जल गालन: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> रूप रस परिणत ही ठण्डा जल प्रासुक होता है</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> रूप रस परिणत ही ठण्डा जल प्रासुक होता है</strong> <br /> | ||
देखें - [[ आहार#II.4.4 | आहार / II / ४ / ४ ]]/३ तिल, चावल, तुष या चना आदि का धोया हुआ जल अथवा गरम करके ठण्डा हो गया जल या हरड़ आदि से अपरिणत जल, उसे लेने से साधु को अपरिणत दोष लगता है।<br /> | |||
भ.आ.हि.पं.दौलतराम/२५०/पृ.१२६ या पृ.११० तिलनि के प्रक्षालिन का जल, तथा चावल धोवने का जल तथा जो जल तप्त होय करि ठण्डा हो गया होय तथा चणा के धोवने का जल तथा तुष धोवने का जल तथा हरड़ का चूर्ण जामें मिला होय, ऐसा जो आपका रस गन्धकूं नहीं पलटया, सो अपरिणत दोष सहित है। अर जो वर्ण रस गन्ध इत्यादि जामें पलटि गया होय सो परिणत है, साधु के लेने योग्य है।<br /> | भ.आ.हि.पं.दौलतराम/२५०/पृ.१२६ या पृ.११० तिलनि के प्रक्षालिन का जल, तथा चावल धोवने का जल तथा जो जल तप्त होय करि ठण्डा हो गया होय तथा चणा के धोवने का जल तथा तुष धोवने का जल तथा हरड़ का चूर्ण जामें मिला होय, ऐसा जो आपका रस गन्धकूं नहीं पलटया, सो अपरिणत दोष सहित है। अर जो वर्ण रस गन्ध इत्यादि जामें पलटि गया होय सो परिणत है, साधु के लेने योग्य है।<br /> | ||
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रत्नमाला/६३/६४ <span class="SanskritGatha">पाषाणोत्स्फरितं तोयं घटीयन्त्रेण ताडितम् । सद्य: संतप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते।६३। देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहस्थिनाम् । अप्रासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यद:।६४। </span>=<span class="HindiText">पाषाण को फोड़कर निकला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का, अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वापियों का गरम-गरम ताजा जल प्रासुक है। इसके सिवाय अन्य सब जल, चाहे महातीर्थ गंगा आदि का क्यों न हो, अप्रासुक है।६३। यह जल देवर्षियों को तो शौच के लिए और गृहस्थों को स्नान के लिए वर्जनीय नहीं है।६४।<br /> | रत्नमाला/६३/६४ <span class="SanskritGatha">पाषाणोत्स्फरितं तोयं घटीयन्त्रेण ताडितम् । सद्य: संतप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते।६३। देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहस्थिनाम् । अप्रासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यद:।६४। </span>=<span class="HindiText">पाषाण को फोड़कर निकला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का, अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वापियों का गरम-गरम ताजा जल प्रासुक है। इसके सिवाय अन्य सब जल, चाहे महातीर्थ गंगा आदि का क्यों न हो, अप्रासुक है।६३। यह जल देवर्षियों को तो शौच के लिए और गृहस्थों को स्नान के लिए वर्जनीय नहीं है।६४।<br /> | ||
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ला.सं./२/२३ <span class="SanskritGatha">गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायाहारेत्स न चान्यथा।२३।</span> =<span class="HindiText">घी, तेल, दूध, पानी आदि पतले पदार्थों को बिना छाने कभी काम में नहीं लाना चाहिए।<br /> | ला.सं./२/२३ <span class="SanskritGatha">गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायाहारेत्स न चान्यथा।२३।</span> =<span class="HindiText">घी, तेल, दूध, पानी आदि पतले पदार्थों को बिना छाने कभी काम में नहीं लाना चाहिए।<br /> | ||
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श्लो.वा./२/१/२/१२/३५/२८/भाषाकार पं.माणिकचन्द। =दो घड़ी पीछे जल को पुन: छानना चाहिए।<br /> | श्लो.वा./२/१/२/१२/३५/२८/भाषाकार पं.माणिकचन्द। =दो घड़ी पीछे जल को पुन: छानना चाहिए।<br /> | ||
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सा.ध./३/१६<span class="SanskritText"> अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तद्व्रतेऽर्च्य:।१६। </span><span class="HindiText">=छानने के पश्चात् शेष बचे हुए जल को जिस स्थान का जल है उसमें न डालकर अन्य जलाशय में छोड़ना (या वैसे ही नाली में बहा देना) जलगालनव्रत में योग्य नहीं।<br /> | सा.ध./३/१६<span class="SanskritText"> अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तद्व्रतेऽर्च्य:।१६। </span><span class="HindiText">=छानने के पश्चात् शेष बचे हुए जल को जिस स्थान का जल है उसमें न डालकर अन्य जलाशय में छोड़ना (या वैसे ही नाली में बहा देना) जलगालनव्रत में योग्य नहीं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> जल गालन का कारण जल में सूक्ष्म जीवों का सद्भाव</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> जल गालन का कारण जल में सूक्ष्म जीवों का सद्भाव</strong><br /> | ||
व्रत.विधान संग्रह ३१ पर उद्धृत</span><span class="SanskritText">–एक बिन्दूद्भवा जीवा: पारावत्समा यदि। भूत्वोच्चरन्ति चेज्जम्बूद्वीपोऽपि पूर्यते च तै:। </span><span class="HindiText">=जल की एक | व्रत.विधान संग्रह ३१ पर उद्धृत</span><span class="SanskritText">–एक बिन्दूद्भवा जीवा: पारावत्समा यदि। भूत्वोच्चरन्ति चेज्जम्बूद्वीपोऽपि पूर्यते च तै:। </span><span class="HindiText">=जल की एक बूँद में जितने जीव हैं वे कबूतर के बराबर होकर यदि उड़े तो उनके द्वारा यह जम्बूद्वीप लबालब भर जाये।<br /> | ||
<strong>जगदीशचन्द्र बोस–</strong>(एक | <strong>जगदीशचन्द्र बोस–</strong>(एक बूँद जल में आधुनिक विज्ञान के आधार पर उन्होंने ३९४५० बैक्टेरिया जीवों की सिद्धि की है। इनके अतिरिक्त जिन जलकायिक जीवों के शरीररूप वह बिन्दू है वे उनकी दृष्टि का विषय ही नहीं है। उनका प्रमाण अंगुल असं.आगम में कहा गया है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> जल गालन का प्रयोजन राग व हिंसा का वर्जन</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> जल गालन का प्रयोजन राग व हिंसा का वर्जन</strong></span><br /> |
Revision as of 20:20, 28 February 2015
जैन मार्ग में जल को छानकर ही प्रयोग में लाना, यह एक बड़ा गौरवशाली धर्म समझा जाता है। जल की शुद्धि, अशुद्धि सम्बन्धी नियम इस प्रकार में निर्दिष्ट हैं।
- प्रासुक जल निर्देश
- वर्षा का जल प्रासुक है
भा.पा./टी./१११/२६१/२१ वर्षाकाले तरुमूले तिष्ठ। वृक्षपर्णोपरि पतित्वा यज्जलं यत्युपरि पतति तस्य प्रासुकत्वाद्विराधाप्कायिकानां जीवानां न भवति। =यतिजन वर्षाऋतु में वर्षायोग धारण करते हैं। वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। उस समय वृक्ष के पत्तों पर पड़ा हुआ वर्षा का जो जल यति के शरीर पर पड़ता है उससे उसको अप्कायिक जीवों की विराधना का दोष नहीं लगता, क्योंकि वह जल प्रासुक होता है।
- रूप रस परिणत ही ठण्डा जल प्रासुक होता है
देखें - आहार / II / ४ / ४ /३ तिल, चावल, तुष या चना आदि का धोया हुआ जल अथवा गरम करके ठण्डा हो गया जल या हरड़ आदि से अपरिणत जल, उसे लेने से साधु को अपरिणत दोष लगता है।
भ.आ.हि.पं.दौलतराम/२५०/पृ.१२६ या पृ.११० तिलनि के प्रक्षालिन का जल, तथा चावल धोवने का जल तथा जो जल तप्त होय करि ठण्डा हो गया होय तथा चणा के धोवने का जल तथा तुष धोवने का जल तथा हरड़ का चूर्ण जामें मिला होय, ऐसा जो आपका रस गन्धकूं नहीं पलटया, सो अपरिणत दोष सहित है। अर जो वर्ण रस गन्ध इत्यादि जामें पलटि गया होय सो परिणत है, साधु के लेने योग्य है।
- गर्म जल प्रासुक होता है– देखें - जल गालन / १ / ४ ।
- शौच व स्नान के लिए तो ताड़ित जल या बावड़ी का ताजा जल भी प्रासुक है
रत्नमाला/६३/६४ पाषाणोत्स्फरितं तोयं घटीयन्त्रेण ताडितम् । सद्य: संतप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते।६३। देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहस्थिनाम् । अप्रासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यद:।६४। =पाषाण को फोड़कर निकला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का, अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वापियों का गरम-गरम ताजा जल प्रासुक है। इसके सिवाय अन्य सब जल, चाहे महातीर्थ गंगा आदि का क्यों न हो, अप्रासुक है।६३। यह जल देवर्षियों को तो शौच के लिए और गृहस्थों को स्नान के लिए वर्जनीय नहीं है।६४।
