मनु: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) भरतक्षेत्र में भोगभूमि की स्थिति समाप्त होने पर तीसरे काल में पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर उत्पन्न हुए कुलों के कर्त्ता-कुलकर ये चौदह हुए हैं । वे हैं― प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र चंद्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय । इन्होंने हा, मा और धिक् ऐसे शब्दों का दंड रूप में प्रयोग करके प्रजा के कष्ट को दूर किया था । ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने, मनन करने और बताने से इस नाम से विख्यात हुए थे । आर्य पुरुषों को कुल की भांति इकट्ठे रहने का उपदेश देने के ये कुलकर, वंश-संस्थापक होने से कुलधर और युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते थे । इन कुलकरों में आदि के पाँच ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘‘हाँ’’ नामक दंड की व्यवस्था की थी । छठे से दसवें कुलकर तक हुए पाँच कुलकरों ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ और शेष ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ ‘‘धिक्’’ इस प्रकार की दंड व्यवस्था की थी । वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और कुलकर भी । कल्पवृक्षों का ह्रास होने पर ये गंगा और सिंधु महानदियों के दक्षिण भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति की ऊँचाई अठारह सौ धनुष, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मति की तेरह सौ धनुष और तीसरे कुलकर क्षेमंकर की आठ सौ धनुष थी । आगे प्रत्येक कुलकर की ऊँचाई पच्चीस-पच्चीस धनुष कम होती गयी । अंतिम कुलकर नाभिराय की ऊँचाई पांच सौ धनुष थी । सभी कुलकर समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से युक्त गंभीर तथा उदार थे । इन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण था । इनकी मनु संज्ञा थी । इनके चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन प्रियंगुपुष्प के समान श्याम-कांति के धारी थे । चंद्राभ चंद्रमा के समान और शेष तप्त स्वर्णप्रभा से युक्त थे । मपु 3. 211-215, 229-232 <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.123-124, 171-175, 8.1 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 2.103-107 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) भरतक्षेत्र में भोगभूमि की स्थिति समाप्त होने पर तीसरे काल में पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर उत्पन्न हुए कुलों के कर्त्ता-कुलकर ये चौदह हुए हैं । वे हैं― प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र चंद्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय । इन्होंने हा, मा और धिक् ऐसे शब्दों का दंड रूप में प्रयोग करके प्रजा के कष्ट को दूर किया था । ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने, मनन करने और बताने से इस नाम से विख्यात हुए थे । आर्य पुरुषों को कुल की भांति इकट्ठे रहने का उपदेश देने के ये कुलकर, वंश-संस्थापक होने से कुलधर और युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते थे । इन कुलकरों में आदि के पाँच ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘‘हाँ’’ नामक दंड की व्यवस्था की थी । छठे से दसवें कुलकर तक हुए पाँच कुलकरों ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ और शेष ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ ‘‘धिक्’’ इस प्रकार की दंड व्यवस्था की थी । वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और कुलकर भी । कल्पवृक्षों का ह्रास होने पर ये गंगा और सिंधु महानदियों के दक्षिण भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति की ऊँचाई अठारह सौ धनुष, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मति की तेरह सौ धनुष और तीसरे कुलकर क्षेमंकर की आठ सौ धनुष थी । आगे प्रत्येक कुलकर की ऊँचाई पच्चीस-पच्चीस धनुष कम होती गयी । अंतिम कुलकर नाभिराय की ऊँचाई पांच सौ धनुष थी । सभी कुलकर समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से युक्त गंभीर तथा उदार थे । इन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण था । इनकी मनु संज्ञा थी । इनके चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन प्रियंगुपुष्प के समान श्याम-कांति के धारी थे । चंद्राभ चंद्रमा के समान और शेष तप्त स्वर्णप्रभा से युक्त थे । मपु 3. 211-215, 229-232 <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#123|हरिवंशपुराण - 7.123-124]], 171-175, 8.1 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 2.103-107 </span></p> | ||
<p id="2">(2) अदिति देवी द्वारा नमि और विनमि को दिये गये विद्याओं के आठ निकायों में प्रथम निकाय । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.57 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) अदिति देवी द्वारा नमि और विनमि को दिये गये विद्याओं के आठ निकायों में प्रथम निकाय । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#57|हरिवंशपुराण - 22.57]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का सत्ताईसवाँ नगर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.88 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का सत्ताईसवाँ नगर । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#88|हरिवंशपुराण - 22.88]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.171 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.171 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
धवला 1/1,1,2/20/1 मनुःज्ञानं = मनु ज्ञान को कहते हैं।
- विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर–देखें विद्याधर ;
- कुलकर का अपर नाम–देखें शलाका पुरुष - 9.3
पुराणकोष से
(1) भरतक्षेत्र में भोगभूमि की स्थिति समाप्त होने पर तीसरे काल में पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर उत्पन्न हुए कुलों के कर्त्ता-कुलकर ये चौदह हुए हैं । वे हैं― प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र चंद्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय । इन्होंने हा, मा और धिक् ऐसे शब्दों का दंड रूप में प्रयोग करके प्रजा के कष्ट को दूर किया था । ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने, मनन करने और बताने से इस नाम से विख्यात हुए थे । आर्य पुरुषों को कुल की भांति इकट्ठे रहने का उपदेश देने के ये कुलकर, वंश-संस्थापक होने से कुलधर और युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते थे । इन कुलकरों में आदि के पाँच ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘‘हाँ’’ नामक दंड की व्यवस्था की थी । छठे से दसवें कुलकर तक हुए पाँच कुलकरों ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ और शेष ने ‘‘हाँ’’ ‘‘मा’’ ‘‘धिक्’’ इस प्रकार की दंड व्यवस्था की थी । वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और कुलकर भी । कल्पवृक्षों का ह्रास होने पर ये गंगा और सिंधु महानदियों के दक्षिण भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति की ऊँचाई अठारह सौ धनुष, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मति की तेरह सौ धनुष और तीसरे कुलकर क्षेमंकर की आठ सौ धनुष थी । आगे प्रत्येक कुलकर की ऊँचाई पच्चीस-पच्चीस धनुष कम होती गयी । अंतिम कुलकर नाभिराय की ऊँचाई पांच सौ धनुष थी । सभी कुलकर समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से युक्त गंभीर तथा उदार थे । इन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण था । इनकी मनु संज्ञा थी । इनके चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन प्रियंगुपुष्प के समान श्याम-कांति के धारी थे । चंद्राभ चंद्रमा के समान और शेष तप्त स्वर्णप्रभा से युक्त थे । मपु 3. 211-215, 229-232 हरिवंशपुराण - 7.123-124, 171-175, 8.1 पांडवपुराण 2.103-107
(2) अदिति देवी द्वारा नमि और विनमि को दिये गये विद्याओं के आठ निकायों में प्रथम निकाय । हरिवंशपुराण - 22.57
(3) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का सत्ताईसवाँ नगर । हरिवंशपुराण - 22.88
(4) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.171