संयत सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<strong>संयत सामान्य निर्देश</strong></p> | <strong>संयत सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.1"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.1"> <strong>1. संयत सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,123/369/1 सम् सम्यक् सम्यग्दर्शनज्ञानानुसारेण यता: बहिरङ्गान्तरङ्गास्रवेभ्यो विरता: संयता:।</span>= | ||
<span class="HindiText">'सम्' उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है, इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यता:' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग आस्रवों से विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं।</span></p> | <span class="HindiText">'सम्' उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है, इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यता:' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग आस्रवों से विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ संयम#1 | संयम - 1 ]][व्रत समिति आदि 13 प्रकार के चारित्र का सम्यक्त्वयुक्त पालन करना संयम है। उस संयम को धारण करने वाला संयत है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ अनगार ]][श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति ये सब एकार्थवाची हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ व्रती ]][घर के प्रति जो निरुत्सक है, वह संयत है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ साधु#3.4 | साधु - 3.4 ]][कषाय हीनता का नाम चारित्र है और कषाय से असंयत होता है। इसलिए जिस व जितने काल में साधु कषायों का उपशमन करता है, उस व उतने काल में वह संयत होता है।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.2"> <strong>2. प्रमत्त संयत का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/14 वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ। सयलगुणसीलकलिओ महव्वई चित्तलायरणो।14।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष सकल मूलगुणों से और शील अर्थात् उत्तरगुणों से सहित है, अतएव महाव्रती, तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद से रहता है अतएव चित्रल आचरणी है, वह प्रमत्त संयत कहलाता है।14। (ध.1/1,1,15/गा.113/178); (गो.जी./मू./33/62); (इसका विवेचन | ||
देखें | देखें [[ आगे ]])</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/1/17/590/3 तन्मूलसाधनोपपादितोपजननं बाह्यसाधनसंनिधानाविर्भावमापद्यमानं प्राणेन्द्रियविषयभेदात् द्वितयीं वृत्तिमास्कन्तं संयमोपयोगमात्मसात्कुर्वन् पञ्चदशविधप्रमादवशात् किंचित्प्रस्खलितचारित्रपरिणाम: प्रमत्तसंयत इत्याख्यायते।</span> =<span class="HindiText">उस संयमलब्धि (देखें [[ लब्धि#5.1 | लब्धि - 5.1]]) रूप अभ्यंतर संयम परिणामों के अनुसार बाह्य साधनों के सन्निधान को स्वीकार करता हुआ प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम को पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के वश कहीं कभी चारित्र परिणामों से स्खलित होता रहता है, अत: प्रमत्त संयत कहलाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,14/175/10 प्रकर्षेण मत्ता: प्रमत्ता:, सं सम्यग् यता: विरता: संयता:। प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयता:।</span> =<span class="HindiText">प्रकर्ष से मत्त जीव को प्रमत्त कहते हैं, और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p> <span class="PrakritText">गो.जी./मू./32/61 संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो।32। | ||
</span>=<span class="HindiText">क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय, इनके उदय से उत्पन्न होने के कारण जिस संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्तविरत कहलाता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय, इनके उदय से उत्पन्न होने के कारण जिस संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्तविरत कहलाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p> <span class="SanskritText">द्र.सं./टी./13/34/6 स एव सदृष्टि:...पञ्चमहाव्रतेषु वर्तते यदा तदा दु:स्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति।</span>=<span class="HindiText">संयमासंयम को प्राप्त वही सम्यग्दृष्टि जब पंचमहाव्रतों में वर्तता है; तब वह दु:स्वप्नादि व्यक्त या अव्यक्त प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत होता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./33/63/4 प्रमत्तसंयत: चित्रलाचरण इत्युक्तम् । चित्रं प्रमादमिश्रितं लातीति चित्रलं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरण:। अथवा चित्रल: सारंग:, तद्वत् शवलितं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरण:। अथवा चित्तं लातीति चित्तलं, चित्तलं आचरणं यस्यासौ चित्तालाचरण:, इति विशेषव्युत्पत्तिरपि ज्ञातव्या।</span> =<span class="HindiText">प्रमत्त संयत को चित्रलाचरण कहा गया है। 'चित्रं' अर्थात् प्रमाद से मिश्रित, 'लाति' अर्थात् ग्रहण करता है उसे चित्रल कहते हैं। ऐसा चित्रल आचरण वाला चित्रलाचरण है। अथवा चित्रल नाम चीते का है, उसके समान चितकबरे आचरण वाला चित्रलाचरण है। अथवा 'चित्तं लाति' अर्थात् मन को प्रमादस्वरूप करे सो चित्तल, ऐसे चित्तल आचरणवाला चित्तलाचरण है। ऐसी विशेष निरुक्ति भी पाठान्तर की अपेक्षा जाननी चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.3"> <strong>3. अप्रमत्त संयत सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/16 णट्ठासेसपमाओ वयगुणसोलोलिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो।16।</span> =<span class="HindiText">जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित है, महाव्रत, मूलगुण और उत्तरगुणों की माला से मण्डित है, स्व और पर के ज्ञान से युक्त है और कषायों का अनुपशामक या अक्षपक होते हुए भी ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। (ध.1/1,1,15/गा.115/179), (गो.जी./मू./46/98)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/1/18/590/6 पूर्ववत् संयममास्कन्दन् पूर्वोक्तप्रमादविरहात् अविचलितसंयमवृत्ति: अप्रमत्तसंयत: समाख्यायते। | ||
</span>=<span class="HindiText">पूर्ववत् (देखें | </span>=<span class="HindiText">पूर्ववत् (देखें [[ प्रमत्तसंयत का लक्षण ]]) संयम को प्राप्त करके, प्रमाद का अभाव होने से अविचलित संयमी अप्रमत्त संयत कहलाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,15/178/7 प्रमत्तसंयता: पूर्वोक्तलक्षणा:, न प्रमत्तसंयता अप्रमत्तसंयता: पञ्चदशप्रमादरहितसंयता इति यावत् । | ||
</span>=<span class="HindiText">प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं (देखें | </span>=<span class="HindiText">प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं (देखें [[ शीर्षक सं#2 | शीर्षक सं - 2]])। जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता है उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। अर्थात् संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमत्तसंयत समझना चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p> <span class="PrakritText">गो.जी./मू./45/97 संजलणणोकसायाणुदयो मदो जदा तदा होदि। अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि।</span> =<span class="HindiText">जब क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्य आदि नोकषाय इनका मन्द उदय होता है, तब अप्रमत्तगुण प्राप्त हो जाने से वह अप्रमत्त संयत कहलाता है।45। (द्र.सं./टी./13/34/10)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.4"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.4"> <strong>4. स्वस्थान व सातिशय अप्रमत्त निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./45/97/8 स्वस्थानाप्रमत्त: सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूपं निरूपयति।</span> =<span class="HindiText">अप्रमत्त संयत के स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयत का स्वरूप कहते हैं। [मूल व उत्तर गुणों से मण्डित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमाद से रहित, कषायों का अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसंयत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है - गो.जी./मू./46 (देखें [[ शीर्षक नं#3 | शीर्षक नं - 3]])]।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p> <span class="PrakritText">ल.