दर्शन उपयोग 6: Difference between revisions
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Revision as of 16:24, 19 August 2020
- श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शन संबंधी
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति
धवला 1/1,1,133/384/5 श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधात् । यदि बहिरंगार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । =प्रश्न–श्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ? उत्तर–1. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानपूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान को दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/2 ) (और भी देखें आगे दर्शन - 6.4) 2. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थ को सामान्य रूप से विषय करने वाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान संबंधी दर्शन भी होता। परंतु ऐसा नहीं (अर्थात् श्रुत ज्ञान का व्यापार बाह्य पदार्थ है अंतरंग नहीं, जबकि दर्शन का विषय अंतरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञान के पहिले दर्शन नहीं होता।
धवला 3/1,2,161/457/1 जदि सरूवसंवेदणं दंसणं तो एदेसि पि दंसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । 3.प्रश्न–यदिस्वरूपसंवेदन दर्शन है, तो इन दोनों (श्रुत व मन:पर्यय) ज्ञानों के भी दर्शन के अस्तित्व की प्राप्ति होती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना गया है। (यहाँ वह कार्य दर्शन की अपेक्षा मतिज्ञान से सिद्ध होता है।)
- विभंग दर्शन के अस्तित्व का कथंचित् विधि निषेध
देखें सत् प्ररूपणा (विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन नहीं होता)।
धवला 1/1,1,134/385/1 विभंगदर्शनं किमिति पृथग् नोपदिष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शनेऽंतर्भावात् । =विभंग दर्शन का पृथक्रूप से उपदेश क्यों नहीं किया ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शन में अंतर्भाव हो जाता है। ( धवला 13/5,5,85/356 )।
धवला 13/5,5,85/356/4 तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् – अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्’ इति। =ऐसा ही सिद्धिविनिश्चय में भी कहा है, –‘अवधिज्ञान व विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है’।
- मन:पर्ययदर्शन के अभाव में युक्ति
राजवार्तिक/6/10 वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वकं तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत्; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन:पर्ययदर्शनावरणमस्ति। दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशात्, तद्भावात् तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन:पर्ययदर्शनोपयोगाभाव:। (18/518/32)। मन:पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत् न स्वमुखेन वर्तते। कथं तर्हि। परकीयमन:प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थांश्चितयति न तु पश्यति तथा मन:पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यंतौ वेत्ति न पश्यति। वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणै व प्रतिपद्यते, तत: सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन:पर्ययदर्शनाभाव: (19/519/3)। =प्रश्न–जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक होना चाहिए ? उत्तर–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारण का अभाव है। मन:पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणों का उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभाव के कारण उसके क्षयोपशम का भी अभाव है, और उसके अभाव में तन्निमित्तक मन:पर्ययदर्शनोपयोग का भी अभाव है। 2. मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किंतु परकीय मनप्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार चिंतन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। वह वर्तमान भी मन को विषयविशेषाकार से जानता है, अत: सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होने से मन:पर्यय दर्शन नहीं बनता।
धवला 1/1,1,134/385/2 मन:पर्ययदर्शनं तर्हि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । =प्रश्न–मन:पर्यय दर्शन को भिन्नरूप से कहना चाहिए ? उत्तर–3. नहीं, क्योंकि, मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मन:पर्यय दर्शन नहीं होता। ( धवला 3/1,2,161/456/10 ); ( धवला 13/5,5,85/356/5 ); ( धवला 6/1,1-9,14/29/2 ); ( धवला 9/4,1,6/53/3 )।
देखें ऊपर श्रुतदर्शन संबंधी –(उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसंवेदन को दर्शन कहते हैं, परंतु यहाँ उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।) - मतिज्ञान ही श्रुत व मन:पर्यय का दर्शन है
द्रव्यसंग्रह टीका/44/188/6 श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानजनकं यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम्, तदपि दर्शनपूर्वकत्वात्तदुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति। =यहाँ श्रुतज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो अवग्रह और मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला ईहारूप मतिज्ञान कहा है; वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए।
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति