संसारी: Difference between revisions
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<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/34 </span><span class="SanskritText">बद्धो यथा स संसारी स्यादलब्धस्वरूपवान् । मूर्च्छितोऽनादितोऽष्टाभिर्ज्ञानाद्यावृतिकर्मभि:।</span> =<span class="HindiText">जो अनादिकाल से आठ कर्मों से मोहित होकर अपने स्वरूप को नहीं पाने वाला और बँधा हुआ वह संसारी जीव है।</span></p> | ||
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<p> ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से बंधा हुआ जीव । यह सुख पाने की इच्छा से इंद्रियों से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य को शरीर में ही निहित मानता है । इसे उन्हें पाने के लिए पर वस्तुओं का आश्रय लेना | <div> <p class="HindiText"> ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से बंधा हुआ जीव । यह सुख पाने की इच्छा से इंद्रियों से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य को शरीर में ही निहित मानता है । इसे उन्हें पाने के लिए पर वस्तुओं का आश्रय लेना पड़ता है । कर्म-बंधन से बँधे रहने के कारण यह संसार से मुक्त नहीं हो पाता । ये गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में स्थित है । नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य इन चार गतियों में भ्रमते हैं । पर्यायो की अपेक्षा से अनेक भेद-प्रभेद होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 24. 94, 42. 53-59, 76, 67.56, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_2#162|पद्मपुराण - 2.162-168]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 36-52 </span></p> | ||
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Latest revision as of 17:17, 18 February 2024
सिद्धांतकोष से
- जीवों का एक भेद - देखें जीव - 1
- नयचक्र बृहद्/109 कम्मकलंकालीणा अलद्धससहावभावसब्भावा। गुणमग्गण जीवठिया जीवा संसारिणो भणिया।109। =कर्म कलंक से जो लिप्त हैं, स्वस्वभाव को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया। गुणस्थान, मार्गणास्थान तथा जीवस्थान में जो स्थित हैं वे संसारी जीव कहे गये हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/109/174/13 कर्मचेतनाकर्मफलचेतनात्मका: संसारिण:...अशुद्धोपयोगयुक्ता: संसारिण:। =कर्म व कर्मफल चेतनात्मक संसारी जीव हैं। ...संसारी जीव अशुद्धोपयोग से युक्त हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/34 बद्धो यथा स संसारी स्यादलब्धस्वरूपवान् । मूर्च्छितोऽनादितोऽष्टाभिर्ज्ञानाद्यावृतिकर्मभि:। =जो अनादिकाल से आठ कर्मों से मोहित होकर अपने स्वरूप को नहीं पाने वाला और बँधा हुआ वह संसारी जीव है।
पुराणकोष से
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से बंधा हुआ जीव । यह सुख पाने की इच्छा से इंद्रियों से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य को शरीर में ही निहित मानता है । इसे उन्हें पाने के लिए पर वस्तुओं का आश्रय लेना पड़ता है । कर्म-बंधन से बँधे रहने के कारण यह संसार से मुक्त नहीं हो पाता । ये गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में स्थित है । नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य इन चार गतियों में भ्रमते हैं । पर्यायो की अपेक्षा से अनेक भेद-प्रभेद होते हैं । महापुराण 24. 94, 42. 53-59, 76, 67.56, पद्मपुराण - 2.162-168, वीरवर्द्धमान चरित्र 16. 36-52