धर्मध्यान: Difference between revisions
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<p> उत्पाद, व्यय और | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p><p class="HindiText">मन को एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषय में हर समय ही मन अटका रहने के कारण व्यक्ति को कोई न कोई ध्यान बना ही रहता है, परन्तु राग-द्वेषमूलक होने से श्रेयोमार्ग में वे सब अनिष्ट हैं। साधक साम्यता का अभ्यास करने के लिए जिस ध्यान को ध्याता है वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञातादृष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसलिए किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकार का है‒बाह्य व आध्यात्मिक। वचन व काय पर से सर्व प्रत्यक्ष होने बाह्य और मानसिक चिन्तवनरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक भी आज्ञा, अपाय आदि के चिन्तवन के भेद से दस भेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके लक्षणों पर से प्रगट है, आज्ञा, अपाय, विपाक व संस्थान इन चार में गर्भित हो जाते हैं‒उपाय विचय तो अपाय में समा जाता है और जीव, अजीव, भव, विराग व हेतु विचय-संस्थान विचय में समा जाते हैं। तहां इन सबको भी दो में गर्भित किया जा सकता है‒व्यवहार व निश्चय। आज्ञा, अपाय व विपाक तो परावलम्ब ही होने से व्यवहार ही है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है‒पिंडस्थ (शरीराकृति का चिन्तवन); पदस्थ (मन्त्राक्षरों का चिन्तवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्मा का चिन्तवन) और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाता द्रष्टाभाव। यहां पहले तीन धर्मध्यानरूप हैं और अन्तिम शुक्लध्यानरूप। पहले तीनों में ‘पिण्डस्थ’ व ‘पदस्थ’ तो परावलम्बी होने से व्यवहार है और ‘रूपस्थ’ स्वालम्बी होने से निश्चय है। निश्चय ध्यान ही वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होने से इष्ट है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान सामान्य के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान के चिह्न।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान योग्य सामग्री।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र, पीठ व दिशा।‒देखें [[ कृतिकर्म#3 | कृतिकर्म - 3]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान योग्य काल।‒देखें [[ ध्यान#3 | ध्यान - 3]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान की विधि।‒देखें [[ ध्यान#3 | ध्यान - 3]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान सम्बन्धी धारणाएं‒देखें [[ पिंडस्थ ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान के भेद आज्ञा, अपाय आदि व बाह्य आध्यात्मिक आदि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> आज्ञा, विचय आदि 10 ध्यानों के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> संस्थान विचय के पिंडस्थ आदि भेदों का निर्देश।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पिंडस्थ आदि ध्यान।‒देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान का लक्षण।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान में आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें [[ ध्याता#1 | ध्याता - 1]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान में विषय परिवर्तन क्रम।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान में सम्भव भाव व लेश्याएं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान योग्य ध्याता।‒देखें [[ ध्याता#2 | ध्याता - 2]],4।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि को ही सम्भव है।‒देखें [[ ध्याता#2 | ध्याता - 2]],4।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि को सम्भव नहीं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> साधु व श्रावक को निश्चय ध्यान का कथंचित् विधि, निषेध।‒देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText">. धर्मध्यान के स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएं—<br /> | |||
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<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि को भी तो देखा जाता है?<br /> | |||
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<li class="HindiText"> प्रमत्त जनों को ध्यान कैसे सम्भव है?<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कषायरहित जीवों में ही मानना चाहिए?<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान में संहनन सम्बन्धी चर्चा।‒देखें [[ संहनन ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong> धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अन्तर</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्ता में अन्तर।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय में गर्भित समझना चाहिए।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> माला जपना आदि ध्यान नहीं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> प्राणायाम, समाधि आदि ध्यान नहीं।‒देखें [[ प्राणायाम ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उसका समन्वय</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान का फल संवर, निर्जरा व कर्मक्षय।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान का फल मोक्ष।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान का महिमा।–देखें [[ ध्यान#2 | ध्यान - 2]]<br /> | |||
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<li class="HindiText"> एक ही धर्मध्यान से मोहनीय का उपशम व क्षय दोनों कैसे सम्भव है?<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> परपदार्थों के चिन्तवन से कर्मक्षय कैसे सम्भव है?<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता?<br /> | |||
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<li class="HindiText"> यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पंचम काल में भी अध्यात्म ध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> परन्तु इस काल में भी ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश</strong> | |||
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<li class="HindiText"> साधु व श्रावक के योग्य शुद्धोपयोग।‒देखें [[ अनुभव ]]। </li> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय धर्मध्यान का लक्षण। </li> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय धर्मध्यान योग्य ध्येय व भावनाएं।‒देखें [[ ध्येय ]]। </li> | |||
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<li class="HindiText"> व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण।</li> | |||
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<li class="HindiText"> बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान के लक्षण।‒देखें [[ धर्मध्यान#1 | धर्मध्यान - 1]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> व्यवहार ध्यान योग्य अनेकों ध्येय।‒देखें [[ ध्येय ]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> सब ध्येयों में आत्मा प्रधान है।‒देखें [[ ध्येय ]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> परम ध्यान के अपर नाम।‒देखें [[ मोक्षमार्ग#2.5 | मोक्षमार्ग - 2.5]]।</li> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं। </li> | |||
<li class="HindiText"> व्यवहारध्यान कथंचित् अज्ञान है। </li> | |||
<li class="HindiText"> व्यवहारध्यान निश्चय का साधन है।</li> | |||
<li class="HindiText"> निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्य साधकपने का समन्वय।</li> | |||
<li class="HindiText"> निश्चय व व्यवहार ध्यान में ‘निश्चय’ शब्द की आंशिक प्रवृत्ति।</li> | |||
<li class="HindiText"> निरीह भाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्मोपयोग ही है। </li> | |||
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<li class="HindiText"> सविकल्प अवस्था से निर्विकल्पावस्था में चढ़ने का क्रम।‒देखें [[ धर्म#6.4 | धर्म - 6.4]]। </li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> धर्मध्यान सामान्य का लक्षण</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> धर्म से युक्त ध्यान</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./1709/1541 <span class="PrakritGatha">धम्मस्स लक्खणंसे अज्जक्लहुगत्तमद्दवोवसमा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे।1709।</span> =<span class="HindiText">जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वह धर्मध्यान का लक्षण समझना चाहिए। आर्जव, लघुत्व, मार्दव और उपदेश ये इसके लक्षण हैं। (मू.आ./679)।</span><br /> | |||
स.सि./9/28/445/11 <span class="SanskritText">धर्मो व्याख्यात:। धर्मादनपेत धर्म्यम् । </span>=<span class="HindiText">धर्म का व्याख्यान पहले कर आये हैं (उत्तम क्षमादि लक्षणवाला धर्म है) जो धर्म से युक्त होता है वह धर्म्य है। (स.सि./9/36/450/4); (रा.वा./9/28/3/627/30); (रा.वा./9/36/11/632/11); (म.पु./21/133); (त.अनु./54); (भा.पा./टी./78/226/17)।<br /> | |||
<strong>नोट</strong>—यहां धर्म के अनेकों लक्षणों के लिए (देखो धर्म/1) उन सभी प्रकार के धर्मों से युक्त प्रवृत्ति का नाम धर्मध्यान है, ऐसा समझना चाहिए। इस लक्षण की सिद्धि के लिए‒दे0(धर्मध्यान/4/5/2)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> शास्त्र, स्वाध्याय व तत्त्व चिन्तवन</strong></span><br /> | |||
र.सा./मू./97 <span class="PrakritGatha">पावारंभणिवित्ती पुण्णारंभपउत्तिकरणं पि। णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाणं।97।</span> =<span class="HindiText">पाप कार्य की निवृत्ति और पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति का मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए मुमुक्षु जीवों के लिए सम्यग्ज्ञान (जिनागमाभ्यास-गा.98) ही धर्मध्यान श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।</span><br /> | |||
भ.आ./मू./1710 <span class="PrakritGatha">आलंबणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविसुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ।1710। </span>=<span class="HindiText">वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्याय के भेद हैं। ये भेद धर्मध्यान के आधार भी हैं। इस धर्मध्यान के साथ अनुप्रेक्षाओं का अविरोध है। (भ.आ./मू./1875/1680); (ध.13/5,4,26/गा.21/67); (त.अनु./81)।</span><br /> | |||
ज्ञा.सा./17 <span class="SanskritText">जीवादयो ये पदार्था: ध्यातव्या: ते यथास्थिता: चैव। धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौप्रमुच्य... ।17।</span> =<span class="HindiText">रागद्वेष को त्यागकर अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्मध्यान कहा गया है।</span><br /> | |||
ज्ञा./3/29 <span class="SanskritGatha">पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते।29।</span>=<span class="HindiText">पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुद्धलेश्या के अवलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चिन्तवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञा./25/18)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3"> रत्नत्रय व संयम आदि में चित्त को लगाना</strong></span><br /> | |||
मू.आ./678-680<span class="PrakritGatha"> दंसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सगो। पचक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु।678। विज्जाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए। खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्ती विणए च सद्दहणे।679। एवंगुणो महत्थो मणसंकल्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्वं।680।</span>=<span class="HindiText">दर्शन ज्ञान चारित्र में, उपयोग में, संयम में, कायोत्सर्ग में, शुभ योग में, धर्मध्यान में, समिति में, द्वादशांग में, भिक्षाशुद्धि में, महाव्रतों में, संन्यास में, गुण में, ब्रह्मचर्य में, पृथिवी आदि छह काय जीवों की रक्षा में, क्षमा में, इन्द्रिय निग्रह में, आर्जव में, मार्दव में, सब परिग्रह त्याग में, विनय में, श्रद्धान में; इन सबमें जो मन का परिणाम है, वह कर्मक्षय का कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस प्रकार जिनशासन में माना गया सब संकल्प है; उसको तुम शुभ ध्यान जानो।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4">परमेष्ठी आदि की भक्ति</strong></span><br /> | |||
द्र.सं./टी./48/205/3 <span class="SanskritText">पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानं भवति।</span>=<span class="HindiText">पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि) बहिरंग धर्मध्यान होता है। (पं.का./ता.वृ./150/217/16)।<br /> | |||
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</li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> धर्मध्यान के चिह्न</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/गा.54-55/76 <span class="PrakritGatha">आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्भाणस्स तल्लिगं।54। जिणसाहु-गुणक्कित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा। सुद सीलसंजमरदा धम्मज्झाणे मुणेयव्वा।55।</span>=<span class="HindiText">आगम, उपदेश और जिनाज्ञा के अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवान् के द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है।54। जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील और संयम में रत होना, ये सब बातें धर्मध्यान में होती हैं।55।</span><br /> | |||
म.सु./21/159-161 <span class="SanskritText">प्रसन्नचित्तता धर्मसंवेग: शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजा: रुचि:।159। भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्म्यस्यान्तर्गतानि वै। सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधा: शुभभावना:।160। बाह्यं च लिङ्गमङ्गानां संनिवेश: पुरोदित:। प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चेत्यादि लक्ष्यताम् ।161।</span>=<span class="HindiText">प्रसन्नचित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभयोग रखना, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञान से एक प्रकार की विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं, और अनुप्रेक्षाएं तथा पहले कही हुई अनेक प्रकार की शुभ भावनाएं उसके अन्तरंग चिह्न हैं।159-160। पहले कहा हुआ अंगों का सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यंकादि आसनों का वर्णन कर चुके हैं (दे0’कृतिकर्म’) उन आसनों को धारण करना, मुख की प्रसन्नता होना, और दृष्टि का सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यान के बाह्य चिह्न समझने चाहिए।</span><br /> | |||
ज्ञा./41/15-1 में उद्धृत-<span class="SanskritText">अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्ध: शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्ति: प्रसाद: स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्ते: प्रथमं हि चिह्नम् ।1। </span>=<span class="HindiText">विषय लम्पटता का न होना शरीर नीरोग होना, निष्ठुरता का न होना, शरीर में से शुभ गन्ध आना, मलमूत्र का अल्प होना, शरीर की कान्ति शक्तिहीन न होना, चित्त की प्रसन्नता, शब्दों का उच्चारण सौम्य होना–ये चिह्न योग की प्रवृत्ति करने वाले के अर्थात् ध्यान करने वाले के प्रारम्भ दशा में होते हैं। (विशेष देखें [[ ध्याता ]])। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> धर्मध्यान योग्य सामग्री</strong></span><br /> | |||
द्र.सं./टी./57/229/3 में उद्धृत–<span class="SanskritText">‘तथा चोक्तं–’वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतव:।</span> =<span class="HindiText">सो ही कहा है कि–वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पांच ध्यान के कारण हैं।</span><br /> | |||
त.अनु./75,218 <span class="SanskritText">संगत्याग: कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि।75। ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेश: श्रद्धानं सदाभ्यास: स्थिरं मन:।218। </span>=<span class="HindiText">परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यान की उत्पत्ति में सहायभूत सामग्री हैं।75। गुरूपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और मन की स्थिरता, ये चार ध्यान की सिद्धि के मुख्य कारण हैं। (ज्ञा./3/15-25)।<br /> | |||
देखें [[ ध्यान#3 | ध्यान - 3]] (धर्मध्यान के योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूप सामग्री विशेष)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> धर्मध्यान के भेद</strong><br /> | |||
</span> | |||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4.1" id="1.4.1">आज्ञा, अपाय, विचय आदि ध्यान</strong></span><br /> | |||
त.सू./9/36 <span class="SanskritText">आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ।36।</span> =<span class="HindiText">आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणा के लिए मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। (भ.आ./मू./1708/1536); (मू.आ./398); (ज्ञा./33/5); (ध.13/5,4,26/70/12); (म.पु./21/134); (ज्ञा./33/5); (त.अनु./98); (द्र.सं./टी./48/202/3); (भा.पा./टी./119/269/24); (का.अ./टी./480/366/4)।</span><br /> | |||
रा.वा./1/7/14/40/16 <span class="SanskritText">धर्मध्यानं दशविधम् ।</span><br /> | |||
चा.सा./172/4 <span class="SanskritText">स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम् । तद्दशविधं अपायविचयं, उपायविचयं, जीवविचयं, अजीवविचयं, विपाकविचयं, विरागविचयं, भवविचयं, संस्थानविचयं, आज्ञाविचयं, हेतुविचयं चेति। </span>=<span class="HindiText">आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकार का है–अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय। (ह.पु./56/38-50), (भा.पा.टी.119/270/2)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4.2" id="1.4.2"> निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि भेद</strong></span><br /> | |||
