प्रकृति: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> (धवला 12/4,2,10,2/303/2) </span><span class="SanskritText">प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। ...जो कम्मखंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं।</span> | <p><span class="GRef"> (धवला 12/4,2,10,2/303/2) </span><span class="SanskritText">प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। ...जो कम्मखंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं।</span> | ||
<span class="HindiText>= 1. जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल किया जाता है, वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। ....2. जो कर्म स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और जो भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है।</span></p> | <span class="HindiText>= 1. जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल किया जाता है, वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। ....2. जो कर्म स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और जो भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है।</span></p> | ||
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) कर्म की प्रकृतियाँ । अघाति कर्मों की पचासी तथा घाति कर्मों की तिरेसठ कर्म प्रकृतियाँ होती है । <span class="GRef"> (महापुराण 48.52), </span><span class="GRef"> (वीरवर्द्धमान चरित्र 19.221-231) </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) कर्म की प्रकृतियाँ । अघाति कर्मों की पचासी तथा घाति कर्मों की तिरेसठ कर्म प्रकृतियाँ होती है । <span class="GRef"> (महापुराण 48.52), </span><span class="GRef"> (वीरवर्द्धमान चरित्र 19.221-231) </span></p> | ||
<p id="2">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> (महापुराण 25. 165) </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> (महापुराण 25. 165) </span></p> | ||
<p id="3">(3) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति प्राभृत का पांचवां अनुयोग द्वार । <span class="GRef"> (हरिवंशपुराण 10.82) </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति प्राभृत का पांचवां अनुयोग द्वार । <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#82|हरिवंशपुराण - 10.82]]) </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1 सांख्य व शैव मत मान्य प्रकृति तत्त्व - देखें वह वह दर्शन।
2 (पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514-515 ) पयडी एत्थ सहावो...। 514। एक्कम्मि महुर-पयडी। ....515। = प्रकृति नाम स्वभाव का है।...। 514। जैसे - किसी एक वस्तु में मधुरता का होना उसकी प्रकृति है। 515। (पं.सं./सं./366-367); (/ धवला/10/4,2,4,213/510/8 )।
(सर्वार्थसिद्धि/8/3/378/9) प्रकृतिः स्वभावः। निम्वस्य का प्रकृतिः। तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः। मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः। अर्थानवगमः।...इत्यादि। = प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीम की क्या प्रकृति है? कडुआपन। गुड की क्या प्रकृति है?मीठापन। उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की क्या प्रकृति है? अर्थ का ज्ञान न होना।...इत्यादि। ( राजवार्तिक/8/3/4/567/1 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/936 )।
(धवला 12/4,2,10,2/303/2) प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। ...जो कम्मखंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडित्तं सिद्धं। = 1. जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल किया जाता है, वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है। ....2. जो कर्म स्कंध वर्तमान काल में फल देता है और जो भविष्यत् में फल देगा, इन दोनों ही कर्म स्कंधों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है।
- अधिक जानकारी के लिए देखे प्रकृतिबंध
पुराणकोष से
(1) कर्म की प्रकृतियाँ । अघाति कर्मों की पचासी तथा घाति कर्मों की तिरेसठ कर्म प्रकृतियाँ होती है । (महापुराण 48.52), (वीरवर्द्धमान चरित्र 19.221-231)
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । (महापुराण 25. 165)
(3) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति प्राभृत का पांचवां अनुयोग द्वार । (हरिवंशपुराण - 10.82)