सा./मू./205/259 उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजयित्ता। अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य।205।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./220/273/7 चारित्रमोहोपशमने कर्त्तव्ये अध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण ...चेत्यष्टाधिकारा भवन्ति। तेष्वध:प्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्तसंयत:...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिथ्यादृष्टेर्भणितानि...।</span> =<span class="HindiText">उपशमचारित्र के सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थान में) अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अध:प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है।205। चारित्र मोह के उपशमन में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध:प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तसंयत है वह सातिशय अप्रमत्त कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.5"> <strong>5. दोनों गुणस्थानों का आरोहण व अवरोहण क्रम</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5.1"> | <p class="HindiText" id="1.5.1"> 1. अप्रमत्तपूर्वक ही प्रमत्त गुणस्थान होता है</p> | ||
<p class="PrakritText"> ध. | <p class="PrakritText"> ध.5/1,6,121/74/8 उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो पमत्तो जादो हेट्ठा पडिदूणंतरिदो सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो।...अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो। लद्धमंतरं।</p> | ||
<p class="PrakritText"> ध. | <p class="PrakritText"> ध.5/1,6,121/75/2 उवसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो...अंतरिदो...मणुस्सेसु अववण्णो...अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो। तदो पमत्तो अप्पमत्तो...।</p> | ||
<p class="PrakritText"> ध. | <p class="PrakritText"> ध.5/1,6,359/166/3 एक्को सेडीदो ओदरिय असंजदो जादो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय संजमासंजमं पडिवण्णो। तदो अप्पमत्तो पमत्तो होदूण असंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.5/1,6,363/167/3 एक्को सेडीदो ओदरिय संजदासंजदो जादो। अंतोमुहुत्तमच्छिय अप्पमत्तो पमत्तो असंजदो च होदूण संजदासंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं।</span> =<span class="HindiText">1. (कोई जीव) उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तसंयत को एक साथ प्राप्त हुआ, पश्चात् प्रमत्तसंयत हुआ। पीछे नीचे गिरकर अन्तर को प्राप्त हो अपनी स्थिति प्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भव में मनुष्य हुआ। अन्तर्मुहूर्त काल संसार में अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्त संयत होकर पुन: प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार प्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 2. (कोई जीव) उपशम सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थान को युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर को प्राप्त हो मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। संसार के अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ। पश्चात् प्रमत्तसंयत हो पुन: अप्रमत्त संयत हुआ। इस प्रकार अप्रमत्त संयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 3. एक संयत उपशम श्रेणी से उतरकर असंयत सम्यग्दृष्टि हुआ। वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर संयमासंयम को प्राप्त हुआ। पश्चात् अप्रमत्त और प्रमत्त संयत होकर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टि असंयतों का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 4. एक संयत उपशम श्रेणी से उतरकर संयतासंयत हुआ। अन्तर्मुहूर्त रहकर अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत और असंयत सम्यग्दृष्टि होकर पुन: संयतासंयत हो गया। इस प्रकार संयतासंयत उपशम सम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 5. [इसी प्रकार काल व अन्तर प्ररूपणाओं में सर्व पहले अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराके पीछे प्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराया गया है।] (और भी देखें [[ गुणस्थान#2.1 | गुणस्थान - 2.1]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5.2"> | <p class="HindiText" id="1.5.2"> 2. आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी कुछ नियम</p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.4/1,5,9/343/6 तस्स संकिलेस-विसोहीहि सह पमत्तापुव्वगुणे मोत्तूण गुणंतरगमणाभावा। मदस्स वि असंजदसम्मादिट्ठिवदिरित्तगुणंतरगमणाभावा।