यज्ञ: Difference between revisions
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सिद्धांतकोष से
- यज्ञ
देखें पूजा - 1.1(याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजाविधि के पर्यायवाचक शब्द हैं)।
महापुराण/67/194 यज्ञशब्दाभिधेयोरुदानपूजास्वरूपकात्। धर्मात्पुण्यं समावर्ज्यं तत्पाकाद्दिविजेश्वराः।194। = यज्ञ शब्द का वाच्यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है, तत्स्वरूप धर्म से ही लोग पुण्य संचय के फल से देवेंद्रादि होते हैं।194।
- यज्ञ के भेद व भेदों के लक्षण
महापुराण/67/200-212/258 आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते।200। वयोऽग्नयः समुद्दिष्टाः.....। तेषु क्षमाविरागत्वानंशनाहुतिभिर्वने।202। स्थित्वर्षियति मुन्यस्तशरणाः परमद्विजाः। इत्यात्मयज्ञमिष्टर्थामष्टमीमवनीं ययुः।203। तथा तीर्थगणाधीशशेषकेवलिसद्वपुः।संस्कारमहिताग्नींद्रमुकुटोत्थाग्निषु त्रिषु।204। परमात्मपदं प्राप्तान्निजान् पितृपितामहान्। उद्दिश्य भाक्तिकाः पुष्पगंधाक्षतफलादिभिः।205। आर्षोपासकवेदोक्तमंत्रोच्चारणपूर्वकम्। दानादिसत्क्रियोपेता गेहाश्रमतपस्विनः।206। यागोऽयमृषिमिः प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रयः। आद्यो मोक्षाय साक्षात्स्यात्परंपरया परः।210। एवं परंपरामतदेव यज्ञविधिष्विह।...।211। मुनिसुव्रततीर्थेशसंताने सगरहिृषः। महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञोऽन्वशादमुम्।212। = आर्ष और अनार्ष के भेद से यज्ञ दो प्रकार का माना जाता है।200। क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि (देखें अग्नि - 1) इन तीन अग्नियों में क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देने वाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वन में निवास करते हैं, वे आत्म-यज्ञ कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टम पृथिवी मोक्षस्थान को प्राप्त होते हैं। (202-203)। इसके सिवाय तीर्थंकर, गणधर तथा अन्य केवलियों के उत्तम शरीर के संस्कार से उत्पन्न हुई तीन अग्नियों में (देखें मोक्ष - 5.1) अत्यंत भक्त उत्तम क्रियाओं के करने वाले तपस्वी गृहस्थ परमात्मपद को प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देश्यकर वेदमंत्र के उच्चारण पूर्वक अष्ट द्रव्य की आहुति देना आर्ष यज्ञ है। (204-207)। यह यज्ञ मुनि और गृहस्थ के आश्रय के भेद से दो प्रकार का निरूपण किया गया, इनमें से पहला मोक्ष का कारण और दूसरा परंपरा मोक्ष का कारण है।210। इस प्रकार यह देवयज्ञ की विधि परंपरा से चली आयी है।211। किंतु श्री मुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकर के तीर्थ में सगर राजा से द्वेष रखने वाला एक महाकाल नाम का असुर हुआ था, उसी अज्ञानी ने इस हिंसायज्ञ का उपदेश दिया है।212।
पुराणकोष से
(1) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.127
(2) दान देना, देव और ऋषियों की पूजा करना । याग क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह इसके अपर नाम है । आर्ष और अनार्ष के भेद से इसके दो भेद होते हैं । इनमें तीर्थंकर, गणधर और केवलियों के शरीर से उत्पन्न त्रिविध अग्नियों में परमात्मपद को प्राप्त अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देश्य कर मंत्र के उच्चारणपूर्वक अष्टद्रव्य की आहुति देना आर्षयज्ञ है । यह मुनि और गृहस्थ के भेद से दो प्रकार का होता है । इनमें प्रथम साक्षात् और दूसरा परंपरा से मोक्ष का कारण है । क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि में क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियां देना आत्मयज्ञ है । महापुराण 67.192-193, 200-207, 210
(3) तीर्थंकर वृषभदेव के छब्बीसवें गणधर । हरिवंशपुराण 12.59