चा.सा./172/3<span class="SanskritText"> धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् ।</span>=<span class="HindiText">धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से दो प्रकार का है। (ह.पु./56/36)।</span><br /> | |||
त.अनु./47-49/96 <span class="SanskritText">मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा।47। ध्यानान्यपि त्रिधा।48। उत्तमम् ...जघन्यं...मध्यमम् ।49। निश्चयाद् व्यवहारच्च ध्यानं द्विविधमागमे।...।96।</span>=<span class="HindiText">मुख्य और उपचार के भेद से धर्म्यध्यान दो प्रकार का है।47। अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है।49। अथवा निश्चय व व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है।96।<br /> | |||
</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.5" id="1.5"></a>आज्ञा विचय आदि ध्यानों के लक्षण</strong><br /> | |||
</span> | |||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.1" id="1.5.1"> अजीव विचय</strong> </span><br /> | |||
ह.पु./56/44 <span class="SanskritGatha">द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धर्म्यमजीवविचयं मतम् ।44।</span> =<span class="HindiText">धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तवन करना, सो अजीव विचय नाम का धर्म्यध्यान है।44।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.2-3" id="1.5.2-3">2-3. अपाय व उपाय विचय</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./1712/1544 <span class="PrakritGatha">कल्लाणपावगाण उपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च। विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य।1712। </span>=<span class="HindiText">जिनमत को प्राप्त कर कल्याण करने वाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है, अथवा जीवों के जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनसे अपाय का चिन्तवन करता है। (मू.आ./400); (ध.13/5,4,26/गा.40/72)।</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/गा.39/72 <span class="PrakritGatha">रागद्दोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी।39।</span> =<span class="HindiText">पाप को त्याग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवों के इहलोक और परलोक से अपाय का चिन्तवन करे।</span><br /> | |||
स.सि./9/36/449/11 <span class="SanskritText">जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टय: सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखमोक्षार्थिन सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात् सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गापयाचिन्तनमपायविचय:। अथवा–मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचय:। </span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुष के समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तवन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा–ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। (रा.वा./9/36/6-7/630/16); (म.पु./21/141-142); (भ.आ./वि/1708/1536/18); (त.सा./7/41); (ज्ञा./34/1-17)।</span><br /> | |||
ह.पु./56/39-41<span class="SanskritText"> संसारहेतव: प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तय:। अपायो वर्जनं तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ।39। चिन्ताप्रबन्धसंबन्ध: शुभलेश्यानुरञ्जित:। अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यमभीप्सितम् ।40। उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसात्क्रिया। उपाय: स कथं मे स्यादिति संकल्पसंतति:।41।</span> =<span class="HindiText">मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही, प्राय: संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभलेश्या से अनुरंजित जो चिन्ता का प्रबन्ध है वह अपायविचय नाम का प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है।39-40। पुण्य रूप योगप्रवृत्तियों को अपने आधीन करना उपाय कहलाता है, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार के संकल्पों की जो सन्तति है वह उपाय विचय नाम का दूसरा धर्म्यध्यान है।41। (चा.सा./173/3), (भ.आ./वि/1708/1536/17); (द्र.सं./टी./48/202/9)।<br /> | |||
</span></li> | |||
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<ol start="4"> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.4" id="1.5.4"> आज्ञाविचय</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./1711/1543 <span class="PrakritText">पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागब्भे भावे आणाविचएण विचिणादि।</span> =<span class="HindiText">पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यान के द्वारा चिन्तवन करता है। (मू.आ./399); (ध.13/5,4,26/गा.38/71) (म.पु./21/135-140)।</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/गा.35-37/71 <span class="PrakritGatha">तत्थमइदुब्वलेण य। तव्विजाइरियविरहदो वा वि। णेयगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च।35। हेदूदाहरणासंभवे य सरिंसुट्टठुज्जाणबुज्झेज्जो। सव्वणुसयमवितत्थं तहाविहं चिंतए मदिमं।36। अणुवगहपराग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा। जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण।37। </span>=<span class="HindiText">मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होने से, नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थान में मतिमान् ध्याता ‘सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है’ ऐसा चिन्तवन करे।35-36। यत: जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवों का भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, और उन्होंने राग-द्वेष और मोह पर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे अन्यथा वादी नहीं हो सकते।37।</span><br /> | |||
स.सि./9/36/449/6 <span class="SanskritText">उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना:’ इति गहनपदार्थश्रद्धानादर्थावधारणमाज्ञाविचय:। अथवा स्वयं विदितपदार्थ तत्त्वस्रू सत: परं प्रति पिपादयिषो: स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थं तर्कनयप्रमाणयोजनपर: स्मृतिसमन्वहार: सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते।449।</span>=<span class="HindiText">उपदेष्टा आचार्यों का अभाव होने से, स्वयं मन्दबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से और पदार्थों के सूक्ष्म होने से, तथा तत्त्व के समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्त का अभाव होने से, सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण करके, ‘यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते’, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। अथवा स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है, और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध द्वारा तत्त्व का समर्थन करने के लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञाविचय कहा जाता है। (रा.वा./9/36/4-5/630/8); (ह.पु./56/49); (चा.सा./201/5); (त.सा./7/40); (ज्ञा./33/6-22); (द्र.सं./टी./48/202/6)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5.5" id="1.5.5"><strong> जीवविचय</strong></span><br /> | |||
ह.पु./56/42-43 <span class="SanskritText">अनादिनिधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा। असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणा: ।42। अचेतनोपकरणा: स्वकृतोचितभोगिन:। इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय से जीव अनादि निधन है, और पर्यायार्थिक नय से सादिसनिधन है, असंख्यात प्रदेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरण से युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्म के फल को भोगते हैं...इत्यादि रूप से जीव का जो ध्यान करना है वह जीवविचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है। (चा.सा./173/5)<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5.6" id="1.5.6"><strong> भवविचय</strong></span><br /> | |||
ह.पु./56/47 <span class="SanskritGatha">प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दु:खात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुन:।47।</span>=<span class="HindiText">चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है। यह भव दु:खरूप है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो भवविचय नाम का सातवां धर्मध्यान है।(चा.सा./176/1) <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5.7" id="1.5.7"><strong> विपाकविचय</strong> </span><br /> | |||
भ.आ./मू./1713/1545 <span class="PrakritText">एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदीरण संकमबन्धे मोक्खं च विचिणादि।</span>=<span class="HindiText">जीवों को जो एक और अनेक भव में पुण्य और पापकर्म का फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष का चिन्तवन करता है। (मू.आ./401); (ध.13/5,4,26/गा.42/72); (स.सि./9/36/450/2); (रा.वा./9/36/8-9/630-632 में विस्तृत कथन), (भ.आ./वि./1708/1536/21); (म.पु./21/143-147); (त.सा./7/42); (ज्ञा./35/1-31); (द्र.सं./टी./48/202/10)। </span><br /> | |||
ह.पु./56/45 <span class="SanskritText">यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचितनं धर्म्यं विपाकविचयं विदु:।45।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बन्धों के विपाकफल का विचार करना, सो विपाकविचय नामका पांचवा धर्मध्यान है।(चा.सा./174/2)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5.8" id="1.5.8"><strong> विराग विचय</strong></span><br /> | |||
ह.पु./56/46 <span class="SanskritText">शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफलपाकिन:। विरागबुद्धिरित्यादि विरागवियं स्मृतम् ।46।</span> =<span class="HindiText">शरीर अपवित्र है और भोग किंपाकफल के समान तदात्व मनोहर हैं, इसलिए इनसे विरक्तबुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि चिन्तन करना विरागविचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है। (चा.सा./171/1)। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="1.5.9" id="1.5.9"><strong> संस्थान विचय </strong> <br /> | |||
(देखो आगे पृथक् शीर्षक)<br /> | |||
</li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.5.10" id="1.5.10"><strong> हेतु विचय</strong></span><br /> | |||
ह.पु./56/50 <span class="SanskritText">तर्कानुसारिण: पंस: स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात् । सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं हि तत् ।50। </span>=<span class="HindiText">और तर्क का अनुसरण पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतुविचय नामका दसवां धर्म्यध्यान है। (चा.सा./202/3)<br /> | |||
</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.6" id="1.6"><strong> संस्थानविचय धर्मध्यान का स्वरूप</strong> </span><br> | |||
ध.13/5,4,26/गा.43-50/72/13 <span class="PrakritText">तिण्णं लोगाणं संठाणपमाणाआउयादिचिंतणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं। एत्थ गाहाओ—जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाइं। उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्यपा जे य दव्वाणं।43। पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं जिणक्खादं। णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागदिं।44। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाणभवणादिसंठाणं। वोमादि पडिट्ठाणं णिययं लोगटि्ठदिविहाणं।45। उवजोगलक्खणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीरादो। जीवमरूविं कारिं भोइं य सयस्स कम्मस्स।46। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसणसयसावमीणं मोहावत्तं महाभीमं।47। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं। संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेज्जो।48। सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं।49। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादि चिंतणापरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे किह व पुव्वं।50।</span>= | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText"> तीन लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि का चिन्तवन करना संस्थान विचय नाम का चौथा धर्म ध्यान है। (स.सि./9/36/450/3); (रा.वा./9/36/10/632/9); (भ.आ./वि./1708/1536/23); (त.सा./7/43); (ज्ञा./36/184-186); (द्र.सं./टी./48/203/2)। </li> | |||
<li class="HindiText"> जिनदेव के द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहने का स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायों का चिन्तवन करना।43। पंचास्तिकाय का चिन्तवन करना।44। (देखें [[ पीछे जीव ]]अजीव विचय के लक्षण)। </li> | |||
<li class="HindiText"> अधोलोक आदि भागरूप से तीन प्रकार के (अधो, मध्य व ऊर्ध्व) लोक का, तथा पृथिवी, वलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदि के संस्थानों (आकारों) का एवं उसका आकाश में प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेद का चिन्तवन करे।44-45। (भ.आ./मू./1714/1545) (मू.आ./402); (ह.पु./56/480); (म.पु./21/148-150); (ज्ञा./36/1-10,82-90); (विशेष देखें [[ लोक ]]) </li> | |||
<li class="HindiText"> जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है, तथा अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।46। (म.पु./21/151) (और देखें [[ पीछे ]]‘जीव विचय’ का लक्षण) </li> | |||
<li class="HindiText"> उस जीव के कर्म से उत्पन्न हुआ जन्म, मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकड़ों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं; मोहरूपी आवर्त हैं, और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है, उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त (आध्यात्मिक) संसार का चिन्तवन करे।47-48। (म.पु./21/152-153) </li> | |||
<li class="HindiText"> बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है, उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समयसद्भाव का (द्वादशांगमय सकल श्रुत का) ध्यान करे।49। (म.पु./21/154) </li> | |||
<li class="HindiText"> ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्यादि भावनाओं के चिन्तवन में तत्पर होता है। जिससे वह पहले की भांति धर्मध्यान में सुभावितचित्त होता है।50। (भ.आ./मू./1714/1545); (मू.आ./402); (चा.सा./177/1); (विराग विचय का लक्षणी) <strong>नोट</strong>—(अनुप्रेक्षाओं के भेद व लक्षण‒देखें [[ अनुप्रेक्षा ]]) ज्ञा./36/श्लो.नं.</li> | |||
<li class="HindiText"> (नरक के दु:खों का चिन्तवन करे)।11-81। (विशेष देखो नरक) (भव विचय का लक्षण) </li> | |||
<li class="HindiText"> (स्वर्ग सुख तथा देवेन्द्रों के वैभव आदि का चिन्तवन।90-182। (विशेष देखें [[ स्वर्ग ]]) </li> | |||
<li class="HindiText"> (सिद्धलोक का तथा सिद्धों के स्वरूप का चिन्तवन करे।183। </li> | |||
<li class="HindiText"> (अन्त में कर्ममल से रहित अपनी निर्मल आत्मा का चिन्तवन करे)।185। </li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> संस्थान विचय के पिण्डस्थ आदि भेदों का निर्देश </strong></span><strong><br></strong>ज्ञा./37/1 <span class="SanskritText">तथा भाषाकार की उत्थानिका‒पिण्डस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करै:।1।</span> =<span class="HindiText">इस संस्थान विचय नाम धर्मध्यान में चार भेद कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है‒जो भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यान को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकार का कहा है। (भा.पा./टी./86/236/13)</span><br /> | |||
द्र.सं./टी./48/205/3 में उद्धृत—<span class="SanskritText">पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।</span><br /> | |||
द्र.सं./टी./49/209/7 <span class="SanskritText">पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति।</span>=<span class="HindiText">मन्त्रवाक्यों में स्थिति पदस्थ, निजात्मा का चिन्तवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूप का चिन्तवन रूपस्थ और निरंजन का (त्रिकाली शुद्धात्मा का) ध्यान रूपातीत है। (भा.पा./टी./86/236 पर उद्धृत) पदस्थ, पिंडस्थ व रूपस्थ में अर्हंत सर्वज्ञ ध्येय होते हैं। <strong>नोट‒</strong>उपरोक्त चार भेदों में पिंडस्थ ध्यान तो अर्हंत भगवान् की शरीराकृति का विचार करता है, पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों व मन्त्रों का अनेक प्रकार से विचार करता है, रूपस्थ ध्यान निज आत्मा का पुरुषाकाररूप से विचार करता है और रूपातीत ध्यान विचार व चिन्तवन से अतीत मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूप से ज्ञान का भवन है (देखें [[ उन उनके लक्षण व विशेष ]]) तहां पहिले तीन ध्यान तो धर्मध्यान में गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प होने से शुक्लध्यान रूप है (देखें [[ शुक्लध्यान ]]) इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यान का विषय बहुत व्यापक है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.8" id="1.8"><strong> बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान का लक्षण</strong></span><br /> | |||
ह.पु./56/36-38 <span class="SanskritText">लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदत:। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता।36। जम्भाजृम्भाक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता। निभृतात्मव्रतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीर्तितम् ।37। दशधाऽऽध्यात्मिकं धर्म्यमपायविचयादिकम् ।...।38।</span>=<span class="HindiText">बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से धर्म्यध्यान का लक्षण दो प्रकार का है। शास्त्र के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग रखना, अंगड़ाई जमुहाई छींक डकार और श्वासोच्छवास में मन्दता होना, शरीर को निश्चल रखना तथा आत्मा को व्रतों से युक्त करना, यह धर्म्यध्यान का बाह्य लक्षण है। और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।</span><br /> | |||
चा.सा./172/3 <span class="SanskritText">धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् । तत्र परानुमेयं बाह्यं सूत्रार्थगवेषणं दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणवदनकायपरिस्पन्दवाग्व्यापारं जृम्भज्रम्भोदारक्षवयुप्राणपातोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम्, तदृशविधम्‒।</span>=<span class="HindiText">बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का है। जिसे अन्य लोग भी अनुमान से जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते हैं। सूत्रों के अर्थ की गवेषणा (विचार व मनन), व्रतों को दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ पैर मुंह काय का परिस्पन्दन और वचनव्यापार का बन्द करना, जभाई, जंभाई के उद्गार प्रगट करना, छींकना तथा प्राण-अपान का उद्रेक आदि सब क्रियाओं का त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे केवल अपना आत्मा ही जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश</strong></span><br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./196/262/9 <span class="SanskritText">अथ ध्यानसंतान: कथ्यते‒यत्रान्तर्मुहूर्त्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्ते तत्त्वचिन्ता, पुनरप्यन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानम् । पुनरपि तत: चिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्तेऽन्तमुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते।</span>=<span class="HindiText">ध्यान की सन्तान बताते हैं‒जहां अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्त्वचिन्ता होती है। पुन: अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, पुन: तत्त्वचिन्ता होती है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान की भांति अन्तर्मुहूर्त में परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यान की सन्तान कहते हैं। (चा.सा./203/2)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> धर्मध्यान में सम्भव भाव व लेश्याएं</strong> </span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/53/76 <span class="PrakritGatha">होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय पउमसुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ।53।</span> =<span class="HindiText">धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र मन्द आदि भेदों को लिये हुए, क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। (म.पु./21/156)।</span><br /> | |||
चा.सा./203 <span class="SanskritText">सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम् ...परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावम् ।</span>=<span class="HindiText">सर्व ही प्रकार के धर्मध्यान पीत पद्म व शुक्ललेश्या के बल से होता हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होने से क्षायोपशमिक हैं।(म.पु./21/156-157)</span><br /> | |||
ज्ञा./41/14 <span class="SanskritText">धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहूर्तकी। क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती।14।</span> =<span class="HindiText">इस धर्मध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक है और लेश्या सदा शुक्ल ही रहती है। (यहां धर्मध्यान के अन्तिम पाये से अभिप्राय है)।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टि को सम्भव नहीं</strong></span><br /> | |||
न.च.वृ./179 <span class="PrakritText">झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे नियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छियं किच्चा।</span>=<span class="HindiText">जो प्रमाण व नय के द्वारा वस्तु का निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यान की भावना के द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता। ऐसा नियम है।</span><br /> | |||
ज्ञा./6/4 <span class="SanskritText">‘रत्नत्रयमनासाद्य य: साक्षाद्धयातुमिच्छति। खपुष्पै: कुरुते मूढ: स वन्ध्यासुतशेखरम् /4।</span><br /> | |||
ज्ञा./4/18,30 <span class="SanskritText">दुर्दृशामपि न ध्यानसिद्धि: स्वप्नेऽपि जायते। गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छयो ।18। ध्यानतन्त्रे निषेध्यन्ते नैते मिथ्यादृश: परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशया:/30। </span>=<span class="HindiText">जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रय को प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाश के फूलों से वन्ध्यापुत्र के लिए सेहरा बनाना चाहता है।4। दृष्टि की विकलता से वस्तुसमूह को अपनी इच्छानुसार ग्रहण करने वाले मिथ्यादृष्टियों के ध्यान की सिद्धि स्वप्न में भी नहीं होती है।18। सिद्धान्त में ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियों के ही नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के प्रतिकूल हैं तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते हैं, उनके भी ध्यान का निषेध किया जाता है, क्योंकि उनके ध्यान की सिद्धि नहीं होती/30।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./209 <span class="SanskritText">नोपलब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादेशस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात् ।209।</span> =<span class="HindiText">संसारी जीवों के मैं सुखी दु:खी इत्यादि रूप से सुख-दु:ख के स्वाद का अनुभव होने के कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षा का (स्वरूपसंवेदन का) संस्कार नहीं होता है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यान का स्वामित्व</strong> </span><br /> | |||
स.सि./9/36/450/5 <span class="SanskritText">धर्म्यध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति।</span><br /> | |||
स.सि./9/37/453/6 <span class="SanskritText">श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्यं श्रेण्यो शुक्ले इति व्याख्याते।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> धर्मध्यान चार प्रकार का जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवों के होता है। (रा.वा./9/36/13/632/18); (ज्ञा./28/28)। = </li> | |||
<li><span class="HindiText"> श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं। (रा.वा./9/37/2/633/3)।</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/74/10 <span class="PrakritText">असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदपमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद-सुहुमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणावएसादो। </span>=</li> | |||
<li><span class="HindiText"> असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक व उपशामक सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेव का उपदेश है। (इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवों के होता है और शुक्लध्यान उपशान्त या क्षीणकषाय जीवों के) (स.सि./9/37/453/4); (रा.वा./9/37/2/632/32)।<br /> | |||
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</li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> धर्मध्यान के स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएं</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText" name="2.5.1" id="2.5.1"><strong> मिथ्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है</strong> <br /> | |||
रा.वा./हिं/1/36/747 <strong>प्रश्न—</strong>मिथ्यादृष्टि अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनि की दया का अभिप्रायकरि तथा भगवान् की सामान्य भक्ति करि धर्मबुद्धितै चित्तकूं एकाग्रकरि चिन्तवन करै है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाहीं? <strong>उत्तर—</strong>इहां मोक्षमार्ग का प्रकरण है। तातै जिस ध्यान तै कर्म की निर्जरा होय सो ही यहां गिणिये है। सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्म की निर्जरा होय नाहीं। मिथ्यादृष्टि के शुभध्यान शुभबन्ध ही का कारण है। अनादि तै कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभकर्म बान्धे हैं, परन्तु निर्जरा बिना मोक्षमार्ग नाहीं। तातै मिथ्यादृष्टि का ध्यान मोक्षमार्ग में सराह्य नाहीं। (र.क.श्रा./पं.सदासुखदास/पृ.316)।<br /> | |||
म.पु./21/155 का भाषाकारकृत भावार्थ‒धर्मध्यान को धारण करने के लिए कम से कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए। मन्दकषायी मिथ्यादृष्टि जीवों के जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते हैं।<br /> | |||
</li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2.5.2" id="2.5.2"><strong> प्रमत्तजनों को ध्यान कैसे सम्भव है</strong></span><br /> | |||
रा.वा./9/36/13/632/17 <span class="SanskritText">कश्चिदाह‒धर्म्यमप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति; तन्न; किं कारणम् । पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसङ्गात् । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयत-प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—धर्मध्यान तो अप्रमत्तसंयतों के ही होता है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से पहले के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेध प्राप्त होता है। परन्तु सम्यक्त्व के प्रभाव से असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतजनों में भी धर्मध्यान होना इष्ट है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.5.3" id="2.5.3"><strong> कषाय रहित जीवों में ही ध्यान मानना चाहिए</strong> </span><br /> | |||
रा.वा./9/36/14/632/21 <span class="SanskritText">कश्चिदाह-उपशान्तक्षीणकषाययोश्च धर्म्यध्यानं भवति न पूर्वेषामेवेति; तन्न; किं कारणम् । शुक्लभावप्रसङ्गात् । उपशान्तक्षीणकषाययोर्हि शुक्लध्यानमिष्यते तस्याभाव: प्रसज्येत। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न—</strong>उपशान्त व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में धर्म्यध्यान होता, इससे पहिले गुणस्थानों में बिलकुल नहीं होता ? <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से शुक्लध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। उपशान्त व क्षीण कषायगुणस्थान में शुक्लध्यान होना इष्ट है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अन्तर</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong>ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्ता में अन्तर</strong> </span><br /> | |||
भ.आ./मू./1710/1543 (देखें [[ धर्मध्यान#1.1.2 | धर्मध्यान - 1.1.2]])<span class="HindiText">‒धर्मध्यान आधेय है और अनुप्रेक्षा उसका आधार है। अर्थात् धर्मध्यान करते समय अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन किया जाता है। (भ.आ./मू./1714/1545)।</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/गा.12/64 <span class="PrakritGatha">जं थिरमज्झवसाणं तं ज्झाणं जं चलंतयं चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता।12। </span>=<span class="HindiText">जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है।12। (म.पु./21/9)। (देखें [[ शुक्लध्यान#1.4 | शुक्लध्यान - 1.4]])।</span><br /> | |||
रा.वा./9/36/12/632/14 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-अनुप्रेक्षा अपि धर्मध्यानेऽन्तर्भवन्तीति पृथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न; किं कारणम् । ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात् । अनित्यादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अनुप्रेक्षाओं का भी ध्यान में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अत: उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, ध्यान व अनुप्रेक्षा ये दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प है। जब अनित्यादि विषयों में बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है और जब उनमें एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वे ध्यान कहलाती हैं। </span><br /> | |||
ज्ञा./25/16 <span class="SanskritText">एकाग्रचिन्तानिरोधो यस्तद्धयानभावनापरा। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्झैरभ्युपगम्यते।16। </span>=<span class="HindiText">ज्ञान का एक ज्ञेय में निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भावना है, जिसे विज्ञजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता भी कहते हैं।</span><br /> | |||
भा.पा.टी./78/229/1 <span class="SanskritText">एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्तरौद्रधर्मापेक्षया तु मतिश्चञ्चला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानम् ।</span>=<span class="HindiText">किसी एक इष्ट वस्तु में मति का निश्चल होना ध्यान है। आर्त, रौद्र और धर्मध्यान की अपेक्षा अर्थात् इन तीनों ध्यानों में मति चंचल रहती है उसे वास्तव में अशुभ या शुभ भावना कहना चाहिए। अनेक नययुक्त अर्थ का पुन:-पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन श्रुतज्ञान के पदों की आलोचना कहलाता है, ध्यान नहीं।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय धर्मध्यान में गर्भित समझना चाहिए</strong> </span><br /> | |||
म.पु./21/142 <span class="SanskritText">तदपायप्रतिकारचिन्तोपायानुचिन्तनम् । अत्रैवान्तर्गतं ध्येयं अनुप्रेक्षादिलक्षणम् ।142।</span> =<span class="HindiText">अथवा उन अपायों (दु:खों) के दूर करने की चिन्ता से उन्हें दूर करने वाले अनेक उपायों का चिन्तवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदि का चिन्तवन करना इसी अपायविचय नाम के धर्मध्यान में शामिल समझना चाहिए।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर</strong> </span><br /> | |||
ध.13/5,4,27/88/3<span class="PrakritText"> टि्ठयस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउसग्गो णाम। णेदं ज्झाणस्संतो णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचित्तस्स वि काओस्सग्गुववत्तीदो। एवं तवोकम्मं परूविदं।</span>=<span class="HindiText">स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करने वाले साधु का कषायों के साथ शरीर का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का तप:कर्म है। इसका ध्यान में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्ग की उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तप:कर्म का कथन समाप्त हुआ।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> माला जपना आदि ध्यान नहीं</strong></span><br /> | |||
रा.वा./9/27/24/627/10 <span class="SanskritText">स्यान्मतं मात्रकालपरिगणनं ध्यानमिति: तन्न; किं कारणम् । ध्यानातिक्रमात् । मात्राभिर्यदि कालगणनं क्रियते ध्यानमेव न स्याद्वैयग्रयात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—समयमात्राओं का गिनना ध्यान है ? <strong>उत्तर—</strong>नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से ध्यान के लक्षण का अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि, इसमें एकाग्रता नहीं है। गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong> धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद</strong><br /> | |||
</span> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.5.1" id="3.5.1"><strong> विषय व स्थिरता आदि की अपेक्षा दोनों समान हैं</strong></span><br /> | |||
बा.अनु./64 <span class="PrakritGatha">सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं।64।</span>= | |||
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<li><span class="HindiText"> शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए। (देखें [[ मोक्षमार्ग#2.4 | मोक्षमार्ग - 2.4]]); (त.अनु./180)</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/74/1 <span class="PrakritText">जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडिभेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो। ...खज्जंतो वि...फाडिज्जंतो वि ...कवलिज्जंतो वि...लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम। एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहाज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒सच्चं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> यदि समस्त समयसद्भाव (संस्थानविचय) धर्म्यध्यान का ही विषय है तो शुक्लध्यान का कोई विषय शेष नहीं रहता ? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। (चा.सा./210/3) <strong>प्रश्न</strong>—यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में अभेद प्राप्त होता है ? क्योंकि (व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, (करोतों द्वारा) फाड़ा गया भी, (दावानल द्वारा) ग्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) लालित किया गया भी, जो जिस अवस्था में ध्येय से चलायमान नहीं होता, वह जीव की अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकार का यह भाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? <strong>उत्तर</strong>—यह बात सत्य है, कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है।</span><br /> | |||
म.पु./21/131 <span class="SanskritText">साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोर्धर्म्यशुक्लयो:।</span> =<span class="HindiText">विषय की अपेक्षा तो अभी तक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थों का (देखें [[ धर्मध्यान सामान्य व विशेष के लक्षण ]]) वर्णन किया गया है, वे सब धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानों के साधारण ध्येय हैं। (त.अनु./180)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.5.2" id="3.5.2"><strong> स्वामी, स्थितिकाल, फल व विशुद्धि की अपेक्षा भेद है</strong> </span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/75/8<span class="PrakritText"> तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकालचिरकालावट्ठाणेण य दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेआ।</span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/80/13 <span class="PrakritText">अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं। मोहसव्वुसमो पुण धम्मज्झाणफलं; सकासायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमएं मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो। तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीय विणासो पुण धम्मज्झाणफलं; सुहुसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो।</span>= | |||
