जयसेन: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> (<span class="GRef"> महापुराण/69/ श्लोक नं.</span>) पूर्व भव नं.2 में श्रीपुर नगर का राजा वसुंधर था।74। पूर्वभव नं.1 में महाशुक्र विमान में देव था।77। वर्तमान भव में 11वाँ चक्रवर्ती हुआ।78। अपर नाम जय था।–देखें [[ शलाका पुरुष#2 | शलाका पुरुष - 2]]। </li> | <li class="HindiText"> (<span class="GRef"> महापुराण/69/ श्लोक नं.</span>)<br> पूर्व भव नं.2 में श्रीपुर नगर का राजा वसुंधर था।74। पूर्वभव नं.1 में महाशुक्र विमान में देव था।77। वर्तमान भव में 11वाँ चक्रवर्ती हुआ।78। अपर नाम जय था।–देखें [[ शलाका पुरुष#2 | शलाका पुरुष - 2]]। </li> | ||
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<li class="HindiText"> पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप शांतिसेन के शिष्य तथा अमितसेन के गुरु थे। समय–वि.780-830 (ई.723-773)। –देखें [[ इतिहास#7.8 | इतिहास - 7.8]]। </li> | <li class="HindiText"> पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप शांतिसेन के शिष्य तथा अमितसेन के गुरु थे। समय–वि.780-830 (ई.723-773)। –देखें [[ इतिहास#7.8 | इतिहास - 7.8]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार आप आर्यनंदि के शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेन के सधर्मी थे। समय–ई.770-827–देखें [[ इतिहास#7.7 | इतिहास - 7.7]]। </li> | <li class="HindiText"> पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार आप आर्यनंदि के शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेन के सधर्मी थे। समय–ई.770-827–देखें [[ इतिहास#7.7 | इतिहास - 7.7]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार। समय–वि.1055 (ई.998)। –देखें [[ इतिहास#7.10 | इतिहास - 7.10]]। ( | <li class="HindiText"> लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार। समय–वि.1055 (ई.998)। –देखें [[ इतिहास#7.10 | इतिहास - 7.10]]। (<span class="GRef">जैन साहित्य और इतिहास/1/375</span>) </li> | ||
<li class="HindiText"> आचार्य वसुनंदि (वि.1125-1175; ई.1068-1118) का अपर नाम। प्रतिष्ठापाठ आदि के रचयिता।–देखें [[ वसुनंदि#3 | वसुनंदि - 3]]</li> | <li class="HindiText"> आचार्य वसुनंदि (वि.1125-1175; ई.1068-1118) का अपर नाम। प्रतिष्ठापाठ आदि के रचयिता।–देखें [[ वसुनंदि#3 | वसुनंदि - 3]]</li> | ||
<li class="HindiText"> लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप नरेंद्रसेन के शिष्य तथा गुणसेन नं.2 व उदयसेन नं.2 के सधर्मा थे। समय-वि.1180–देखें [[ इतिहास#7.10 | इतिहास - 7.10]]। वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य। कृतियें–समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय–पं.कैलाशचंदजी के अनुसार वि.श.13 का पूर्वार्ध, ई.श.12 का उत्तरार्ध। डा.नेमिचंद के अनुसार ई.श.11 का उत्तरार्ध 12 का पूर्वार्ध। ( | <li class="HindiText"> लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप नरेंद्रसेन के शिष्य तथा गुणसेन नं.2 व उदयसेन नं.2 के सधर्मा थे। समय-वि.1180–देखें [[ इतिहास#7.10 | इतिहास - 7.10]]। वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य। कृतियें–समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय–पं.कैलाशचंदजी के अनुसार वि.श.13 का पूर्वार्ध, ई.श.12 का उत्तरार्ध। डा.नेमिचंद के अनुसार ई.श.11 का उत्तरार्ध 12 का पूर्वार्ध। (<span class="GRef">जैन साहित्य और इतिहास/2/194</span>), (<span class="GRef">तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा./3/143</span>)। </li> | ||
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< | <span class="HindiText"> <p id="1"> (1) वीरसेन भट्टारक के बाद महापुराण के कर्त्ता जिसेनाचार्य के पूर्व हुए एक आचार्य । ये तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे । इन्होंने समस्त पुराण का संग्रह किया था । <span class="GRef"> महापुराण 1.57-59</span></p> | ||
