सूतक: Difference between revisions
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<span class="HindiText"><strong>1. सूतक पातक विषयक जुगुप्सा हेय है</strong></span></p> | <span class="HindiText"><strong>1. सूतक पातक विषयक जुगुप्सा हेय है</strong></span></p> | ||
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मूलाचार/टीका/646 <span class="SanskritText">जुगुप्सा गर्हा द्विविधा द्विप्रकारा-लौकिकी लोकोत्तरा च। लोकव्यवहारशोधनार्थं सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थं लोकोत्तरा च कर्त्तव्येति।</span> =<span class="HindiText"> जुगुप्सा या गर्हा दो प्रकार की है-लौकिकी व लोकोत्तर। लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक आदि का निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की जाती है वह छोड़ने योग्य है, और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा करनी योग्य है। (और भी देखो [[निर्विचिकित्सा]])।</span></p> | <span class="GRef">मूलाचार/टीका/646</span> <span class="SanskritText">जुगुप्सा गर्हा द्विविधा द्विप्रकारा-लौकिकी लोकोत्तरा च। लोकव्यवहारशोधनार्थं सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थं लोकोत्तरा च कर्त्तव्येति।</span> =<span class="HindiText"> जुगुप्सा या गर्हा दो प्रकार की है-लौकिकी व लोकोत्तर। लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक आदि का निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की जाती है वह छोड़ने योग्य है, और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा करनी योग्य है। (और भी देखो [[निर्विचिकित्सा]])।</span></p> | ||
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<strong>2. भोजन शुद्धि में सूतक पातक के विवेक का निर्देश</strong></p> | <strong>2. भोजन शुद्धि में सूतक पातक के विवेक का निर्देश</strong></p> | ||
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<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/230/444/20 </span><span class="SanskritText">मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन...दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा।</span> =<span class="HindiText"> जिसको मरणाशौच अथवा जननाशौच है, ऐसे दोष से युक्त गृहस्थ के द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायक दोष से दुष्ट है।</span></p> | |||
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<span class="HindiText">चर्चा समाधान/53/पृ.50 मुनि आहारार्थ...सूतक व दुखित ऐसे शुद्ध कुल में भी प्रवेश न करे।</span></p> | <span class="HindiText">चर्चा समाधान/53/पृ.50 मुनि आहारार्थ...सूतक व दुखित ऐसे शुद्ध कुल में भी प्रवेश न करे।</span></p> | ||
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<strong>3. सूतक पातक किसको व कहाँ नहीं लगता</strong></p> | <strong>3. सूतक पातक किसको व कहाँ नहीं लगता</strong></p> | ||
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<strong>4. सूतक पातक शुद्धि काल प्रमाण</strong></p> | <strong>4. सूतक पातक शुद्धि काल प्रमाण</strong></p> | ||
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<span class="GRef"> महापुराण/38/90-91 </span><span class="SanskritText">बहिर्यानं ततो द्वित्रै: मासैस्त्रिचतुरैरुत। यथानुकूलमिष्टेऽह्नि कार्यतूर्यादिमंगलै:।90। तत: प्रभृत्यभीष्टं हि शिशो: प्रसववेश्मन:। बहि:प्रणयनं माता धात्र्युत्संगगतस्य वा।91।</span> =<span class="HindiText"> तदनंतर (प्रसूति के) दो-तीन अथवा तीन चार माह के बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथ-साथ अपनी अनुकूलता के अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाये उसी दिन से माता अथवा धाय की गोद में बैठे हुए बालक का प्रसूति गृह से बाहर ले जाना सम्मत है।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText"><strong>5. </strong></span> <strong>व्यवहार गत सूतक पातक शुद्ध का काल प्रमाण</strong></p> | <span class="SanskritText"><strong>5. </strong></span> <strong>व्यवहार गत सूतक पातक शुद्ध का काल प्रमाण</strong></p> | ||
