>मू./148); <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ </span>मू./1/31); <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/4/14/26/11 )</span>; <span class="GRef">( महापुराण/24/92 )</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/106 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/2 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/ </span>परि.―<span class="SanskritText">अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावांत:पातिंयोऽनंता: शक्तय: उत्प्लवंते</span>–<span class="HindiText">उस (आत्मा) के ज्ञानमात्र एक भाव की अंत:पातिनी (ज्ञान मात्र एक भाव के भीतर समा जाने वाली) अनंत शक्तियाँ उछलती हैं–उनमें से कितनी ही (47) शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं– | |||
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<li class="HindiText"> सर्वधर्मव्यापकत्वशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> सर्वधर्मव्यापकत्वशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> साधरण असाधारण साधारणासाधारण धर्मत्वशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> साधरण असाधारण साधारणासाधारण धर्मत्वशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अनंतधर्मत्वशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> विरुद्धधर्मत्वशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> विरुद्धधर्मत्वशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> तत्त्वशक्ति,</li> | <li class="HindiText"> तत्त्वशक्ति,</li> | ||
Line 416: | Line 426: | ||
<li class="HindiText"> कर्तृशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> कर्तृशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> करणशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> करणशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> संप्रदानशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> अपादानशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> अपादानशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> अधिकरणशक्ति, </li> | <li class="HindiText"> अधिकरणशक्ति, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> संबंधशक्ति। नोट–इन शक्तियों के अर्थों के लिए–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
देखें [[ जीव#1.2 | जीव - 1.2]]-3 कर्ता, भोक्ता, विष्णु, स्वयंभू, प्राणी | देखें [[ जीव#1.2 | जीव - 1.2]]-3 कर्ता, भोक्ता, विष्णु, स्वयंभू, प्राणी जंतु आदि अनेकों अन्वर्थक नाम दिये हैं। नोट–उनके अर्थ जीव/1/3 में दिये हैं।<br /> | ||
देखें [[ गुण#3 | गुण - 3]] जीव में | देखें [[ गुण#3 | गुण - 3]] जीव में अनंत गुण हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">जीव में सूक्ष्म महान् आदि विरोधी धर्मों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/8/13<span class="SanskritText"> यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते, नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्तं प्रतीतिं दृढां, सिद्धज्योतिरमूर्तिचित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते।13।</span> =<span class="HindiText">जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पादविनाशवाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है, तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसी वह दृढ़ प्रतीति को प्राप्त हुई अमूर्तिक, चेतन एवं सुखस्वरूप सिद्धज्योति किसी विरले ही योगी पुरुष के द्वारा देखी जाती है।13। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/10/14)।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> जीव में कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/13 </span><span class="PrakritGatha"> मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया।13। </span>=<span class="HindiText">संसारी जीव अशुद्धनय की दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानों से चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्धनय से सभी संसारी जीव शुद्ध हैं। <span class="GRef">( समयसार/38-68 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/11 </span><span class="SanskritText">तच्च पुनरुपादानकारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा। रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानआगमभाषया शुक्लध्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्तौ शुद्धोपादानकारणं भवति। अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवतीति सूत्रार्थ:। </span>=<span class="HindiText">वह उपादान कारणरूप जीव शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदज्ञान अथवा आगम भाषा की अपेक्षा शुक्लध्यान केवलज्ञान की उत्पत्ति में शुद्धउपादानकारण है और अशुद्धनिश्चयनय से रागादि से अशुद्ध हुआ अशुद्ध आत्मा अशुद्ध उपादान कारण है। ऐसा तात्पर्य है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">जीव कथंचित् सर्वव्यापी है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/23,26 </span><span class="PrakritGatha">आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठ। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।23। सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया।26।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> आत्मा | <li class="HindiText"> आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है।23। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/8/5)</li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जिनवर सर्वगत है और जगत् के सर्वपदार्थ जिनवरगत हैं; क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं, और वे सर्व पदार्थ ज्ञान के विषय हैं, इसलिए जिनके विषय कहे गये हैं <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/254/255 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./1/52<span class="PrakritGatha"> अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणेण जेण। लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण।52। </span>=<span class="HindiText">यह आत्मा कर्मरहित होकर केवलज्ञान से जिस कारण लोक और अलोक को जानता है इसीलिए हे जीव ! वह सर्वगत कहा जाता है।<br /> | |||
देखें [[ केवली#7.7 | केवली - 7.7 ]](केवली समुद्घात के समय आत्मा सर्वलोक में व्याप जाता है)।<br /> | देखें [[ केवली#7.7 | केवली - 7.7 ]](केवली समुद्घात के समय आत्मा सर्वलोक में व्याप जाता है)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> जीव कथंचित् देहप्रमाण है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/33 </span><span class="PrakritGatha">जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेहमत्तं पभासयदि।33। </span><span class="HindiText">=जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूध में डाला जाने पर दूध को प्रकाशित करता है उसी प्रकार देही देह में रहता हुआ स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/9 </span><span class="SanskritText">जीवस्तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात्कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणुमहद्वाधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि जीव के प्रदेश धर्म व अधर्म या लोकाकाश के बराबर है, तो वह संकोच और विस्तार स्वभाव वाला होने के कारण, कर्म के निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उतनी अवगाहना का होकर रहता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/8/4/449/33 )</span>; <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/176 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/34/72/13 </span><span class="SanskritText">सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे। </span>=<span class="HindiText">देह के मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एकदेश में नहीं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> सर्वव्यापीपने का निषेध व देहप्रमाणपने की सिद्धि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/10/16/51/13 </span><span class="SanskritText">यदि हि सर्वगत आत्मा स्यात्; तस्य क्रियाभावात् पुण्यपापयो: कर्तृत्वाभावे तत्पूर्वकसंसार: तदुपरतिरूपश्च मोक्षो न मोक्ष्यते इति।</span> =<span class="HindiText">यदि आत्मा सर्वगत होता तो उसके क्रिया का अभाव हो जाने के कारण पुण्य व पाप के ही कर्तृत्व का अभाव हो जाता। और पुण्य व पाप के अभाव से संसार व मोक्ष इन दोनों की भी कोई योजना न बन सकती, क्योंकि पुण्य-पाप पूर्वक ही संसार होता है और उनके अभाव से मोक्ष।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/4 </span>श्लो.45/146<span class="SanskritText"> क्रियावान् पुरुषोऽसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा। पृथिव्यादि स्वसंवेद्य साधनं सिद्धमेव न:।45। </span>=<span class="HindiText">आत्मा क्रियावान् है, क्योंकि अव्यापक है, जैसे पृथिवी जल आदि। और यह हेतु स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/137 </span><span class="SanskritText">अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव। </span>=<span class="HindiText">अमूर्त आत्मा के संकोच विस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/177 </span><span class="PrakritGatha">सव्व-गओ जदि जीवो सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती। जाइज्ज ण सा दिट्ठो णियतणुमाणो तदो जीवो। </span>=<span class="HindiText">यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदु:ख का अनुभव होना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं देखा जाता। अत: जीव अपने शरीर के बराबर है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/2/31/149 </span><span class="SanskritGatha">स्वांग एव स्वसंवित्त्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् । यत: संवेद्यते सर्वै: स्वदेहप्रमितिस्तत:।31।</span> =<span class="HindiText">ज्ञान दर्शन सुख आदि गुणों और पर्यायों से युक्त अपनी आत्मा का अपने अनुभव से अपने शरीर के भीतर ही सब जीवों को संवेदन होता है। अत: सिद्ध है कि जीव शरीरप्रमाण है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> जीव संकोच विस्तार स्वभावी है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/16 </span><span class="SanskritText">प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ।</span>=<span class="HindiText">दीप के प्रकाश के समान जीव के प्रदेशों का संकोच विस्तार होता है। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/9 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/8/4/449/33 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136,137 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/176 )</span><br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10"> संकोच विस्तार धर्म की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/16/4-6/458/32 </span><span class="SanskritText">सावयवत्वात् प्रदेशविशरणप्रसंग इति चेत्; न; अमूर्तस्वभावापरित्यागात् ।4।...अनेकांतात् ।5। यो ह्येकांतेन संहारविसर्पवानेवात्मा सावयवश्चेति वा ब्रूयात् तं प्रत्ययमुपालंभो घटामुपेयात् । यस्य त्वनादिपारिणामिकचैतन्यजीवद्रव्योपयोगादिद्रव्यार्थादेशात् स्यान्न प्रदेशसंहारविसर्पवान्, द्रव्यार्थादेशाच्च स्यान्निरवयव:, प्रतिनियतसूक्ष्मबादरशरीरापेक्षनिर्माणनामोदयपर्यायार्थादेशात् स्यात् प्रदेशसंहारविसर्पवान्, अनादिकर्मबंधपर्यायार्थादेशाच्च स्यात् सावयव:, तं प्रत्यनुपालंभ:। किंच–तत्प्रदेशानामकारणपूर्वकत्वादणुवत् ।6।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्रदेशों का संहार व विसर्पण मानने से आत्मा को सावयव मानना होगा तथा उसके प्रदेशों का विशरण (झरन) मानना होगा और प्रदेश विशरण से शून्यता का प्रसंग आयेगा ? <strong>उत्तर</strong>–</span> | |||
