कुंदकुंद: Difference between revisions
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(Replaced content with "== सिद्धांतकोष से == <span class="GRef">धवला 6/1, 9-1, 11/13/7</span> <span class="SanskritText">गमयत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् । उच्चनीचकुलेसु उप्पादओ पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तदि-पच्चएहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे ।</span> = <span class=...") Tag: Replaced |
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
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<li class="HindiText" name="1" id="1">कुंदकुंदाचार्य दिगंबर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य थे जिनके विषय में विद्वानों ने सर्वाधिक खोज की है। मूलसंघ में आपका स्थान - देखें [[ इतिहास#7.1 | इतिहास - 7.1]]</li> | |||
<li class="HindiText" name="2" id="2"><strong> कुंदकुंद का वंश व ग्राम</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">जैन साहित्य/2/103</span><br/> | |||
<span class="HindiText"> कौंडकुंडपुर गाँव के नाम पर से पद्मनंदि ‘कुंदकुंद’ नाम से ख्यात हुए। पी.वी.देसाई कृत 'जैनिज्म' के अनुसार यह स्थान गंटाकल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की ओर कोनकोंडल नामक गाँव प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं।<br /> | |||
(देखें आगे [[#10|शीर्षक नं - 10]]) – इंद्रनंदि श्रुतावतार के अनुसार मुनि पद्मनंदि ने कौंडकुंडपुर में सिद्धांत को जानकर ‘परिकर्म’ नामक टीका लिखी थी।<br /> | |||
<span class="GRef">षट प्राभृत/प्रशस्ति 3/प्रेमीजी</span> <br/> | |||
<span class="HindiText">द्रविड़ देशस्य ‘कोंडकुंड’ नामक स्थान के रहने वाले थे और इस कारण कोंडकुंद नाम से प्रसिद्ध थे। नंदिसंघ बलात्कार गण की गुर्वावली के अनुसार (देखें [[ इतिहास#5.2 | इतिहास-5.2]]) आप द्रविड़ संघ के आचार्य थे। श्री जिनचंद्र के शिष्य तथा श्री उमास्वामी के गुरु थे। यथा– <br /> | |||
<span class="GRef">मूल आचार/प्र. 11 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले</span><span class="SanskritText">पद्मनंदिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:।</span><span class="HindiText"> (इत्यादि देखो आगे [[#5|उनका श्वेतांबरों के साथ वाद]])</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> अपर नाम</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">मूल नंदिसंघ की पट्टावली</span> | |||
<span class="SanskritText">पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ, जिनादिचंद्र: समभूदतंद्र:। ततोऽभवत् पंच सुनामधामा, श्री ‘पद्मनंदि:’ मुनिचक्रवर्ती।। आचार्य ‘कुंदकुंदाख्यो’ ‘वक्रग्रीवो’ महामति:। ‘एलाचार्यो’ गृद्धपृच्छ पद्मनंदि’ वितायते।</span>=<span class="HindiText">उस पट्ट पर मुनिमान्य जिनचंद्र आचार्य हुए और उनके पश्चात् पद्मनंदि नाम के मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके पाँच नाम थे – '''कुंदकुंद''', '''वक्रग्रीव''', '''एलाचार्य''', '''गृद्धपृच्छ''' और '''पद्मनंदि'''। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1 </span><span class="SanskritText"> मंगलाचरण–श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयै:। </span>=<span class="HindiText">श्रीमत् कुंदकुंदाचार्यदेव जिनके कि पद्मनंदि आदि अपर नाम भी थे। <br /> | |||
<span class="GRef">चंद्रगिरि शिलालेख 45/66 तथा महानवमी के उत्तर में एक स्तंभ पर</span> <span class="SanskritText">‘‘श्री पद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकौंडकुंद:।</span> <span class="HindiText">=श्री पद्मनंदि ऐसे अनवद्य नाम वाले आचार्य जिनका नामांतर कौंडकुंद था।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति पृ. 379 </span><span class="SanskritText">इति श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन ....।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार श्री पद्मनंदि, कुंदकुंदाचर्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य नामपंचक से विराजित....।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="4" id="4"><strong> नामों संबंधी विचार</strong> | |||
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<li class="HindiText"> '''पद्मनंदि''' — नंदिसंघ की पट्टावली में जिनचंद्र आचार्य के पश्चात् पद्मनंदि का नाम आता है। अत: पता चलता है कि पद्मनंदि इनका दीक्षा का नाम था।</li> | |||
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<span class="GRef"> कुंदकुंद–श्रुतावतार/160−161</span> <span class="SanskritText">गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कोंडकुंडपुरे।160। श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रंथपरिकर्मकर्ता षट्खंडाद्यत्रिखंडस्य।161।</span>=<span class="HindiText">गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को जानकर कोंडकुंडपुर में श्री पद्मनंदि मुनि के द्वारा 12000 श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम का ग्रंथ षट्खंडागम के आद्य तीन खंडों की टीका के रूप में रचा गया। इस पर से जाना जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोंडकुंडपुर के निवासी थे। इसी कारण आपको '''कुंदकुंद''' भी कहते थे। <span class="GRef">(षट प्राभृत/प्रशस्ति 3 प्रेमीजी)</span> </span></li> | |||
<span class="HindiText"> | <li class="HindiText"><span class="GRef">एलाचार्य–षट प्राभृत/प्रशस्ति 3 प्रेमजी</span> <br/> | ||
<span class="HindiText"> ईसा शताब्दी 1 के आसपास मदुरा के कवि सम्मेलन में पेश करने के लिए रचित तमिलवेद या ‘थिरुक्कुरल’ के रचयिता '''ऐलाचार्य''' को श्री एम.ए. रामास्वामी आयंगर कुंदकुंद का अपर नाम मानते हैं। <span class="GRef">(मूल आचार/प्रशस्ति 9 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले)</span> <br/> | |||
<span class="HindiText"> पं. कैलाशचंद्रजी के अनुसार यह नाम धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के गुरु का था जिनके पास उन्होंने सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन किया था। इंद्रनंदि श्रुतावतार तथा धवला की प्रशस्ति से इस बात की पुष्टि होती है। वीरसेन स्वामी क्योंकि कुंदकुंद के बहुत पीछे हुए हैं इसलिए यह नाम इनका नहीं हो सकता। <span class="GRef">(जैन साहित्य/2/101)</span> <br/> | |||
<span class="HindiText"> पं.जुगलकिशोर मुख्तार भी इसे कुंदकुंद का नामांतर स्वीकार नहीं करते। <span class="GRef">(जैन साहित्य/2/116)</span></li> | |||
<li class="HindiText"><span class="GRef"> मूल आचार/प्रशस्ति 10/जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले )</span><br/> | |||
<span class="HindiText">'''गृद्धपृच्छ''' नाम का हेतु ऐसा है कि विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्ते में इनकी मयूर पृच्छिका गिर गयी। तब यह गीध के पिच्छ (पंख) हाथ में लेकर लौट आये। अत: गृद्धपिच्छ ऐसा भी इनका नाम हुआ। श्रवणबेलगोला से प्राप्त अनेकों शिलालेखों में यह नाम उमास्वामी के लिए आया है और उन्हें कुंदकुंद के अन्वय का बतलाया गया है। इनके शिष्य का नाम भी बलाकपिच्छ है। इस पर से पंडित कैलाश चंद्रजी के अनुसार यह उमास्वामी का नामांतर है न कि कुंदकुंद का। <span class="GRef">(जैन साहित्य/2/102)</span></li> | |||
<li class="HindiText">'''वक्रग्रीव''' − इस शब्द पर से अनुमान होता है कि संभवत: आपकी गर्दन टेढ़ी हो और इसी कारण से आपका नाम वकग्रीव पड़ गया हो। परंतु पंडित कैलाशचंदजी के अनुसार क्योंकि ईस्वी 1137 और 1158 के शिलालेखों में यह नाम अकलंकदेव के पश्चात् आया है, इसलिए ये कोई एक स्वतंत्र महान् आचार्य हुए हैं, जिनका कुंदकुंद के साथ कोई संबंध नहीं ।<span class="GRef">(जैन साहित्य/2/101)</span><br /> | |||
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<li class="HindiText" name="5" id="5"><strong> श्वेतांबरों के साथ वाद</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> (मूल आचार/प्रशस्ति/11/जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) </span><br/> | |||
<span class="HindiText"> भगवत्कुंदकुंदाचार्य का गिरनार पर्वत पर श्वेतांबराचार्यों के साथ बड़ा वाद हुआ था, उस समय पाषाण निर्मित सरस्वती की मूर्ति से आपने यह कहला दिया था कि दिगंबर धर्म प्राचीन है।–यथा</span><br/> | |||
<span class="GRef">आचार्य शुभचंद्र कृत पांडवपुराण</span><span class="SanskritText">पद्मनंदिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।।−गुर्वावली।। कुंदकुंदगणी येनोर्ज्जयंतगिरिमस्तके। सोऽवताद्वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।।</span><span class="HindiText"> ऐसे अनेक प्रमाणों से उनकी उद्भट विद्वत्ता सिद्ध है।<br /> | |||
<span class="HindiText"> नोट–यद्यपि सूत्र पाहुड़ से इस बात की पुष्टि होती है और दर्शनसार में भी दिगंबर श्वेतांबर भेद विक्रम संवत 136 में बताया गया है (देखें [[ श्वेतांबर#7 | श्वेतांबर-7]]);परंतु पंडित कैलाशचंद जी के अनुसार यह विवाद पद्मनंदि नाम के किसी भट्टारक के साथ हुआ था। कुंदकुंद के साथ नहीं। <span class="GRef">(जैन साहित्य/2/110,112)</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="6" id="6"><strong> ऋद्धिधारी थे</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText">श्रवणबेलगोला में अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिन पर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवी से ऊपर चलना सिद्ध है। यथा– <br/> | |||
<span class="GRef"> जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं. 40/64 </span><span class="SanskritText">तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनंदिप्रथमाभिधान:। श्रीकोंडकुंदादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।6।। </span> | |||