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<strong>6. रजस्वला स्त्री का स्पर्श करना योग्य नहीं</strong></p> | <strong>6. रजस्वला स्त्री का स्पर्श करना योग्य नहीं</strong></p> | ||
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<span class="GRef"> त्रिलोकसार/924 </span><span class="PrakritText">...पुप्फवई...। कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।924।</span> =<span class="HindiText">पुष्पवती स्त्री का संसर्ग कर, जो कुपात्र में दान देता है, वह कुमानुषों में उत्पन्न होता है।</span></p> | |||
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<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/31 </span><span class="SanskritText">...। स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ।</span>=<span class="HindiText">व्रती गृहस्थ रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी, कुत्ता आदि के स्पर्श हो जाने पर (भोजन छोड़ दें।)</span></p> | |||
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<strong>7. रजस्वला स्त्री की शुद्धि का काल प्रमाण</strong></p> | <strong>7. रजस्वला स्त्री की शुद्धि का काल प्रमाण</strong></p> | ||
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<span class="GRef"> महापुराण/38/70 </span><span class="SanskritText">आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मंत्रपूर्वक:। पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया।70।</span> =<span class="HindiText">चतुर्थ स्नान के द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नी को आगे कर गर्भाधान के पूर्व अर्हंतदेव की पूजा के द्वारा मंत्रपूर्वक जो संस्कार दिया किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं।</span></p> | |||
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<strong>* अन्य संबंधित विषय</strong></p> | <strong>* अन्य संबंधित विषय</strong></p> |
Revision as of 14:44, 3 July 2023
1. सूतक पातक विषयक जुगुप्सा हेय है
मूलाचार/टीका/646 जुगुप्सा गर्हा द्विविधा द्विप्रकारा-लौकिकी लोकोत्तरा च। लोकव्यवहारशोधनार्थं सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थं लोकोत्तरा च कर्त्तव्येति। = जुगुप्सा या गर्हा दो प्रकार की है-लौकिकी व लोकोत्तर। लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक आदि का निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की जाती है वह छोड़ने योग्य है, और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा करनी योग्य है। (और भी देखो निर्विचिकित्सा)।
2. भोजन शुद्धि में सूतक पातक के विवेक का निर्देश
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/230/444/20 मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन...दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा। = जिसको मरणाशौच अथवा जननाशौच है, ऐसे दोष से युक्त गृहस्थ के द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायक दोष से दुष्ट है।
त्रिलोकसार/924 ...असूचिसूदग...। कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।924। = अपवित्रता से अथवा मृतादिक का सूतक से संयुक्त जो कुपात्रों में दान करता है वह जीव कुमनुष्यों में उत्पन्न होता है।924।
अनगारधर्मामृत/5/34 शर्वादिनापि...दत्तं दायकदोषभाक् ।34। उक्तं च-सूती शौंडी तथा रोगी शव: षंड: पिशाचवान् । पतितोच्चारनग्नाश्च रक्ता वेश्या च लिंगिनी। = शव को श्मशान में छोड़कर आये हुए मृतक सूतक से युक्त पुरुषों द्वारा दत्त आहार दायक दोष से दूषित समझना चाहिए।34।-जिसके संतान उत्पन्न हुई हो...।
बोधपाहुड़/ टीका/48/112 पर उद्धृत-दीनस्य सूतिकायाश्च...। = दीन अर्थात् दरिद्री, सूतक वाली स्त्री के घर का विशेष रूप से (साधु आहार ग्रहण न करें)।