<p id="2">(2) | <p id="2">(2) हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन के पूर्व तथा शांतिसेन आचार्य के पश्चात् हुए एक आचार्य ये अखंड मर्यादा के धारक, षट्खंडागम के ज्ञाता, इंद्रियजयी तथा कर्मप्रकृति और श्रुत के धारक थे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.29-30</span></p> | ||
<p id="3">(3) राजा समुद्रविजय का पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> | <p id="3">(3) राजा समुद्रविजय का पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48.43</span></p> | ||
<p id="4">(4) साकेत का स्वामी । भगवान् पार्श्वनाथ के कुमारकाल के तीस वर्ष बीत जाने पर इसने भगली देश मे उत्पन्न घोड़े भेट में देने के लिए एक | <p id="4">(4) साकेत का स्वामी । भगवान् पार्श्वनाथ के कुमारकाल के तीस वर्ष बीत जाने पर इसने भगली देश मे उत्पन्न घोड़े भेट में देने के लिए एक दूत पार्श्वनाथ के पास भेजा था । साकेत से आये दूत से पार्श्वनाथ ने वृषभदेव का वर्णन सुनकर अपने पूर्वभव जान लिये थे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 73.119-124</span></p> | ||
<p id="5">(5) मगधदेश के सुप्रतिष्ठनगर का राजा । <span class="GRef"> महापुराण </span> | <p id="5">(5) मगधदेश के सुप्रतिष्ठनगर का राजा । <span class="GRef"> महापुराण 76.217</span></p> | ||
<p id="6">(6) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश में पृथिवीनगर का राजा । यह जयसेना का पति तथा रतिषेण और धृतिषेण का पिता था । अपने प्रिय पुत्र रतिषेण की मृत्यु से दुःखी होते हुए संसार से विरक्त होकर इसने धृतिषेण को राज्य दे दिया और अनेक राजाओं तथा महारुन नामक नाले के साथ यशोधर गुरु से यह दीक्षित हो गया । आयु के अंत में संन्यासमरण कर अच्च्युत स्वर्ग में महाबल नामक देव हुआ । <span class="GRef"> महापुराण | <p id="6">(6) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश में पृथिवीनगर का राजा । यह जयसेना का पति तथा रतिषेण और धृतिषेण का पिता था । अपने प्रिय पुत्र रतिषेण की मृत्यु से दुःखी होते हुए संसार से विरक्त होकर इसने धृतिषेण को राज्य दे दिया और अनेक राजाओं तथा महारुन नामक नाले के साथ यशोधर गुरु से यह दीक्षित हो गया । आयु के अंत में संन्यासमरण कर अच्च्युत स्वर्ग में महाबल नामक देव हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 48. 58-68 </span></p> | ||
<p id="7">(7) मध्यलोक के धातकीखंड महाद्वीप के पूर्व | <p id="7">(7) मध्यलोक के धातकीखंड महाद्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेहक्षेत्र के गंधिल देश में पाटलि ग्राम के निवासी नागदत्त वैश्य और उसकी स्त्री सुमति का कनिष्ठ पुत्र । नंद, नन्दिमित्र, नंदिषेण, वरसेन इसके बडे भाई और मदनकांता तथा श्रीकांता बहिनें थी । विदेहक्षेत्र में पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत की पुत्री श्रीमती पूर्वभव में इसी की निर्नामा नाम की छोटी पुत्री हुई थी । <span class="GRef"> महापुराण 6.58-60, 126-130</span></p> | ||
<p id="8">(8) घातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा महासेन और रानी वसुंधरा का पुत्र । अनुक्रम से यह चक्रवर्ती हुआ तथा चिरकाल तक प्रजानंदक शासन करने के बाद भोगों से विरक्त होकर इसने जिनदीक्षा धारण कर ली । निर्दोष तपश्चरण करते हुए आयु के अंत में मरकर यह आठवें ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण | <p id="8">(8) घातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा महासेन और रानी वसुंधरा का पुत्र । अनुक्रम से यह चक्रवर्ती हुआ तथा चिरकाल तक प्रजानंदक शासन करने के बाद भोगों से विरक्त होकर इसने जिनदीक्षा धारण कर ली । निर्दोष तपश्चरण करते हुए आयु के अंत में मरकर यह आठवें ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 7.48-89</span></p> | ||