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<li> <span class="HindiText">सकषाय और अकषायरूप स्वामी के भेद से तथा‒ (चा.सा./210/4)। </span></li> | |||
<li class="HindiText"> अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति रहने के कारण इन दोनों ध्यानों का भेद सिद्ध है। (चा.सा./210/4)।</li> | |||
<li class="HindiText"> अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना हो जाने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्व-वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान का फल है, परन्तु मोहनीय का सर्वोपशमन करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, कषायसहित धर्मध्यानी के सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है।</li> | |||
<li><span class="HindiText"> तीन घातिकर्मों का समूलविनाश करना एकवितर्क अवीचार (शुक्ल) ध्यान का फल है, परन्तु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है।</span><br /> | |||
म.पु./21/131 <span class="SanskritText">विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् ।</span>=</li> | |||
<li><span class="HindiText"> इन दोनों में स्वामी व विशुद्धि के भेद से परस्पर विशेषता समझनी चाहिए।(त.अनु./180) <br /> | |||
देखें [[ धर्मध्यान#4.5.3 | धर्मध्यान - 4.5.3]]</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> धर्मध्यान शुक्लध्यान का कारण है।<br /> | |||
देखें [[ समयसार ]]‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्य समयसार है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उनका समन्वय</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong> धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/56/77<span class="PrakritText"> होंति सुहासव संवर णिज्जरामरसुहाई विउलाइं। ज्झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स।</span>=<span class="HindiText">उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवों का सुख ये शुभानुबन्धी विपुल फल होते हैं।</span><br /> | |||
ज्ञा./41/16 <span class="SanskritText">अथावसाने स्वतनुं विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसङ्गा:। ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थसिद्धौ च भवन्ति भव्या:। </span>=<span class="HindiText">जो भव्य पुरुष इस पर्याय के अन्त समय में समस्त परिग्रहों को छोड़कर धर्मध्यान से अपना शरीर छोड़ते हैं, वे पुरुष पुण्य के स्थानरूप ऐसे ग्रैवेयक व अनुत्तर विमानों में तथा सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> धर्मध्यान का फल संवर निर्जरा व कर्मक्षय</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/26,57/68,77 <span class="PrakritText">णवकम्माणादाणं, पोराणवि णिज्जरासुहादाणं। चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ।26। जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति। ज्झाणप्पवणोवहया तह कम्मघणा विलिज्जंति।57।</span>=<span class="HindiText">चारित्र भावना के बल से जो ध्यान में लीन है, उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभकर्मों का आस्रव होता है।26। (ध.13/5/4/26/56/77-देखें [[ ऊपरवाला शीर्षक ]]) अथवा जैसे मेघपटल पवन से ताड़ित होकर क्षणमात्र में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही (धर्म्य) ध्यानरूपी पवन से उपहत्त होकर कर्ममेघ भी विलीन हो जाते हैं।57। <br /> | |||
(देखें [[ आगे धर्म्यध्यान#6.3 | आगे धर्म्यध्यान - 6.3 ]]में ति.प.), (स्वभावसंसक्त मुनि का ध्यान निर्जरा का हेतु है।)<br /> | |||
(देखें [[ पीछे ]]धर्म्यध्यान/3/5/2) ; (सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्त में कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीय कर्म का क्षय धर्म्यध्यान का फल है।)</span><br /> | |||
ज्ञा.22/12 <span class="SanskritText">ध्यानशुद्धिं, मन:शुद्धि: करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्त्यपि नि:शङ्कं कर्मजालानि देहिनाम् ।15।</span>=<span class="HindiText">मन की शुद्धता केवल ध्यान की शुद्धता को ही नहीं करती है, किन्तु जीवों के कर्मजाल को भी नि:सन्देह काटती है।</span><br /> | |||
पं.का./ता.वृ./173/253/25 पर उद्धृत‒<span class="SanskritText">एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरे।</span>=<span class="HindiText">एकाग्र चिन्तवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और संवर निर्जरा उसका फल है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> धर्म्यध्यान का फल मोक्ष</strong></span><br /> | |||
त.सू./9/29<span class="SanskritText"> परे मोक्षहेतू।29।</span>=<span class="HindiText">अन्त के दो ध्यान (धर्म्य व शुक्लध्यान) मोक्ष के हेतु हैं।</span><br /> | |||
चा.सा./172/2 <span class="SanskritText">संसारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं प्रशस्तध्यानं। तद्द्विविधं, धर्म्यं शुक्लं चेति।</span>=<span class="HindiText">संसारलता के मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है। वह दो प्रकार का है‒धर्म्य व शुक्ल।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong> एक धर्मध्यान से मोहनीय के उपशम व क्षय दोनों होने का समन्वय</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/81/3 <span class="PrakritText">मोहणीयस्स उवसमो जदि धम्मज्झाणफलो तो ण क्खदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>मोहनीय कर्म का उपशम करना यदि धर्म्यध्यान का फल हो तो इसी से मोहनीय का क्षय नहीं हो सकता। क्योंकि एक कारण से दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि धर्म्यध्यान अनेक प्रकार का है। इसलिए उससे अनेक प्रकार के कार्यों की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> धर्म्यध्यान से पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.5.1" id="4.5.1"><strong> साक्षात् नहीं परम्परा मोक्ष का कारण है</strong></span><br /> | |||
ज्ञा./3/32 <span class="SanskritText">शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति परं पदम् ।32।</span>=<span class="HindiText">मनुष्य शुभध्यान के फल से उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी को स्वर्ग में भोगते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। और भी देखें [[ आगे धर्म्यध्यान#5.2 | आगे धर्म्यध्यान - 5.2]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.5.2" id="4.5.2"><strong> अचरम शरीरियों को स्वर्ग और चरम शरीरियों को मोक्षप्रदायक है</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/77/1 <span class="SanskritText">किंफलमेदं धम्मज्झाणं। अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जरा फलं च। खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च। अतएव धर्म्यादनपेतं धर्म्यध्यानमिति सिद्धम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒इस धर्म्यध्यान का क्या फल है ? <strong>उत्तर‒</strong>अक्षपक जीवों को (या अचरम शरीरियों को) देवपर्याय सम्बन्धी विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी में कर्मों की निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा होना और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है। अतएव जो धर्म से अनपेत है व धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है।</span><br /> | |||
त.अनु./197,224 <span class="SanskritText">ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये। तद्धयानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये।197। ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुट्यन्मोहस्य योगिन:। चरमाङ्गस्य मुक्ति: स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ।224।</span>=<span class="HindiText">अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूप से ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी ध्याता के मुक्ति का और उससे भिन्न अन्य ध्याता के भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस ध्यान से विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया है।197। ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह को नाश करने वाले चरमशरीरी योगी के तो उस भव में मुक्ति होती है और चरम शरीरी नहीं है उनके क्रम से मुक्ति होती है।224।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.5.3" id="4.5.3"><strong> क्योंकि मोक्ष का साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है</strong></span><br /> | |||
ज्ञा./42/3 <span class="SanskritGatha">अथ धर्म्यमतिक्रान्त: शुद्धिं चात्यन्तिकीं श्रित:। ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।3।</span>=<span class="HindiText">इस धर्म्यध्यान के अनन्तर धर्म्यध्यान से अतिक्रान्त होकर अत्यन्त शुद्धता को प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यान के ध्यावने का प्रारम्भ करता है। विशेष देखें [[ धर्मध्यान#6.6 | धर्मध्यान - 6.6]]। (पं0का/150)‒(दे0’समयसार’)‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्यसमयसार।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong> परपदार्थों के चिन्तवन से कर्मक्षय कैसे सम्भव है</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/70/4 <span class="PrakritText">कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो। ण तेसिं रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं, अर्थात् अतिशय रहित होते हैं, ऐसी हालत में वे कर्मक्षय के कर्ता कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर‒</strong>नहीं, क्योंकि वे रागादि के निरोध करने में निमित्तकारण हैं, इसलिए उन्हें कर्मक्षय का निमित्त मानने में विरोध नहीं आता। (अर्थात् उन जीवादि नौ पदार्थों के स्वभाव का चिन्तवन करने से साम्यभाव जागृत होता है।)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता</strong></span><br /> | |||
प.प्र./टी./1/97/92/4 <span class="SanskritText">यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीं अस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति। परिहारमाहयादृशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति तादृशमिदानीं नास्तीति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>यदि अन्तर्मुहूर्तमात्र परमात्मध्यान से मोक्ष होता है तो ध्यान करने वाले भी हमें आज वह क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>‒जिस प्रकार का शुक्लध्यान प्रथम संहनन वाले जीवों को होता है वैसा अब नहीं होता।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
द्र.सं./टी./57/233/11 <span class="SanskritText">अथ मतं‒मोक्षार्थं ध्यानं क्रियते, न चाद्यकाले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन किं प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति। कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति। येऽपि भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा पश्चान्मोक्षं गता:। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकाल में होता नहीं है, इस कारण ध्यान के करने से क्या प्रयोजन? <strong>उत्तर‒</strong>इस पंचमकाल में भी परम्परा से मोक्ष है। <strong>प्रश्न‒</strong>सो कैसे है? <strong>उत्तर‒</strong>ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्मा की भावना के बल से संसार की स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाता है। वहां से मनुष्यभव में आकर रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष को चला जाता है। जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र तथा पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्ष को गये हैं, उन्होंने भी पूर्वभव में अभेदरत्नत्रय की भावना से अपने संसार की स्थिति को घटा लिया था। इस कारण उसी भव में मोक्ष गये। उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी देखो/7/12)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> पंचमकाल में अध्यात्मध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव</strong> </span><br /> | |||
न.च.वृ./343 <span class="PrakritGatha">मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि।343।</span>=<span class="HindiText">सराग की भांति वीतरागता की सामग्री जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकाल में भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]/2)। </span><br /> | |||
नि.सा./ता.वृ./154/क.264 <span class="SanskritText">असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननयजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।264।</span>=<span class="HindiText">असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभय का नाश करने वाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धा को अंगीकृत करते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> परन्तु इस काल में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है</strong></span><br /> | |||
मो.पा./मू./76 <span class="PrakritGatha">भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।76।</span>=<span class="HindiText">भरतक्षेत्र में दु:षमकाल अर्थात् पंचमकाल में भी आत्मस्वभावस्थित साधु को धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। (र.सा./60); (त.अनु./82)।</span><br /> | |||
ज्ञा./4/37 <span class="SanskritText">दु:षमत्वादयं काल: कार्यसिद्धेर्न साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्धयानं निषिध्यते।37।</span>=<span class="HindiText">कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि इस दु:षमा पंचमकाल में ध्यान की योग्यता किसी के भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यान की सिद्धि कैसे हो सकती है ?)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है</strong></span><br /> | |||
त.अनु./83 <span class="SanskritGatha">अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:। धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।83। </span>=<span class="HindiText">यहां (भरतक्षेत्र में) इस (पंचम) काल में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परन्तु श्रेणी से पूर्ववर्तियों के धर्मध्यान बतलाते हैं। (द्र.सं./टी./57/231/11) (पं.का./ता.वृ./146/211/17)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्मध्यान का लक्षण</strong></span><br /> | |||
मो.पा./मू./84<span class="PrakritGatha"> पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गा। जो ज्झायदि सो जोई पावहरो भवदि णिद्दंदो’।84।</span>=<span class="HindiText">जो योगी शुद्धज्ञानदर्शन समग्र पुरुषाकार आत्मा को ध्याता है वह निर्द्वन्द तथा पापों का विनाश करने वाला होता है।</span><br /> | |||
द्र.सं./मू./55-56 <span class="PrakritGatha">जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूण य एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।55। मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं।56।</span>=<span class="HindiText">ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है।55। हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनों की प्रवृत्ति को रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में स्थिर होवे। आत्मा में लीन होना परमध्यान है।56।</span><br /> | |||
का.अ./मू./482 <span class="PrakritGatha">वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो। जं चिंतदि साणं दे तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं।482।</span>=<span class="HindiText">सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है।</span><br /> | |||
त.अनु./श्लो.नं./भावार्थ‒<span class="SanskritText">निश्चयादधुना स्वात्मालम्बनं तन्निरुच्यते।141। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्तत:। तत्रैकाग्य्रं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत् ।144।</span>=<span class="HindiText">अब निश्चयनय से स्वात्मलम्बन स्वरूपध्यान का निरूपण करते हैं।141। श्रुत के द्वारा आत्मा में आत्मसंस्कार को आरोपित करके, तथा उसमें ही एकाग्रता को प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे।144। शरीर और मैं अन्य-अन्य हैं।149। मैं सदा सत्, चित्, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत् अमूर्तिक हूं।153। दृष्ट जगत् न इष्ट है न द्विष्ट किन्तु उपेक्ष्य है।157। इस प्रकार अपने आत्मा को अन्य शरीरादिक से भिन्न करके अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे।159। यह चिन्ताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्मा के स्वसंवेदनरूप है।160। (ज्ञा./31/20-37)।<br /> | |||
द्र.टी./48/204/11 में अनन्त ज्ञानादि का धारक तथा अनन्त सुखरूप हूं, इत्यादि भावना अन्तरंग धर्मध्यान है। (पं.का./ता.वृ./150-151/218/1)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण</strong></span><br /> | |||
त.अनु./141 <span class="SanskritText">व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहार नय से पराश्रित धर्मध्यान का लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचय आदि भेद सब व्यवहार ध्यान में गर्भित हैं।)<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं</strong> </span><br /> | |||
प्र.सा./193-194 <span class="PrakritGatha">देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाधसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा।193। जो एवं जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् ।194।</span>=<span class="HindiText">शरीर, धन, सुख, दु:ख अथवा शत्रु, मित्रजन से सब ही जीव के कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है।193। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रन्थि का क्षय करता है।</span><br /> | |||