</span> =<span class="HindiText">अप्रमत्तसंयत जीव के संक्लेश की वृद्धि हो तो प्रमत्त गुणस्थान को और यदि विशुद्धि की वृद्धि हो तो अपूर्वकरण गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन का अभाव है। यदि अप्रमत्त संयत जीव का मरण भी हो तो असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन नहीं होता है। (ल.सा./मू. व जी.प्र./345/435)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ उपशीर्षक सं#1.1 | उपशीर्षक सं - 1.1]],2 [मिथ्यादृष्टि सीधा सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थान को युगपत् प्राप्त कर सकता है। तथा संयतासंयत से भी सीधा अप्रमत्त हो सकता है]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ गुणस्थान#2.1 | गुणस्थान - 2.1]] [आरोहण की अपेक्षा से अनादि व सादि दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि, तीनों सम्यक्त्वों से युक्त सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत व प्रमत्त संयत ये सब सीधे अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। अवरोहण की अपेक्षा से अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती ही अप्रमत्तसंयत को प्राप्त होता है अन्य नहीं और अप्रमत्तसंयत ही प्रमत्तसंयत को प्राप्त है अन्य नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ काल#6.2 | काल - 6.2 ]][अपने उत्कृष्ट काल पर्यंत प्रमत्त संयत रहे तो नियम से मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।]।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.6"> <strong> | <p class="HindiText" id="1.6"> <strong>6. संयत गुणस्थानों का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p> <span class="PrakritText">गो.जी./मू./710 दुविहं पि अपज्जत्तं ओघे मिच्छेव होदि णियमेण। सासण अयद पमत्ते णिव्वत्तिअप्पुण्णगो होदि।710।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./703/9 प्रमत्ते मनुष्या: पर्याप्ता; साहारकर्द्धयस्तु उभये। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ता: पर्याप्ता:।</span> = | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1. निर्वृत्ति व लब्धि ये दोनों प्रकार के अपर्याप्त नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सासादन असंयत व प्रमत्तसंयत में निवृत्त्यपर्याप्त आलाप तो होता है (पर लब्ध्यपर्याप्त नहीं)। 2. प्रमत्तसंयत मनुष्य पर्याप्त होते हैं परन्तु आहारक ऋद्धि सहित पर्याप्त व अपर्याप्त (निर्वृत्त्यपर्याप्त) दोनों होते हैं और अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत केवल पर्याप्त ही होते हैं। (और भी | ||
दे./काय/ | दे./काय/2/4)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मनुष्य#2.2 | मनुष्य - 2.2 ]][मनुष्यगति में ही सम्भव है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मनुष्य#3.2 | मनुष्य - 3.2 ]][मनुष्य व मनुष्यनियाँ (भाव से स्त्रीवेदी और द्रव्य से पुरुषवेदी) दोनों में सम्भव है। वहाँ भी कर्मभूमिजों में ही सम्भव है भोगभूमिजों में नहीं, आर्यखण्ड में ही सम्भव है म्लेच्छ खण्डों में नहीं, आर्यखण्ड में आकर म्लेच्छ भी तथा उनकी कन्याओं से उत्पन्न हुई सन्तान भी कदाचित् संयत हो सकते हैं, विद्याओं का त्यागकर देने पर विद्याधरों में भी सम्भव है अन्यथा नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ वह वह गति ]][नरक तिर्यंच व देव गति में सम्भव नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ आयु#6.7 | आयु - 6.7 ]][देव आयु के अतिरिक्त अन्य तीन आयु जिसने पहिले बाँध ली है, उसको संयम की प्राप्ति नहीं हो सकती।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#3.7 | चारित्र - 3.7]]-8 [मिथ्यादृष्टि व्रती को भी संयत नहीं कहा जा सकता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ वेद#7 | वेद - 7 ]][द्रव्य स्त्री संयत नहीं हो सकती।]</p> | ||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
संयत सामान्य निर्देश
1. संयत सामान्य का लक्षण