<p id="9">(9) पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश मे रत्नसंचयपुर के राजा महीधर तथा उसकी रानी सुंदरी का पुत्र । जिस समय इसका विवाह हो रहा था उसी समय श्रीधर देव ने आकर इसे विषयासक्ति के दोष बताये जिससे विरक्त होकर इसने मुनि से दीक्षा ले ली । श्रीधर देव ने फिर एक बार नरक वेदनाओं का स्मरण कराया जिससे यह कठिन तपश्चरण करने लगा । आयु के अंत में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर यह ब्रह्म स्वर्ग में इंद्र हुआ । इस जन्म से पूर्व यह नरक में था जहाँ श्रीधर देव के द्वारा समझाये जाने पर इसने सम्यग्दर्शन धारण कर लिया था । <span class="GRef"> महापुराण | <p id="9">(9) पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश मे रत्नसंचयपुर के राजा महीधर तथा उसकी रानी सुंदरी का पुत्र । जिस समय इसका विवाह हो रहा था उसी समय श्रीधर देव ने आकर इसे विषयासक्ति के दोष बताये जिससे विरक्त होकर इसने मुनि से दीक्षा ले ली । श्रीधर देव ने फिर एक बार नरक वेदनाओं का स्मरण कराया जिससे यह कठिन तपश्चरण करने लगा । आयु के अंत में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर यह ब्रह्म स्वर्ग में इंद्र हुआ । इस जन्म से पूर्व यह नरक में था जहाँ श्रीधर देव के द्वारा समझाये जाने पर इसने सम्यग्दर्शन धारण कर लिया था । <span class="GRef"> महापुराण 10.113-118</span> </p> | ||
<p id="10">(10) नमिनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में वत्स देश की कौशांबी नगरी के राजा विजय और उसकी रानी प्रभाकरी का पुत्र । इसकी आयु तीन हजार वर्ष । ऊँचाई साठ हाथ और शारीरिक कांति तप्त स्वर्ण के समान थी । चौदह रत्न और नव निधियों सहित इसे अनेक प्रकार के भोगोपभोग उपलब्ध थे । यह ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था । उल्कापात देखकर इसने राज्य त्यागने का निश्चय किया, तथा क्रमश: बड़े पुत्रों को राज्य देने की इच्छा प्रकट की । उनके राज्य न लेने पर तप धारण करने की उदात्त इच्छा से छोटे पुत्र को राज्य सौंपकर अनेक राजाओं के साथ वरदत्त केवली से इसने संयम धारण कर लिया था । | <p id="10">(10) नमिनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में वत्स देश की कौशांबी नगरी के राजा विजय और उसकी रानी प्रभाकरी का पुत्र । इसकी आयु तीन हजार वर्ष । ऊँचाई साठ हाथ और शारीरिक कांति तप्त स्वर्ण के समान थी । चौदह रत्न और नव निधियों सहित इसे अनेक प्रकार के भोगोपभोग उपलब्ध थे । यह ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था । उल्कापात देखकर इसने राज्य त्यागने का निश्चय किया, तथा क्रमश: बड़े पुत्रों को राज्य देने की इच्छा प्रकट की । उनके राज्य न लेने पर तप धारण करने की उदात्त इच्छा से छोटे पुत्र को राज्य सौंपकर अनेक राजाओं के साथ वरदत्त केवली से इसने संयम धारण कर लिया था । इसे कुछ ही काल में श्रुतबुद्धि, तपविक्रिया, औषध और चारण ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । अंत में सम्मेदशिखर के चारण नामक ऊँचे शिखर पर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर यह मरा और जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 69.78-91</span> इसने तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में और इतने ही वर्ष मंडलीक अवस्था में तथा सौ वर्ष दिग्विजय में एक हजार नौ सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और चार सौ वर्ष संयम अवस्था में व्यतीत किये थे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.514</span></p> | ||
<p id="11">(11) वृषभदेव के गणधर वृषभसेन का यह छोटा भाई था यह अत्यंत बलवान् राजा था । पूर्वभवों में पहले यह लोलुप नाम का हलवाई था । फिर क्रमश: नेवला, भोगभूमि का आर्य, मनोरथ नामक देव, राजा शांतमदन, सामानिक देव, राजा अपराजित और अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण | <p id="11">(11) वृषभदेव के गणधर वृषभसेन का यह छोटा भाई था यह अत्यंत बलवान् राजा था । पूर्वभवों में पहले यह लोलुप नाम का हलवाई था । फिर क्रमश: नेवला, भोगभूमि का आर्य, मनोरथ नामक देव, राजा शांतमदन, सामानिक देव, राजा अपराजित और अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 47.376-377</span></p> | ||
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Revision as of 10:13, 28 July 2023
सिद्धांतकोष से
- ( महापुराण/48/ श्लोक नं.)
जंबूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में वत्सकावती का राजा था।58। पुत्र रतिषेण की मृत्यु पर विरक्त हो दीक्षा धर ली।62-67। अंत में स्वर्ग में महाबल नाम का देव हुआ।68। यह सगर चक्रवर्ती का पूर्व भव नं.2 है।–देखें सगर । - ( महापुराण/69/ श्लोक नं.)
पूर्व भव नं.2 में श्रीपुर नगर का राजा वसुंधर था।74। पूर्वभव नं.1 में महाशुक्र विमान में देव था।77। वर्तमान भव में 11वाँ चक्रवर्ती हुआ।78। अपर नाम जय था।–देखें शलाका पुरुष - 2। - जयसेन नाम के आचार्य―
- श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् चौथे 11 अंग व 14 पूर्वधारी थे। समय–वी.नि.208-229 (ई.पू./319-398) दृष्टि नं.3 के अनुसार वी.नि.268-289। –देखें इतिहास - 4.4।
- पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप शांतिसेन के शिष्य तथा अमितसेन के गुरु थे। समय–वि.780-830 (ई.723-773)। –देखें इतिहास - 7.8।
- पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार आप आर्यनंदि के शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेन के सधर्मी थे। समय–ई.770-827–देखें इतिहास - 7.7।
- लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार। समय–वि.1055 (ई.998)। –देखें इतिहास - 7.10। (जैन साहित्य और इतिहास/1/375)
- आचार्य वसुनंदि (वि.1125-1175; ई.1068-1118) का अपर नाम। प्रतिष्ठापाठ आदि के रचयिता।–देखें वसुनंदि - 3
- लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप नरेंद्रसेन के शिष्य तथा गुणसेन नं.2 व उदयसेन नं.2 के सधर्मा थे। समय-वि.1180–देखें इतिहास - 7.10। वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य। कृतियें–समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय–पं.कैलाशचंदजी के अनुसार वि.श.13 का पूर्वार्ध, ई.श.12 का उत्तरार्ध। डा.नेमिचंद के अनुसार ई.श.11 का उत्तरार्ध 12 का पूर्वार्ध। (जैन साहित्य और इतिहास/2/194), (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा./3/143)।
पुराणकोष से
(1) वीरसेन भट्टारक के बाद महापुराण के कर्त्ता जिसेनाचार्य के पूर्व हुए एक आचार्य । ये तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे । इन्होंने समस्त पुराण का संग्रह किया था । महापुराण 1.57-59
(2) हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन के पूर्व तथा शांतिसेन आचार्य के पश्चात् हुए एक आचार्य ये अखंड मर्यादा के धारक, षट्खंडागम के ज्ञाता, इंद्रियजयी तथा कर्मप्रकृति और श्रुत के धारक थे । हरिवंशपुराण 66.29-30
(3) राजा समुद्रविजय का पुत्र । हरिवंशपुराण 48.43
(4) साकेत का स्वामी । भगवान् पार्श्वनाथ के कुमारकाल के तीस वर्ष बीत जाने पर इसने भगली देश मे उत्पन्न घोड़े भेट में देने के लिए एक दूत पार्श्वनाथ के पास भेजा था । साकेत से आये दूत से पार्श्वनाथ ने वृषभदेव का वर्णन सुनकर अपने पूर्वभव जान लिये थे । हरिवंशपुराण 73.119-124
(5) मगधदेश के सुप्रतिष्ठनगर का राजा । महापुराण 76.217
(6) जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश में पृथिवीनगर का राजा । यह जयसेना का पति तथा रतिषेण और धृतिषेण का पिता था । अपने प्रिय पुत्र रतिषेण की मृत्यु से दुःखी होते हुए संसार से विरक्त होकर इसने धृतिषेण को राज्य दे दिया और अनेक राजाओं तथा महारुन नामक नाले के साथ यशोधर गुरु से यह दीक्षित हो गया । आयु के अंत में संन्यासमरण कर अच्च्युत स्वर्ग में महाबल नामक देव हुआ । महापुराण 48. 58-68