ति.प./9/21,40 <span class="PrakritGatha">दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।21। ज्झाणे जदि णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स। ज्झाणं होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा वा।40।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध स्वभाव से सहित साधु का दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जरा का कारण नहीं होता।21। जिस जीव के ध्यान में यदि ज्ञान से निज आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्च्छा ही जानना चाहिए।40। (त.अनु./169)</span><br /> | |||
आराधनासार/83<span class="SanskritGatha"> यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिन्ता वा भावनाथवा।83।</span>=<span class="HindiText">जब तक ध्यानयुक्त योगी को किसी प्रकार का भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिन्ता है या भावना है। (और भी देखें [[ धर्म्यध्यान#3.1 | धर्म्यध्यान - 3.1]])</span><br /> | |||
ज्ञा./28/19 <span class="SanskritGatha">अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।19।</span>=<span class="HindiText">जिस समय मुनि का चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूप के सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यान की सिद्धि निर्विघ्न होती है।</span><br /> | |||
प्र.सा./त.प्र./194 <span class="SanskritText">अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते: शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है।(प्र.सा./त.प्र./196), (नि.सा./ता.वृ./119) </span><br /> | |||
प्र.सा./त.प्र./243 <span class="SanskritText">यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति।...तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ बन्ध को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त नहीं होता।</span><br /> | |||
नि.सा./ता.वृ./144, <span class="SanskritText">य: खलु...व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान, ...किन्तु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमातत्त्वविश्रान्तरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त:।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में व्यावहारिक धर्मध्यान में परिणत रहता है, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को, निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यान को तथा शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> व्यवहार ध्यान कथंचित् अज्ञान है</strong> </span><br /> | |||
स.सा./आ./191 <span class="SanskritText">एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ताप्रबंधात्मकविशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते।</span>= <span class="HindiText">इस कथन से कर्मबन्ध में चिन्ताप्रबन्धस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यान से जिनकी बुद्धि अन्धी है, उनको समझाया है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> व्यवहार ध्यान निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | |||
द्र.स./टी./49/209/4 <span class="SanskritText">निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् ।</span>=<span class="HindiText">निश्चयध्यान का परम्परा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है। (द्र.स./टी./53/221/2)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपने का समन्वय</strong></span><br /> | |||
ध.13/5,4,26/22/67<span class="PrakritGatha"> विसमं हि समारोहइ दव्वालंवणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तहा झाणवरं समारुहइ।22।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी (सीढ़ी) आदि द्रव्य के आलम्बन से विषमभूमि पर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलम्बन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है। (भ.आ./वि./1877/1681/12)</span><br /> | |||
ज्ञा./33/2,4 <span class="SanskritGatha">अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा।4।</span>=<span class="HindiText">आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अविद्या की वासना से विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त स्थिरता को नहीं धारण करता है।2। तब लक्ष्य के सम्बन्ध से अलक्ष्य को अर्थात् इन्द्रियगोचर के सम्बन्ध से इन्द्रियातीत पदार्थों को तथा स्थूल के आलम्बन से सूक्ष्म को चिन्तवन करता है। इस प्रकार सालम्ब ध्यान से निरालम्ब के साथ तन्मय हो जाता है।4। (और भी देखें [[ चारित्र#7.10 | चारित्र - 7.10]])</span><br /> | |||
पं.का./ता.वृ./152/220/9 <span class="SanskritText">अयमत्र भावार्थ:‒प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयाभिलाषरूपध्यानवञ्चनार्थं च परम्परया मुक्तिकारणं पञ्चपरमेष्ठयादिपरद्रव्यं ध्येयं भवति, दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयं।...इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्य:।</span>=<span class="HindiText">प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यान से बचने के लिए परम्परा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं। तथा दृढतर ध्यान के अभ्यास द्वारा चित्त के स्थिर हो जाने पर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयों के द्वारा साध्यसाधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। (द्र.स./टी./55/223/12)( (प.प्र./टी./2/33/154/2)</span><br /> | |||
पं.का./ता.वृ./150/217/14 <span class="SanskritText">यदायं जीव:...सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरङ्गसहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेणक्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा तदनन्तरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्यातिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय...मोहक्षपणं कृत्वा...भावमोक्षं प्राप्नोति।</span>=<span class="HindiText">अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान के बहिरंग सहकारीपने से ‘मैं अनन्त ज्ञानादि स्वरूप हूं’ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगम कथित क्रम से असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यन्त चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनन्तर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में प्रकृति व पुरुष (कर्म व जीव) सम्बन्धी निर्मल विवेक ज्यातिरूप प्रथम शुक्लध्यान का अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है, और अन्त में भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong> निश्चय व व्यवहार ध्यान में निश्चय शब्द की आंशिक प्रवृत्ति</strong> </span><br /> | |||
द्र.सं./टी./55-56/224/6<span class="SanskritText"> निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोग लक्षणविवक्षितैदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:।55। ‘मा चिट्ठह...।’ इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टध्यानं भवति।</span>=<span class="HindiText">’निश्चय’ शब्द से अभ्यास करने वाले पुरुष की अपेक्षा से व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है उस पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेशशुद्ध निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगे के सूत्र में कहा है, कि मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोककर आत्मा के सुखरूप में तन्मय हो जाना निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]/7)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.8" id="6.8"><strong> निरीहभाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है</strong> </span><br /> | |||
पं.ध./उ./861-865 <span class="SanskritText">अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदय:। आत्मपरोभयाकारभावश्च प्रदीपवत् ।761। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तांश्च धर्मादीनवगच्छति।862। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि। पर स्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि।863। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुत:। उपयुक्त: परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वत:।864। तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया। मासीदसि महाप्राज्ञ: सार्थमर्थमवैहि भो:।865।</span> =<span class="HindiText">निजमहिमा से ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभय का युगपत् अवभासक है।861। वह किसी प्रकार का भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्यों को भी जानता है।862। अत: केवलनिजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चय से वह उभयविषयोपयोगी है।863। उस सम्यग्दृष्टि को स्व में उपयुक्त होने से कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) और पर में उपयुक्त होने से कुछ अपकर्ष (बन्ध) होता हो, ऐसा नहीं है।864। इसलिए परपदार्थों के साथ अभिन्नता देखकर तुम दु:खी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थ को समझो। और भी देखें [[ ध्यान#4.5 | ध्यान - 4.5 ]](अर्हन्त का ध्यान वास्तव में तद्गूणपूर्ण आत्मा का ध्यान ही है)। </span></li> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वस्तु के स्वरूप/स्वभाव ला चिन्तन । मूलत: इसके चार भेद हैं― आज्ञाविचय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>कार के अनुसार इसके दस भेद हैं― अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाक-विचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । धर्मध्याता सम्यग्दृष्टि होता है । वह ज्ञान, वैराग्य, धैर्य और क्षमा से युक्त होता है । अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता रहता है । उसके पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है । यह ध्यान अप्रमत्त-अवस्था का अवलम्बन कर अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थित रहता है । उक्त लेश्याओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त यह ध्यान चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है । अशुभ कर्मों की</p> | |||
<p>निर्जरा, स्वर्ग और परम्परा से अपवर्ग की प्राप्ति इसके फल है । इस ध्यान का ध्येय अर्हन्तदेव होता है । इसके लिए जहाँ न अधिक गर्मी हो और न शीत हो ऐसे गुफा, नदी-तट, पर्वत, उद्यान और वन ऐसे</p> | <p>निर्जरा, स्वर्ग और परम्परा से अपवर्ग की प्राप्ति इसके फल है । इस ध्यान का ध्येय अर्हन्तदेव होता है । इसके लिए जहाँ न अधिक गर्मी हो और न शीत हो ऐसे गुफा, नदी-तट, पर्वत, उद्यान और वन ऐसे</p> | ||
<p>स्थान अपेक्षित है । महापुराण 20. 208-210, 226-228,21.131-134, 155-163, 36.161 हरिवंशपुराण 56.36 -52, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.51-52 </p> | <p>स्थान अपेक्षित है । <span class="GRef"> महापुराण 20. 208-210, 226-228,21.131-134, 155-163, 36.161 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> 56.36 -52, <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.51-52 </span></p> | ||
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Revision as of 21:42, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
मन को एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषय में हर समय ही मन अटका रहने के कारण व्यक्ति को कोई न कोई ध्यान बना ही रहता है, परन्तु राग-द्वेषमूलक होने से श्रेयोमार्ग में वे सब अनिष्ट हैं। साधक साम्यता का अभ्यास करने के लिए जिस ध्यान को ध्याता है वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञातादृष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसलिए किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकार का है‒बाह्य व आध्यात्मिक। वचन व काय पर से सर्व प्रत्यक्ष होने बाह्य और मानसिक चिन्तवनरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक भी आज्ञा, अपाय आदि के चिन्तवन के भेद से दस भेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके लक्षणों पर से प्रगट है, आज्ञा, अपाय, विपाक व संस्थान इन चार में गर्भित हो जाते हैं‒उपाय विचय तो अपाय में समा जाता है और जीव, अजीव, भव, विराग व हेतु विचय-संस्थान विचय में समा जाते हैं। तहां इन सबको भी दो में गर्भित किया जा सकता है‒व्यवहार व निश्चय। आज्ञा, अपाय व विपाक तो परावलम्ब ही होने से व्यवहार ही है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है‒पिंडस्थ (शरीराकृति का चिन्तवन); पदस्थ (मन्त्राक्षरों का चिन्तवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्मा का चिन्तवन) और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाता द्रष्टाभाव। यहां पहले तीन धर्मध्यानरूप हैं और अन्तिम शुक्लध्यानरूप। पहले तीनों में ‘पिण्डस्थ’ व ‘पदस्थ’ तो परावलम्बी होने से व्यवहार है और ‘रूपस्थ’ स्वालम्बी होने से निश्चय है। निश्चय ध्यान ही वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होने से इष्ट है।
- धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश
- धर्मध्यान सामान्य के लक्षण।
- धर्मध्यान के चिह्न।
- धर्मध्यान योग्य सामग्री।
- धर्मध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र, पीठ व दिशा।‒देखें कृतिकर्म - 3।
- धर्मध्यान योग्य काल।‒देखें ध्यान - 3।
- धर्मध्यान की विधि।‒देखें ध्यान - 3।
- धर्मध्यान सम्बन्धी धारणाएं‒देखें पिंडस्थ ।
- धर्मध्यान के भेद आज्ञा, अपाय आदि व बाह्य आध्यात्मिक आदि।
- आज्ञा, विचय आदि 10 ध्यानों के लक्षण।
- संस्थान विचय के पिंडस्थ आदि भेदों का निर्देश।
- पिंडस्थ आदि ध्यान।‒देखें वह वह नाम ।
- बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान का लक्षण।
- धर्मध्यान सामान्य के लक्षण।
- धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश
- धर्मध्यान में आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें ध्याता - 1।
- धर्मध्यान में विषय परिवर्तन क्रम।
- धर्मध्यान में सम्भव भाव व लेश्याएं।
- धर्मध्यान योग्य ध्याता।‒देखें ध्याता - 2,4।
- सम्यग्दृष्टि को ही सम्भव है।‒देखें ध्याता - 2,4।
- मिथ्यादृष्टि को सम्भव नहीं।
- गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व।
- साधु व श्रावक को निश्चय ध्यान का कथंचित् विधि, निषेध।‒देखें अनुभव - 5।
- . धर्मध्यान के स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएं—
- मिथ्यादृष्टि को भी तो देखा जाता है?
- प्रमत्त जनों को ध्यान कैसे सम्भव है?
- कषायरहित जीवों में ही मानना चाहिए?
- मिथ्यादृष्टि को भी तो देखा जाता है?
- धर्मध्यान में आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें ध्याता - 1।
- धर्मध्यान में संहनन सम्बन्धी चर्चा।‒देखें संहनन ।
- धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अन्तर
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्ता में अन्तर।
- अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय में गर्भित समझना चाहिए।
- ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर।
- माला जपना आदि ध्यान नहीं है।
- प्राणायाम, समाधि आदि ध्यान नहीं।‒देखें प्राणायाम ।
- धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद।
- धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उसका समन्वय
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य।
- धर्मध्यान का फल संवर, निर्जरा व कर्मक्षय।
- धर्मध्यान का फल मोक्ष।
- धर्मध्यान का महिमा।–देखें ध्यान - 2
- एक ही धर्मध्यान से मोहनीय का उपशम व क्षय दोनों कैसे सम्भव है?
- पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय।
- परपदार्थों के चिन्तवन से कर्मक्षय कैसे सम्भव है?
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य।
- पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता?
- यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन।
- पंचम काल में भी अध्यात्म ध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव।
- परन्तु इस काल में भी ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है।
- पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है।
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता?
- निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
- साधु व श्रावक के योग्य शुद्धोपयोग।‒देखें अनुभव ।
- निश्चय धर्मध्यान का लक्षण।
- निश्चय धर्मध्यान योग्य ध्येय व भावनाएं।‒देखें ध्येय ।
- व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण।
- बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान के लक्षण।‒देखें धर्मध्यान - 1।
- व्यवहार ध्यान योग्य अनेकों ध्येय।‒देखें ध्येय ।
- सब ध्येयों में आत्मा प्रधान है।‒देखें ध्येय ।
- परम ध्यान के अपर नाम।‒देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं।
- व्यवहारध्यान कथंचित् अज्ञान है।
- व्यवहारध्यान निश्चय का साधन है।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्य साधकपने का समन्वय।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में ‘निश्चय’ शब्द की आंशिक प्रवृत्ति।
- निरीह भाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्मोपयोग ही है।
- सविकल्प अवस्था से निर्विकल्पावस्था में चढ़ने का क्रम।‒देखें धर्म - 6.4।
- धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश
- धर्मध्यान सामान्य का लक्षण
- धर्म से युक्त ध्यान
भ.आ./मू./1709/1541 धम्मस्स लक्खणंसे अज्जक्लहुगत्तमद्दवोवसमा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे।1709। =जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वह धर्मध्यान का लक्षण समझना चाहिए। आर्जव, लघुत्व, मार्दव और उपदेश ये इसके लक्षण हैं। (मू.आ./679)।
स.सि./9/28/445/11 धर्मो व्याख्यात:। धर्मादनपेत धर्म्यम् । =धर्म का व्याख्यान पहले कर आये हैं (उत्तम क्षमादि लक्षणवाला धर्म है) जो धर्म से युक्त होता है वह धर्म्य है। (स.सि./9/36/450/4); (रा.वा./9/28/3/627/30); (रा.वा./9/36/11/632/11); (म.पु./21/133); (त.अनु./54); (भा.पा./टी./78/226/17)।
नोट—यहां धर्म के अनेकों लक्षणों के लिए (देखो धर्म/1) उन सभी प्रकार के धर्मों से युक्त प्रवृत्ति का नाम धर्मध्यान है, ऐसा समझना चाहिए। इस लक्षण की सिद्धि के लिए‒दे0(धर्मध्यान/4/5/2)।
- शास्त्र, स्वाध्याय व तत्त्व चिन्तवन
र.सा./मू./97 पावारंभणिवित्ती पुण्णारंभपउत्तिकरणं पि। णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाणं।97। =पाप कार्य की निवृत्ति और पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति का मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए मुमुक्षु जीवों के लिए सम्यग्ज्ञान (जिनागमाभ्यास-गा.98) ही धर्मध्यान श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