ध.1/1,1,123/369/1 सम् सम्यक् सम्यग्दर्शनज्ञानानुसारेण यता: बहिरङ्गान्तरङ्गास्रवेभ्यो विरता: संयता:।= 'सम्' उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है, इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यता:' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग आस्रवों से विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं।
देखें संयम - 1 [व्रत समिति आदि 13 प्रकार के चारित्र का सम्यक्त्वयुक्त पालन करना संयम है। उस संयम को धारण करने वाला संयत है।]
देखें अनगार [श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति ये सब एकार्थवाची हैं।]
देखें व्रती [घर के प्रति जो निरुत्सक है, वह संयत है।]
देखें साधु - 3.4 [कषाय हीनता का नाम चारित्र है और कषाय से असंयत होता है। इसलिए जिस व जितने काल में साधु कषायों का उपशमन करता है, उस व उतने काल में वह संयत होता है।]
2. प्रमत्त संयत का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/14 वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ। सयलगुणसीलकलिओ महव्वई चित्तलायरणो।14। =जो पुरुष सकल मूलगुणों से और शील अर्थात् उत्तरगुणों से सहित है, अतएव महाव्रती, तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद से रहता है अतएव चित्रल आचरणी है, वह प्रमत्त संयत कहलाता है।14। (ध.1/1,1,15/गा.113/178); (गो.जी./मू./33/62); (इसका विवेचन देखें आगे )
रा.वा./9/1/17/590/3 तन्मूलसाधनोपपादितोपजननं बाह्यसाधनसंनिधानाविर्भावमापद्यमानं प्राणेन्द्रियविषयभेदात् द्वितयीं वृत्तिमास्कन्तं संयमोपयोगमात्मसात्कुर्वन् पञ्चदशविधप्रमादवशात् किंचित्प्रस्खलितचारित्रपरिणाम: प्रमत्तसंयत इत्याख्यायते। =उस संयमलब्धि (देखें लब्धि - 5.1) रूप अभ्यंतर संयम परिणामों के अनुसार बाह्य साधनों के सन्निधान को स्वीकार करता हुआ प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम को पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के वश कहीं कभी चारित्र परिणामों से स्खलित होता रहता है, अत: प्रमत्त संयत कहलाता है।
ध.1/1,1,14/175/10 प्रकर्षेण मत्ता: प्रमत्ता:, सं सम्यग् यता: विरता: संयता:। प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयता:। =प्रकर्ष से मत्त जीव को प्रमत्त कहते हैं, और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं।
गो.जी./मू./32/61 संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो।32। =क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय, इनके उदय से उत्पन्न होने के कारण जिस संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्तविरत कहलाता है।
द्र.सं./टी./13/34/6 स एव सदृष्टि:...पञ्चमहाव्रतेषु वर्तते यदा तदा दु:स्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति।=संयमासंयम को प्राप्त वही सम्यग्दृष्टि जब पंचमहाव्रतों में वर्तता है; तब वह दु:स्वप्नादि व्यक्त या अव्यक्त प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत होता है।
गो.जी./जी.प्र./33/63/4 प्रमत्तसंयत: चित्रलाचरण इत्युक्तम् । चित्रं प्रमादमिश्रितं लातीति चित्रलं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरण:। अथवा चित्रल: सारंग:, तद्वत् शवलितं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरण:। अथवा चित्तं लातीति चित्तलं, चित्तलं आचरणं यस्यासौ चित्तालाचरण:, इति विशेषव्युत्पत्तिरपि ज्ञातव्या। =प्रमत्त संयत को चित्रलाचरण कहा गया है। 'चित्रं' अर्थात् प्रमाद से मिश्रित, 'लाति' अर्थात् ग्रहण करता है उसे चित्रल कहते हैं। ऐसा चित्रल आचरण वाला चित्रलाचरण है। अथवा चित्रल नाम चीते का है, उसके समान चितकबरे आचरण वाला चित्रलाचरण है। अथवा 'चित्तं लाति' अर्थात् मन को प्रमादस्वरूप करे सो चित्तल, ऐसे चित्तल आचरणवाला चित्तलाचरण है। ऐसी विशेष निरुक्ति भी पाठान्तर की अपेक्षा जाननी चाहिए।
3. अप्रमत्त संयत सामान्य का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/16 णट्ठासेसपमाओ वयगुणसोलोलिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो।16। =जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित है, महाव्रत, मूलगुण और उत्तरगुणों की माला से मण्डित है, स्व और पर के ज्ञान से युक्त है और कषायों का अनुपशामक या अक्षपक होते हुए भी ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। (ध.1/1,1,15/गा.115/179), (गो.जी./मू./46/98)।