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<li | <li class="HindiText"> बंध की दृष्टि से कार्मण शरीर के साथ एकत्व होने पर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसलिए उपरोक्त दोष नहीं आता। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सर्वथा संहार-विसर्पण व सावयव मानने वालों पर यह दोष लागू होता है, हम पर नहीं। क्योंकि हम अनेकांतवादी हैं। पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टि से हम न तो प्रदेशों का संहार या विसर्प मानते हैं और न उसमें सावयवपना। हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म बादर शरीर को उत्पन्न करने वाले निर्माण नामकर्म के उदयरूप पर्याय की विवक्षा से प्रदेशों का संहार व विसर्प माना गया है और अनादि कर्मबंधरूपी पर्यायार्थादेश से सावयवपना। और भी–</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जिस पदार्थ के अवयव कारण पूर्वक होते हैं उसके अवयवविशरण से विनाश हो सकता है जैसे तंतुविशरण से कपड़े का। परंतु आत्मा के प्रदेश अकारणपूर्वक होते हैं, इसलिए अणुप्रदेशवत् वह अवयवविश्लेष से अनित्यता को प्राप्त नहीं होता।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">जीव के प्रदेश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> जीव असंख्यात प्रदेशी है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/8 </span><span class="SanskritText">असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् ।8। </span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म और एकजीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। <span class="GRef">( नियमसार/35 )</span>; (प.प्रा./मू./2/24); <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/25 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/135 </span><span class="SanskritText">अस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य। </span>=<span class="HindiText">संकोच विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिए वह प्रदेशवान् है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/584/1025 )</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> संसारी जीव के अष्ट मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकार के</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ </span>सू.63/46 <span class="PrakritText">जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा अट्ठण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपदेसंबधो भवदि सो सव्वो अणादियसरीरिबंधो णाम।63।</span> =<span class="HindiText">जो अनादि शरीरबंध है। यथा–जीव के आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेशबंध होता है, यह सब अनादि शरीरबंध है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 12/4,2,11/ </span>सूत्र5-7/367<span class="PrakritText"> वेयणीयवेयणा सिया ट्ठिदा।5। सिया अट्ठिदा।6। सिया ट्ठिदाट्ठिदा।7।</span> =<span class="HindiText">वेदनीय कर्म की वेदना कथंचित् स्थित है।5। कथंचित् वे अस्थित हैं।6। कथंचित् वह स्थितअस्थित हैं।7।<br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/233/1 </span>में उपरोक्त सूत्रों का अर्थ ऐसा किया है–कि ‘आत्म प्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है’।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1779 </span><span class="PrakritGatha">अट्ठपदेसे मुत्तूण इमो सेसेसु सगपदेसेसु। तंत्तपि अद्धरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि।1779।</span> =<span class="HindiText">जैसे गरम जल में पकते हुए चावल ऊपर-नीचे होते रहते हैं, वैसे ही इस संसारी जीव के आठ रुचकाकार मध्यप्रदेश छोड़कर बाकी के प्रदेश सदा ऊपर-नीचे घूमते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/8/16/451/13 </span>में उद्धृत—<span class="SanskritText">सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निरपवादा: सर्वजीवानां स्थिता एव, ...व्यायामदु:खपरितापोद्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जितानाम् इतरे प्रदेशा: अस्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्च’ इति वचनान्मुख्या: एव प्रदेशा:।</span> =<span class="HindiText">जीव के आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवाद रूप से स्थित ही रहते हैं। व्यायाम के समय या दु:ख परिताप आदि के समय जीवों के उक्त आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं। शेष जीवों के स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के हैं। अत: ज्ञात होता है कि द्रव्यों के मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,3/366/5 </span><span class="PrakritText">वाहिवेयणासज्झसादिकिलेसविरहियस्स छदुमत्थस्स जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति।</span> =<span class="HindiText">व्याधि, वेदना एवं भव आदिक क्लेशों से रहित छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का चूँकि संचार पाया जाता है, अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/592/1031 </span><span class="PrakritGatha">सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा।592। </span>=<span class="HindiText">सर्व ही अरूपी द्रव्यों के त्रिकाल स्थित अचलित प्रदेश होते हैं और रूपी अर्थात् संसारी जीव के तीन प्रकार के होते हैं–चलित, अचलित व चलिताचलित।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> शुद्ध द्रव्यों व शुद्ध जीव के प्रदेश अचल ही होते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/8/16/451/13 </span>में उद्धृत<span class="SanskritText">–केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा: स्थिता एव। </span>=<span class="HindiText">अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश स्थित हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,3/367/12 </span><span class="PrakritText">अजोगिकेवलिम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। </span>=<span class="HindiText">अयोग केवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीव प्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/592/1031 </span><span class="PrakritGatha">सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवो जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा।592।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/592/1031/15 </span><span class="SanskritText">अरूपिद्रव्यं मुक्तजीवधर्माधर्माकाशकालभेदं सर्वम-अवस्थितमेव स्थानचलनाभावात् । तत्प्रदेशा अपि अचलिता: स्यु:।</span> =<span class="HindiText">सर्व अरूपी द्रव्य अर्थात् मुक्तजीव और धर्म-अधर्म आकाश व काल, ये अवस्थित हैं, क्योंकि ये अपने स्थान से चलते नहीं है। इनके प्रदेश भी अचलित ही हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> विग्रहगति में जीव के प्रदेश चलित ही होते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/592/1031/16 </span><span class="SanskritText">विग्रहगतौ चलिता:। </span>=<span class="HindiText">विग्रह गति में जीव के प्रदेश चलित होते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> जीवप्रदेशों के चलितपने का तात्पर्य परिस्पंद व भ्रमण आदि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/233/1 </span><span class="SanskritText"> वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेसु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु...</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,1/364/5 </span><span class="PrakritText"> जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु...</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,3/366/5 </span><span class="PrakritText">जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो...केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो...</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,3/366/11 </span><span class="PrakritText">ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु...</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,5/367/12 </span><span class="PrakritText">जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण...।</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"> वेदनाप्राभृत के सूत्र आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर...<br /> | <li class="HindiText"> वेदनाप्राभृत के सूत्र आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर...<br /> | ||
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<li class="HindiText"> किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि चलन नहीं होता...किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचालन होता है...<br /> | <li class="HindiText"> किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि चलन नहीं होता...किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचालन होता है...<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> परिस्पंदन से रहित जीव प्रदेशों में...<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीवप्रदेशों का (अयोगी में) संकोच विस्तार नहीं पाया जाता...<br /> | <li class="HindiText"> जीवप्रदेशों का (अयोगी में) संकोच विस्तार नहीं पाया जाता...<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">जीवप्रदेशों की अनवस्थिति का कारण योग है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/12/4,2,11,5/367/12 </span><span class="PrakritText"> अजोगकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। </span>=<span class="HindiText">अयोगकेवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीवप्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7">चलाचल प्रदेशों संबंधी शंका समाधान</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/233/1 </span><span class="HindiText"> भ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्वजीवानामांध्यप्रसंगादिति, नैष दोष:, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् ।...कर्मस्कंधै: सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वद्भ्रमो भवेदिति चेन्न, तद्भ्रमणावस्थायां तत्समवायाभावात् । शरीरेण समवायाभावे मरणमाढौकत इति चेन्न, आयुष: क्षयस्य मरणहेतुत्वात् । पुन: कथं संघटत इति चेन्नानाभेदोपसंहृतजीवप्रदेशानां पुन: संघटनोपलंभात्, द्वयोर्मूर्तयो: संघटने विरोधाभावाच्च, तत्संघटनहेतुकर्मोदयस्य कार्यवैचित्र्यादवगतवैचित्र्यस्य सत्त्वाच्च। द्रव्येंद्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्नेष्यत इति चेन्न, तद्भ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्ते: इति। =<strong>प्रश्न</strong>–जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में संपूर्ण जीवों को अंधपने का प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इंद्रियाँ रूपादि को ग्रहण नहीं कर सकेंगी? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवों के संपूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। <strong>प्रश्न</strong>–कर्मस्कंधों के साथ जीव के संपूर्ण प्रदेशों के भ्रमण करने पर जीवप्रदेशों से समवाय संबंध को प्राप्त शरीर का भी जीवप्रदेशों समान भ्रमण होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय संबंध नहीं रहता है। प्रश्न–ऐसा मानने पर मरण प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना गया है। <strong>प्रश्न</strong>–तो जीवप्रदेशों का फिर से समवाय संबंध कैसे हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–</span> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने नाना अवस्थाओं का उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवों के प्रदेशों का फिर से समवाय संबंध होता हुआ देखा ही जाता है। तथा दो मूर्त पदार्थों का संबंध होने में विरोध भी नहीं है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अथवा, जीवप्रदेश व शरीर संघटन के हेतुरूप कर्मोदय के कार्य की विचित्रता से यह सब होता है। <strong>प्रश्न</strong>–द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीव प्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यंत द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथिवी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> जीव प्रदेशों के साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार ही चल व अचल होते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,2/365/11 </span><span class="PrakritText"> देसे इव जीवपदेसेसु वि अट्ठिदत्ते अब्भुवगममाणे पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो च। अट्ठण्णं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति। तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्तवयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठिमज्झिमजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो।</span><br><span class="GRef"> धवला 12/4,2,11,3/366/5 </span><span class="PrakritText">जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो तत्थट्ठिदकम्मक्खंधा वि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति।</span> =<span class="HindiText">दूसरे देश के समान जीवप्रदेशों में भी कर्मप्रदेशों को अवस्थित स्वीकार करने पर पूर्वोक्त दोष का प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशों के देशांतर को प्राप्त होने पर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>–यत: जीव के आठ मध्य प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार नहीं होता, अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थित (चलित) पना नहीं बनता और इसलिए सब जीव प्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्रवचन घटित नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीव के उन आठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों का आश्रय करके इस सूत्र की प्रवृत्ति होती है।...किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचार नहीं होता, इसलिए उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी जीव के किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचार पाया जाता है, अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित (चलित) कहे जाते हैं। | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> सात तत्त्वों में प्रथम तत्त्व । वो प्राणों से जीता था, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सात तत्त्वों में प्रथम तत्त्व । वो प्राणों से जीता था, जीता है और जियेगा वह जीव है । सिद्ध पूर्व पर्यायों मे प्राणों के युक्त थे, अत: उन्हें भी जीव कहा गया है । जीव का पाँच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणों वाला होने से प्राणी, जन्म धारण करने से जंतु, निज स्वरूप का ज्ञाता होने से क्षेत्रज्ञ, अच्छे-अच्छे भोगों में प्रवृत्ति होने से पुरुष, स्वयं को पवित्र करने से पुमान्, नरक नारकादि पर्यायों मे निरंतर गमन करने से आत्मा, ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा, ज्ञान गुण से सहित होने से यह ज्ञ कहा गया है । वह अनादि निधन, ज्ञाता-द्रष्टा, कर्त्ता-भोक्ता, शरीर के प्रमाण रूप, कर्मों का नाशक, ऊर्ध्वगमन स्वभावी, संकोचविस्तार गुण से युक्त, सामान्य रूप से नित्य और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य, दोनों अपेक्षाओं से उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप, असंख्यात प्रदेशी और वर्ण आदि बीस गुणों से युक्त है । <span class="GRef"> महापुराण 24.92-110, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#30|हरिवंशपुराण - 58.30-31]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.67, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 113 </span>यह दर्शन और ज्ञान उपयोग मयी है । वह अनादिकाल से कर्म बद्ध और चारों गतियों में भ्रमणशील है । इसे सुख-दुःख आदि का संवेदन होता है । <span class="GRef"> महापुराण 71.194-197, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#23|हरिवंशपुराण - 58.23]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#27|हरिवंशपुराण - 58.27]] </span>निश्चय नय से यह चेतना लक्षण, कर्म, नोकर्म बंध आदि का अकर्त्ता, अमूर्त और सिद्ध है । व्यवहार नय से राग आदि भाव का कर्त्ता, भोक्ता, अपने आत्मज्ञान से बहिर्भूत, ज्ञानावरण आदि कर्म और नोकर्मों का कर्त्ता हैं । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 103-108 </span>इसे गति, इंद्रिय, छ: काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओं से तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों से, सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अंतर और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगों से और प्रमाण नय तथा निक्षेपों से खोजा या जाना जाता है । इसकी दो अवस्थाएँ होती है― संसारी और मुक्त । इसके भव्य अभव्य और मुक्त ये तीन भेद भी होते हैं । यह अपनी स्थिति के अनुसार बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा भी होता है । इसके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 2.118,24.88-110 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 155-157, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#36|हरिवंशपुराण - 58.36-38]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.33, 66 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
संसार या मोक्ष दोनों में जीव प्रधान तत्त्व है। यद्यपि ज्ञानदर्शन स्वभावी होने के कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशा में प्राण धारण करने से जीव कहलाता है। वह अनंतगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तीक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, न ही पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ है। संसारी दशा में शरीर रहते हुए भी शरीर से पृथक् लौकिक विषयों को करता व भोगता हुआ भी वह उनका केवल ज्ञाता है। वह यद्यपि लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परंतु संकोच-विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता है। कोई एक ही सर्व व्यापक जीव हो ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। वे अनंतानंत हैं। उनमें से जो भी साधना विशेष के द्वारा कर्मों व संस्कारों का क्षय कर देता है वह सदा अतींद्रिय आनंद का भोक्ता परमात्मा बन जाता है। तब वह विकल्पों से सर्वथा शून्य हो केवल ज्ञाता दृष्टा भाव में स्थिति पाता है। जैन दर्शन में उसी को ईश्वर या भगवान् स्वीकार किया है उससे पृथक् किसी एक ईश्वर को वह नहीं मानता।
- भेद, लक्षण व निर्देश
- जीव सामान्य का लक्षण।
- जीव के पर्यायवाची नाम।
- जीव को अनेक नाम देने की विवक्षा।
- जीव कहने की विवक्षा
- अजीव कहने की विवक्षा
- जड़ कहने की विवक्षा
- शून्य कहने की विवक्षा
- प्राणी, जंतु आदि कहने की विवक्षा
- कर्ता भोक्ता आदि कहने की विवक्षा
- जीव के भेदप्रभेद (संसारी, मुक्त आदि)।
- जीवों के जलचर थलचर आदि भेद।
- जीवों के गर्भज आदि भेद।
- गर्भज व उपपादज जन्म निर्देश–देखें जन्म ।
- सम्मूर्छिम जन्म व जीव निर्देश–देखें संमूर्च्छिम
- जन्म, योनि व कुल आदि–देखें जन्म , योनि , कुल ,
- मुक्त जीव का लक्षण व निर्देश–देखें मोक्ष
- संसारी, त्रस, स्थावर व पृथिवी आदि–देखें संसारी , त्रस , स्थावर,
- संज्ञी असंज्ञी जीव के लक्षण व निर्देश–देखें संज्ञी
- षट्काय जीव के भेद निर्देश–देखें काय - 2
- सूक्ष्म-बादर जीव के लक्षण व निर्देश–देखें सूक्ष्म
- एकेंद्रियादि जीवों के भेद निर्देश–देखें इंद्रिय - 4
- प्रत्येक साधारण व निगोद जीव–देखें वनस्पति
- षट्द्रव्यों में जीव-अजीव विभाग–देखें द्रव्य - 3
- जीव अनंत है।–देखें द्रव्य - 2
- अनंत जीवों का लोक में अवस्थान–देखें आकाश - 3
- जीव के द्रव्य भाव प्राणों संबंधी–देखें प्राण - 2
- जीव अस्तिकाय है–देखें अस्तिकाय
- जीव का स्व व पर के साथ उपकार्य उपकारक भाव–देखें कारण - III.1
- संसारी जीव का कथंचित् मूर्तत्व–देखें मूर्त - 10
- जीव कर्म के परस्पर बंध संबंधी–देखें बंध
- जीव व कर्म में परस्पर कार्यकारण संबंध–देखें कारण - III.3,5
- जीव व शरीर की भिन्नता–देखें कारक - 2
- जीव में कथंचित् शुद्ध अशुद्धपना तथा सर्वगत व देहप्रमाणपना–देखें जीव - 3
- जीव विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व–देखें सत् , संख्या 3 , क्षेत्र 1.3 , स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ , काल_02 , अंतर , भाव , अल्पबहुत्व
- जीव सामान्य का लक्षण।
- निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि
- जीव के गुण व धर्म
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प हैं–देखें गुण - 2
- जीव का कथंचित् कर्ता अकर्तापना–देखें चेतना - 3
- विरोधी धर्मों की सिद्धि व समन्वय–देखें अनेकांत - 5
- जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है–देखें गति - 1
- जीव क्रियावान् है।–देखें द्रव्य - 3
- जीव कथंचित् सर्वव्यापी है।
- जीव कथंचित् देह प्रमाण है।
- सर्वव्यापीपने का निषेध व देहप्रमाणत्व की सिद्धि।
- जीव संकोच विस्तार स्वभावी है।
- संकोच विस्तार धर्म की सिद्धि।
- जीव की स्वभाव व्यंजन पर्याय सिद्धत्व है–देखें सिद्धत्व
- जीव में अनंतों धर्म हैं–देखें गुण - 3.10
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प हैं–देखें गुण - 2
- जीव के प्रदेश
- जीव के प्रदेश कल्पना में युक्ति–देखें द्रव्य - 4
- संसारी जीव के आठ मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकार के।
- शुद्धद्रव्यों व शुद्धजीव के प्रदेश अचल ही होते हैं।
- विग्रहगति में जीव प्रदेश चल ही होते हैं।
- जीवप्रदेशों के चलितपने का तात्पर्य परिस्पंदन व भ्रमण आदि।
- जीवप्रदेशों की अनवस्थिति का कारण योग है।
- अचलप्रदेशों में भी कर्म अवश्य बँधते हैं–देखें योग - 2
- जीव प्रदेशों में खंडित होने की संभावना–देखें वेदनासमुद्घात - 4
- जीव के प्रदेश कल्पना में युक्ति–देखें द्रव्य - 4
- भेद, लक्षण व निर्देश
- जीव सामान्य का लक्षण
- दश प्राणों से जीवे सो जीव
प्रवचनसार/147 पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं। सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता।147। =जो चार प्राणों से (या दश प्राणों से) जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है, फिर भी प्राण तो पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न हैं। ( पंचास्तिकाय/30 ); ( धवला/1/1,1,2/119/3 ); ( महापुराण/24/204 ); ( नयचक्र बृहद्/110 ); ( द्रव्यसंग्रह/3 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/17 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/2/8/6 ); ( स्याद्वादमंजरी/29/329/19 )।
राजवार्तिक/1/4/7/25/27 दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् ‘जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति’ इति वा जीव:। =दश प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणों के द्वारा जो जीता है, जीता था व जीवेगा इस त्रैकालिक जीवनगुण वाले को जीव कहते हैं।
- उपयोग, चैतन्य, कर्ता, भोक्ता आदि
पंचास्तिकाय/27 जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो...। =आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोग विशेष वाला है। ( पंचास्तिकाय मू./109) ( प्रवचनसार/127 )।
समयसार/49 अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंट्ठाणं।49।= हे भव्य! तू जीव को रस रहित, रूप रहित, गंध रहित, अव्यक्त अर्थात् इंद्रिय से अगोचर, चेतना गुणवाला, शब्द रहित, किसी भी चिह्न को अनुमान ज्ञान से ग्रहण न होने वाला और आकार रहित जान। ( पंचास्तिकाय/127 ); ( प्रवचनसार/172 ); (भावपाहुड़/मूल/64); ( धवला 3/1,2,1/ गाथा 1/2)।
भावपाहुड़/ मूल/148 कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।148। =जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञान उपयोगमयी है, ऐसा जिनवरेंद्र द्वारा निर्दिष्ट है। ( पंचास्तिकाय/27 ); ( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/31); ( राजवार्तिक/1/4/14/26/11 ); ( महापुराण/24/92 ); ( धवला 1/1,1,2/ गाथा 1/118); ( नयचक्र बृहद्/106 ); ( द्रव्यसंग्रह/2 );
( तत्त्वार्थसूत्र/2/8 ) उपयोगो लक्षणम् ।=उपयोग जीव का लक्षण है। ( नयचक्र बृहद्/119 )।
सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/3 तत्र चेतनालक्षणो जीव:। =जीव का लक्षण चेतना है। ( धवला 15/33/6 )।
नयचक्र बृहद्/390 लक्खणमिह भणियमादाज्झेओ सब्भावसंगदो सोवि। चेयण उवलद्धी दंसण णाणं च लक्खणं तस्स। =आत्मा का लक्षण चेतना तथा उपलब्धि है, और वह उपलब्धि ज्ञान दर्शन लक्षण वाली है।
द्रव्यसंग्रह/3 णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। =निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है।
द्रव्यसंग्रह टीका/2/8/5 शुद्धनिश्चयनयेन...शुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेन ...द्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीव:। =शुद्ध निश्चय से यद्यपि शुद्ध चैतन्य लक्षण निश्चय प्राणों से जीता है, तथापि अशुद्धनय से द्रव्य व भाव प्राणों से जीता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/16; 60/67/12 )।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/8 कर्मोपाधिसापेक्षज्ञानदर्शनोपयोगचैतन्यप्राणेन जीवंतीति जीवा:। =(अशुद्ध निश्चयनय से) कर्मोपाधि सापेक्ष ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राणों से जीते हैं वे जीव हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/3 )।
- औपशमिकादि भाव ही जीव है
राजवार्तिक/1/7/3;8/38 औपशमिकादिभावपर्यायो जीव: पर्यायादेशात् ।3। पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।8। औपशमिकादिभावसाधनश्च व्यवहारत:।9। =पर्यायार्थिक नय से औपशमिकादि भावरूप जीव है।3। निश्चयनय से जीव अपने अनादि पारिणामिक भावों से ही स्वरूपलाभ करता है।8। व्यवहारनय से औपशमिकादि भावों से तथा माता-पिता के रजवीर्य आहार आदि से भी स्वरूप लाभ करता है।
तत्त्वसार/2/2 अन्यासाधारणा भावा: पंचौपशमिकादय:। स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीव: स व्यपदिश्यते।2। =औपशमिकादि पाँच भाव (देखें भाव ) जिस तत्त्व के स्वभाव हों वही जीव कहाता है।
- दश प्राणों से जीवे सो जीव
- जीव के पर्यायवाची नाम
धवला 1/1,1,2/ गाथा 81,82/118-119 जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो।81। सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो। असंकडो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य।82। =जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जंतु है, मानी है, मायावी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अंतरात्मा है।81-82।
महापुराण/24/103 जीव: प्राणी च जंतुश्च क्षेत्रज्ञ: पुरुषस्तथा। पुमानात्मांतरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्यय:।103। =जीव, प्राणी, जंतु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अंतरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाचक शब्द हैं।
- जीव को अनेक नाम देने की विवक्षा
- जीव कहने की विवक्षा देखें जीव का लक्षण नं - 1।
- अजीव कहने की विवक्षा
देखें जीव - 2.1 में धवला/14 ‘सिद्ध’ जीव नहीं हैं, अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं।
नयचक्र बृहद्/121 जो हु अमुत्तो भणिओ जीवसहावो जिणेहिपरमत्थो। उवयरियसहावादो अचेयणो मुत्तिसंजुत्तो।121। =जीव का जो स्वभाव जिनेंद्र भगवान् द्वारा अमूर्त कहा गया है वह उपचरित स्वभाव रूप से मूर्त व अचेतन भी है, क्योंकि मूर्तीक शरीर से संयुक्त है।
- जड़ कहने की विवक्षा
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/53 जे णियबोहपरिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु। इंदिय जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु।53। =जिस अपेक्षा आत्मा ज्ञान में ठहरे हुए (अर्थात् समाधिस्थ) जीवों के इंद्रियजनित ज्ञान नाश को प्राप्त होता है, हे योगी ! उसी कारण जीव को जड़ भी जानो।
आराधनासार/81 अद्धैतापि हि वेत्ता जगति चेत् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्, तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागं जड़ता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापक:।...।81। =इस जगत् में जो योगी अद्वैत दशा को प्राप्त हो गये हैं, वे दर्शन व ज्ञान के भेद को ही त्याग देते हैं, अर्थात् वे केवल चेतनस्वरूप रह जाते हैं। और सामान्य (दर्शन) तथा विशेष (ज्ञान) के अभाव से वे एक प्रकार से अपने अस्तित्व का ही त्याग कर देते हैं। उसके त्याग से चेतन भी वे जड़ता को प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि व्याप्य के बिना व्यापक भी नहीं होता।
द्रव्यसंग्रह टीका/10/27/2 पंचेंद्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदनलक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेंद्रियबोधाभावाज्जड:, न च सर्वथा सांख्यमतवत् ।=पाँचों इंद्रियों और मन के विषयों के विकल्पों से रहित समाधिकाल में, आत्मा के अनुभवरूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी बाहरी विषयरूप इंद्रियज्ञान के अभाव से आत्मा जड़ माना गया है, परंतु सांख्यमत की तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है।
- शून्य कहने की विवक्षा
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/55 अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस ण जेंण। सुद्धहँ एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण। =जिस कारण आठों ही अनेक भेदों वाले कर्म तथा अठारह दोष, इनमें से एक भी शुद्धात्माओं के नहीं है, इसलिए उन्हें शून्य भी कहा जाता है।
देखें शुक्लध्यान - 1.4 [शुक्लध्यान के उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करके योगी शून्य हो जाता है, क्योंकि, रागादि से रहित स्वभाव स्थित ज्ञान ही शून्य कहा गया है। वह वास्तव में रत्नत्रय की एकता स्वरूप तथा बाह्य पदार्थों के अवलंबन से रहित होने के कारण ही शून्य कहलाता है।]
तत्त्वानुशासन/172-173 तदा च परमैकाग्र्याद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यत:।172। अतएवान्यशून्योऽपि नात्मा शून्य: स्वरूपत:। शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते।173। =उस समाधिकाल में स्वात्मा में देखने वाले योगी की परम एकाग्र्यता के कारण बाह्यपदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उसे आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता।172। इसीलिए अन्य बाह्यपदार्थों से शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूप से शून्य नहीं होता। आत्मा का यह शून्यता और अशून्यतामय स्वभाव आत्मा के द्वारा ही उपलब्ध होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/10/27/3 रागादिविभावपरिणामापेक्षया शून्योऽपि भवति न चानंतज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् ।=आत्मा राग, द्वेष आदि विभाव परिणामों की अपेक्षा से शून्य होता है, किंतु बौद्धमत के समान अनंत ज्ञानादि की अपेक्षा शून्य नहीं है।
- प्राणी, जंतु आदि कहने की विवक्षा
महापुराण/24/105-108 प्राणा दशास्य संतीति प्राणी जंतुश्च जन्मभाक् । क्षेत्रं स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते।105। पुरुष: पुरुभोगेषु शयनात् परिभाषित:। पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते।106। भवेष्वतति सातत्याद् एतीत्यात्मा निरुच्यते। सोऽंतरात्माष्टकर्मांतर्वर्तित्वादभिलप्यते।107। ज्ञ: स्याज्ज्ञागुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स:। पर्यायशब्दैरेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधै:।=दश प्राण विद्यमान रहने से यह जीव प्राणी कहलाता है, बार-बार जन्म धारण करने से जंतु कहलाता है। इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं, उस क्षेत्र को जानने से यह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।105। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भोगों में शयन करने से अर्थात् प्रवृत्ति करने से यह पुरुष कहा जाता है, और अपने आत्मा को पवित्र करने से पुमान् कहा जाता है।106। नर नारकादि पर्यायों में ‘अतति’ अर्थात् निरंतर गमन करते रहने से आत्मा कहा जाता है। और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा कहा जाता है।107। ज्ञान गुण सहित होने से ‘ज्ञ’ और ज्ञानी कहा जाता है। इसी प्रकार यह जीव अन्य भी अनेक शब्दों से जानने योग्य है।108।
- कर्ता भोक्ता आदि कहने की विवक्षा
धवला 1/1,1,2/119/3 सच्चमसच्चं संतमसंतं वददीदि वत्ता। पाणा एयस्स संतीति पाणी। अमर-णर-तिरिय-णारय-भेएण चउव्विहे संसारे कुसलमकुसलं भुंजदि त्ति भोत्ता। छव्विह-संठाणं बहुविह-देहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो। सुख-दुक्खं वेदेदि त्ति वेदो, वेत्ति जानातीति वा वेद:। उपात्तदेहं व्याप्नोतीति विष्णु:। स्वयमेव भूतवानिति स्वयंभू। सरीरमेयस्स अत्थि त्ति सरीरी। मनु: ज्ञानं तत्र भव इति मानव:। सजण-संबधं-मित्त-वग्गादिसु संजदि त्ति सत्ता। चउग्गइ-संसारे जायदि जणयदि त्ति जंतू। माणो एयस्स अत्थि त्ति माणी। माया अत्थि त्ति मायी। जोगो अत्थि त्ति जोगी। अइसण्ह-देह-पमाणेण संकुडदि त्ति संकुडो। सव्वं लोगागासं वियापदि त्ति असंकुडो। क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञ:। अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्तिअंतरप्पा। =सत्य, असत्य और योग्य, अयोग्य वचन बोलने से वक्ता है; दश प्राण पाये जाने से प्राणी है; चार गतिरूप संसार में पुण्यपाप के फल को भोगने से भोक्ता है; नाना प्रकार के शरीरों द्वारा छह संस्थानों को पूरण करने व गलने से पुद्गल है; सुख और दु:ख का वेदन करने से वेद है; अथवा जानने के कारण वेद है; प्राप्त हुए शरीर को व्याप्त करने से विष्णु है, स्वत: ही उत्पन्न होने से स्वयंभू है; संसारावस्था में शरीरसहित होने से शरीरी है; मनु ज्ञान को कहते हैं, उसमें उत्पन्न होने से मानव है; स्वजन संबंधी मित्र आदि वर्ग में आसक्त रहने से सक्ता है; चतुर्गतिरूप संसार में जन्म लेने से जंतु है; मान कषाय पायी जाने से मानी है; माया कषाय पायी जाने से मायी है; तीन योग पाये जाने से योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलने से संकुचित होता है, इसलिए संकुट है; संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करता है, इसलिए असंकुट है; लोकालोकरूप क्षेत्र को अथवा अपने स्वरूप को जानने से क्षेत्रज्ञ है; आठ कर्मों में रहने से अंतरात्मा है (गोम्मटसार जीवकांड/जीवतत्वप्रदीपिका./365-366/779/2)।
देखें चेतना - 3 (जीव को कर्ता व अकर्ता कहने संबंधी–)
- जीव कहने की विवक्षा देखें जीव का लक्षण नं - 1।
- जीव के भेद प्रभेद
- संसारी व मुक्त दो भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/10 संसारिणो मुक्ताश्च।10। =जीव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त। ( पंचास्तिकाय/109 ), (मू.आ./204), ( नयचक्र बृहद्/105 )।
- संसारी जीवों के अनेक प्रकार के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/11-14/7 जीवभव्याभव्यत्वानि च।7। समनस्कामनस्का:।11। संसारिणस्त्रसस्थावरा:।12। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:।13। द्वींद्रियादयस्त्रसा:।14। =जीव दो प्रकार के हैं भव्य और अभव्य।7। ( पंचास्तिकाय/120 ) मनसहित अर्थात् संज्ञी और मनरहित अर्थात् असंज्ञी के भेद से भी दो प्रकार के हैं।11। ( द्रव्यसंग्रह/12/29 ) संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं (नयचक्रवृहद्वृ/123) तिनमें स्थावर पाँच प्रकार के हैं–पृथिवी, अप्, तेज, वायु, व वनस्पति।13। (और भी देखो स्थावर ) त्रस जीव चार प्रकार है–द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय व पंचेंद्रिय।14। (और भी देखें इंद्रिय - 4)।
राजवार्तिक/5/15/5/458/9 द्विविधा जीवा: बादरा: सूक्ष्माश्च। =जीव दो प्रकार के हैं–बादर और सूक्ष्म–(देखें सूक्ष्म )।
देखें आत्मा –बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा की अपेक्षा 3 प्रकार हैं।
देखें काय - 2/1 पाँच स्थावर व एक त्रस, ऐसे काय की अपेक्षा 6 भेद हैं।
देखें गति - 2.3 नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति की अपेक्षा चार प्रकार का है।
गोम्मटसार जीवकांड/622/1075 पुण्यजीव व पापजीव का निर्देश है। (देखें आगे पुण्य व पाप जीव का लक्षण )।
षट्खंडागम/12/4/2,9/ सूत्र 3/296 सिया णोजीवस्स वा/3/=’कथंचित् वह नोजीव के होती है’ इस सूत्र में नोजीव का निर्देश किया गया है।
देखें पर्याप्त –जीव के पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन भेद हैं।
देखें जीवसमास –एकेंद्रिय आदि तथा पृथिवी अप् आदि तथा सूक्ष्म बादर, तथा उनके ही पर्याप्तापर्याप्त आदि विकल्पों से अनेकों भंग बन जाते हैं।