(7) मध्यलोक के धातकीखंड महाद्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेहक्षेत्र के गंधिल देश में पाटलि ग्राम के निवासी नागदत्त वैश्य और उसकी स्त्री सुमति का कनिष्ठ पुत्र । नंद, नन्दिमित्र, नंदिषेण, वरसेन इसके बडे भाई और मदनकांता तथा श्रीकांता बहिनें थी । विदेहक्षेत्र में पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत की पुत्री श्रीमती पूर्वभव में इसी की निर्नामा नाम की छोटी पुत्री हुई थी । महापुराण 6.58-60, 126-130
(8) घातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा महासेन और रानी वसुंधरा का पुत्र । अनुक्रम से यह चक्रवर्ती हुआ तथा चिरकाल तक प्रजानंदक शासन करने के बाद भोगों से विरक्त होकर इसने जिनदीक्षा धारण कर ली । निर्दोष तपश्चरण करते हुए आयु के अंत में मरकर यह आठवें ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुआ । महापुराण 7.48-89
(9) पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश मे रत्नसंचयपुर के राजा महीधर तथा उसकी रानी सुंदरी का पुत्र । जिस समय इसका विवाह हो रहा था उसी समय श्रीधर देव ने आकर इसे विषयासक्ति के दोष बताये जिससे विरक्त होकर इसने मुनि से दीक्षा ले ली । श्रीधर देव ने फिर एक बार नरक वेदनाओं का स्मरण कराया जिससे यह कठिन तपश्चरण करने लगा । आयु के अंत में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर यह ब्रह्म स्वर्ग में इंद्र हुआ । इस जन्म से पूर्व यह नरक में था जहाँ श्रीधर देव के द्वारा समझाये जाने पर इसने सम्यग्दर्शन धारण कर लिया था । महापुराण 10.113-118
(10) नमिनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में वत्स देश की कौशांबी नगरी के राजा विजय और उसकी रानी प्रभाकरी का पुत्र । इसकी आयु तीन हजार वर्ष । ऊँचाई साठ हाथ और शारीरिक कांति तप्त स्वर्ण के समान थी । चौदह रत्न और नव निधियों सहित इसे अनेक प्रकार के भोगोपभोग उपलब्ध थे । यह ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था । उल्कापात देखकर इसने राज्य त्यागने का निश्चय किया, तथा क्रमश: बड़े पुत्रों को राज्य देने की इच्छा प्रकट की । उनके राज्य न लेने पर तप धारण करने की उदात्त इच्छा से छोटे पुत्र को राज्य सौंपकर अनेक राजाओं के साथ वरदत्त केवली से इसने संयम धारण कर लिया था । इसे कुछ ही काल में श्रुतबुद्धि, तपविक्रिया, औषध और चारण ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । अंत में सम्मेदशिखर के चारण नामक ऊँचे शिखर पर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर यह मरा और जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुआ । महापुराण 69.78-91 इसने तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में और इतने ही वर्ष मंडलीक अवस्था में तथा सौ वर्ष दिग्विजय में एक हजार नौ सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और चार सौ वर्ष संयम अवस्था में व्यतीत किये थे । हरिवंशपुराण 60.514
(11) वृषभदेव के गणधर वृषभसेन का यह छोटा भाई था यह अत्यंत बलवान् राजा था । पूर्वभवों में पहले यह लोलुप नाम का हलवाई था । फिर क्रमश: नेवला, भोगभूमि का आर्य, मनोरथ नामक देव, राजा शांतमदन, सामानिक देव, राजा अपराजित और अहमिंद्र हुआ । महापुराण 47.376-377