<span class="GRef"> जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं. 42/66</span><span class="SanskritText"> श्री पद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकोंडकुंद:। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणर्द्धि:।4। </span>=<span class="HindiText">श्री चंद्रगुप्त मुनिराज के प्रसिद्ध वंश में पद्मनंदि संज्ञावाले श्री कुंदकुंद मुनीश्वर हुए हैं। जिनको सत्संयम के प्रसाद से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।40। श्री पद्मनंदि है अनवद्य नाम जिनका तथा कुंदकुंद है अपर नाम जिनका ऐसे आचार्य को चारित्र के प्रभाव से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।42।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> शिलालेख नं. 62,64,66,67,254,261 पृ. 263−266 </span><br> | |||
<span class="HindiText"> कुंदकुंदाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><span class="GRef"> चंद्रगिरि शिलालेख/नं.54/पृ.102 </span><br> | |||
<span class="HindiText"> कुंदपुष्प की प्रभा धरने वाले, जिसकी कीर्ति के द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण ऋद्धिधारी महामुनियों के सुंदर हस्तकमल का भ्रमर था और जिस पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा करी है वह विभु कुंदकुंद इस पृथिवी पर किससे वंद्य नहीं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><span class="GRef"> जैन शिलालेख संग्रह/पृ. 197−198</span> <span class="SanskritText">रजोभिरस्पष्टतमत्वमंतर्बाह्यापि सव्यंजयितुं यतीश:। रज: पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं स:।।</span>=<span class="HindiText">यतीश्वर श्री कुंदकुंददेव रजस्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे। उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अंदर में और बाहर में रज से अत्यंत अस्पृष्टपने को व्यक्त करता हुआ। <br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> मद्रास व मैसूर प्रांत प्राचीन स्मारक पृ. 317−318 (69) लेख नं.35। आचार्य की वंशावली </span><br> | |||
<span class="HindiText"> श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।)<br /></li> | |||
<li class="HindiText"><span class="GRef">हन्ली नं.21 ग्राम हेग्गरे में एक मंदिर के पाषाण पर लेख–</span><span class="SanskritText">‘‘स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने। श्री कुंदकुंदनामाभूत् चतुरंगुलचारणे।’’</span>=<span class="HindiText">श्री वर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।</span><br /></li> | |||
<li class="HindiText"> <span class="GRef">षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ.379 </span> <span class="SanskritText">नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुंडरीकिणीनगरवंदितसीमंधरजिनेन ....।</span>=<span class="HindiText">नाम पंचक विराजित (श्री कुंदकुंदाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधर प्रभु की वंदना की थी।<br /></li> | |||
<li class="HindiText"><span class="GRef"> मूल आचार/प्र.10 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले</span> <br> | |||
<span class="HindiText">भद्रबाहु चरित्र के अनुसार राजा चंद्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कथन करते हुए भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि पंचम काल में चारणऋद्धि आदिक ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होतीं, और इसलिए भगवान् कुंदकुंद की चारण ऋद्धि होने के संबंध में शंका उत्पन्न हो सकती है। जिस का समाधान यों समझना कि चारण ऋद्धि के निषेध का वह सामान्य कथन है। पंचम काल में ऋद्धिप्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है यही उसका अर्थ समझना चाहिए। पंचम काल के प्रारंभ में ऋद्धि का अभाव नहीं है परंतु आगे उसका अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व अपवाद रूप है। इस संबंध में हमारा कोई आग्रह नहीं है।</span></li> | |||
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<li class="HindiText" name="7" id="7"><strong> विदेहक्षेत्र गमन</strong> </span><br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> दर्शनसार/ मूल/43</span> <span class="PrakritText">जह पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।43।</span><span class="HindiText">=विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमंधर स्वामी के समवशरण में जाकर श्री पद्मनंदि नाथ ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न देते तो, मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते।</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ मंगलाचरण/1 </span><span class="SanskritText"> अथ श्रीकुमारनंदिसिद्धांतदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा। तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीकुंडकुंदाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयै ....विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे... तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते।</span>=<span class="HindiText">अब श्री कुमारनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य, जो कि प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व विदेह में जाकर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर परम देव श्रीमंदर स्वामी के दर्शन करके, उनके मुख कमल से विनिर्गत दिव्य वाणी के श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थ से शुद्धात्म तत्त्व के सार को ग्रहण करके आये थे, तथा पद्मनंदि आदि हैं दूसरे नाम भी जिनके ऐसे कुंदकुंद आचार्यदेव द्वारा विरचित पंचास्तिकाय प्राभृतशास्त्र का तात्पर्य व्याख्यान करते हैं।</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ.379 </span><span class="SanskritText"> श्री पद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य ....नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुंडरीकणीनगरवंदित सीमंधरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतज्ञानसंबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचंद्रभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रंथे ....।</span>=<span class="HindiText">श्री पद्मनंदि कुंदकुंदाचार्य देव जिनके कि पाँच नाम थे, चारण ऋद्धि द्वारा पृथिवी से चार अंगुल आकाश में गमन करते पूर्व विदेह की पुंडरीकणी नगर में गये थे। तहाँ सीमंधर भगवान् जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभ भी है, उनकी वंदना करके आये थे। वहाँ से आकर उन्होंने भारत वर्ष के भव्य जीवों को संबोधित किया था। वे श्री जिनचंद्र भट्टारक के पट्ट पर आसीन हुए थे, तथा कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रंथ में।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> <span class="GRef"> मूल आचार/प्रशस्ति/10 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले</span><br/> | |||
<span class="HindiText">चंद्रगुप्त के स्वप्नों का फलादेश बताते हुए आचार्य भद्रबाहु ने (भद्रबाहु चरित्र में) कहा है कि पंचम काल में देव और विद्याधर भी नहीं आयेंगे, अत: शंका होती है कि भगवान् कुंदकुंद का विदेह क्षेत्र में जाना असंभव है। इसके समाधान में भी ऋद्धि के समाधानवत् ही कहा जा सकता है। <br /> | |||
<span class="GRef"> जैन साहित्य इतिहास/1/108,109 (पं.कैलाश चंद)</span><br/> | |||
<span class="HindiText">शिलालेखों में ऋद्धिप्राप्ति की चर्चा अवश्य है। परंतु किसी में भी उनके विदेह गमन का उल्लेख नहीं है, जबकि एक शिला में पूज्यपाद के लिये ऐसा लेख पाया जाता है। (देखें [[ पूज्यपाद ]])। स्वयं कुंदकुंद ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है। <br /> | |||
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<li class="HindiText" name="8" id="8"><strong> कलिकालसर्वज्ञ कहलाते थे</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ. 379</span> <span class="SanskritText">श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य ....कलिकालसर्वज्ञेन विरचितेन षट्प्राभृतग्रंथे।</span>=<span class="HindiText">कलिकाल सर्वज्ञ श्रीपद्मनंदि अपर नाम कुंदकुंदाचार्य द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रंथ में।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="9" id="9"><strong> गुरु संबंधी विचार</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भाषा पाहुड/62</span> <span class="PrakritText">वारस अंगवियाणां चउदसपुव्वंगविउलवित्थरण। सुयणाणि भद्रबाहु गमयगुरु भयवओं जयऊ।</span> =<span class="HindiText">12 अंग 14 पूर्व के ज्ञाता गमकगुरु भगवान् भद्रबाहु जयवंत वर्तो।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/ टीका</span><span class="SanskritText"> श्रीकुमारनंदिसिद्धांतदेवशिष्यै: ....श्रीकुंडकुंदाचार्यदेवै: .... शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रबोधनार्थ विरचितं पंचास्तिकाय: ....।।</span>=<span class="HindiText">कुमारनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य श्री कुंदकुंदाचार्य देव के द्वारा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप−रुचि वाले शिष्यों के प्रबोधनार्थ विरचित पंचास्तिकाय ....।<br /> | |||
<span class="GRef">नंदिसंघ की पट्टावली</span><br /> | |||
<span class="SanskritText">श्रीमूलसंघेऽजनि नंदिसंघस्तस्मिंबलात्कारगणोऽतिरम्य:। तत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनंदी नरदेववंद्य:।। पदे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ जिनादिचंद्र: समभूदतंद्र:। ततोऽभवत्पंचसुनामधामा श्री पद्मनंदी मुनिचक्रवर्ती।।</span>=<span class="HindiText">श्री मूलसंघ में नंदिसंघ तथा उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदांश धारी श्री माघनंदि मुनि हुए जो कि नर सुर द्वार वंद्य हैं। उनके पद पर मुनि मान्य श्री जिनचंद्र हुए और उनके पश्चात् पंच नामधारी मुनिचक्रवर्ती श्रीपद्मनंदि हुए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृष्ठ 379</span><span class="SanskritText"> श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य... नाम पंचकविराजितेन... श्री जिनचंद्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणेन ....</span>।<span class="HindiText"> श्री पद्मनंदि कुंदकुंदाचार्य जिनके पाँच नाम प्रसिद्ध हैं तथा जो श्री जिनचंद्रसूरि भट्टारक के पद पर आसीन हुए थे।<br /> | |||
<strong>नोट–</strong>आचार्य परंपरा से आगत ज्ञान का श्रेय होने से श्रुत केवली भद्रबाहु प्रथम को गमकगुरू कहना न्याय है। इनके साक्षात् गुरु (दीक्षा गुरु जिनचंद्र ही थे) ।107। कुमारनंदि के साथ भी इनका कोई संबंध नहीं है।104। <span class="GRef">(जैन साहित्य/2/पृष्ठ)</span> (हो सकता है कि ये इनके शिक्षा गुरु रहे हों)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="10" id="10"><strong> रचनाएँ</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार/श्लोक 2</span><span class="SanskritText">एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन् गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कोंडकुंडपुरे।।160। श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रंथ परिकर्म कर्ता षट्खंडाद्यत्रिखंडस्य।161।</span> <span class="HindiText">=इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को जानकर श्रीपद्मनंदि मुनि ने कोंडकुंडपुर ग्राम में 12000 श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों की व्याख्या की।<br /> | |||
इसके अतिरिक्त 84 पाहुड़ जिनमें से 12 उपलब्ध हैं; समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और दर्शन पाहुड़ आदि से समवेत अष्ट पाहुड़। और भी बारस अणुवेक्खा, तथा साधु जनों के नित्य क्रियाकलाप में प्रसिद्ध सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, णिव्वाण, पंचगुरु और तित्थयर भक्ति।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="11" id="11"><strong> काल विचार</strong> <br /> | |||
संकेत—प्रमाण=जैन साहित्य/2/पृष्ठ;ती॰/2/107−111।<br /> | |||
चार्ट </span></li> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<span class="HindiText"> संपूर्ण श्रुत के विनाश के भय से अवशिष्ट श्रुत को ग्रंथ रूप में सुरक्षित करने वाले आचार्य भूतबली और पुष्पदंत के बाद हुए पंचाचार से विभूषित निर्ग्रंथ आचार्य । इन्होंने पंचम काल में गिरिनार पर्वत के शिखर पर स्थित पाषाण निर्मित सरस्वती देवी को बोलने के लिए बाध्य कर दिया था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 1.14, </span><span class="GRef"> वीर वर्द्धमान चरित्र 1.53-57 </span> | |||
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Latest revision as of 19:05, 5 February 2024
सिद्धांतकोष से
- कुंदकुंदाचार्य दिगंबर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य थे जिनके विषय में विद्वानों ने सर्वाधिक खोज की है। मूलसंघ में आपका स्थान - देखें इतिहास - 7.1
- कुंदकुंद का वंश व ग्राम
जैन साहित्य/2/103
कौंडकुंडपुर गाँव के नाम पर से पद्मनंदि ‘कुंदकुंद’ नाम से ख्यात हुए। पी.वी.देसाई कृत 'जैनिज्म' के अनुसार यह स्थान गंटाकल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की ओर कोनकोंडल नामक गाँव प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं।
(देखें आगे शीर्षक नं - 10) – इंद्रनंदि श्रुतावतार के अनुसार मुनि पद्मनंदि ने कौंडकुंडपुर में सिद्धांत को जानकर ‘परिकर्म’ नामक टीका लिखी थी।
षट प्राभृत/प्रशस्ति 3/प्रेमीजी
द्रविड़ देशस्य ‘कोंडकुंड’ नामक स्थान के रहने वाले थे और इस कारण कोंडकुंद नाम से प्रसिद्ध थे। नंदिसंघ बलात्कार गण की गुर्वावली के अनुसार (देखें इतिहास-5.2) आप द्रविड़ संघ के आचार्य थे। श्री जिनचंद्र के शिष्य तथा श्री उमास्वामी के गुरु थे। यथा–
मूल आचार/प्र. 11 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकलेपद्मनंदिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:। (इत्यादि देखो आगे उनका श्वेतांबरों के साथ वाद) - अपर नाम
मूल नंदिसंघ की पट्टावली पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ, जिनादिचंद्र: समभूदतंद्र:। ततोऽभवत् पंच सुनामधामा, श्री ‘पद्मनंदि:’ मुनिचक्रवर्ती।। आचार्य ‘कुंदकुंदाख्यो’ ‘वक्रग्रीवो’ महामति:। ‘एलाचार्यो’ गृद्धपृच्छ पद्मनंदि’ वितायते।=उस पट्ट पर मुनिमान्य जिनचंद्र आचार्य हुए और उनके पश्चात् पद्मनंदि नाम के मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके पाँच नाम थे – कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपृच्छ और पद्मनंदि।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1 मंगलाचरण–श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयै:। =श्रीमत् कुंदकुंदाचार्यदेव जिनके कि पद्मनंदि आदि अपर नाम भी थे।
चंद्रगिरि शिलालेख 45/66 तथा महानवमी के उत्तर में एक स्तंभ पर ‘‘श्री पद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकौंडकुंद:। =श्री पद्मनंदि ऐसे अनवद्य नाम वाले आचार्य जिनका नामांतर कौंडकुंद था।
षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति पृ. 379 इति श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन ....।=इस प्रकार श्री पद्मनंदि, कुंदकुंदाचर्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य नामपंचक से विराजित....।
- नामों संबंधी विचार
- पद्मनंदि — नंदिसंघ की पट्टावली में जिनचंद्र आचार्य के पश्चात् पद्मनंदि का नाम आता है। अत: पता चलता है कि पद्मनंदि इनका दीक्षा का नाम था।
- कुंदकुंद–श्रुतावतार/160−161 गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कोंडकुंडपुरे।160। श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रंथपरिकर्मकर्ता षट्खंडाद्यत्रिखंडस्य।161।=गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को जानकर कोंडकुंडपुर में श्री पद्मनंदि मुनि के द्वारा 12000 श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम का ग्रंथ षट्खंडागम के आद्य तीन खंडों की टीका के रूप में रचा गया। इस पर से जाना जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोंडकुंडपुर के निवासी थे। इसी कारण आपको कुंदकुंद भी कहते थे। (षट प्राभृत/प्रशस्ति 3 प्रेमीजी)
- एलाचार्य–षट प्राभृत/प्रशस्ति 3 प्रेमजी
ईसा शताब्दी 1 के आसपास मदुरा के कवि सम्मेलन में पेश करने के लिए रचित तमिलवेद या ‘थिरुक्कुरल’ के रचयिता ऐलाचार्य को श्री एम.ए. रामास्वामी आयंगर कुंदकुंद का अपर नाम मानते हैं। (मूल आचार/प्रशस्ति 9 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले)
पं. कैलाशचंद्रजी के अनुसार यह नाम धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के गुरु का था जिनके पास उन्होंने सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन किया था। इंद्रनंदि श्रुतावतार तथा धवला की प्रशस्ति से इस बात की पुष्टि होती है। वीरसेन स्वामी क्योंकि कुंदकुंद के बहुत पीछे हुए हैं इसलिए यह नाम इनका नहीं हो सकता। (जैन साहित्य/2/101)
पं.जुगलकिशोर मुख्तार भी इसे कुंदकुंद का नामांतर स्वीकार नहीं करते। (जैन साहित्य/2/116) - मूल आचार/प्रशस्ति 10/जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले )
गृद्धपृच्छ नाम का हेतु ऐसा है कि विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्ते में इनकी मयूर पृच्छिका गिर गयी। तब यह गीध के पिच्छ (पंख) हाथ में लेकर लौट आये। अत: गृद्धपिच्छ ऐसा भी इनका नाम हुआ। श्रवणबेलगोला से प्राप्त अनेकों शिलालेखों में यह नाम उमास्वामी के लिए आया है और उन्हें कुंदकुंद के अन्वय का बतलाया गया है। इनके शिष्य का नाम भी बलाकपिच्छ है। इस पर से पंडित कैलाश चंद्रजी के अनुसार यह उमास्वामी का नामांतर है न कि कुंदकुंद का। (जैन साहित्य/2/102) - वक्रग्रीव − इस शब्द पर से अनुमान होता है कि संभवत: आपकी गर्दन टेढ़ी हो और इसी कारण से आपका नाम वकग्रीव पड़ गया हो। परंतु पंडित कैलाशचंदजी के अनुसार क्योंकि ईस्वी 1137 और 1158 के शिलालेखों में यह नाम अकलंकदेव के पश्चात् आया है, इसलिए ये कोई एक स्वतंत्र महान् आचार्य हुए हैं, जिनका कुंदकुंद के साथ कोई संबंध नहीं ।(जैन साहित्य/2/101)
- श्वेतांबरों के साथ वाद
(मूल आचार/प्रशस्ति/11/जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले)
भगवत्कुंदकुंदाचार्य का गिरनार पर्वत पर श्वेतांबराचार्यों के साथ बड़ा वाद हुआ था, उस समय पाषाण निर्मित सरस्वती की मूर्ति से आपने यह कहला दिया था कि दिगंबर धर्म प्राचीन है।–यथा
आचार्य शुभचंद्र कृत पांडवपुराणपद्मनंदिगुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।।−गुर्वावली।। कुंदकुंदगणी येनोर्ज्जयंतगिरिमस्तके। सोऽवताद्वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।। ऐसे अनेक प्रमाणों से उनकी उद्भट विद्वत्ता सिद्ध है।
नोट–यद्यपि सूत्र पाहुड़ से इस बात की पुष्टि होती है और दर्शनसार में भी दिगंबर श्वेतांबर भेद विक्रम संवत 136 में बताया गया है (देखें श्वेतांबर-7);परंतु पंडित कैलाशचंद जी के अनुसार यह विवाद पद्मनंदि नाम के किसी भट्टारक के साथ हुआ था। कुंदकुंद के साथ नहीं। (जैन साहित्य/2/110,112) - ऋद्धिधारी थे
- श्रवणबेलगोला में अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिन पर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवी से ऊपर चलना सिद्ध है। यथा–
जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं. 40/64 तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनंदिप्रथमाभिधान:। श्रीकोंडकुंदादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।6।। जैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं. 42/66 श्री पद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्यचार्यशब्दोत्तरकोंडकुंद:। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणर्द्धि:।4। =श्री चंद्रगुप्त मुनिराज के प्रसिद्ध वंश में पद्मनंदि संज्ञावाले श्री कुंदकुंद मुनीश्वर हुए हैं। जिनको सत्संयम के प्रसाद से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।40। श्री पद्मनंदि है अनवद्य नाम जिनका तथा कुंदकुंद है अपर नाम जिनका ऐसे आचार्य को चारित्र के प्रभाव से चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।42।
