बोधपाहुड़ गाथा 50: Difference between revisions
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<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - प्रव्रज्या ऐसी कही है - नि:स्नेहा अर्थात् जिसमें किसी से स्नेह नहीं, जिसमें परद्रव्य से रागादिरूप सचिक्कणभाव नहीं है, जिसमें निर्लोभा अर्थात् कुछ परद्रव्य के लेने की वांछा नहीं है, जिसमें निर्मोहा अर्थात् किसी परद्रव्य से मोह नहीं है, भूलकर भी परद्रव्य में आत्मबुद्धि नहीं होती है, निर्विकारा अर्थात् बाह्य-आभ्यन्तर विकार से रहित है, जिसमें बाह्य शरीर की चेष्टा तथा वस्त्राभूषणादिक का तथा अंग-उपांग का विकार नहीं है, जिसमें अंतरंग काम क्रोधादिक का विकार नहीं है । नि:कलुषा अर्थात् मलिनभाव रहित है । आत्मा को कषाय मलिन करते हैं, अत: कषाय जिसमें नहीं है । निर्भया अर्थात् जिसमें किसीप्रकार का भय नहीं है, अपने स्वरूप को अविनाशी जाने उसको किसका भय हो, जिसमें निराशभावा अर्थात् किसीप्रकार के परद्रव्य की आशा का भाव नहीं है, आशा तो किसी वस्तु की प्राप्ति न हो उसकी लगी रहती है, परन्तु जहाँ परद्रव्य को अपना जाना ही नहीं और अपने स्वरूप की प्राप्ति हो गई तब कुछ प्राप्त करना शेष न रहा फिर किसकी आशा हो ? प्रव्रज्या इसप्रकार कही है ॥</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - जैनदीक्षा ऐसी है । अन्यमत में स्व-पर द्रव्य का भेदज्ञान नहीं है, उनके इसप्रकार दीक्षा कहाँ से हो ॥५०॥</div> | ||
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Latest revision as of 17:44, 2 November 2013
णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा ।
णिब्भय णिरासभावा पव्वज्ज एरिसा भणिया ॥५०॥
नि:स्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा नि:कलुषा ।
निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५०॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - प्रव्रज्या ऐसी कही है - नि:स्नेहा अर्थात् जिसमें किसी से स्नेह नहीं, जिसमें परद्रव्य से रागादिरूप सचिक्कणभाव नहीं है, जिसमें निर्लोभा अर्थात् कुछ परद्रव्य के लेने की वांछा नहीं है, जिसमें निर्मोहा अर्थात् किसी परद्रव्य से मोह नहीं है, भूलकर भी परद्रव्य में आत्मबुद्धि नहीं होती है, निर्विकारा अर्थात् बाह्य-आभ्यन्तर विकार से रहित है, जिसमें बाह्य शरीर की चेष्टा तथा वस्त्राभूषणादिक का तथा अंग-उपांग का विकार नहीं है, जिसमें अंतरंग काम क्रोधादिक का विकार नहीं है । नि:कलुषा अर्थात् मलिनभाव रहित है । आत्मा को कषाय मलिन करते हैं, अत: कषाय जिसमें नहीं है । निर्भया अर्थात् जिसमें किसीप्रकार का भय नहीं है, अपने स्वरूप को अविनाशी जाने उसको किसका भय हो, जिसमें निराशभावा अर्थात् किसीप्रकार के परद्रव्य की आशा का भाव नहीं है, आशा तो किसी वस्तु की प्राप्ति न हो उसकी लगी रहती है, परन्तु जहाँ परद्रव्य को अपना जाना ही नहीं और अपने स्वरूप की प्राप्ति हो गई तब कुछ प्राप्त करना शेष न रहा फिर किसकी आशा हो ? प्रव्रज्या इसप्रकार कही है ॥
भावार्थ - जैनदीक्षा ऐसी है । अन्यमत में स्व-पर द्रव्य का भेदज्ञान नहीं है, उनके इसप्रकार दीक्षा कहाँ से हो ॥५०॥