- जल को प्रासुक करने की विधि व उसकी मर्यादा
व्रत विधान संग्रह/३१ पर उद्धृत रत्नमाला का श्लोक–मुहूर्तं गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरद्वयम् । उष्णोदमहोरात्रमगालितमिवोच्यते। =छना हुआ जल दो घड़ी तक, हरड़े आदि से प्रासुक किया गया (देखो ऊपर नं.२) दो पहर या छह घण्टे तक तथा उबला हुआ जल २४ घण्टे तक प्रासुक या पीने योग्य रहता है, और उसके पश्चात् बिना छने के समान हो जाते हैं।
- वर्षा का जल प्रासुक है
- जल का वर्ण धवल ही होता है– देखें - लेश्या / ३ ।
- जल गालन निर्देश
- सभी तरल पदार्थ छानकर प्रयोग में लाने चाहिए
ला.सं./२/२३ गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायाहारेत्स न चान्यथा।२३। =घी, तेल, दूध, पानी आदि पतले पदार्थों को बिना छाने कभी काम में नहीं लाना चाहिए।
- दो घड़ी पीछे पुन: छानने चाहिए
सा.ध./३/१६ मुहूर्तयुग्मोर्ध्वमगालनम् ।=छने हुए पानी को भी दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी पीछे छाना हुआ नहीं मानना चाहिए।
श्लो.वा./२/१/२/१२/३५/२८/भाषाकार पं.माणिकचन्द। =दो घड़ी पीछे जल को पुन: छानना चाहिए।
- जल छानकर उसकी जिवानी करने की विधि
सा.ध./३/१६ अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तद्व्रतेऽर्च्य:।१६। =छानने के पश्चात् शेष बचे हुए जल को जिस स्थान का जल है उसमें न डालकर अन्य जलाशय में छोड़ना (या वैसे ही नाली में बहा देना) जलगालनव्रत में योग्य नहीं।
- छलने का प्रमाण व स्वरूप
सा.ध./३/१६ वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो ...स तद्व्रतेऽर्च्य:। छोटे, छेदवाले या पुराने कपड़े से छानना योग्य नहीं।
ला.सं./२/२३ गालितं दृढ़वस्त्रेण। =घी, तेल, जल आदि को दृढ़ वस्त्र में से छानना चाहिए।
व्रत.विधानसंग्रह/३० पर उद्धृत-षट्त्रिंशदङ्गुलं वस्त्रं चतुर्विंशतिविस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ।=३६ अंगुल लम्बे और २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके उसमें से जल छानना चाहिए।
क्रिया कोष/पं.दौलतराम/२४४ रंगे वस्त्र न छाने नीरा। पहिरे वस्त्र न गाले वीरा।२४४। =रंगे हुए वा पहने हुए वस्त्र में से जल नहीं छानना चाहिए।
- जल गालन के अतिचार
सा.ध./३/१६ मुहूर्तयुग्मोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा। अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपाने। =छने हुए पानी को भी दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी पीछे नहीं छानना, तथा छोटे, छेदवाले, मैले, और पुराने कपड़े से छानना; और छानने के पश्चात् बचे हुए पानी को किसी दूसरे जलाशय में डालना। ये जलगालन व्रत के अतिचार हैं, दार्शनिक श्रावक को ये नहीं लगाने चाहिए।
- जल गालन का कारण जल में सूक्ष्म जीवों का सद्भाव
व्रत.विधान संग्रह ३१ पर उद्धृत–एक बिन्दूद्भवा जीवा: पारावत्समा यदि। भूत्वोच्चरन्ति चेज्जम्बूद्वीपोऽपि पूर्यते च तै:। =जल की एक बूँद में जितने जीव हैं वे कबूतर के बराबर होकर यदि उड़े तो उनके द्वारा यह जम्बूद्वीप लबालब भर जाये।
जगदीशचन्द्र बोस–(एक बूँद जल में आधुनिक विज्ञान के आधार पर उन्होंने ३९४५० बैक्टेरिया जीवों की सिद्धि की है। इनके अतिरिक्त जिन जलकायिक जीवों के शरीररूप वह बिन्दू है वे उनकी दृष्टि का विषय ही नहीं है। उनका प्रमाण अंगुल असं.आगम में कहा गया है)।
- जल गालन का प्रयोजन राग व हिंसा का वर्जन
सा.ध./२/१४ रागजीववधापायं भूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् । रात्रिभक्तं तथा युंज्यान्न पानीयमगालितम् ।१४। =धर्मात्मा पुरुषों को मद्यादि की तरह, राग तथा जीवहिंसा से बचने के लिए रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। जो दोष रात्रि भोजन में लगते हैं वही दोष अगालित पेय पदार्थों में भी लगते हैं, यह जानकर बिना छने जल, दूध, घी, तेल आदि पेय पदार्थों का भी उनको त्याग करना चाहिए। और भी देखें - रात्रि भोजन।
- सभी तरल पदार्थ छानकर प्रयोग में लाने चाहिए