साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम: Difference between revisions
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<span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5, 6/582-586/469 </span><span class="PrakritText">जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अणंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण अणंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो णिगोदो होदि ।582। विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।583। तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।584। एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।585। तदो एक्को वा दो वा तिण्णि वा समए अंतरं काऊण णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।586। </span><br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5, 6/582-586/469 </span><span class="PrakritText">जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अणंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण अणंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो णिगोदो होदि ।582। विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।583। तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।584। एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।585। तदो एक्को वा दो वा तिण्णि वा समए अंतरं काऊण णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।586। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5, 6/ 127/233/5 </span><span class="PrakritText">एवं सांतरणिरं तरकमेण ताव उप्पज्जंति जाव उप्पत्तीए संभवो अत्थि ।</span> = <span class="HindiText">प्रथम समय में जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनंत जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनंतानंत जीवों को ग्रहण कर एक शरीर होता है, तथा असंख्यात लोक प्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।582। दूसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।583। तीसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।584। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक निरंतर असंख्यातगुणे हीन श्रेणी रूप से निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।585। उसके बाद एक, दो और तीन समय से लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का अंतर करके आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक निरंतर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।586। इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक उत्पत्ति संभव है । | <span class="GRef"> धवला 14/5, 6/ 127/233/5 </span><span class="PrakritText">एवं सांतरणिरं तरकमेण ताव उप्पज्जंति जाव उप्पत्तीए संभवो अत्थि ।</span> = <span class="HindiText">प्रथम समय में जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनंत जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनंतानंत जीवों को ग्रहण कर एक शरीर होता है, तथा असंख्यात लोक प्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।582। दूसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।583। तीसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।584। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक निरंतर असंख्यातगुणे हीन श्रेणी रूप से निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।585। उसके बाद एक, दो और तीन समय से लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का अंतर करके आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक निरंतर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।586। इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक उत्पत्ति संभव है । <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/5 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/9 </span><span class="SanskritText">एवं सांतरनिरंतरक्रमेण तावदुत्पद्यंते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो निर्वृत्तयपर्याप्तकालोऽवशिष्यते ।20 पुनरपि तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेंद्रियोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति ।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक प्रथम समय में उत्पन्न हुआ साधारण जीव का जघन्य निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल अवशेष रहे । फिर पीछे उन प्रथमादि समय में उपजे सर्वसाधारण जीव के आहार, शरीर, इंद्रिय श्वासोच्छ्वास की संपूर्णता अपने-अपने योग्य काल में होती है । <br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/9 </span><span class="SanskritText">एवं सांतरनिरंतरक्रमेण तावदुत्पद्यंते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो निर्वृत्तयपर्याप्तकालोऽवशिष्यते ।20 पुनरपि तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेंद्रियोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति ।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक प्रथम समय में उत्पन्न हुआ साधारण जीव का जघन्य निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल अवशेष रहे । फिर पीछे उन प्रथमादि समय में उपजे सर्वसाधारण जीव के आहार, शरीर, इंद्रिय श्वासोच्छ्वास की संपूर्णता अपने-अपने योग्य काल में होती है । <br /> | ||
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Revision as of 22:36, 17 November 2023
- साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती हैं
- निगोद शरीर में जीवों की मृत्यु क्रम व अक्रम दोनों प्रकार से होती है
- आगे-पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है
- एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह चलता रहता है
- बादर व सूक्ष्म निगोद शरीरों में पर्याप्त व अपर्याप्त जीवों के अवस्थान संबंधी नियम
- अनेक जीवों का एक शरीर होने में हेतु
- अनेक जीवों का एक आहार होने में हेतु
- साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती हैं
षट्खंडागम 14/5, 6/582-586/469 जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अणंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण अणंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो णिगोदो होदि ।582। विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।583। तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।584। एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।585। तदो एक्को वा दो वा तिण्णि वा समए अंतरं काऊण णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।586।
धवला 14/5, 6/ 127/233/5 एवं सांतरणिरं तरकमेण ताव उप्पज्जंति जाव उप्पत्तीए संभवो अत्थि । = प्रथम समय में जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनंत जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनंतानंत जीवों को ग्रहण कर एक शरीर होता है, तथा असंख्यात लोक प्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।582। दूसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।583। तीसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।584। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक निरंतर असंख्यातगुणे हीन श्रेणी रूप से निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।585। उसके बाद एक, दो और तीन समय से लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का अंतर करके आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक निरंतर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।586। इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक उत्पत्ति संभव है । ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/5 ) ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/9 एवं सांतरनिरंतरक्रमेण तावदुत्पद्यंते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो निर्वृत्तयपर्याप्तकालोऽवशिष्यते ।20 पुनरपि तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेंद्रियोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति । = इस प्रकार सांतर निरंतर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक प्रथम समय में उत्पन्न हुआ साधारण जीव का जघन्य निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल अवशेष रहे । फिर पीछे उन प्रथमादि समय में उपजे सर्वसाधारण जीव के आहार, शरीर, इंद्रिय श्वासोच्छ्वास की संपूर्णता अपने-अपने योग्य काल में होती है ।
- निगोद शरीर में जीवों की मृत्यु क्रम व अक्रम दोनों प्रकार से होती है
षट्खंडागम 14/5, 6/ सूत्र 631/485 जो णिगोदो जहण्णएण वक्कमणकालेण वक्कमंतो जहण्णएण पबंधणकालेण पबद्धो तेसिं बादरणिगोदाणं तथा पबद्धाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ।631।
धवला 14/5, 6, 631/486/9 एक्कम्हि सरीरे उप्पज्जमाणबादरणिगोदा किमक्कमेण उप्पज्जंति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्पज्जंति तो अक्कमेणेव मरणेण वि होदव्वं, एक्कम्हि मरंते संते अण्णेसिं मरणाभावे सहारणत्तविरोहादो । अह जइ कमेण असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए उप्पज्जंति तो मरणं पि जवमज्झागारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विणासप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे-असंखेज्जगुणहीणाए कमेण वि उप्पज्जंति अक्कमेन वि अणंता जीवा एगसयए उप्पज्जंति । ण च फिट्टदि ।........एदीय गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साहारणत्तविणासदो । तदो एगसरीरुप्पण्णाणं मरणक्मेण णिग्गमो होदि त्ति एदं पि ण विरुज्झदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सव्वे समाणाउवा चेव होंति त्ति णियमो णत्थि जेण अक्कमे तेसिं मरणं होज्ज । तम्हा एगसरीरट्ठिदाणं पि मरणजवमज्झं समिजालवमज्झं च होदि त्ति घेत्तव्वं । = जो निगोद जघन्य उत्पत्ति काल के द्वारा बंध को प्राप्त हुआ है उन बादर निगोदों का उस प्रकार से बंध होने पर मरण के क्रमानुसार निर्गम होता है ।631। प्रश्न - एक शरीर में उत्पन्न होने वाले बादर निगोद जीव क्या अक्रम से उत्पन्न होते हैं या क्रम से? यदि अक्रम से उत्पन्न होते हैं तो अक्रम से ही मरण होना चाहिए, क्योंकि एक के मारने पर दूसरों का मरण न होने पर उनके साधारण होने में विरोध आता है । यदि क्रम से असंख्यातगुणी हीन श्रेणी रूप से उत्पन्न होते हैं, तो मरण भी यवमध्य के आकार रूप से नहीं हो सकता है, क्योंकि साधारणपने के विनाश का प्रसंग आता है । उत्तर - असंख्यातगुणी हीन श्रेणि के क्रम से भी उत्पन्न होते हैं, और अक्रम से भी अनंतजीव एक समय में उत्पन्न होते हैं और साधारणपना भी नष्ट नहीं है । (साधारण आहार व उच्छ्वास का ग्रहण साधारण जीवों का लक्षण है - देखें वनस्पति - 4.2) । इस प्रकार गाथा द्वारा कहे गये लक्षणों के अभाव में ही साधारणपने का विनाश होता है । इस प्रकार यह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है और एक शरीर में उत्पन्न हुए सब समान आयु वाले ही होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रम से उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीर में स्थित हुए निगोदों का मरण यवमध्य और शामिला यवमध्य है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
- आगे-पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है
धवला 14/5, 6, 124/229/2 एक्कम्हि सरीरे जे पढमं चेव उप्पण्णा अणंता जीवा जे च पच्छा उप्पण्णा ते सव्वे समगं वक्कंता णाम । कथं भिण्णकालमुप्पण्णाणं जीवाणं समगत्तं जुज्जदे । ण, एगसरीरसंबंधेण तेसिं सव्वेसिं पि समपत्तं पडिविरोहाभावादो ।... एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथं तेसिं पढमं चेव उप्पत्ती होदि । ण, पढमसमए उप्पण्णाणं जीवाणमणुग्गहणफलस्स पच्छा उप्पण्णजीवेसु वि उवलंभादो । तम्हा एगणिगोदसरीरे उप्पज्जमाणसव्वजीवाणं पढमसमए चेव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे ।
धवला 14/5, 6, 122/227/4 एदस्स भावत्थो-सव्वजहण्णेण पज्जत्तिकालेण जदि पुव्वुप्पण्णणिगोदजीवा सरीरपज्जत्ति-इंदियपज्जत्तिआहार-आणपाणपज्जतीहि पज्जत्तयदा होंति तम्हि सरीरे तेहि समुप्पण्णमंदजोगिणिगोदजीवा वि तेणेव कालेण एदाओ पज्जत्तीओ समाणेंति, अण्णहा आहारगहणादोणं साहारणत्तणुववत्तीदां । जदि दीहकालेन पढममुप्पण्णजीवा चत्तरि पज्जत्तीओ समाणेंति तो तम्हि सरीरे पच्छा उप्पण्णजीवा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणेंति त्ति भणिदं होदि ।.... सरीरिंदियापज्जत्तीणं साहारणत्तं किण्ण परूविदं । ण, आहारणावणणिद्देसो देसामासिओ त्ति तेसिं पि एत्थेव अंतव्भावदो । =- एक शरीर में जो पहले उत्पन्न हुए अनंत जीव हैं और जो बाद में उत्पन्न हुए अनंत जीव हैं वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते हैं । प्रश्न - भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवों का एक साथपना कैसे बन सकता है । उत्तर - नहीं, क्योंकि एक शरीर के संबंध से उन जीवों के भी एक साथपना होने में कोई विरोध नहीं आता है ।.... प्रश्न - एक शरीर में बाद में उत्पन्न हुए जीव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है । उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न हुए जीवों के अनुग्रहण का फल बाद में उत्पन्न हुए जीवों में भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोद शरीर में उत्पन्न होने वाले सब जीवों की प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है ।
- इसका तात्पर्य यह है कि - सबसे जघन्य पर्याप्ति काल के द्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इंद्रियपर्याप्ति, आहारपर्याप्ति और उच्छ्वानिःश्वास पर्याप्ति से पर्याप्त होते हैं, तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मंद योग वाले जीव भी उसी काल के द्वारा इन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, अन्यथा आहार ग्रहण आदि का साधारणपना नहीं बन सकता है । यदि दीर्घ काल के द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियों को प्राप्त करते हैं तो उसी शरीर में पीछे से उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।... प्रश्न - शरीर पर्याप्ति और इंद्रिय पर्याप्ति ये सबके साधारण हैं ऐसा (सूत्र में) क्यों नहीं कहा । उत्तर - नहीं, क्योंकि गाथा सूत्र में ‘आहार’ और आनपान का ग्रहण देशामर्शक है, इसलिए उनका भी इन्हीं में अंतर्भाव हो जाता है ।
- एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह चलता रहता है
धवला 14/5, 6, 583/470/5 एगसमएण जम्हि समए अणंतजीवा उप्पज्जंति तम्हि चेव समए सरीरस्स पुलवियाए च उप्पत्ती होदि, तेहि विणा तेसिमुप्पत्तिविरोहादो । कत्थ वि पुलवियाए पुव्वं पि उप्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारत्तदो । = जिस समय में अनंत जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय में शरीर की और पुलविकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि इनके बिना अनंत जीवों की उत्पत्ति होने में विरोध है । कहीं पर पुलविकी पहले भी उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह अनेक शरीरों का आधार है ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/431/16 यन्निगोदशरीरे यदा एको जीवः स्वस्थितिक्षयवशेन म्रियते तदा तन्निगोदशरीरे यदा एको जीवःप्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिकाः अनंतानंता जीवाः सहैव म्रियंते । यन्निगोदशरीरे यदा एको जीवः प्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिकाः अनंतानंता जीवाः सहैव प्रक्रामंति । एवमुत्पत्तिमरणयोः समकालत्वमपि साधारणलक्षणं प्रदर्शितं । द्वितीयादिसमयोत्पंनानामनंतानंतजीवानामपि स्वस्थितिक्षये सहैव मरणं ज्ञातव्यं एवमेकनिगोदशरीरे प्रतिसमयमनंतानंतजीवास्तावत्सहैव म्रियंते सहैवोत्पद्यंतेयावदसंख्यातसागरोपमकोटिमात्रो असंख्यातलोकमात्रसमयप्रमिता उत्कृष्टनिगोदकायस्थितिः परिसमाप्यते । = एक निगोद शरीर में जब एक-एक जीव अपनी आयु की स्थिति के पूर्ण होने पर मरता है तब जिनकी आयु उस निगोद शरीर में समान हो वे सब युगपत् मरते हैं । और जिस काल में एक जीव उस निगोद शरीर में जन्म लेता है, तब उस ही के साथ समान स्थिति के धारक अनंतानंत जीव उत्पन्न होते हैं । ऐसे उपजने मरने के समकालपने को भी साधारण जीव का लक्षण कहा है (देखें वनस्पति - 4.2) और द्वितीयादि समयों में उत्पन्न हुए अनंतानंत जीवों का भी अपनी आयु का नाश होने पर साथ ही मरण होता है । ऐसे एक निगोद शरीर में अनंतानंत जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ मरते हैं और निगोद शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है । इस निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । सो असंख्यात लोकमात्र समय प्रमाण जानना । जब तक वह स्थिति भवतः पूर्ण नहीं होती, तब तक जीवों का मरना उत्पन्न होना रहा करता है ।
- बादर व सूक्ष्म निगोद शरीरों में पर्याप्त व अपर्याप्त जीवों के अवस्थान संबंधी नियम
षट्खंडागम 14/5, 6/ सूत्र 629-630 सव्वो बादरणिगोदो पज्जत्ते वा वामिस्सी वा ।629। सु मणिगोदवग्गणाए पुण णियमा वा मिस्सो ।630।
धवला 14/5, 6, 629/483-484/10 खंधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण एदं सुत्तं परूविदं ण सरीरे, एगम्मि सरीरे पज्जत्तपज्जत्तजीवाणमवट्ठाणविरंहादो ।... सव्वो बादरणिगोदो पज्जत्ते वा होदि । कुदो । बादरणिगोदपज्जत्तेहि सह खंधंडरावासपुलवियासु उप्पण्णबादरणिगोदअणंतापज्जत्तएसु अंतोमुहुत्तेण कालेण णिस्सेसं मुदेसु सुद्धाणं बादरणिगोदपज्जत्तणं चेव तत्थावट्ठाणदंसणादो ।... एत्ते हेट्ठा पुण बादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खंधंडरावासपुलवियासु बादरबणगोदपज्जत्तपज्जत्तणं अणंताणं सहावट्ठाणदंसणादो ।