रा.वा./9/1/18/590/6 पूर्ववत् संयममास्कन्दन् पूर्वोक्तप्रमादविरहात् अविचलितसंयमवृत्ति: अप्रमत्तसंयत: समाख्यायते। =पूर्ववत् (देखें प्रमत्तसंयत का लक्षण ) संयम को प्राप्त करके, प्रमाद का अभाव होने से अविचलित संयमी अप्रमत्त संयत कहलाता है।
ध.1/1,1,15/178/7 प्रमत्तसंयता: पूर्वोक्तलक्षणा:, न प्रमत्तसंयता अप्रमत्तसंयता: पञ्चदशप्रमादरहितसंयता इति यावत् । =प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं (देखें शीर्षक सं - 2)। जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता है उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। अर्थात् संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमत्तसंयत समझना चाहिए।
गो.जी./मू./45/97 संजलणणोकसायाणुदयो मदो जदा तदा होदि। अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि। =जब क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्य आदि नोकषाय इनका मन्द उदय होता है, तब अप्रमत्तगुण प्राप्त हो जाने से वह अप्रमत्त संयत कहलाता है।45। (द्र.सं./टी./13/34/10)।
4. स्वस्थान व सातिशय अप्रमत्त निर्देश
गो.जी./जी.प्र./45/97/8 स्वस्थानाप्रमत्त: सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूपं निरूपयति। =अप्रमत्त संयत के स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयत का स्वरूप कहते हैं। [मूल व उत्तर गुणों से मण्डित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमाद से रहित, कषायों का अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसंयत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है - गो.जी./मू./46 (देखें शीर्षक नं - 3)]।
ल.सा./मू./205/259 उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजयित्ता। अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य।205।
ल.सा./जी.प्र./220/273/7 चारित्रमोहोपशमने कर्त्तव्ये अध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण ...चेत्यष्टाधिकारा भवन्ति। तेष्वध:प्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्तसंयत:...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिथ्यादृष्टेर्भणितानि...। =उपशमचारित्र के सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थान में) अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अध:प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है।205। चारित्र मोह के उपशमन में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध:प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तसंयत है वह सातिशय अप्रमत्त कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है।
5. दोनों गुणस्थानों का आरोहण व अवरोहण क्रम
1. अप्रमत्तपूर्वक ही प्रमत्त गुणस्थान होता है
ध.5/1,6,121/74/8 उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो पमत्तो जादो हेट्ठा पडिदूणंतरिदो सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो।...अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो। लद्धमंतरं।
ध.5/1,6,121/75/2 उवसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो...अंतरिदो...मणुस्सेसु अववण्णो...अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो। तदो पमत्तो अप्पमत्तो...।
ध.5/1,6,359/166/3 एक्को सेडीदो ओदरिय असंजदो जादो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय संजमासंजमं पडिवण्णो। तदो अप्पमत्तो पमत्तो होदूण असंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं।
ध.5/1,6,363/167/3 एक्को सेडीदो ओदरिय संजदासंजदो जादो। अंतोमुहुत्तमच्छिय अप्पमत्तो पमत्तो असंजदो च होदूण संजदासंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं। =1. (कोई जीव) उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तसंयत को एक साथ प्राप्त हुआ, पश्चात् प्रमत्तसंयत हुआ। पीछे नीचे गिरकर अन्तर को प्राप्त हो अपनी स्थिति प्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भव में मनुष्य हुआ। अन्तर्मुहूर्त काल संसार में अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्त संयत होकर पुन: प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार प्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 2. (कोई जीव) उपशम सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थान को युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर को प्राप्त हो मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। संसार के अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ। पश्चात् प्रमत्तसंयत हो पुन: अप्रमत्त संयत हुआ। इस प्रकार अप्रमत्त संयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 3. एक संयत उपशम श्रेणी से उतरकर असंयत सम्यग्दृष्टि हुआ। वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर संयमासंयम को प्राप्त हुआ। पश्चात् अप्रमत्त और प्रमत्त संयत होकर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टि असंयतों का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 4. एक संयत उपशम श्रेणी से उतरकर संयतासंयत हुआ। अन्तर्मुहूर्त रहकर अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत और असंयत सम्यग्दृष्टि होकर पुन: संयतासंयत हो गया। इस प्रकार संयतासंयत उपशम सम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। 5. [इसी प्रकार काल व अन्तर प्ररूपणाओं में सर्व पहले अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराके पीछे प्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराया गया है।] (और भी देखें गुणस्थान - 2.1)।
2. आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी कुछ नियम
ध.4/1,5,9/343/6 तस्स संकिलेस-विसोहीहि सह पमत्तापुव्वगुणे मोत्तूण गुणंतरगमणाभावा। मदस्स वि असंजदसम्मादिट्ठिवदिरित्तगुणंतरगमणाभावा। =अप्रमत्तसंयत जीव के संक्लेश की वृद्धि हो तो प्रमत्त गुणस्थान को और यदि विशुद्धि की वृद्धि हो तो अपूर्वकरण गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन का अभाव है। यदि अप्रमत्त संयत जीव का मरण भी हो तो असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन नहीं होता है। (ल.सा./मू. व जी.प्र./345/435)।
देखें उपशीर्षक सं - 1.1,2 [मिथ्यादृष्टि सीधा सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थान को युगपत् प्राप्त कर सकता है। तथा संयतासंयत से भी सीधा अप्रमत्त हो सकता है]।
देखें गुणस्थान - 2.1 [आरोहण की अपेक्षा से अनादि व सादि दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि, तीनों सम्यक्त्वों से युक्त सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत व प्रमत्त संयत ये सब सीधे अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। अवरोहण की अपेक्षा से अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती ही अप्रमत्तसंयत को प्राप्त होता है अन्य नहीं और अप्रमत्तसंयत ही प्रमत्तसंयत को प्राप्त है अन्य नहीं।]
देखें काल - 6.2 [अपने उत्कृष्ट काल पर्यंत प्रमत्त संयत रहे तो नियम से मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।]।
6. संयत गुणस्थानों का स्वामित्व
गो.जी./मू./710 दुविहं पि अपज्जत्तं ओघे मिच्छेव होदि णियमेण। सासण अयद पमत्ते णिव्वत्तिअप्पुण्णगो होदि।710।
गो.जी./जी.प्र./703/9 प्रमत्ते मनुष्या: पर्याप्ता; साहारकर्द्धयस्तु उभये। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ता: पर्याप्ता:। = 1. निर्वृत्ति व लब्धि ये दोनों प्रकार के अपर्याप्त नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सासादन असंयत व प्रमत्तसंयत में निवृत्त्यपर्याप्त आलाप तो होता है (पर लब्ध्यपर्याप्त नहीं)। 2. प्रमत्तसंयत मनुष्य पर्याप्त होते हैं परन्तु आहारक ऋद्धि सहित पर्याप्त व अपर्याप्त (निर्वृत्त्यपर्याप्त) दोनों होते हैं और अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत केवल पर्याप्त ही होते हैं। (और भी दे./काय/2/4)।
देखें मनुष्य - 2.2 [मनुष्यगति में ही सम्भव है।]
देखें मनुष्य - 3.2 [मनुष्य व मनुष्यनियाँ (भाव से स्त्रीवेदी और द्रव्य से पुरुषवेदी) दोनों में सम्भव है। वहाँ भी कर्मभूमिजों में ही सम्भव है भोगभूमिजों में नहीं, आर्यखण्ड में ही सम्भव है म्लेच्छ खण्डों में नहीं, आर्यखण्ड में आकर म्लेच्छ भी तथा उनकी कन्याओं से उत्पन्न हुई सन्तान भी कदाचित् संयत हो सकते हैं, विद्याओं का त्यागकर देने पर विद्याधरों में भी सम्भव है अन्यथा नहीं।]
देखें वह वह गति [नरक तिर्यंच व देव गति में सम्भव नहीं।]
देखें आयु - 6.7 [देव आयु के अतिरिक्त अन्य तीन आयु जिसने पहिले बाँध ली है, उसको संयम की प्राप्ति नहीं हो सकती।]
देखें चारित्र - 3.7-8 [मिथ्यादृष्टि व्रती को भी संयत नहीं कहा जा सकता है।]
देखें वेद - 7 [द्रव्य स्त्री संयत नहीं हो सकती।]