भ.आ./मू./1710 आलंबणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविसुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ।1710। =वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्याय के भेद हैं। ये भेद धर्मध्यान के आधार भी हैं। इस धर्मध्यान के साथ अनुप्रेक्षाओं का अविरोध है। (भ.आ./मू./1875/1680); (ध.13/5,4,26/गा.21/67); (त.अनु./81)।
ज्ञा.सा./17 जीवादयो ये पदार्था: ध्यातव्या: ते यथास्थिता: चैव। धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौप्रमुच्य... ।17। =रागद्वेष को त्यागकर अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्मध्यान कहा गया है।
ज्ञा./3/29 पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते।29।=पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुद्धलेश्या के अवलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चिन्तवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञा./25/18)।
- रत्नत्रय व संयम आदि में चित्त को लगाना
मू.आ./678-680 दंसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सगो। पचक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु।678। विज्जाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए। खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्ती विणए च सद्दहणे।679। एवंगुणो महत्थो मणसंकल्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्वं।680।=दर्शन ज्ञान चारित्र में, उपयोग में, संयम में, कायोत्सर्ग में, शुभ योग में, धर्मध्यान में, समिति में, द्वादशांग में, भिक्षाशुद्धि में, महाव्रतों में, संन्यास में, गुण में, ब्रह्मचर्य में, पृथिवी आदि छह काय जीवों की रक्षा में, क्षमा में, इन्द्रिय निग्रह में, आर्जव में, मार्दव में, सब परिग्रह त्याग में, विनय में, श्रद्धान में; इन सबमें जो मन का परिणाम है, वह कर्मक्षय का कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस प्रकार जिनशासन में माना गया सब संकल्प है; उसको तुम शुभ ध्यान जानो।
- परमेष्ठी आदि की भक्ति
द्र.सं./टी./48/205/3 पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानं भवति।=पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि) बहिरंग धर्मध्यान होता है। (पं.का./ता.वृ./150/217/16)।
- धर्म से युक्त ध्यान
- धर्मध्यान के चिह्न
ध.13/5,4,26/गा.54-55/76 आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्भाणस्स तल्लिगं।54। जिणसाहु-गुणक्कित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा। सुद सीलसंजमरदा धम्मज्झाणे मुणेयव्वा।55।=आगम, उपदेश और जिनाज्ञा के अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवान् के द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है।54। जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील और संयम में रत होना, ये सब बातें धर्मध्यान में होती हैं।55।
म.सु./21/159-161 प्रसन्नचित्तता धर्मसंवेग: शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजा: रुचि:।159। भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्म्यस्यान्तर्गतानि वै। सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधा: शुभभावना:।160। बाह्यं च लिङ्गमङ्गानां संनिवेश: पुरोदित:। प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चेत्यादि लक्ष्यताम् ।161।=प्रसन्नचित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभयोग रखना, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञान से एक प्रकार की विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं, और अनुप्रेक्षाएं तथा पहले कही हुई अनेक प्रकार की शुभ भावनाएं उसके अन्तरंग चिह्न हैं।159-160। पहले कहा हुआ अंगों का सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यंकादि आसनों का वर्णन कर चुके हैं (दे0’कृतिकर्म’) उन आसनों को धारण करना, मुख की प्रसन्नता होना, और दृष्टि का सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यान के बाह्य चिह्न समझने चाहिए।
ज्ञा./41/15-1 में उद्धृत-अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्ध: शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्ति: प्रसाद: स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्ते: प्रथमं हि चिह्नम् ।1। =विषय लम्पटता का न होना शरीर नीरोग होना, निष्ठुरता का न होना, शरीर में से शुभ गन्ध आना, मलमूत्र का अल्प होना, शरीर की कान्ति शक्तिहीन न होना, चित्त की प्रसन्नता, शब्दों का उच्चारण सौम्य होना–ये चिह्न योग की प्रवृत्ति करने वाले के अर्थात् ध्यान करने वाले के प्रारम्भ दशा में होते हैं। (विशेष देखें ध्याता )।
- धर्मध्यान योग्य सामग्री
द्र.सं./टी./57/229/3 में उद्धृत–‘तथा चोक्तं–’वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतव:। =सो ही कहा है कि–वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पांच ध्यान के कारण हैं।
त.अनु./75,218 संगत्याग: कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि।75। ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेश: श्रद्धानं सदाभ्यास: स्थिरं मन:।218। =परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यान की उत्पत्ति में सहायभूत सामग्री हैं।75। गुरूपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और मन की स्थिरता, ये चार ध्यान की सिद्धि के मुख्य कारण हैं। (ज्ञा./3/15-25)।
देखें ध्यान - 3 (धर्मध्यान के योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूप सामग्री विशेष)।
- धर्मध्यान के भेद
- आज्ञा, अपाय, विचय आदि ध्यान
त.सू./9/36 आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ।36। =आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणा के लिए मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। (भ.आ./मू./1708/1536); (मू.आ./398); (ज्ञा./33/5); (ध.13/5,4,26/70/12); (म.पु./21/134); (ज्ञा./33/5); (त.अनु./98); (द्र.सं./टी./48/202/3); (भा.पा./टी./119/269/24); (का.अ./टी./480/366/4)।
रा.वा./1/7/14/40/16 धर्मध्यानं दशविधम् ।
चा.सा./172/4 स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम् । तद्दशविधं अपायविचयं, उपायविचयं, जीवविचयं, अजीवविचयं, विपाकविचयं, विरागविचयं, भवविचयं, संस्थानविचयं, आज्ञाविचयं, हेतुविचयं चेति। =आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकार का है–अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय। (ह.पु./56/38-50), (भा.पा.टी.119/270/2)।
- निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि भेद
चा.सा./172/3 धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् ।=धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से दो प्रकार का है। (ह.पु./56/36)।
त.अनु./47-49/96 मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा।47। ध्यानान्यपि त्रिधा।48। उत्तमम् ...जघन्यं...मध्यमम् ।49। निश्चयाद् व्यवहारच्च ध्यानं द्विविधमागमे।...।96।=मुख्य और उपचार के भेद से धर्म्यध्यान दो प्रकार का है।47। अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है।49। अथवा निश्चय व व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है।96।
- आज्ञा, अपाय, विचय आदि ध्यान
- <a name="1.5" id="1.5"></a>आज्ञा विचय आदि ध्यानों के लक्षण
- अजीव विचय
ह.पु./56/44 द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धर्म्यमजीवविचयं मतम् ।44। =धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तवन करना, सो अजीव विचय नाम का धर्म्यध्यान है।44।
- 2-3. अपाय व उपाय विचय
भ.आ./मू./1712/1544 कल्लाणपावगाण उपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च। विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य।1712। =जिनमत को प्राप्त कर कल्याण करने वाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है, अथवा जीवों के जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनसे अपाय का चिन्तवन करता है। (मू.आ./400); (ध.13/5,4,26/गा.40/72)।
ध.13/5,4,26/गा.39/72 रागद्दोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी।39। =पाप को त्याग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवों के इहलोक और परलोक से अपाय का चिन्तवन करे।
स.सि./9/36/449/11 जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टय: सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखमोक्षार्थिन सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात् सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गापयाचिन्तनमपायविचय:। अथवा–मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचय:। =मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुष के समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तवन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा–ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। (रा.वा./9/36/6-7/630/16); (म.पु./21/141-142); (भ.आ./वि/1708/1536/18); (त.सा./7/41); (ज्ञा./34/1-17)।
ह.पु./56/39-41 संसारहेतव: प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तय:। अपायो वर्जनं तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ।39। चिन्ताप्रबन्धसंबन्ध: शुभलेश्यानुरञ्जित:। अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यमभीप्सितम् ।40। उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसात्क्रिया। उपाय: स कथं मे स्यादिति संकल्पसंतति:।41। =मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही, प्राय: संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभलेश्या से अनुरंजित जो चिन्ता का प्रबन्ध है वह अपायविचय नाम का प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है।39-40। पुण्य रूप योगप्रवृत्तियों को अपने आधीन करना उपाय कहलाता है, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार के संकल्पों की जो सन्तति है वह उपाय विचय नाम का दूसरा धर्म्यध्यान है।41। (चा.सा./173/3), (भ.आ./वि/1708/1536/17); (द्र.सं./टी./48/202/9)।
- आज्ञाविचय
भ.आ./मू./1711/1543 पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागब्भे भावे आणाविचएण विचिणादि। =पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यान के द्वारा चिन्तवन करता है। (मू.आ./399); (ध.13/5,4,26/गा.38/71) (म.पु./21/135-140)।
ध.13/5,4,26/गा.35-37/71 तत्थमइदुब्वलेण य। तव्विजाइरियविरहदो वा वि। णेयगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च।35। हेदूदाहरणासंभवे य सरिंसुट्टठुज्जाणबुज्झेज्जो। सव्वणुसयमवितत्थं तहाविहं चिंतए मदिमं।36। अणुवगहपराग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा। जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण।37। =मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होने से, नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थान में मतिमान् ध्याता ‘सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है’ ऐसा चिन्तवन करे।35-36। यत: जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवों का भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, और उन्होंने राग-द्वेष और मोह पर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे अन्यथा वादी नहीं हो सकते।37।
स.सि./9/36/449/6 उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना:’ इति गहनपदार्थश्रद्धानादर्थावधारणमाज्ञाविचय:। अथवा स्वयं विदितपदार्थ तत्त्वस्रू सत: परं प्रति पिपादयिषो: स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थं तर्कनयप्रमाणयोजनपर: स्मृतिसमन्वहार: सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते।449।=उपदेष्टा आचार्यों का अभाव होने से, स्वयं मन्दबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से और पदार्थों के सूक्ष्म होने से, तथा तत्त्व के समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्त का अभाव होने से, सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण करके, ‘यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते’, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। अथवा स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है, और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध द्वारा तत्त्व का समर्थन करने के लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञाविचय कहा जाता है। (रा.वा./9/36/4-5/630/8); (ह.पु./56/49); (चा.सा./201/5); (त.सा./7/40); (ज्ञा./33/6-22); (द्र.सं./टी./48/202/6)।
- जीवविचय
ह.पु./56/42-43 अनादिनिधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा। असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणा: ।42। अचेतनोपकरणा: स्वकृतोचितभोगिन:। इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । =द्रव्यार्थिकनय से जीव अनादि निधन है, और पर्यायार्थिक नय से सादिसनिधन है, असंख्यात प्रदेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरण से युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्म के फल को भोगते हैं...इत्यादि रूप से जीव का जो ध्यान करना है वह जीवविचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है। (चा.सा./173/5)
- भवविचय
ह.पु./56/47 प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दु:खात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुन:।47।=चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है। यह भव दु:खरूप है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो भवविचय नाम का सातवां धर्मध्यान है।(चा.सा./176/1)
- विपाकविचय
भ.आ./मू./1713/1545 एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदीरण संकमबन्धे मोक्खं च विचिणादि।=जीवों को जो एक और अनेक भव में पुण्य और पापकर्म का फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष का चिन्तवन करता है। (मू.आ./401); (ध.13/5,4,26/गा.42/72); (स.सि./9/36/450/2); (रा.वा./9/36/8-9/630-632 में विस्तृत कथन), (भ.आ./वि./1708/1536/21); (म.पु./21/143-147); (त.सा./7/42); (ज्ञा./35/1-31); (द्र.सं./टी./48/202/10)।
ह.पु./56/45 यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचितनं धर्म्यं विपाकविचयं विदु:।45। =ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बन्धों के विपाकफल का विचार करना, सो विपाकविचय नामका पांचवा धर्मध्यान है।(चा.सा./174/2)।
- विराग विचय
ह.पु./56/46 शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफलपाकिन:। विरागबुद्धिरित्यादि विरागवियं स्मृतम् ।46। =शरीर अपवित्र है और भोग किंपाकफल के समान तदात्व मनोहर हैं, इसलिए इनसे विरक्तबुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि चिन्तन करना विरागविचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है। (चा.सा./171/1)।
- संस्थान विचय
(देखो आगे पृथक् शीर्षक)
- हेतु विचय
ह.पु./56/50 तर्कानुसारिण: पंस: स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात् । सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं हि तत् ।50। =और तर्क का अनुसरण पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतुविचय नामका दसवां धर्म्यध्यान है। (चा.सा./202/3)
- अजीव विचय
- संस्थानविचय धर्मध्यान का स्वरूप
ध.13/5,4,26/गा.43-50/72/13 तिण्णं लोगाणं संठाणपमाणाआउयादिचिंतणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं। एत्थ गाहाओ—जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाइं। उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्यपा जे य दव्वाणं।43। पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं जिणक्खादं। णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागदिं।44। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाणभवणादिसंठाणं। वोमादि पडिट्ठाणं णिययं लोगटि्ठदिविहाणं।45। उवजोगलक्खणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीरादो। जीवमरूविं कारिं भोइं य सयस्स कम्मस्स।46। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसणसयसावमीणं मोहावत्तं महाभीमं।47। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं। संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेज्जो।48। सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं।49। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादि चिंतणापरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे किह व पुव्वं।50।=- तीन लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि का चिन्तवन करना संस्थान विचय नाम का चौथा धर्म ध्यान है। (स.सि./9/36/450/3); (रा.वा./9/36/10/632/9); (भ.आ./वि./1708/1536/23); (त.सा./7/43); (ज्ञा./36/184-186); (द्र.सं./टी./48/203/2)।
- जिनदेव के द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहने का स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायों का चिन्तवन करना।43। पंचास्तिकाय का चिन्तवन करना।44। (देखें पीछे जीव अजीव विचय के लक्षण)।
- अधोलोक आदि भागरूप से तीन प्रकार के (अधो, मध्य व ऊर्ध्व) लोक का, तथा पृथिवी, वलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदि के संस्थानों (आकारों) का एवं उसका आकाश में प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेद का चिन्तवन करे।44-45। (भ.आ./मू./1714/1545) (मू.आ./402); (ह.पु./56/480); (म.पु./21/148-150); (ज्ञा./36/1-10,82-90); (विशेष देखें लोक )
- जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है, तथा अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।46। (म.पु./21/151) (और देखें पीछे ‘जीव विचय’ का लक्षण)
- उस जीव के कर्म से उत्पन्न हुआ जन्म, मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकड़ों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं; मोहरूपी आवर्त हैं, और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है, उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त (आध्यात्मिक) संसार का चिन्तवन करे।47-48। (म.पु./21/152-153)
- बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है, उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समयसद्भाव का (द्वादशांगमय सकल श्रुत का) ध्यान करे।49। (म.पु./21/154)
- ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्यादि भावनाओं के चिन्तवन में तत्पर होता है। जिससे वह पहले की भांति धर्मध्यान में सुभावितचित्त होता है।50। (भ.आ./मू./1714/1545); (मू.आ./402); (चा.सा./177/1); (विराग विचय का लक्षणी) नोट—(अनुप्रेक्षाओं के भेद व लक्षण‒देखें अनुप्रेक्षा ) ज्ञा./36/श्लो.नं.