धवला 14/5, 6, 630/484/9 सुहुमणिगोदवग्गणाए पज्जत्तपज्जत्त च जेण सव्वकालं संभवंति तेण सा णियमा पज्जत्तपज्जत्तजीवेहिं वामिस्सा होदि । किमट्ठं सव्वकालं संभवदि । सुहुमणिगोदपज्जत्तपज्जत्तणं वक्कमणपदेसकालणियमाभावादो । एत्थ पदेसेएत्तियं चेव कालमुप्पत्ती परदो ण उप्पज्जंति त्ति जेण णियमो णत्थि तेण सा सव्वकाले वामिस्सा त्ति भणिदं होदि । = सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्र रूप है ।629। परंतु सूक्ष्म निगोद वर्गणा में नियम से मिश्र रूप हैं ।630। स्कंध अंडर आवास और पुलवियों का आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है, शरीरों का आश्रय लेकर नहीं कहा गया है, क्योंकि एक शरीर में पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का अवस्थान होने में विरोध है ।...सब बादर निगोद जीव पर्याप्त होते हैं, क्योंकि बादर निगोद पर्याप्तकों के साथ स्कंध, अंडर, आवास और पुलवियों में उत्पन्न हुए अनंत बादर निगोद अपर्याप्त जीवों के अंतर्मुहूर्त काल के भीतर सबके मर जाने पर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकों का ही अवस्थान देखा जाता है ।.... परंतु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योंकि स्कंध, अंडर, आवास और पुलवियों में अनंत बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का एक साथ अवस्थान देखा जाता है । यतः सूक्ष्म निगोद में पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्वदा संभव है, इसलिए वह नियम से पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों से मिश्र रूप होती है । प्रश्न - उसमें सर्वकाल किसलिए संभव है । उत्तर - क्योंकि सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति के प्रदेश और काल का कोई नियम नहीं है । इस प्रदेश में इतने ही काल तक उत्पत्ति होती है, आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकार का चूँकि नियम नहीं है, इसलिए वह सूक्ष्म निगोद वर्गणा मिश्ररूप होती है ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/193/432/3 अत्र विशेषोऽस्ति स च कः । एकबादरनिगोदशरीरे सूक्ष्मनिगोदशरीरे वा अनंतानंताः साधारणजीवाः केवलपर्याप्ता एवोत्पद्यंते पुनरपि एकशरीरे केवलमपर्याप्ता एवोत्पद्यंते न च मिश्रा उत्पद्यंते तेषां समानकर्मोदयनियमात् । = इतना विशेष है कि एक बादर निगोद शरीर में अथवा सूक्ष्म निगोद शरीर में अनंतानंत साधारण जीव केवल पर्याप्त ही उत्पन्न होते हैं, वहाँ अपर्याप्त नहीं उपजते । और कोई शरीर में अपर्याप्त ही उपजते हैं वहाँ पर्याप्त नहीं उपजते । एक ही शरीर में पर्याप्त अपर्याप्त दोनों युगपत् नहीं उत्पन्न होते । क्योंकि उन जीवों के समान कर्म के उदय का नियम है ।
- अनेक जीवों का एक शरीर होने में हेतु
धवला 1/1, 1, 41/269/8 प्रतिनियतजीवप्रतिबद्धैः पुद्गलविपाकित्वादाहारवर्गणास्कंधानां कायाकारपरिणमन-हेतुभिरौदारिककर्मस्कंधैः कथं भिन्नजीवफलदातृभिरेकं शरीरं निष्पाद्यते विरोधादिति चेन्न, पुद्गलानामेकदेशावस्थिता-नामेकदेशावस्थितमिथासमवेतजीवसमवेतानां तत्स्थाशेषप्राणिसंबंध्येकशरीरेनिष्पादनं न विरुद्धं साधारणकारणतः समुत्पन्नकार्यस्य साधारणत्वाविरोधात् । कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । = प्रश्न - जीवों से अलग-अलग बँधे हुए, पुद्गल विपाकी होने से आहर-वर्गणा के स्कंधों को शरीर के आकार रूप से परिणमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न फल देने वाले औदारिक कर्म स्कंधों के द्वारा अनेक जीवों के एक-एक शरीर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है । उत्तर - नहीं, क्योंकि जो एक देश में अवस्थित हैं और जो एक देश में अवस्थित तथा परस्पर संबद्ध जीवों के साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहाँ पर स्थित संपूर्ण जीव संबंधी एक शरीर को उत्पन्न करते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि साधारण कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह बात संपूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है ।
- अनेक जीवों का एक आहार होने में हेतु
धवला 14/5, 6, 122/227/9 कथमेगेण जीवेण गहिदो आहारो तक्काले तत्थ अणंताणं जीवाणं जायदे । ण, तेणाहारेण जणिसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पणपढमसमए चेव उवलंभादो । जदि एवं तो आहारो साहारणो होदि आहारजणिदसत्ती साहारणे त्ति वत्तव्यं । न एस दोसो, कज्जे कारणोवयारेण आहारजणिदसत्तीए वि आहारववएससिद्धीओ । = प्रश्न - एक जीव के द्वारा ग्रहण किया गया आहार उस काल में वहाँ अनंत जीवों का कैसे हो सकता है? उतर - नहीं, क्योंकि उस आहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है । प्रश्न - यदि ऐसा है तो ‘आहार साधारण है इसके स्थान में आहार जनित शक्ति साधारण है’ ऐसा कहना चाहिए । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण का उपचार कर लेने से आहार जनित शक्ति के भी आहार संज्ञा सिद्ध होती है ।
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती हैं