- शिलालेख नं. 62,64,66,67,254,261 पृ. 263−266
कुंदकुंदाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।
- चंद्रगिरि शिलालेख/नं.54/पृ.102
कुंदपुष्प की प्रभा धरने वाले, जिसकी कीर्ति के द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण ऋद्धिधारी महामुनियों के सुंदर हस्तकमल का भ्रमर था और जिस पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा करी है वह विभु कुंदकुंद इस पृथिवी पर किससे वंद्य नहीं है।
- जैन शिलालेख संग्रह/पृ. 197−198 रजोभिरस्पष्टतमत्वमंतर्बाह्यापि सव्यंजयितुं यतीश:। रज: पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं स:।।=यतीश्वर श्री कुंदकुंददेव रजस्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे। उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अंदर में और बाहर में रज से अत्यंत अस्पृष्टपने को व्यक्त करता हुआ।
- मद्रास व मैसूर प्रांत प्राचीन स्मारक पृ. 317−318 (69) लेख नं.35। आचार्य की वंशावली
श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।) - हन्ली नं.21 ग्राम हेग्गरे में एक मंदिर के पाषाण पर लेख–‘‘स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने। श्री कुंदकुंदनामाभूत् चतुरंगुलचारणे।’’=श्री वर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।
- षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ.379 नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुंडरीकिणीनगरवंदितसीमंधरजिनेन ....।=नाम पंचक विराजित (श्री कुंदकुंदाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधर प्रभु की वंदना की थी।
- मूल आचार/प्र.10 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले
भद्रबाहु चरित्र के अनुसार राजा चंद्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कथन करते हुए भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि पंचम काल में चारणऋद्धि आदिक ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होतीं, और इसलिए भगवान् कुंदकुंद की चारण ऋद्धि होने के संबंध में शंका उत्पन्न हो सकती है। जिस का समाधान यों समझना कि चारण ऋद्धि के निषेध का वह सामान्य कथन है। पंचम काल में ऋद्धिप्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है यही उसका अर्थ समझना चाहिए। पंचम काल के प्रारंभ में ऋद्धि का अभाव नहीं है परंतु आगे उसका अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व अपवाद रूप है। इस संबंध में हमारा कोई आग्रह नहीं है।
- श्रवणबेलगोला में अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिन पर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवी से ऊपर चलना सिद्ध है। यथा–
- विदेहक्षेत्र गमन
- दर्शनसार/ मूल/43 जह पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।43।=विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमंधर स्वामी के समवशरण में जाकर श्री पद्मनंदि नाथ ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न देते तो, मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते।
- पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ मंगलाचरण/1 अथ श्रीकुमारनंदिसिद्धांतदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा। तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीकुंडकुंदाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयै ....विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे... तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते।=अब श्री कुमारनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य, जो कि प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व विदेह में जाकर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर परम देव श्रीमंदर स्वामी के दर्शन करके, उनके मुख कमल से विनिर्गत दिव्य वाणी के श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थ से शुद्धात्म तत्त्व के सार को ग्रहण करके आये थे, तथा पद्मनंदि आदि हैं दूसरे नाम भी जिनके ऐसे कुंदकुंद आचार्यदेव द्वारा विरचित पंचास्तिकाय प्राभृतशास्त्र का तात्पर्य व्याख्यान करते हैं।
- षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ.379 श्री पद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य ....नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुंडरीकणीनगरवंदित सीमंधरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतज्ञानसंबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचंद्रभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रंथे ....।=श्री पद्मनंदि कुंदकुंदाचार्य देव जिनके कि पाँच नाम थे, चारण ऋद्धि द्वारा पृथिवी से चार अंगुल आकाश में गमन करते पूर्व विदेह की पुंडरीकणी नगर में गये थे। तहाँ सीमंधर भगवान् जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभ भी है, उनकी वंदना करके आये थे। वहाँ से आकर उन्होंने भारत वर्ष के भव्य जीवों को संबोधित किया था। वे श्री जिनचंद्र भट्टारक के पट्ट पर आसीन हुए थे, तथा कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रंथ में।