- (नरक के दु:खों का चिन्तवन करे)।11-81। (विशेष देखो नरक) (भव विचय का लक्षण)
- (स्वर्ग सुख तथा देवेन्द्रों के वैभव आदि का चिन्तवन।90-182। (विशेष देखें स्वर्ग )
- (सिद्धलोक का तथा सिद्धों के स्वरूप का चिन्तवन करे।183।
- (अन्त में कर्ममल से रहित अपनी निर्मल आत्मा का चिन्तवन करे)।185।
- संस्थान विचय के पिण्डस्थ आदि भेदों का निर्देश
ज्ञा./37/1 तथा भाषाकार की उत्थानिका‒पिण्डस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करै:।1। =इस संस्थान विचय नाम धर्मध्यान में चार भेद कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है‒जो भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यान को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकार का कहा है। (भा.पा./टी./86/236/13)
द्र.सं./टी./48/205/3 में उद्धृत—पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।
द्र.सं./टी./49/209/7 पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति।=मन्त्रवाक्यों में स्थिति पदस्थ, निजात्मा का चिन्तवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूप का चिन्तवन रूपस्थ और निरंजन का (त्रिकाली शुद्धात्मा का) ध्यान रूपातीत है। (भा.पा./टी./86/236 पर उद्धृत) पदस्थ, पिंडस्थ व रूपस्थ में अर्हंत सर्वज्ञ ध्येय होते हैं। नोट‒उपरोक्त चार भेदों में पिंडस्थ ध्यान तो अर्हंत भगवान् की शरीराकृति का विचार करता है, पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों व मन्त्रों का अनेक प्रकार से विचार करता है, रूपस्थ ध्यान निज आत्मा का पुरुषाकाररूप से विचार करता है और रूपातीत ध्यान विचार व चिन्तवन से अतीत मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूप से ज्ञान का भवन है (देखें उन उनके लक्षण व विशेष ) तहां पहिले तीन ध्यान तो धर्मध्यान में गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प होने से शुक्लध्यान रूप है (देखें शुक्लध्यान ) इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यान का विषय बहुत व्यापक है।
- बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान का लक्षण
ह.पु./56/36-38 लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदत:। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता।36। जम्भाजृम्भाक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता। निभृतात्मव्रतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीर्तितम् ।37। दशधाऽऽध्यात्मिकं धर्म्यमपायविचयादिकम् ।...।38।=बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से धर्म्यध्यान का लक्षण दो प्रकार का है। शास्त्र के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग रखना, अंगड़ाई जमुहाई छींक डकार और श्वासोच्छवास में मन्दता होना, शरीर को निश्चल रखना तथा आत्मा को व्रतों से युक्त करना, यह धर्म्यध्यान का बाह्य लक्षण है। और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।
चा.सा./172/3 धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् । तत्र परानुमेयं बाह्यं सूत्रार्थगवेषणं दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणवदनकायपरिस्पन्दवाग्व्यापारं जृम्भज्रम्भोदारक्षवयुप्राणपातोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम्, तदृशविधम्‒।=बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का है। जिसे अन्य लोग भी अनुमान से जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते हैं। सूत्रों के अर्थ की गवेषणा (विचार व मनन), व्रतों को दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ पैर मुंह काय का परिस्पन्दन और वचनव्यापार का बन्द करना, जभाई, जंभाई के उद्गार प्रगट करना, छींकना तथा प्राण-अपान का उद्रेक आदि सब क्रियाओं का त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे केवल अपना आत्मा ही जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।
- धर्मध्यान सामान्य का लक्षण
- धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश
- धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश
प्र.सा./ता.वृ./196/262/9 अथ ध्यानसंतान: कथ्यते‒यत्रान्तर्मुहूर्त्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्ते तत्त्वचिन्ता, पुनरप्यन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानम् । पुनरपि तत: चिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्तेऽन्तमुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते।=ध्यान की सन्तान बताते हैं‒जहां अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्त्वचिन्ता होती है। पुन: अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, पुन: तत्त्वचिन्ता होती है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान की भांति अन्तर्मुहूर्त में परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यान की सन्तान कहते हैं। (चा.सा./203/2)।
- धर्मध्यान में सम्भव भाव व लेश्याएं
ध.13/5,4,26/53/76 होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय पउमसुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ।53। =धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र मन्द आदि भेदों को लिये हुए, क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। (म.पु./21/156)।
चा.सा./203 सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम् ...परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावम् ।=सर्व ही प्रकार के धर्मध्यान पीत पद्म व शुक्ललेश्या के बल से होता हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होने से क्षायोपशमिक हैं।(म.पु./21/156-157)
ज्ञा./41/14 धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहूर्तकी। क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती।14। =इस धर्मध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक है और लेश्या सदा शुक्ल ही रहती है। (यहां धर्मध्यान के अन्तिम पाये से अभिप्राय है)।
- वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टि को सम्भव नहीं
न.च.वृ./179 झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे नियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छियं किच्चा।=जो प्रमाण व नय के द्वारा वस्तु का निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यान की भावना के द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता। ऐसा नियम है।
ज्ञा./6/4 ‘रत्नत्रयमनासाद्य य: साक्षाद्धयातुमिच्छति। खपुष्पै: कुरुते मूढ: स वन्ध्यासुतशेखरम् /4।
ज्ञा./4/18,30 दुर्दृशामपि न ध्यानसिद्धि: स्वप्नेऽपि जायते। गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छयो ।18। ध्यानतन्त्रे निषेध्यन्ते नैते मिथ्यादृश: परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशया:/30। =जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रय को प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाश के फूलों से वन्ध्यापुत्र के लिए सेहरा बनाना चाहता है।4। दृष्टि की विकलता से वस्तुसमूह को अपनी इच्छानुसार ग्रहण करने वाले मिथ्यादृष्टियों के ध्यान की सिद्धि स्वप्न में भी नहीं होती है।18। सिद्धान्त में ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियों के ही नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के प्रतिकूल हैं तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते हैं, उनके भी ध्यान का निषेध किया जाता है, क्योंकि उनके ध्यान की सिद्धि नहीं होती/30।
पं.ध./उ./209 नोपलब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादेशस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात् ।209। =संसारी जीवों के मैं सुखी दु:खी इत्यादि रूप से सुख-दु:ख के स्वाद का अनुभव होने के कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षा का (स्वरूपसंवेदन का) संस्कार नहीं होता है।
- गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यान का स्वामित्व
स.सि./9/36/450/5 धर्म्यध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति।
स.सि./9/37/453/6 श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्यं श्रेण्यो शुक्ले इति व्याख्याते। =- धर्मध्यान चार प्रकार का जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवों के होता है। (रा.वा./9/36/13/632/18); (ज्ञा./28/28)। =
- श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं। (रा.वा./9/37/2/633/3)।
ध.13/5,4,26/74/10 असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदपमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद-सुहुमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणावएसादो। = - असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक व उपशामक सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेव का उपदेश है। (इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवों के होता है और शुक्लध्यान उपशान्त या क्षीणकषाय जीवों के) (स.सि./9/37/453/4); (रा.वा./9/37/2/632/32)।
- धर्मध्यान के स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएं
- मिथ्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है
रा.वा./हिं/1/36/747 प्रश्न—मिथ्यादृष्टि अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनि की दया का अभिप्रायकरि तथा भगवान् की सामान्य भक्ति करि धर्मबुद्धितै चित्तकूं एकाग्रकरि चिन्तवन करै है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाहीं? उत्तर—इहां मोक्षमार्ग का प्रकरण है। तातै जिस ध्यान तै कर्म की निर्जरा होय सो ही यहां गिणिये है। सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्म की निर्जरा होय नाहीं। मिथ्यादृष्टि के शुभध्यान शुभबन्ध ही का कारण है। अनादि तै कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभकर्म बान्धे हैं, परन्तु निर्जरा बिना मोक्षमार्ग नाहीं। तातै मिथ्यादृष्टि का ध्यान मोक्षमार्ग में सराह्य नाहीं। (र.क.श्रा./पं.सदासुखदास/पृ.316)।
म.पु./21/155 का भाषाकारकृत भावार्थ‒धर्मध्यान को धारण करने के लिए कम से कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए। मन्दकषायी मिथ्यादृष्टि जीवों के जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते हैं।
- प्रमत्तजनों को ध्यान कैसे सम्भव है
रा.वा./9/36/13/632/17 कश्चिदाह‒धर्म्यमप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति; तन्न; किं कारणम् । पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसङ्गात् । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयत-प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् ।=प्रश्न—धर्मध्यान तो अप्रमत्तसंयतों के ही होता है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से पहले के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेध प्राप्त होता है। परन्तु सम्यक्त्व के प्रभाव से असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतजनों में भी धर्मध्यान होना इष्ट है।
- कषाय रहित जीवों में ही ध्यान मानना चाहिए
रा.वा./9/36/14/632/21 कश्चिदाह-उपशान्तक्षीणकषाययोश्च धर्म्यध्यानं भवति न पूर्वेषामेवेति; तन्न; किं कारणम् । शुक्लभावप्रसङ्गात् । उपशान्तक्षीणकषाययोर्हि शुक्लध्यानमिष्यते तस्याभाव: प्रसज्येत। =प्रश्न—उपशान्त व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में धर्म्यध्यान होता, इससे पहिले गुणस्थानों में बिलकुल नहीं होता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से शुक्लध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। उपशान्त व क्षीण कषायगुणस्थान में शुक्लध्यान होना इष्ट है।
- मिथ्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है
- धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश
- धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अन्तर
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्ता में अन्तर
भ.आ./मू./1710/1543 (देखें धर्मध्यान - 1.1.2)‒धर्मध्यान आधेय है और अनुप्रेक्षा उसका आधार है। अर्थात् धर्मध्यान करते समय अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन किया जाता है। (भ.आ./मू./1714/1545)।
ध.13/5,4,26/गा.12/64 जं थिरमज्झवसाणं तं ज्झाणं जं चलंतयं चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता।12। =जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है।12। (म.पु./21/9)। (देखें शुक्लध्यान - 1.4)।
रा.वा./9/36/12/632/14 स्यादेतत्-अनुप्रेक्षा अपि धर्मध्यानेऽन्तर्भवन्तीति पृथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न; किं कारणम् । ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात् । अनित्यादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् । =प्रश्न—अनुप्रेक्षाओं का भी ध्यान में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अत: उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ध्यान व अनुप्रेक्षा ये दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प है। जब अनित्यादि विषयों में बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है और जब उनमें एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वे ध्यान कहलाती हैं।
ज्ञा./25/16 एकाग्रचिन्तानिरोधो यस्तद्धयानभावनापरा। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्झैरभ्युपगम्यते।16। =ज्ञान का एक ज्ञेय में निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भावना है, जिसे विज्ञजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता भी कहते हैं।
भा.पा.टी./78/229/1 एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्तरौद्रधर्मापेक्षया तु मतिश्चञ्चला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानम् ।=किसी एक इष्ट वस्तु में मति का निश्चल होना ध्यान है। आर्त, रौद्र और धर्मध्यान की अपेक्षा अर्थात् इन तीनों ध्यानों में मति चंचल रहती है उसे वास्तव में अशुभ या शुभ भावना कहना चाहिए। अनेक नययुक्त अर्थ का पुन:-पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन श्रुतज्ञान के पदों की आलोचना कहलाता है, ध्यान नहीं।
- अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय धर्मध्यान में गर्भित समझना चाहिए
म.पु./21/142 तदपायप्रतिकारचिन्तोपायानुचिन्तनम् । अत्रैवान्तर्गतं ध्येयं अनुप्रेक्षादिलक्षणम् ।142। =अथवा उन अपायों (दु:खों) के दूर करने की चिन्ता से उन्हें दूर करने वाले अनेक उपायों का चिन्तवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदि का चिन्तवन करना इसी अपायविचय नाम के धर्मध्यान में शामिल समझना चाहिए।
- ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर
ध.13/5,4,27/88/3 टि्ठयस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउसग्गो णाम। णेदं ज्झाणस्संतो णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचित्तस्स वि काओस्सग्गुववत्तीदो। एवं तवोकम्मं परूविदं।=स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करने वाले साधु का कषायों के साथ शरीर का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का तप:कर्म है। इसका ध्यान में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्ग की उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तप:कर्म का कथन समाप्त हुआ।
- माला जपना आदि ध्यान नहीं
रा.वा./9/27/24/627/10 स्यान्मतं मात्रकालपरिगणनं ध्यानमिति: तन्न; किं कारणम् । ध्यानातिक्रमात् । मात्राभिर्यदि कालगणनं क्रियते ध्यानमेव न स्याद्वैयग्रयात् । =प्रश्न—समयमात्राओं का गिनना ध्यान है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से ध्यान के लक्षण का अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि, इसमें एकाग्रता नहीं है। गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है।
- धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद
- विषय व स्थिरता आदि की अपेक्षा दोनों समान हैं
बा.अनु./64 सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं।64।=- शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए। (देखें मोक्षमार्ग - 2.4); (त.अनु./180)
ध.13/5,4,26/74/1 जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडिभेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो। ...खज्जंतो वि...फाडिज्जंतो वि ...कवलिज्जंतो वि...लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम। एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहाज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒सच्चं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो।=प्रश्न— - यदि समस्त समयसद्भाव (संस्थानविचय) धर्म्यध्यान का ही विषय है तो शुक्लध्यान का कोई विषय शेष नहीं रहता ? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। (चा.सा./210/3) प्रश्न—यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में अभेद प्राप्त होता है ? क्योंकि (व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, (करोतों द्वारा) फाड़ा गया भी, (दावानल द्वारा) ग्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) लालित किया गया भी, जो जिस अवस्था में ध्येय से चलायमान नहीं होता, वह जीव की अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकार का यह भाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? उत्तर—यह बात सत्य है, कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है।
म.पु./21/131 साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोर्धर्म्यशुक्लयो:। =विषय की अपेक्षा तो अभी तक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थों का (देखें धर्मध्यान सामान्य व विशेष के लक्षण ) वर्णन किया गया है, वे सब धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानों के साधारण ध्येय हैं। (त.अनु./180)
- शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए। (देखें मोक्षमार्ग - 2.4); (त.अनु./180)
- स्वामी, स्थितिकाल, फल व विशुद्धि की अपेक्षा भेद है
ध.13/5,4,26/75/8 तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकालचिरकालावट्ठाणेण य दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेआ।
ध.13/5,4,26/80/13 अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं। मोहसव्वुसमो पुण धम्मज्झाणफलं; सकासायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमएं मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो। तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीय विणासो पुण धम्मज्झाणफलं; सुहुसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो।=- सकषाय और अकषायरूप स्वामी के भेद से तथा‒ (चा.सा./210/4)।
- अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति रहने के कारण इन दोनों ध्यानों का भेद सिद्ध है। (चा.सा./210/4)।
- अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना हो जाने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्व-वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान का फल है, परन्तु मोहनीय का सर्वोपशमन करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, कषायसहित धर्मध्यानी के सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है।
- तीन घातिकर्मों का समूलविनाश करना एकवितर्क अवीचार (शुक्ल) ध्यान का फल है, परन्तु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है।
म.पु./21/131 विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् ।= - इन दोनों में स्वामी व विशुद्धि के भेद से परस्पर विशेषता समझनी चाहिए।(त.अनु./180)
देखें धर्मध्यान - 4.5.3 - धर्मध्यान शुक्लध्यान का कारण है।
देखें समयसार ‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्य समयसार है।
- विषय व स्थिरता आदि की अपेक्षा दोनों समान हैं
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्ता में अन्तर
- धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उनका समन्वय
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य
ध.13/5,4,26/56/77 होंति सुहासव संवर णिज्जरामरसुहाई विउलाइं। ज्झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स।=उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवों का सुख ये शुभानुबन्धी विपुल फल होते हैं।
ज्ञा./41/16 अथावसाने स्वतनुं विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसङ्गा:। ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थसिद्धौ च भवन्ति भव्या:। =जो भव्य पुरुष इस पर्याय के अन्त समय में समस्त परिग्रहों को छोड़कर धर्मध्यान से अपना शरीर छोड़ते हैं, वे पुरुष पुण्य के स्थानरूप ऐसे ग्रैवेयक व अनुत्तर विमानों में तथा सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं।
- धर्मध्यान का फल संवर निर्जरा व कर्मक्षय
ध.13/5,4,26/26,57/68,77 णवकम्माणादाणं, पोराणवि णिज्जरासुहादाणं। चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ।26। जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति। ज्झाणप्पवणोवहया तह कम्मघणा विलिज्जंति।57।=चारित्र भावना के बल से जो ध्यान में लीन है, उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभकर्मों का आस्रव होता है।26। (ध.13/5/4/26/56/77-देखें ऊपरवाला शीर्षक ) अथवा जैसे मेघपटल पवन से ताड़ित होकर क्षणमात्र में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही (धर्म्य) ध्यानरूपी पवन से उपहत्त होकर कर्ममेघ भी विलीन हो जाते हैं।57।
(देखें आगे धर्म्यध्यान - 6.3 में ति.प.), (स्वभावसंसक्त मुनि का ध्यान निर्जरा का हेतु है।)