धवला 9/4,1,45/ गाथा 76-77/198 एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्ति लक्खणो भणिदो। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य।76। छक्कापक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिंसब्भावो। अट्ठासवो णवठ्ठो जीवो दस ठाणिओ भणिदो।77। =वह जीव महात्मा चैतन्य या उपयोग सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार है। ज्ञान, दर्शन, या संसारी-मुक्त, या भव्य-अभव्य, या पाप-पुण्य की अपेक्षा दो प्रकार है। ज्ञान चेतना, कर्म चेतना कर्मफल चेतना, या उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, या द्रव्य-गुण पर्याय की अपेक्षा तीन प्रकार है। चार गतियों में भ्रमण करने की अपेक्षा चार प्रकार है। औपशमिकादि पाँच भावों की अपेक्षा या एकेंद्रिय आदि की अपेक्षा पाँच प्रकार है। छह दिशाओं में अपक्रम युक्त होने के कारण छह प्रकार का है। सप्तभंगी से सिद्ध होने के कारण सात प्रकार का है। आठकर्म या सम्यक्त्वादि आठ गुणयुक्त होने के कारण आठ प्रकार का है। नौ-पदार्थों रूप परिणमन करने के कारण नौ प्रकार का है। पृथिवी आदि पाँच तथा एकेंद्रियादि पाँच इन दस स्थानों को प्राप्त होने के कारण दस प्रकार का है।
- संसारी व मुक्त दो भेद
- जीवों के जलचर, स्थलचर आदि भेद
मूलाचार/219 सकलिंदिया य जलथलखचरा...। =पंचेंद्रिय जीव जलचर, स्थलचर व नभचर के भेद से तीन प्रकार हैं। ( पंचास्तिकाय/117 ) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/129 )।
- जीवों के गर्भज आदि भेद
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/73 अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उब्भिंदिमोववादिम णेया पंचिंदिया जीवा।73। =अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, स्वेदज, सम्मूर्च्छिम, उद्भेदिम और औपपादिक जीवों के पंचेंद्रिय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,33/ गा.139/246), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/130 )।
- कार्य कारण जीव के लक्षण
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:। ...शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीव:। =शुद्ध सद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्य शुद्धजीव’ (सिद्ध पर्याय) है। शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि परमस्वभाव गुणों का आधार होने के कारण (त्रिकाली शुद्ध चैतन्य) कारण शुद्धजीव है।
- पुण्य-पाप जीव का लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड/622-623/1075 जीवदुगं उत्तट्ठं जीवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा। वदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवंति त्ति। मिच्छाइट्ठी पावा णंताणंता य सासणगुणा वि।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/643/1095/1 मिश्रा: पुण्यपापमिश्रजीवा: सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात् । =पहले दो प्रकार के जीव कहे गये हैं। उनमें से जो सम्यक्त्व गुण युक्त या व्रतयुक्त होय सो पुण्य जीव हैं और इनसे विपरीत पाप जीव हैं। मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव पापजीव हैं। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व रूप मिश्र परिणामों से युक्त मिश्र गुणस्थानवर्ती, पुण्य-पाप मिश्र जीव हैं।
- नोजीव का लक्षण
धवला 12/4,2,6,3/296/8 णोजीवो णाम अणंताणंतविस्सासुवचएहिं उवचिदकम्मपोग्गलक्खंधो पाणधारणाभावादो णाणदंसणाभावादो वा। तत्थतणजीवो वि सिया णोजीवो; तत्तो पुधभूतस्स तस्स अणुवलंभादो। =अनंतानंत विस्रसोपचयों से उपचय को प्राप्त कर्मपुद्गलस्कंध (शरीर) प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शन से रहित होने के कारण नोजीव कहलाता है। उससे संबंध रखने वाला जीव भी कथंचित् नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है।
- जीव सामान्य का लक्षण
- निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि
- मुक्त जीव में जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित होता है
राजवार्तिक/1/4/7/25/27 तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धं जीवितपूर्वत्वात् । संप्रति न जीवंति सिद्धा भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामौपचारिकत्वं, मुख्यं चेष्यते; नैष दोष: भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनात् सांप्रतिकमपि जीवत्वमस्ति। अथवा रूढिशब्दोऽयम् । रूढो वा क्रिया व्युत्पत्त्यथे वेति कादाचित्कं जीवनमपेक्ष्यं सर्वदा वर्तते गोशब्दवत् । =प्रश्न–‘जो दशप्राणों से जीता है...’ आदि लक्षण करने पर सिद्धों के जीवत्व घटित नहीं होता ? उत्तर–सिद्धों के यद्यपि दशप्राण नहीं हैं, फिर भी वे इन प्राणों से पहले जीये थे, इसलिए उनमें भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है। प्रश्न–सिद्ध वर्तमान में नहीं जीते। भूतपूर्व गति की उनमें जीवत्व कहना औपचारिक है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भावप्राण रूप ज्ञानदर्शन का अनुभव करने से वर्तमान में भी उनमें मुख्य जीवत्व है। अथवा रूढिवश क्रिया को गौणता से जीव शब्द का निर्वचन करना चाहिए। रूढि में क्रिया गौण हो जाती है। जैसे कभी-कभी चलती हुई देखकर गौ में सर्वदा गो शब्द की वृत्ति देखी जाती है, वैसे ही कदाचित्क जीवन की अपेक्षा करके सर्वदा जीव शब्द की वृत्ति हो जाती है। ( भगवती आराधना वि./37/131/13) ( महापुराण/24/104 )।
- औपचारिक होने से सिद्धों में जीवत्व नहीं है।
धवला 14/5,6,16/13/3 तं च अजोगिचरिमसमयादो उवरि णत्थि, सिद्धेसु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो। तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि। सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, उवयारस्स सच्चत्ताभावादो। सिद्धे सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं किंतु कम्मविवागजं। =आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह अयोगी के अंतिम समय से आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिक से अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। प्रश्न–सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, सिद्धों में जीवत्व उपचार से है, और उपचार को सत्य मानना ठीक नहीं है। सिद्धों में प्राणों का अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है, कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है, किंतु वह कर्मों के विपाक से उत्पन्न होता है।
- मार्गणास्थानादि जीव के लक्षण नहीं है
योगसार/अमितगति अधिकार/1/57 गुणजीवादय: संति विंशतिर्या प्ररूपणा:। कर्मसंबंधनिष्पंनास्ता जीवस्य न लक्षणम् ।57। =गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान, पर्याप्ति आदि जो 20 प्ररूपणाएँ हैं वे भी कर्म के संबंध से उत्पन्न हैं, इसलिए वे जीव का लक्षण नहीं हो सकती।
- तो फिर जीव की सिद्धि कैसे हो
सर्वार्थसिद्धि/5/19/288/8 अत एवात्मास्तित्वसिद्धि:। यथा यंत्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति तथा प्राणापानादिकर्मोऽपि क्रियावंतमात्मानं साधयति। =इसी से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है। जैसे यंत्रप्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता के अस्तित्व का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण और अपान आदिरूप कार्य भी क्रियावाले आत्मा के साधक हैं। ( स्याद्वादमंजरी/7/234/20 )।
राजवार्तिक/2/8/18/121/13 ‘नास्त्यात्मा अकारणत्वात् मंडूकशिखंडवत्’ इति। हेतुरयमसिद्धो विरुद्धोऽनैकांतिकश्च। कारणवानेवात्मा इति निश्चयो न:, नरकादिभवव्यतिरिक्तद्रव्यार्थाभावात्, तस्य च मिथ्यादर्शनादिकारणत्वादसिद्धता। अतएव द्रव्यार्थाभावात् च पर्यायांतरानाश्रयत्वाद आश्रयाभावादप्यसिद्धता। अकारणमेव ह्यस्ति सर्वं घटादि, तेनायं द्रव्यार्थिकस्य विरुद्ध एव। सतोऽकारणत्वात् यदस्ति तन्नियमेनैवाकारणम्, न हि किंचिदस्ति च कारणवच्च। यदि तदस्त्येव किमस्य कारणेन नित्यवृत्तत्वात् । कारणवत्त्वं चाप्तत एव कार्यार्थत्वात् कारणस्येति विरुद्धार्थता। मंडूकशिखंडकादीनाम् असत्प्रत्ययहेतुत्वेन परिच्छिन्नसत्त्वानामभ्युपगमोत्तेषां च कारणाभावात् उभयपक्षवृत्तेरनैकांतिकत्वम् ।
दृष्टांतोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल:...एकजीवसंबंधित्वात् मंडूकशिखंड इत्यस्ति।...
नास्त्यात्मा अप्रत्यक्षत्वाच्छशशृंगवदिति: अयमपि न हेतु: असिद्धविरुद्धानैकांतिकत्वाप्रच्युते:। सकलविमलकेवलज्ञानप्रत्यक्षत्वाच्छुद्धात्मां प्रत्यक्ष:, कर्मनोकर्मपरतंत्रपिंडात्मा च अवधिमन:पर्ययज्ञानयोरपि प्रत्यक्ष इति ‘अप्रत्यक्षत्वात्’ इत्यसिद्धो हेतु:। इंद्रियप्रत्यक्षाभावादप्रत्यक्ष इति चेत्; न; तस्य परोक्षत्वाभ्युपगमात् । अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत् ।... असति च शशशृंगादौ सति च विज्ञानादौ अप्रत्यक्षत्वस्य वृत्तेरनैकांतिका। अथ विज्ञानादे: स्वसंवेद्यत्वात् योगिप्रत्यक्षत्वाच्च हेतोरभाव इति चेत्; आत्मनि कोऽपरितोष:। दृष्टांतोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल: पूर्वोक्तेन विधिना अप्रत्यक्षत्वस्य नास्ति त्वस्य चासिद्धे:।
राजवार्तिक/2/8/19/122/25 ग्रहणविज्ञानासंभविफलदर्शनाद् गृहीतृसिद्धि:।19। यान्यमूनि ग्रहणानि...यानि च ज्ञानानि तत्संनिकर्षजानि तानि, तेष्वसंभविफलमुपलभ्यते। किं पुनस्तत् । आत्मस्वभावस्थानज्ञानविषयसंप्रतिपत्ति:। तदेतद् ग्रहणानां तावन्न संभवति: अचेतनत्वात्, क्षणिकत्वाच्च...ततो व्यतिरिक्तेन केनचिद्भवितव्यमिति गृहीतृसिद्धि:।
राजवार्तिक/2/8/20/123/1 योऽयमस्माकम् ‘आत्माऽस्ति’ इति प्रत्यय: स संशयानध्यवसायविपर्ययसम्यक्प्रत्ययेषु य: कश्चित् स्यात्, सर्वेषु च विकल्पेष्विष्टं सिध्यति। न तावत्संशय: निर्णयात्मकत्वात् । सत्यपि संशये तदालंबनात्मसिद्धि:। न हि अवस्तुविषय: संशयो भवति। नाप्यनध्यवसायो जात्यंधवधिररूपशब्दवत्; अनादिसंप्रतिपत्ते:। स्याद्विपर्यय:; एवमप्यात्मास्तित्वसिद्धि: पुरुषे स्थाणुप्रतिपत्तौ स्थाणुसिद्धिवत् । स्यात्सम्यक्प्रत्यय:; अविवादमेतत्–आत्मास्तित्वमिति सिद्धो न पक्ष:। =प्रश्न–उत्पादक कारण का अभाव होने से, मंडूकशिखावत् आत्मा का भी अभाव है ? उत्तर–आपका हेतु असिद्ध, विरुद्ध व अनैकांतिक तीनों दोषों से युक्त है।- नरनारकादि पर्यायों से पृथक् आत्मा नहीं मिलता, और वे पर्याएँ मिथ्यादर्शनादि कारणों से होती हैं, अत: यह हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक् आत्मद्रव्य की सत्ता न होने से यह हेतु आश्रयासिद्ध भी है।
- जितने घटादि सत् पदार्थ हैं वे सब स्वभाव से ही सत् हैं न कि किसी कारण विशेष से। जो सत् है वह तो अकारण ही होता है। जो स्वयं सत् है उसकी नित्यवृत्ति है अत: उसे अन्य कारण से क्या प्रयोजन। जिसका कोई कारण होता है वह असत् होता है, क्योंकि वह कारण का कार्य होता है, अत: यह हेतु विरुद्ध है।
- मंडूकशिखंड भी ‘नास्ति’ इस प्रत्यय के होने से सत् तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है, अत: यह हेतु अनैकांतिक भी है। मंडूकशिखंड दृष्टांत भी साध्य, साधन व उभय धर्मों से विकल होने के कारण दृष्टांताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षा से कारण बन जो हैं और वह कथंचित् सत् भी सिद्ध हो जाता है। प्रश्न–आत्मा नहीं है, क्योंकि गधे के सींगवत् वह प्रत्यक्ष नहीं है ? उत्तर–यह हेतु भी असिद्ध, विरुद्ध व अनैकांतिक तीनों दोषों से दूषित है।
- शुद्धात्मा तो सकल विमल केवलज्ञान के प्रत्यक्ष है और कर्म नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा अवधि मन:पर्यय ज्ञान के भी प्रत्यक्ष है अत: उपरोक्त हेतु असिद्ध है। प्रश्न–इंद्रिय प्रत्यक्ष न होने से वह अप्रत्यक्ष है? उत्तर–ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इंद्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष ही माना गया है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होते हैं, जेसे कि धूम से अनुमित अग्नि। असद्भूत शशशृंगादि तथा सद्भूत विज्ञानादि दोनों ही अप्रत्यक्ष हैं, अत: उपरोक्त हेतु अनैकांतिक है। यदि बौद्ध लोग यह कहें कि विज्ञान तो स्वसंवेदन तथा योगियों के प्रत्यक्ष है इसलिए आपका हेतु ठीक नहीं है, तो हम कह सकते हैं कि फिर आत्मा को ही स्वसंवेदन व योगिप्रत्यक्ष मानने में क्या हानि है। शशशृंगका दृष्टांत भी साध्य, साधन व उभय धर्मों से विकल होने के कारण दृष्टांताभास है, क्योंकि मंडूक शिखवत् शशशृंग भी कथंचित् सत् है। इसलिए उसे अप्रत्यक्ष कहना असिद्ध है।
- इंद्रियों और तज्जनित ज्ञानों में जो संभव नहीं है ऐसा जो, ‘जो मैं देखने वाला था वही चलने वाला हूँ’ यह एकत्वविषयक फल सभी विषयों व ज्ञानों में एकसूत्रता रखने वाले गृहीता आत्मा के सद्भाव को सिद्ध करता है। आत्मस्वभाव के होने पर भी ज्ञान की व विषयों की प्राप्ति होती है, इंद्रियों के उसका संभवपना नहीं है, क्योंकि वे अचेतन व क्षणिक हैं। इसलिए उन इंद्रियों से व्यतिरिक्त कोई न कोई ग्रहण करने वाला होना चाहिए, यह सिद्ध होता है। ( स्याद्वादमंजरी/17/233/16 );
