वैराग्य: Difference between revisions
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देखें [[ सामायिक#1 | सामायिक - 1 ]]। (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।) <br /> | देखें [[ सामायिक#1 | सामायिक - 1 ]]। (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/12 <span class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।12। </span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/7/12 <span class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।12। </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/12/350/5 <span class="SanskritText"> जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ ।</span> = <span class="HindiText">संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।12। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है (देखें [[ लोक#2 | लोक - 2]]) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा<strong>–</strong>यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । ( राजवार्तिक/7/12/4/539/15 ) । <br /> | सर्वार्थसिद्धि/7/12/350/5 <span class="SanskritText"> जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ ।</span> = <span class="HindiText">संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।12। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है (देखें [[ लोक#2 | लोक - 2]]) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा<strong>–</strong>यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । ( राजवार्तिक/7/12/4/539/15 ) । <br /> |
Revision as of 14:28, 20 July 2020
- वैराग्य
राजवार्तिक/7/12/4/539/13 विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् = (विषयों से विरक्त होना विराग है । देखें विराग ) विराग का भाव या कर्म वैराग्य है ।
द्र.स./टी./35/112/8 पर उद्धृत-संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । = संसार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ।
देखें सामायिक - 1 । (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।)
- वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र/7/12 जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।12।
सर्वार्थसिद्धि/7/12/350/5 जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ । = संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।12। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है (देखें लोक - 2) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा–यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । ( राजवार्तिक/7/12/4/539/15 ) ।
देखें अनुप्रेक्षा –(अनित्य अशरण आदि 12 भावनाओं का पुनः पुनः चिन्तवन करना वैराग्य के अर्थ होता है । इसीलिए वे 12 वैराग्य भावना कहलाती हैं) ।
- सम्यग्दृष्टी विरागी है–देखें राग - 6 ।