याचना परिषह: Difference between revisions
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<p>स. सि0/9/9/425/1 <span class="SanskritText">बाह्याभ्यंतरतपोऽनुष्ठानपरस्य तद्भावनावशेन निस्तारीकृतमूर्तेः पटुतपनतापनिष्पीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजालमात्रतनुयंत्रस्य प्राणात्यये सत्यप्याहारवसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवैवर्ण्यांगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्युदुद्योतवत्दुरुपलक्ष्यमूर्ते र्याचनापरिषहसहनमवसीयते।</span> = <span class="HindiText">जो बाह्य और आभ्यंतर तप के अनुष्ठान करने में तत्पर हैं, जिसने तप की भावना के कारण अपने शरीर को सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्ष के समान त्वचा, अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयंत्र रह गया है, जो प्राणों का वियोग होने पर भी आहार, वसति और दवाई आदि को दीन शब्द कहकर, मुख की विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदि के द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरुपलक्ष्य रहती है, ऐसे साधु के याचना परिषहजय जानना चाहिए। | <p>स. सि0/9/9/425/1 <span class="SanskritText">बाह्याभ्यंतरतपोऽनुष्ठानपरस्य तद्भावनावशेन निस्तारीकृतमूर्तेः पटुतपनतापनिष्पीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजालमात्रतनुयंत्रस्य प्राणात्यये सत्यप्याहारवसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवैवर्ण्यांगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्युदुद्योतवत्दुरुपलक्ष्यमूर्ते र्याचनापरिषहसहनमवसीयते।</span> = <span class="HindiText">जो बाह्य और आभ्यंतर तप के अनुष्ठान करने में तत्पर हैं, जिसने तप की भावना के कारण अपने शरीर को सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्ष के समान त्वचा, अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयंत्र रह गया है, जो प्राणों का वियोग होने पर भी आहार, वसति और दवाई आदि को दीन शब्द कहकर, मुख की विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदि के द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरुपलक्ष्य रहती है, ऐसे साधु के याचना परिषहजय जानना चाहिए। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/9/19/ 611/10 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/122/2 )</span>। </span></p> | ||
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Latest revision as of 22:27, 17 November 2023
स. सि0/9/9/425/1 बाह्याभ्यंतरतपोऽनुष्ठानपरस्य तद्भावनावशेन निस्तारीकृतमूर्तेः पटुतपनतापनिष्पीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजालमात्रतनुयंत्रस्य प्राणात्यये सत्यप्याहारवसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवैवर्ण्यांगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्युदुद्योतवत्दुरुपलक्ष्यमूर्ते र्याचनापरिषहसहनमवसीयते। = जो बाह्य और आभ्यंतर तप के अनुष्ठान करने में तत्पर हैं, जिसने तप की भावना के कारण अपने शरीर को सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्ष के समान त्वचा, अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयंत्र रह गया है, जो प्राणों का वियोग होने पर भी आहार, वसति और दवाई आदि को दीन शब्द कहकर, मुख की विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदि के द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरुपलक्ष्य रहती है, ऐसे साधु के याचना परिषहजय जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/9/19/ 611/10 ); ( चारित्रसार/122/2 )।