- यह जो हम सबको ‘आत्मा है’ इस प्रकार का ज्ञान होता है, वह संशय, अनध्यवसाय, विपर्यय या सम्यक् इन चार विकल्पों में से कोई एक तो होना ही चाहिए। कोई सा भी विकल्प हमारे इष्ट की सिद्धि कर देता है। यदि यह ज्ञान संशयरूप है तो भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है, अत: यह ज्ञान अनध्यवसाय नहीं हो सकता। यदि इसे विपरीत कहते हैं, तो भी आत्मा की क्वचित् सत्ता सिद्ध हो जाती है, क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय ज्ञान नहीं होता। और सम्यक् रूप में तो आत्मसाधक है ही।
स्याद्वादमंजरी/17/232/5 अहं सुखी अहं दु:खी इति अंतर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालंबनतयैवोपपत्ते:। =यत्पुन: अहं गौर: अहं श्याम इत्यादि बहिर्मुख: प्रत्यय: स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते। यथा प्रियभृत्येऽहमिति व्यपदेश:।
स्याद्वादमंजरी/17/232/26 यच्च, अहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् तत्रेयं वासना। ...यथा बीजं...न तस्यांकुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की। तस्या: कथंचिन्नित्यत्वात् । एवमात्मा सदा संनिहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । ...रूपाद्युपलब्धि: सकर्तृका, क्रियात्वात्, छिदिक्रियावत् । यश्चास्या: कर्ता स आत्मा। न चात्र चक्षुरादीनां कर्तृत्वम् । तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतंत्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाचेतनत्वात्, परप्रेर्यत्वात्, प्रयोक्तृव्यापारानिरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् ।
स्याद्वादमंजरी/17/234/20 तथा च साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्टक्रियात्वात्, रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितम्, विशिष्टक्रियाश्रयत्वात्, रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, सारथिवत् ।
स्याद्वादमंजरी/17/235/14 तथा प्रेर्यं मन: अभिमतविषयसंबंधनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्, दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरक: स आत्मा इति। ...तथा अस्त्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसांकेतिकशुद्धपर्यायवाच्य:, स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति, यथा घटादि:। ...तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि, गुणत्वाद्, रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा। इत्यादिलिंगानि। तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिद्ध:। - –मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ ऐसे अंतर्मुखी प्रत्ययों की आत्मा के आलंबन से ही उत्पत्ति होती है। और मैं गोरा, मैं काला ऐसे बहिर्मुखी प्रत्यय भी शरीर मात्र के सूचक नहीं हैं, क्योंकि प्रिय नौकर में अहंबुद्धि की भाँति यहाँ भी अहं प्रत्यय का प्रयोग आत्मा के उपकार करने वाले में किया गया है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/5,50 );
- अहं प्रत्यय में कादाचित्कत्व के प्रति भी उत्तर यह है कि जिस प्रकार बीज में अंकुर की अनित्यता को देखकर उसमें अंकुरोत्पादन की शक्ति को कादाचित्क नहीं कह सकते, उसी प्रकार अहं प्रत्यय के अनित्य होने से उसे कादाचित्क नहीं कह सकते हैं (अर्थात् भले ही उपयोग में अहं प्रत्यय कादाचित्क हो, पर लब्धरूप से वह नित्य रहता है)।
- क्रिया होने के कारण रूपादि की उपलब्धि का कोई कर्ता होना चाहिए, जैसे कि लकड़ी काटनेरूप क्रिया का कोई न कोई कर्ता अवश्य देखा जाता है। जो इसका कर्ता है वही आत्मा है। यहाँ चक्षु आदि इंद्रियों में कर्तापना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो ज्ञान के प्रति करण होने से परतंत्र हैं, जैसे कि छेदन क्रिया के प्रति कुठारादि। इनका करणत्व भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि पौद्गलिक होने के कारण ये अचेतन हैं और पर के द्वारा प्रेरित की जाती हैं। इसका भी कारण यह है कि प्रयोक्ता के व्यापार से निरपेक्ष करण की प्रवृत्ति नहीं होती।
- हितरूप साधनों का ग्रहण और अहितरूप साधनों का त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि वह यह क्रिया है, जैसे कि रथ की क्रिया। विशिष्ट क्रिया का आश्रय होने से शरीर प्रयत्नवान् का आधार है जैसे कि रथ सारथी का आधार है। और जो इस शरीर की क्रिया का अधिष्ठाता है वह आत्मा है, जैसे कि रथ की क्रिया का अधिष्ठाता सारथी है।
- जिस प्रकार बालक के हाथ पत्थर का गोला उसकी प्रेरणा से ही नियत स्थान पर पहुँच सकता है, उसी प्रकार नियत पदार्थों की ओर दौड़ने वाला मन आत्मा की प्रेरणा से ही पदार्थों की ओर जाता है। अतएव मन के प्रेरक आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य स्वीकार करना चाहिए।
- ‘आत्मा’ शुद्धनिर्विकार पर्याय का वाचक है, इसलिए उसका अस्तित्व अवश्य होना चाहिए। जो शब्द बिना संकेत के शुद्ध पर्याय के वाचक होते हैं उनका अस्तित्व अवश्य होता है, जैसे घट आदि। जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते।
- सुख-दु:ख आदि किसी द्रव्य के आश्रित हैं, क्योंकि वे गुण हैं। जो गुण होते हैं वे द्रव्य के आश्रित रहते हैं, जैसे रूप। जो इन गुणों से युक्त है वही आत्मा है। इत्यादि अनेक साधनों से अनुमान द्वारा आत्मा की सिद्धि होती है।
- जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/21 कश्चिदाह। यथैकोऽपि चंद्रमा बहुषु जलघटेषु भिन्नभिन्नरूपो दृश्यते तथैकोऽपि जीवो बहुशरीरेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यते इति। परिहारमाह। बहुषु जलघटेषु चंद्रकिरणोपाधिवशेन जलपुद्गला एव चंद्राकारेण परिणता न चाकाशस्थचंद्रमा। अत्र दृष्टांतमाह। यथा देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणानां पुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणमंति, न च देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणमति, यदि परिणमति तदा दर्पणस्थं मुखप्रतिबिंबं चैतन्यं प्राप्तनोति; न च तथा। तथैकचंद्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति। किं च। न चैकब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते प्रत्यक्षेण यश्चंद्रवंनानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्राय:। प्रश्न–जिस प्रकार एक ही चंद्रमा बहुत से जल के घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता है, वैसे एक भी जीव बहुत से शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता हे। उत्तर–बहुत से जल के घड़ों में तो वास्तव में चंद्रकिरणों की उपाधि के निमित्त से जलरूप पुद्गल ही चंद्राकार रूप से परिणत होता है, आकाशस्थ चंद्रमा नहीं। जैसे कि देवदत्त के मुख का निमित्त पाकर नाना दर्पणों के पुद्गल ही नाना मुखाकार रूप से परिणमन कर जाते हैं न कि देवदत्त का मुख स्वयं नाना रूप हो जाता है। यदि ऐसा हुआ होता तो दर्पणस्थ मुख के प्रतिबिंबों को चैतन्यपना प्राप्त हो जाता, परंतु ऐसा नहीं होता है। इसी प्रकार एक चंद्रमा का नानारूप परिणमन नहीं समझना चाहिए दूसरी बात यह भी तो है कि उपरोक्त दृष्टांतों में तो चंद्रमा व देवदत्त दोनों प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, तब उनका प्रतिबिंब जल व दर्पण में पड़ता है, परंतु ब्रह्म नाम का कोई व्यक्ति तो प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं देता, जो कि चंद्रमा की भाँति नानारूप होवे। (परमात्मप्रकाश/मूल या टीका/2/99)
- पूर्वोक्त लक्षणों का मतार्थ
पंचास्तिकाय 37 तथा तात्पर्यवृति में उसका उपोद्घात/76/8 अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषेण निराकरोति–‘‘सस्सदमध उच्छेदं भव्यमभव्वं च सुण्णमिदरं च। विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे।37।’’
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/6 सामान्यचेतनाव्याख्यानं सर्वमतसाधारणं ज्ञातव्यम्; अभिन्नज्ञानदर्शनोपयोगव्याख्यानं तु नैयायिकमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थं; मोक्षोपदेशकमोक्षसाधकप्रभुत्वव्याख्यानं वीतरागसर्वप्रणीतं वचनं प्रमाणं भवतीति, ‘‘रयणदिवदिणयरुंदम्हि उडुदाउपासणुसुणरुप्पफलिहउ अगणि णवदिट्ठंता जाणु’’ इति दोहकसूत्रकथितनवदृष्टांतैर्भट्टचार्वाकमताश्रिताशिष्यापेक्षया सर्वज्ञसिद्धयर्थं; शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वव्याख्यानं तु नित्यकर्तृत्वैकांतसांख्यमतानुयायिशिष्यसंबोधनार्थं; भोक्तत्वव्याख्यानं कर्ता कर्मफलं न भुंक्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थं; स्वदेहप्रमाणं व्याख्यानं नैयायिकमीमांसककपिलमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं; अमूर्तत्वव्याख्यानं भट्टचार्वाकमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं; द्रव्यभावकर्मसंयुक्तव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य:। =- जीव का अभाव ही मुक्ति है ऐसा मानने वाले सौगत (बौद्धमत) का निराकरण करने के लिए कहते हैं–कि यदि मोक्ष में जीव का सद्भाव न हो तो शाश्वत या नाशवंत, भव्य या अभव्य, शून्य या अशून्य तथा विज्ञान या अविज्ञान घटित ही नहीं हो सकते।37। अथवा कर्ता स्वयं अपने कर्म के फल को नहीं भोगता ऐसा मानने वाले बौद्धमतानुसारी शिष्य के जीव को भोक्ता कहा गया है।
- सामान्य चैतन्य का व्याख्यान सर्वमत साधारण के जानने के लिए है।
- अभिन्न ज्ञानदर्शनोपयोग का व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ है। (क्योंकि वे ज्ञानदर्शन को जीव से पृथक् मानते हैं)।
- स्वदेह प्रमाण का व्याख्यान नैयायिक, मीमांसक व कपिल (सांख्य) मतानुसारी शिष्य का संदेह दूर करने के लिए है, (क्योंकि वे जीव को विभु या अणु प्रमाण मानते हैं)।
- शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापने का व्याख्यान सांख्यमतानुयायी शिष्य के संबोधनार्थ है, (क्योंकि वे जीव या पुरुष को नित्य अकर्ता या अपरिणामी मानते हैं।)
- द्रव्य व भावकर्मों से संयुक्तपने का व्याख्यान सदाशिव वादियों का निराकरण करने के लिए है, (क्योंकि वे जीव को सर्वथा शुद्ध व मुक्त मानते हैं)।
- मोक्षोपदेशक, मोक्षसाधक, प्रभु, तथा वीतराग सर्वज्ञ के वचन प्रमाण होते हैं, ऐसा व्याख्यान; अथवा रत्न, दीप, सूर्य, दही, दूध, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ये जीव के नौ दृष्टांत चार्वाक् मताश्रित शिष्य की अपेक्षा सर्वज्ञ की सिद्धि करने के लिए किये गये हैं। अथवा–अमूर्तत्व का व्याख्यान भी उन्होंने संबोधनार्थ किया गया है। (क्योंकि वे किसी चेतन व अमूर्त जीव को स्वीकार नहीं करते, बल्कि पृथिवी आदि पाँच भूतों के संयोग से उत्पन्न होने वाला एक क्षणिक तत्त्व कहते हैं)।
- जीव के भेद-प्रभेदादि जानने का प्रयोजन
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/32/69/18 अत्र जीविताशारूपरागादिविकल्पत्यागेन सिद्धजीवसदृश: परमाह्लादरूपसुखरसास्वादपरिणतनिजशुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेयमिति भावार्थ:। =यहाँ (जीव के संसारी व मुक्तरूप भेदों में से) जीने की आशारूप रागादि विकल्पों का त्याग करके सिद्धजीव सदृश परमाह्लादरूप सुखरसास्वादपरिणत निजशुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय समझना। ( द्रव्यसंग्रह टीका/2/10/6 )।
- मुक्त जीव में जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित होता है
- जीव के गुण व धर्म
- जीव के 21 सामान्य विशेष स्वभावों का नाम निर्देश
आलापपद्धति/4 स्वभावा: कथ्यंते–अस्तिस्वभाव:, नास्तिस्वभाव:, नित्यस्वभाव:, अनित्यस्वभाव:, एकस्वभाव:, अनेकस्वभाव:, भेदस्वभाव:, अभेदस्वभाव:, भव्यस्वभाव:, अभव्यस्वभाव:, परमस्वभाव:–द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावा:। चेतनस्वभाव:, अचेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभाव:, अमूर्तस्वभाव:, एकप्रदेशस्वभाव:, अनेकप्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभाव:, शुद्धस्वभाव:, अशुद्धस्वभाव:, उपचरितस्वभाव:–एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावा:। जीवपुद्गलयोरेकविंशति:। ‘एकविंशतिभावा: स्युर्जीवपुद्गलयोर्मता:।‘ टिप्पणी–जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभाव:, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तत्वस्वभाव:। तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तुभावोऽभिधीयते। तस्य एकप्रदेशसंभवात् ।=स्वभावों का कथन करते हैं–अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव हैं। और–चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव और उपचरित स्वभाव ये दस विशेष स्वभाव हैं। कुल मिलकर 21 स्वभाव हैं। इनमें से जीव व पुद्गल में 21 के 21 हैं। प्रश्न–(जीव में अचेतन स्वभाव, मूर्तस्वभाव और एकप्रदेश स्वभाव कैसे संभव है)। उत्तर–असद्भूत व्यवहारनय से जीव में अचेतन व मूर्त स्वभाव भी संभव है क्योंकि संसारावस्था में यह अचेतन व मूर्त शरीर से बद्ध रहता है। एक प्रदेशस्वभाव भाव की अपेक्षा से है। वर्तमान पर्यायाक्रांत वस्तु को भाव कहते हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा वह एकप्रदेशी कहा जा सकता है।
- जीव के गुणों का नाम निर्देश
- ज्ञान दर्शन आदि विशेष गुण
देखें जीव - 1.1 (चेतना व उपयोग जीव के लक्षण हैं)।
आलापपद्धति/2 षोडशविशेषगुणेषु जीवपुद्गलयो: षडिति। जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट् ।=सोलह विशेष गुणों में से (देखें गुण - 3) जीव व पुद्गल में छह छह हैं। तहाँ जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व ये छह हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/945 तद्यधायथं जीवस्य चारित्रं दर्शनं सुखम् । ज्ञानं सम्यक्त्वमित्येते स्युर्विशेषगुणा: स्फुटम् ।945। =चारित्र, दर्शन, सुख, ज्ञान और सम्यक्त्व ये पाँच रीति से जीव के विशेष गुण हैं।
- वीर्य अवगाह आदि सामान्य गुण
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/946 वीर्यं सूक्ष्मोऽवगाह: स्यादव्याबाधश्चिदात्मक:। स्याद्गुरुलघुसंज्ञं च स्यु: सामान्यगुणा इमे। =चेतनात्मक वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व ये पाँच जीव के सामान्य गुण हैं।
देखें मोक्ष /3 (सिद्धों के आठ गुणों में भी इन्हें गिनाया है)।
- ज्ञान दर्शन आदि विशेष गुण
- जीव के अन्य अनेकों गुण व धर्म
पंचास्तिकाय/27 जीवों त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।27। =आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोगलक्षिता है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, देहप्रमाण है, अमूर्त है और कर्मसंयुक्त है। ( पंचास्तिकाय/109 ); ( प्रवचनसार/127 ); ( भावपाहुड़/ मू./148); ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/31); ( राजवार्तिक/1/4/14/26/11 ); ( महापुराण/24/92 ); ( नयचक्र बृहद्/106 ); ( द्रव्यसंग्रह/2 )।
समयसार / आत्मख्याति/ परि.―अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावांत:पातिंयोऽनंता: शक्तय: उत्प्लवंते–उस (आत्मा) के ज्ञानमात्र एक भाव की अंत:पातिनी (ज्ञान मात्र एक भाव के भीतर समा जाने वाली) अनंत शक्तियाँ उछलती हैं–उनमें से कितनी ही (47) शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं–- जीवत्व शक्ति,
- चिति शक्ति,
- दृशिशक्ति,
- ज्ञानशक्ति,
- सुखशक्ति,
- वीर्यशक्ति,
- प्रभुत्वशक्ति,
- विभुत्वशक्ति,
- सर्वदर्शित्वशक्ति,
- सर्वज्ञत्वशक्ति,
- स्वच्छत्वशक्ति,
- प्रकाशशक्ति,
- असंकुचितविकाशत्वशक्ति,
- अकार्यकारणशक्ति,
- परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति
- त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति,
- अगुरुलघुत्वशक्ति,
- उत्पादव्ययध्रौव्यत्वशक्ति,
- परिणामशक्ति,
- अमूर्तत्वशक्ति,
- अकर्तृत्वशक्ति,
- अभोक्तृत्वशक्ति,
- निष्क्रियत्वशक्ति,
- नियतप्रदेशत्वशक्ति,
- सर्वधर्मव्यापकत्वशक्ति,
- साधरण असाधारण साधारणासाधारण धर्मत्वशक्ति,
- अनंतधर्मत्वशक्ति,
- विरुद्धधर्मत्वशक्ति,
- तत्त्वशक्ति,
- अतत्त्वशक्ति,
- एकत्वशक्ति,
- अनेकत्वशक्ति,
- भावशक्ति,
- अभावशक्ति,
- भावाभावशक्ति,
- अभावभावशक्ति,
- भावभावशक्ति,
- अभावाभावशक्ति,
- भावशक्ति,
- क्रियाशक्ति,
- कर्मशक्ति,
- कर्तृशक्ति,
- करणशक्ति,
- संप्रदानशक्ति,
- अपादानशक्ति,
- अधिकरणशक्ति,
- संबंधशक्ति। नोट–इन शक्तियों के अर्थों के लिए–देखें वह वह नाम ।
देखें जीव - 1.2-3 कर्ता, भोक्ता, विष्णु, स्वयंभू, प्राणी जंतु आदि अनेकों अन्वर्थक नाम दिये हैं। नोट–उनके अर्थ जीव/1/3 में दिये हैं।
देखें गुण - 3 जीव में अनंत गुण हैं।
- जीव में सूक्ष्म महान् आदि विरोधी धर्मों का निर्देश
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/8/13 यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते, नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्तं प्रतीतिं दृढां, सिद्धज्योतिरमूर्तिचित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते।13। =जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पादविनाशवाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है, तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसी वह दृढ़ प्रतीति को प्राप्त हुई अमूर्तिक, चेतन एवं सुखस्वरूप सिद्धज्योति किसी विरले ही योगी पुरुष के द्वारा देखी जाती है।13। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/10/14)।
- जीव में कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व का निर्देश
द्रव्यसंग्रह/13 मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया।13। =संसारी जीव अशुद्धनय की दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानों से चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्धनय से सभी संसारी जीव शुद्ध हैं। ( समयसार/38-68 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/11 तच्च पुनरुपादानकारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा। रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानआगमभाषया शुक्लध्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्तौ शुद्धोपादानकारणं भवति। अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवतीति सूत्रार्थ:। =वह उपादान कारणरूप जीव शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदज्ञान अथवा आगम भाषा की अपेक्षा शुक्लध्यान केवलज्ञान की उत्पत्ति में शुद्धउपादानकारण है और अशुद्धनिश्चयनय से रागादि से अशुद्ध हुआ अशुद्ध आत्मा अशुद्ध उपादान कारण है। ऐसा तात्पर्य है।
- जीव कथंचित् सर्वव्यापी है
प्रवचनसार/23,26 आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठ। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।23। सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया।26। =- आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है।23। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/8/5)
- जिनवर सर्वगत है और जगत् के सर्वपदार्थ जिनवरगत हैं; क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं, और वे सर्व पदार्थ ज्ञान के विषय हैं, इसलिए जिनके विषय कहे गये हैं ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/254/255 )।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/52 अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणेण जेण। लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण।52। =यह आत्मा कर्मरहित होकर केवलज्ञान से जिस कारण लोक और अलोक को जानता है इसीलिए हे जीव ! वह सर्वगत कहा जाता है।
देखें केवली - 7.7 (केवली समुद्घात के समय आत्मा सर्वलोक में व्याप जाता है)।
- जीव कथंचित् देहप्रमाण है
पंचास्तिकाय/33 जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेहमत्तं पभासयदि।33। =जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूध में डाला जाने पर दूध को प्रकाशित करता है उसी प्रकार देही देह में रहता हुआ स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।
सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/9 जीवस्तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात्कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणुमहद्वाधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते।=यद्यपि जीव के प्रदेश धर्म व अधर्म या लोकाकाश के बराबर है, तो वह संकोच और विस्तार स्वभाव वाला होने के कारण, कर्म के निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उतनी अवगाहना का होकर रहता है। ( राजवार्तिक/5/8/4/449/33 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/176 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/34/72/13 सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे। =देह के मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एकदेश में नहीं।
- सर्वव्यापीपने का निषेध व देहप्रमाणपने की सिद्धि
राजवार्तिक/1/10/16/51/13 यदि हि सर्वगत आत्मा स्यात्; तस्य क्रियाभावात् पुण्यपापयो: कर्तृत्वाभावे तत्पूर्वकसंसार: तदुपरतिरूपश्च मोक्षो न मोक्ष्यते इति। =यदि आत्मा सर्वगत होता तो उसके क्रिया का अभाव हो जाने के कारण पुण्य व पाप के ही कर्तृत्व का अभाव हो जाता। और पुण्य व पाप के अभाव से संसार व मोक्ष इन दोनों की भी कोई योजना न बन सकती, क्योंकि पुण्य-पाप पूर्वक ही संसार होता है और उनके अभाव से मोक्ष।
श्लोकवार्तिक/2/1/4 श्लो.45/146 क्रियावान् पुरुषोऽसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा। पृथिव्यादि स्वसंवेद्य साधनं सिद्धमेव न:।45। =आत्मा क्रियावान् है, क्योंकि अव्यापक है, जैसे पृथिवी जल आदि। और यह हेतु स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/137 अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव। =अमूर्त आत्मा के संकोच विस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/177 सव्व-गओ जदि जीवो सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती। जाइज्ज ण सा दिट्ठो णियतणुमाणो तदो जीवो। =यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदु:ख का अनुभव होना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं देखा जाता। अत: जीव अपने शरीर के बराबर है।
अनगारधर्मामृत/2/31/149 स्वांग एव स्वसंवित्त्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् । यत: संवेद्यते सर्वै: स्वदेहप्रमितिस्तत:।31। =ज्ञान दर्शन सुख आदि गुणों और पर्यायों से युक्त अपनी आत्मा का अपने अनुभव से अपने शरीर के भीतर ही सब जीवों को संवेदन होता है। अत: सिद्ध है कि जीव शरीरप्रमाण है।
- जीव संकोच विस्तार स्वभावी है
तत्त्वार्थसूत्र/5/16 प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ।=दीप के प्रकाश के समान जीव के प्रदेशों का संकोच विस्तार होता है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/9 ); ( राजवार्तिक/5/8/4/449/33 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136,137 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/176 )
- संकोच विस्तार धर्म की सिद्धि
राजवार्तिक/5/16/4-6/458/32 सावयवत्वात् प्रदेशविशरणप्रसंग इति चेत्; न; अमूर्तस्वभावापरित्यागात् ।4।...अनेकांतात् ।5। यो ह्येकांतेन संहारविसर्पवानेवात्मा सावयवश्चेति वा ब्रूयात् तं प्रत्ययमुपालंभो घटामुपेयात् । यस्य त्वनादिपारिणामिकचैतन्यजीवद्रव्योपयोगादिद्रव्यार्थादेशात् स्यान्न प्रदेशसंहारविसर्पवान्, द्रव्यार्थादेशाच्च स्यान्निरवयव:, प्रतिनियतसूक्ष्मबादरशरीरापेक्षनिर्माणनामोदयपर्यायार्थादेशात् स्यात् प्रदेशसंहारविसर्पवान्, अनादिकर्मबंधपर्यायार्थादेशाच्च स्यात् सावयव:, तं प्रत्यनुपालंभ:। किंच–तत्प्रदेशानामकारणपूर्वकत्वादणुवत् ।6। =प्रश्न–प्रदेशों का संहार व विसर्पण मानने से आत्मा को सावयव मानना होगा तथा उसके प्रदेशों का विशरण (झरन) मानना होगा और प्रदेश विशरण से शून्यता का प्रसंग आयेगा ? उत्तर–- बंध की दृष्टि से कार्मण शरीर के साथ एकत्व होने पर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसलिए उपरोक्त दोष नहीं आता।
- सर्वथा संहार-विसर्पण व सावयव मानने वालों पर यह दोष लागू होता है, हम पर नहीं। क्योंकि हम अनेकांतवादी हैं। पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टि से हम न तो प्रदेशों का संहार या विसर्प मानते हैं और न उसमें सावयवपना। हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म बादर शरीर को उत्पन्न करने वाले निर्माण नामकर्म के उदयरूप पर्याय की विवक्षा से प्रदेशों का संहार व विसर्प माना गया है और अनादि कर्मबंधरूपी पर्यायार्थादेश से सावयवपना। और भी–
- जिस पदार्थ के अवयव कारण पूर्वक होते हैं उसके अवयवविशरण से विनाश हो सकता है जैसे तंतुविशरण से कपड़े का। परंतु आत्मा के प्रदेश अकारणपूर्वक होते हैं, इसलिए अणुप्रदेशवत् वह अवयवविश्लेष से अनित्यता को प्राप्त नहीं होता।
- जीव के 21 सामान्य विशेष स्वभावों का नाम निर्देश
- जीव के प्रदेश
- जीव असंख्यात प्रदेशी है