- मूल आचार/प्रशस्ति/10 जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले
चंद्रगुप्त के स्वप्नों का फलादेश बताते हुए आचार्य भद्रबाहु ने (भद्रबाहु चरित्र में) कहा है कि पंचम काल में देव और विद्याधर भी नहीं आयेंगे, अत: शंका होती है कि भगवान् कुंदकुंद का विदेह क्षेत्र में जाना असंभव है। इसके समाधान में भी ऋद्धि के समाधानवत् ही कहा जा सकता है।
जैन साहित्य इतिहास/1/108,109 (पं.कैलाश चंद)
शिलालेखों में ऋद्धिप्राप्ति की चर्चा अवश्य है। परंतु किसी में भी उनके विदेह गमन का उल्लेख नहीं है, जबकि एक शिला में पूज्यपाद के लिये ऐसा लेख पाया जाता है। (देखें पूज्यपाद )। स्वयं कुंदकुंद ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है।
- दर्शनसार/ मूल/43 जह पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।43।=विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमंधर स्वामी के समवशरण में जाकर श्री पद्मनंदि नाथ ने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न देते तो, मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते।
- कलिकालसर्वज्ञ कहलाते थे
षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृ. 379 श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य ....कलिकालसर्वज्ञेन विरचितेन षट्प्राभृतग्रंथे।=कलिकाल सर्वज्ञ श्रीपद्मनंदि अपर नाम कुंदकुंदाचार्य द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रंथ में।
- गुरु संबंधी विचार
भाषा पाहुड/62 वारस अंगवियाणां चउदसपुव्वंगविउलवित्थरण। सुयणाणि भद्रबाहु गमयगुरु भयवओं जयऊ। =12 अंग 14 पूर्व के ज्ञाता गमकगुरु भगवान् भद्रबाहु जयवंत वर्तो।
पंचास्तिकाय/ टीका श्रीकुमारनंदिसिद्धांतदेवशिष्यै: ....श्रीकुंडकुंदाचार्यदेवै: .... शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रबोधनार्थ विरचितं पंचास्तिकाय: ....।।=कुमारनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य श्री कुंदकुंदाचार्य देव के द्वारा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप−रुचि वाले शिष्यों के प्रबोधनार्थ विरचित पंचास्तिकाय ....।
नंदिसंघ की पट्टावली
श्रीमूलसंघेऽजनि नंदिसंघस्तस्मिंबलात्कारगणोऽतिरम्य:। तत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनंदी नरदेववंद्य:।। पदे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ जिनादिचंद्र: समभूदतंद्र:। ततोऽभवत्पंचसुनामधामा श्री पद्मनंदी मुनिचक्रवर्ती।।=श्री मूलसंघ में नंदिसंघ तथा उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदांश धारी श्री माघनंदि मुनि हुए जो कि नर सुर द्वार वंद्य हैं। उनके पद पर मुनि मान्य श्री जिनचंद्र हुए और उनके पश्चात् पंच नामधारी मुनिचक्रवर्ती श्रीपद्मनंदि हुए।
षट प्राभृत/मो./प्रशस्ति/पृष्ठ 379 श्रीपद्मनंदिकुंदकुंदाचार्य... नाम पंचकविराजितेन... श्री जिनचंद्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणेन ....। श्री पद्मनंदि कुंदकुंदाचार्य जिनके पाँच नाम प्रसिद्ध हैं तथा जो श्री जिनचंद्रसूरि भट्टारक के पद पर आसीन हुए थे।
नोट–आचार्य परंपरा से आगत ज्ञान का श्रेय होने से श्रुत केवली भद्रबाहु प्रथम को गमकगुरू कहना न्याय है। इनके साक्षात् गुरु (दीक्षा गुरु जिनचंद्र ही थे) ।107। कुमारनंदि के साथ भी इनका कोई संबंध नहीं है।104। (जैन साहित्य/2/पृष्ठ) (हो सकता है कि ये इनके शिक्षा गुरु रहे हों)।
- रचनाएँ
इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार/श्लोक 2एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन् गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कोंडकुंडपुरे।।160। श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:। ग्रंथ परिकर्म कर्ता षट्खंडाद्यत्रिखंडस्य।161। =इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को जानकर श्रीपद्मनंदि मुनि ने कोंडकुंडपुर ग्राम में 12000 श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों की व्याख्या की।
इसके अतिरिक्त 84 पाहुड़ जिनमें से 12 उपलब्ध हैं; समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और दर्शन पाहुड़ आदि से समवेत अष्ट पाहुड़। और भी बारस अणुवेक्खा, तथा साधु जनों के नित्य क्रियाकलाप में प्रसिद्ध सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, णिव्वाण, पंचगुरु और तित्थयर भक्ति।
- काल विचार
संकेत—प्रमाण=जैन साहित्य/2/पृष्ठ;ती॰/2/107−111।
चार्ट
पुराणकोष से
संपूर्ण श्रुत के विनाश के भय से अवशिष्ट श्रुत को ग्रंथ रूप में सुरक्षित करने वाले आचार्य भूतबली और पुष्पदंत के बाद हुए पंचाचार से विभूषित निर्ग्रंथ आचार्य । इन्होंने पंचम काल में गिरिनार पर्वत के शिखर पर स्थित पाषाण निर्मित सरस्वती देवी को बोलने के लिए बाध्य कर दिया था । पांडवपुराण 1.14, वीर वर्द्धमान चरित्र 1.53-57