लाटी संहिता/5/251 सूतकं पातकं चापि यथोक्तं जैनशासने। एषणाशुद्धिसिद्धयर्थं वर्जयेच्छ्रावकाग्रणी:।251। = अणुव्रती श्रावकों को अपने भोजन की शुद्धि बनाये रखने के लिए अथवा एषणा शुद्धि के लिए यथोक्त सूतक पातक का भी त्याग कर देना चाहिए। भावार्थ-किसी के सूतक पातक में भोजन नहीं करना चाहिए।
चर्चा समाधान/53/पृ.50 मुनि आहारार्थ...सूतक व दुखित ऐसे शुद्ध कुल में भी प्रवेश न करे।
3. सूतक पातक किसको व कहाँ नहीं लगता
प्रतिष्ठापाठ जयसेन/258 यद्वंश्यतीर्थकरबिंबमुदीर्य संस्थामुख्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोत्रचरणप्रतिपातयोगादाशौचमावहतु नोद्यभवप्रशस्तम् ।258। = जिस वंश वाला यजमान बिंब प्रतिष्ठा करा रहा है, उसके वंश, कुल, गोत्र में उस दिन से अशौच नहीं माना जाता अर्थात् जिस दिन नांदी अभिषेक हो गया उस दिन से यजमान के कुल में सूतक तथा सूवा नहीं लगता।258।
प्रायश्चित्त संग्रह/353 बालत्रणशूरत्वाज्ज्वलनादिप्रदेशे दीक्षितै:। अनशनप्रदेशेषु च मृतकानां खलु सूतकं नास्ति। = तीन दिन का बालक, युद्ध में मरण को प्राप्त, अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त जिन दीक्षित, अनशन करके मरण को प्राप्त; इनका मरणसूतक नहीं होता।
4. सूतक पातक शुद्धि काल प्रमाण
महापुराण/38/90-91 बहिर्यानं ततो द्वित्रै: मासैस्त्रिचतुरैरुत। यथानुकूलमिष्टेऽह्नि कार्यतूर्यादिमंगलै:।90। तत: प्रभृत्यभीष्टं हि शिशो: प्रसववेश्मन:। बहि:प्रणयनं माता धात्र्युत्संगगतस्य वा।91। = तदनंतर (प्रसूति के) दो-तीन अथवा तीन चार माह के बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथ-साथ अपनी अनुकूलता के अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाये उसी दिन से माता अथवा धाय की गोद में बैठे हुए बालक का प्रसूति गृह से बाहर ले जाना सम्मत है।
प्रायश्चित्त संग्रह/153 ब्राह्मणक्षत्रियविड्शूद्रादिनै: शुद्धयंति पंचभि:। दश-द्वादशभि: पंचादश व संख्याप्रयोगत:।153। =ब्राह्मण पाँच दिन में, क्षत्रिय दश दिन में, वैश्य बारह दिन में, और शूद्र पंद्रह दिनों में पातक के दोष से शुद्ध होते हैं।
5. व्यवहार गत सूतक पातक शुद्ध का काल प्रमाण
अवसर | जन्म | मरण | जन्म | मरण | |
3 पीढ़ी तक | 10 दिन | 12 दिन | 1 महीने तक के बालक | 1 दिन | |
4 पीढ़ी तक | 10 दिन | 10 दिन | 8 वर्ष तक का बालक | 3 दिन | |
5 पीढ़ी तक | 6 दिन | 6 दिन | 3 मास तक का गर्भपात | 3 दिन | |
6 पीढ़ी तक | 4 दिन | 4 दिन | इसके पश्चात् जितने मास का गर्भपात हो | उतने-उतने दिन | |
7 पीढ़ी तक | 3 दिन | 3 दिन | |||
8 पीढ़ी तक | 8 पहर | 8 पहर | गृह त्यागी, संन्यासी | 1 दिन | |
9 पीढ़ी तक | 2 पहर | 2 पहर | गृहस्थी परदेश में मरे तो | खबर आने के पीछे शेष दिन | |
पुत्री, दासी, दास (अपने घर में) | 3 दिन | ||||
गाय भैंस आदि (अपने घर में) | 1 दिन | अपघातमृत्यु | 3 माह | ||
अनाचारी स्त्री पुरुष के घर | सदा | सदा |
6. रजस्वला स्त्री का स्पर्श करना योग्य नहीं
अनगारधर्मामृत/5/35 में उद्धृत-रक्ता वेश्या च लिंगिनी।=जो मासिक धर्म से युक्त हो, वेश्या तथा आर्यिका आदि के आहार को दायक दोष से दुष्ट समझना चाहिए। ( अनगारधर्मामृत/5/34 )।
त्रिलोकसार/924 ...पुप्फवई...। कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।924। =पुष्पवती स्त्री का संसर्ग कर, जो कुपात्र में दान देता है, वह कुमानुषों में उत्पन्न होता है।
सागार धर्मामृत/4/31 ...। स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ।=व्रती गृहस्थ रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी, कुत्ता आदि के स्पर्श हो जाने पर (भोजन छोड़ दें।)
7. रजस्वला स्त्री की शुद्धि का काल प्रमाण
महापुराण/38/70 आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मंत्रपूर्वक:। पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया।70। =चतुर्थ स्नान के द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नी को आगे कर गर्भाधान के पूर्व अर्हंतदेव की पूजा के द्वारा मंत्रपूर्वक जो संस्कार दिया किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं।
* अन्य संबंधित विषय
1. नीचादि का अथवा रजस्वला का स्पर्श होने पर साधु जल धारा से शुद्धि करते हैं।-देखें भिक्षा - 3.3।