तत्त्वार्थसूत्र/5/8 असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् ।8। =धर्म, अधर्म और एकजीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। ( नियमसार/35 ); (प.प्रा./मू./2/24); ( द्रव्यसंग्रह/25 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/135 अस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य। =संकोच विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिए वह प्रदेशवान् है। ( गोम्मटसार जीवकांड/584/1025 )।
- संसारी जीव के अष्ट मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकार के
षट्खंडागम 14/5,6/ सू.63/46 जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा अट्ठण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपदेसंबधो भवदि सो सव्वो अणादियसरीरिबंधो णाम।63। =जो अनादि शरीरबंध है। यथा–जीव के आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेशबंध होता है, यह सब अनादि शरीरबंध है।
षट्खंडागम 12/4,2,11/ सूत्र5-7/367 वेयणीयवेयणा सिया ट्ठिदा।5। सिया अट्ठिदा।6। सिया ट्ठिदाट्ठिदा।7। =वेदनीय कर्म की वेदना कथंचित् स्थित है।5। कथंचित् वे अस्थित हैं।6। कथंचित् वह स्थितअस्थित हैं।7।
धवला 1/1,1,33/233/1 में उपरोक्त सूत्रों का अर्थ ऐसा किया है–कि ‘आत्म प्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है’।
भगवती आराधना/1779 अट्ठपदेसे मुत्तूण इमो सेसेसु सगपदेसेसु। तंत्तपि अद्धरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि।1779। =जैसे गरम जल में पकते हुए चावल ऊपर-नीचे होते रहते हैं, वैसे ही इस संसारी जीव के आठ रुचकाकार मध्यप्रदेश छोड़कर बाकी के प्रदेश सदा ऊपर-नीचे घूमते हैं।
राजवार्तिक/5/8/16/451/13 में उद्धृत—सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निरपवादा: सर्वजीवानां स्थिता एव, ...व्यायामदु:खपरितापोद्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जितानाम् इतरे प्रदेशा: अस्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्च’ इति वचनान्मुख्या: एव प्रदेशा:। =जीव के आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवाद रूप से स्थित ही रहते हैं। व्यायाम के समय या दु:ख परिताप आदि के समय जीवों के उक्त आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं। शेष जीवों के स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के हैं। अत: ज्ञात होता है कि द्रव्यों के मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं।
धवला 12/4,2,11,3/366/5 वाहिवेयणासज्झसादिकिलेसविरहियस्स छदुमत्थस्स जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति। =व्याधि, वेदना एवं भव आदिक क्लेशों से रहित छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का चूँकि संचार पाया जाता है, अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/592/1031 सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा।592। =सर्व ही अरूपी द्रव्यों के त्रिकाल स्थित अचलित प्रदेश होते हैं और रूपी अर्थात् संसारी जीव के तीन प्रकार के होते हैं–चलित, अचलित व चलिताचलित।
- शुद्ध द्रव्यों व शुद्ध जीव के प्रदेश अचल ही होते हैं
राजवार्तिक/5/8/16/451/13 में उद्धृत–केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा: स्थिता एव। =अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश स्थित हैं।
धवला 12/4,2,11,3/367/12 अजोगिकेवलिम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। =अयोग केवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीव प्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/592/1031 सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवो जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा।592।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/592/1031/15 अरूपिद्रव्यं मुक्तजीवधर्माधर्माकाशकालभेदं सर्वम-अवस्थितमेव स्थानचलनाभावात् । तत्प्रदेशा अपि अचलिता: स्यु:। =सर्व अरूपी द्रव्य अर्थात् मुक्तजीव और धर्म-अधर्म आकाश व काल, ये अवस्थित हैं, क्योंकि ये अपने स्थान से चलते नहीं है। इनके प्रदेश भी अचलित ही हैं।
- विग्रहगति में जीव के प्रदेश चलित ही होते हैं
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/592/1031/16 विग्रहगतौ चलिता:। =विग्रह गति में जीव के प्रदेश चलित होते हैं।
- जीवप्रदेशों के चलितपने का तात्पर्य परिस्पंद व भ्रमण आदि
धवला 1/1,1,33/233/1 वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेसु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु...
धवला 12/4,2,11,1/364/5 जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु...
धवला 12/4,2,11,3/366/5 जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो...केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो...
धवला 12/4,2,11,3/366/11 ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु...
धवला 12/4,2,11,5/367/12 जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण...।
- वेदनाप्राभृत के सूत्र आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर...
- योग के कारण जीवप्रदेशों का संचरण होने पर...
- किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि चलन नहीं होता...किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचालन होता है...
- परिस्पंदन से रहित जीव प्रदेशों में...
- जीवप्रदेशों का (अयोगी में) संकोच विस्तार नहीं पाया जाता...
- वेदनाप्राभृत के सूत्र आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर...
- जीवप्रदेशों की अनवस्थिति का कारण योग है
धवला/12/4,2,11,5/367/12 अजोगकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। =अयोगकेवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीवप्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।
- चलाचल प्रदेशों संबंधी शंका समाधान
धवला 1/1,1,33/233/1 भ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्वजीवानामांध्यप्रसंगादिति, नैष दोष:, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् ।...कर्मस्कंधै: सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वद्भ्रमो भवेदिति चेन्न, तद्भ्रमणावस्थायां तत्समवायाभावात् । शरीरेण समवायाभावे मरणमाढौकत इति चेन्न, आयुष: क्षयस्य मरणहेतुत्वात् । पुन: कथं संघटत इति चेन्नानाभेदोपसंहृतजीवप्रदेशानां पुन: संघटनोपलंभात्, द्वयोर्मूर्तयो: संघटने विरोधाभावाच्च, तत्संघटनहेतुकर्मोदयस्य कार्यवैचित्र्यादवगतवैचित्र्यस्य सत्त्वाच्च। द्रव्येंद्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्नेष्यत इति चेन्न, तद्भ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्ते: इति। =प्रश्न–जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में संपूर्ण जीवों को अंधपने का प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इंद्रियाँ रूपादि को ग्रहण नहीं कर सकेंगी? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवों के संपूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। प्रश्न–कर्मस्कंधों के साथ जीव के संपूर्ण प्रदेशों के भ्रमण करने पर जीवप्रदेशों से समवाय संबंध को प्राप्त शरीर का भी जीवप्रदेशों समान भ्रमण होना चाहिए ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय संबंध नहीं रहता है। प्रश्न–ऐसा मानने पर मरण प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना गया है। प्रश्न–तो जीवप्रदेशों का फिर से समवाय संबंध कैसे हो जाता है? उत्तर–- इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने नाना अवस्थाओं का उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवों के प्रदेशों का फिर से समवाय संबंध होता हुआ देखा ही जाता है। तथा दो मूर्त पदार्थों का संबंध होने में विरोध भी नहीं है।
- अथवा, जीवप्रदेश व शरीर संघटन के हेतुरूप कर्मोदय के कार्य की विचित्रता से यह सब होता है। प्रश्न–द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येंद्रिय प्रमाण जीव प्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यंत द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथिवी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता।
- जीव प्रदेशों के साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार ही चल व अचल होते हैं
धवला 12/4,2,11,2/365/11 देसे इव जीवपदेसेसु वि अट्ठिदत्ते अब्भुवगममाणे पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो च। अट्ठण्णं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति। तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्तवयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठिमज्झिमजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो।
धवला 12/4,2,11,3/366/5 जीवपदेसाणं केसिं पि चलणाभावादो तत्थट्ठिदकम्मक्खंधा वि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति। =दूसरे देश के समान जीवप्रदेशों में भी कर्मप्रदेशों को अवस्थित स्वीकार करने पर पूर्वोक्त दोष का प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशों के देशांतर को प्राप्त होने पर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं। प्रश्न–यत: जीव के आठ मध्य प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार नहीं होता, अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थित (चलित) पना नहीं बनता और इसलिए सब जीव प्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्रवचन घटित नहीं होता ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीव के उन आठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों का आश्रय करके इस सूत्र की प्रवृत्ति होती है।...किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचार नहीं होता, इसलिए उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी जीव के किन्हीं जीवप्रदेशों का क्योंकि संचार पाया जाता है, अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित (चलित) कहे जाते हैं।
- जीव असंख्यात प्रदेशी है
पुराणकोष से
सात तत्त्वों में प्रथम तत्त्व । वो प्राणों से जीता था, जीता है और जियेगा वह जीव है । सिद्ध पूर्व पर्यायों मे प्राणों के युक्त थे, अत: उन्हें भी जीव कहा गया है । जीव का पाँच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणों वाला होने से प्राणी, जन्म धारण करने से जंतु, निज स्वरूप का ज्ञाता होने से क्षेत्रज्ञ, अच्छे-अच्छे भोगों में प्रवृत्ति होने से पुरुष, स्वयं को पवित्र करने से पुमान्, नरक नारकादि पर्यायों मे निरंतर गमन करने से आत्मा, ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा, ज्ञान गुण से सहित होने से यह ज्ञ कहा गया है । वह अनादि निधन, ज्ञाता-द्रष्टा, कर्त्ता-भोक्ता, शरीर के प्रमाण रूप, कर्मों का नाशक, ऊर्ध्वगमन स्वभावी, संकोचविस्तार गुण से युक्त, सामान्य रूप से नित्य और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य, दोनों अपेक्षाओं से उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप, असंख्यात प्रदेशी और वर्ण आदि बीस गुणों से युक्त है । महापुराण 24.92-110, हरिवंशपुराण - 58.30-31, पांडवपुराण 22.67, वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 113 यह दर्शन और ज्ञान उपयोग मयी है । वह अनादिकाल से कर्म बद्ध और चारों गतियों में भ्रमणशील है । इसे सुख-दुःख आदि का संवेदन होता है । महापुराण 71.194-197, हरिवंशपुराण - 58.23,हरिवंशपुराण - 58.27 निश्चय नय से यह चेतना लक्षण, कर्म, नोकर्म बंध आदि का अकर्त्ता, अमूर्त और सिद्ध है । व्यवहार नय से राग आदि भाव का कर्त्ता, भोक्ता, अपने आत्मज्ञान से बहिर्भूत, ज्ञानावरण आदि कर्म और नोकर्मों का कर्त्ता हैं । वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 103-108 इसे गति, इंद्रिय, छ: काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओं से तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों से, सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अंतर और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगों से और प्रमाण नय तथा निक्षेपों से खोजा या जाना जाता है । इसकी दो अवस्थाएँ होती है― संसारी और मुक्त । इसके भव्य अभव्य और मुक्त ये तीन भेद भी होते हैं । यह अपनी स्थिति के अनुसार बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा भी होता है । इसके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव होते हैं । महापुराण 2.118,24.88-110 पद्मपुराण 155-157, हरिवंशपुराण - 58.36-38, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.33, 66