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<p> असातावेदनीय कर्म का आस्रव । यह ऐसा विलाप हैं जिसे सुनकर श्रोता भी दयार्द्र हो जाता है । हरिवंशपुराण 58.93</p> | <p> असातावेदनीय कर्म का आस्रव । यह ऐसा विलाप हैं जिसे सुनकर श्रोता भी दयार्द्र हो जाता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.93 </span></p> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
असातावेदनीय कर्म का आस्रव । यह ऐसा विलाप हैं जिसे सुनकर श्रोता भी दयार्द्र हो जाता है । हरिवंशपुराण 58.93