(देखें पीछे धर्म्यध्यान/3/5/2) ; (सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्त में कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीय कर्म का क्षय धर्म्यध्यान का फल है।)
ज्ञा.22/12 ध्यानशुद्धिं, मन:शुद्धि: करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्त्यपि नि:शङ्कं कर्मजालानि देहिनाम् ।15।=मन की शुद्धता केवल ध्यान की शुद्धता को ही नहीं करती है, किन्तु जीवों के कर्मजाल को भी नि:सन्देह काटती है।
पं.का./ता.वृ./173/253/25 पर उद्धृत‒एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरे।=एकाग्र चिन्तवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और संवर निर्जरा उसका फल है।
- धर्म्यध्यान का फल मोक्ष
त.सू./9/29 परे मोक्षहेतू।29।=अन्त के दो ध्यान (धर्म्य व शुक्लध्यान) मोक्ष के हेतु हैं।
चा.सा./172/2 संसारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं प्रशस्तध्यानं। तद्द्विविधं, धर्म्यं शुक्लं चेति।=संसारलता के मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है। वह दो प्रकार का है‒धर्म्य व शुक्ल।
- एक धर्मध्यान से मोहनीय के उपशम व क्षय दोनों होने का समन्वय
ध.13/5,4,26/81/3 मोहणीयस्स उवसमो जदि धम्मज्झाणफलो तो ण क्खदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।=प्रश्न‒मोहनीय कर्म का उपशम करना यदि धर्म्यध्यान का फल हो तो इसी से मोहनीय का क्षय नहीं हो सकता। क्योंकि एक कारण से दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि धर्म्यध्यान अनेक प्रकार का है। इसलिए उससे अनेक प्रकार के कार्यों की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।
- धर्म्यध्यान से पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय
- साक्षात् नहीं परम्परा मोक्ष का कारण है
ज्ञा./3/32 शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति परं पदम् ।32।=मनुष्य शुभध्यान के फल से उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी को स्वर्ग में भोगते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। और भी देखें आगे धर्म्यध्यान - 5.2।
- अचरम शरीरियों को स्वर्ग और चरम शरीरियों को मोक्षप्रदायक है
ध.13/5,4,26/77/1 किंफलमेदं धम्मज्झाणं। अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जरा फलं च। खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च। अतएव धर्म्यादनपेतं धर्म्यध्यानमिति सिद्धम् ।=प्रश्न‒इस धर्म्यध्यान का क्या फल है ? उत्तर‒अक्षपक जीवों को (या अचरम शरीरियों को) देवपर्याय सम्बन्धी विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी में कर्मों की निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा होना और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है। अतएव जो धर्म से अनपेत है व धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है।
त.अनु./197,224 ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये। तद्धयानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये।197। ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुट्यन्मोहस्य योगिन:। चरमाङ्गस्य मुक्ति: स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ।224।=अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूप से ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी ध्याता के मुक्ति का और उससे भिन्न अन्य ध्याता के भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस ध्यान से विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया है।197। ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह को नाश करने वाले चरमशरीरी योगी के तो उस भव में मुक्ति होती है और चरम शरीरी नहीं है उनके क्रम से मुक्ति होती है।224।
- क्योंकि मोक्ष का साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है
ज्ञा./42/3 अथ धर्म्यमतिक्रान्त: शुद्धिं चात्यन्तिकीं श्रित:। ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।3।=इस धर्म्यध्यान के अनन्तर धर्म्यध्यान से अतिक्रान्त होकर अत्यन्त शुद्धता को प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यान के ध्यावने का प्रारम्भ करता है। विशेष देखें धर्मध्यान - 6.6। (पं0का/150)‒(दे0’समयसार’)‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्यसमयसार।
- साक्षात् नहीं परम्परा मोक्ष का कारण है
- परपदार्थों के चिन्तवन से कर्मक्षय कैसे सम्भव है
ध.13/5,4,26/70/4 कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो। ण तेसिं रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो।=प्रश्न‒जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं, अर्थात् अतिशय रहित होते हैं, ऐसी हालत में वे कर्मक्षय के कर्ता कैसे हो सकते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि वे रागादि के निरोध करने में निमित्तकारण हैं, इसलिए उन्हें कर्मक्षय का निमित्त मानने में विरोध नहीं आता। (अर्थात् उन जीवादि नौ पदार्थों के स्वभाव का चिन्तवन करने से साम्यभाव जागृत होता है।)
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य
- पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता
प.प्र./टी./1/97/92/4 यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीं अस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति। परिहारमाहयादृशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति तादृशमिदानीं नास्तीति।=प्रश्न‒यदि अन्तर्मुहूर्तमात्र परमात्मध्यान से मोक्ष होता है तो ध्यान करने वाले भी हमें आज वह क्यों नहीं होता ? उत्तर‒जिस प्रकार का शुक्लध्यान प्रथम संहनन वाले जीवों को होता है वैसा अब नहीं होता।
- यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन
द्र.सं./टी./57/233/11 अथ मतं‒मोक्षार्थं ध्यानं क्रियते, न चाद्यकाले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन किं प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति। कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति। येऽपि भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा पश्चान्मोक्षं गता:। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति।=प्रश्न‒मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकाल में होता नहीं है, इस कारण ध्यान के करने से क्या प्रयोजन? उत्तर‒इस पंचमकाल में भी परम्परा से मोक्ष है। प्रश्न‒सो कैसे है? उत्तर‒ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्मा की भावना के बल से संसार की स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाता है। वहां से मनुष्यभव में आकर रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष को चला जाता है। जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र तथा पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्ष को गये हैं, उन्होंने भी पूर्वभव में अभेदरत्नत्रय की भावना से अपने संसार की स्थिति को घटा लिया था। इस कारण उसी भव में मोक्ष गये। उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी देखो/7/12)।
- पंचमकाल में अध्यात्मध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव
न.च.वृ./343 मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि।343।=सराग की भांति वीतरागता की सामग्री जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकाल में भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी देखें अनुभव - 5/2)।
नि.सा./ता.वृ./154/क.264 असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननयजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।264।=असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभय का नाश करने वाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धा को अंगीकृत करते हैं।
- परन्तु इस काल में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है
मो.पा./मू./76 भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।76।=भरतक्षेत्र में दु:षमकाल अर्थात् पंचमकाल में भी आत्मस्वभावस्थित साधु को धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। (र.सा./60); (त.अनु./82)।
ज्ञा./4/37 दु:षमत्वादयं काल: कार्यसिद्धेर्न साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्धयानं निषिध्यते।37।=कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि इस दु:षमा पंचमकाल में ध्यान की योग्यता किसी के भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यान की सिद्धि कैसे हो सकती है ?)।
- पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है
त.अनु./83 अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:। धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।83। =यहां (भरतक्षेत्र में) इस (पंचम) काल में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परन्तु श्रेणी से पूर्ववर्तियों के धर्मध्यान बतलाते हैं। (द्र.सं./टी./57/231/11) (पं.का./ता.वृ./146/211/17)।
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता
- निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
- <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्मध्यान का लक्षण
मो.पा./मू./84 पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गा। जो ज्झायदि सो जोई पावहरो भवदि णिद्दंदो’।84।=जो योगी शुद्धज्ञानदर्शन समग्र पुरुषाकार आत्मा को ध्याता है वह निर्द्वन्द तथा पापों का विनाश करने वाला होता है।
द्र.सं./मू./55-56 जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूण य एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।55। मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं।56।=ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है।55। हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनों की प्रवृत्ति को रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में स्थिर होवे। आत्मा में लीन होना परमध्यान है।56।
का.अ./मू./482 वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो। जं चिंतदि साणं दे तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं।482।=सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है।
त.अनु./श्लो.नं./भावार्थ‒निश्चयादधुना स्वात्मालम्बनं तन्निरुच्यते।141। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्तत:। तत्रैकाग्य्रं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत् ।144।=अब निश्चयनय से स्वात्मलम्बन स्वरूपध्यान का निरूपण करते हैं।141। श्रुत के द्वारा आत्मा में आत्मसंस्कार को आरोपित करके, तथा उसमें ही एकाग्रता को प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे।144। शरीर और मैं अन्य-अन्य हैं।149। मैं सदा सत्, चित्, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत् अमूर्तिक हूं।153। दृष्ट जगत् न इष्ट है न द्विष्ट किन्तु उपेक्ष्य है।157। इस प्रकार अपने आत्मा को अन्य शरीरादिक से भिन्न करके अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे।159। यह चिन्ताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्मा के स्वसंवेदनरूप है।160। (ज्ञा./31/20-37)।
द्र.टी./48/204/11 में अनन्त ज्ञानादि का धारक तथा अनन्त सुखरूप हूं, इत्यादि भावना अन्तरंग धर्मध्यान है। (पं.का./ता.वृ./150-151/218/1)।
- व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण
त.अनु./141 व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् ।=इस प्रकार व्यवहार नय से पराश्रित धर्मध्यान का लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचय आदि भेद सब व्यवहार ध्यान में गर्भित हैं।)
- निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं
प्र.सा./193-194 देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाधसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा।193। जो एवं जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् ।194।=शरीर, धन, सुख, दु:ख अथवा शत्रु, मित्रजन से सब ही जीव के कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है।193। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रन्थि का क्षय करता है।
ति.प./9/21,40 दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।21। ज्झाणे जदि णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स। ज्झाणं होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा वा।40।=शुद्ध स्वभाव से सहित साधु का दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जरा का कारण नहीं होता।21। जिस जीव के ध्यान में यदि ज्ञान से निज आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्च्छा ही जानना चाहिए।40। (त.अनु./169)
आराधनासार/83 यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिन्ता वा भावनाथवा।83।=जब तक ध्यानयुक्त योगी को किसी प्रकार का भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिन्ता है या भावना है। (और भी देखें धर्म्यध्यान - 3.1)
ज्ञा./28/19 अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।19।=जिस समय मुनि का चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूप के सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यान की सिद्धि निर्विघ्न होती है।
प्र.सा./त.प्र./194 अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते: शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् ।=इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है।(प्र.सा./त.प्र./196), (नि.सा./ता.वृ./119)
प्र.सा./त.प्र./243 यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति।...तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते।=जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ बन्ध को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त नहीं होता।
नि.सा./ता.वृ./144, य: खलु...व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान, ...किन्तु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमातत्त्वविश्रान्तरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त:।=जो वास्तव में व्यावहारिक धर्मध्यान में परिणत रहता है, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को, निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यान को तथा शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।
- व्यवहार ध्यान कथंचित् अज्ञान है
स.सा./आ./191 एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ताप्रबंधात्मकविशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते।= इस कथन से कर्मबन्ध में चिन्ताप्रबन्धस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यान से जिनकी बुद्धि अन्धी है, उनको समझाया है।
- व्यवहार ध्यान निश्चय का साधन है
द्र.स./टी./49/209/4 निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् ।=निश्चयध्यान का परम्परा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है। (द्र.स./टी./53/221/2)
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपने का समन्वय
ध.13/5,4,26/22/67 विसमं हि समारोहइ दव्वालंवणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तहा झाणवरं समारुहइ।22।=जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी (सीढ़ी) आदि द्रव्य के आलम्बन से विषमभूमि पर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलम्बन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है। (भ.आ./वि./1877/1681/12)
ज्ञा./33/2,4 अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा।4।=आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अविद्या की वासना से विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त स्थिरता को नहीं धारण करता है।2। तब लक्ष्य के सम्बन्ध से अलक्ष्य को अर्थात् इन्द्रियगोचर के सम्बन्ध से इन्द्रियातीत पदार्थों को तथा स्थूल के आलम्बन से सूक्ष्म को चिन्तवन करता है। इस प्रकार सालम्ब ध्यान से निरालम्ब के साथ तन्मय हो जाता है।4। (और भी देखें चारित्र - 7.10)
पं.का./ता.वृ./152/220/9 अयमत्र भावार्थ:‒प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयाभिलाषरूपध्यानवञ्चनार्थं च परम्परया मुक्तिकारणं पञ्चपरमेष्ठयादिपरद्रव्यं ध्येयं भवति, दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयं।...इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्य:।=प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यान से बचने के लिए परम्परा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं। तथा दृढतर ध्यान के अभ्यास द्वारा चित्त के स्थिर हो जाने पर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयों के द्वारा साध्यसाधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। (द्र.स./टी./55/223/12)( (प.प्र./टी./2/33/154/2)
पं.का./ता.वृ./150/217/14 यदायं जीव:...सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरङ्गसहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेणक्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा तदनन्तरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्यातिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय...मोहक्षपणं कृत्वा...भावमोक्षं प्राप्नोति।=अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान के बहिरंग सहकारीपने से ‘मैं अनन्त ज्ञानादि स्वरूप हूं’ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगम कथित क्रम से असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यन्त चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनन्तर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में प्रकृति व पुरुष (कर्म व जीव) सम्बन्धी निर्मल विवेक ज्यातिरूप प्रथम शुक्लध्यान का अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है, और अन्त में भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में निश्चय शब्द की आंशिक प्रवृत्ति
द्र.सं./टी./55-56/224/6 निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोग लक्षणविवक्षितैदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:।55। ‘मा चिट्ठह...।’ इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टध्यानं भवति।=’निश्चय’ शब्द से अभ्यास करने वाले पुरुष की अपेक्षा से व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है उस पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेशशुद्ध निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगे के सूत्र में कहा है, कि मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोककर आत्मा के सुखरूप में तन्मय हो जाना निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष देखें अनुभव - 5/7)
- निरीहभाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है
पं.ध./उ./861-865 अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदय:। आत्मपरोभयाकारभावश्च प्रदीपवत् ।761। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तांश्च धर्मादीनवगच्छति।862। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि। पर स्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि।863। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुत:। उपयुक्त: परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वत:।864। तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया। मासीदसि महाप्राज्ञ: सार्थमर्थमवैहि भो:।865। =निजमहिमा से ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभय का युगपत् अवभासक है।861। वह किसी प्रकार का भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्यों को भी जानता है।862। अत: केवलनिजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चय से वह उभयविषयोपयोगी है।863। उस सम्यग्दृष्टि को स्व में उपयुक्त होने से कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) और पर में उपयुक्त होने से कुछ अपकर्ष (बन्ध) होता हो, ऐसा नहीं है।864। इसलिए परपदार्थों के साथ अभिन्नता देखकर तुम दु:खी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थ को समझो। और भी देखें ध्यान - 4.5 (अर्हन्त का ध्यान वास्तव में तद्गूणपूर्ण आत्मा का ध्यान ही है)।
- <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्मध्यान का लक्षण
पुराणकोष से
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वस्तु के स्वरूप/स्वभाव ला चिन्तन । मूलत: इसके चार भेद हैं― आज्ञाविचय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । हरिवंशपुराण कार के अनुसार इसके दस भेद हैं― अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाक-विचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । धर्मध्याता सम्यग्दृष्टि होता है । वह ज्ञान, वैराग्य, धैर्य और क्षमा से युक्त होता है । अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता रहता है । उसके पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है । यह ध्यान अप्रमत्त-अवस्था का अवलम्बन कर अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थित रहता है । उक्त लेश्याओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त यह ध्यान चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है । अशुभ कर्मों की
निर्जरा, स्वर्ग और परम्परा से अपवर्ग की प्राप्ति इसके फल है । इस ध्यान का ध्येय अर्हन्तदेव होता है । इसके लिए जहाँ न अधिक गर्मी हो और न शीत हो ऐसे गुफा, नदी-तट, पर्वत, उद्यान और वन ऐसे
स्थान अपेक्षित है । महापुराण 20. 208-210, 226-228,21.131-134, 155-163, 36.161 हरिवंशपुराण 56.36 -52, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.51-52