दर्शन प्रतिमा: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> संसार शरीर भोग से निर्विण्ण पंचगुरु भक्ति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">संसार शरीर भोग से निर्विण्ण पंचगुरु भक्ति</strong> </span><br /> | ||
चारित्रसार/3/5 <span class="SanskritText">दार्शनिक: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: पञ्चगुरुचरणभक्त: सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति। </span><span class="HindiText">=दर्शन प्रतिमा वाला संसार और शरीर भोगों से विरक्त | चारित्रसार/3/5 <span class="SanskritText">दार्शनिक: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: पञ्चगुरुचरणभक्त: सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति। </span><span class="HindiText">=दर्शन प्रतिमा वाला संसार और शरीर भोगों से विरक्त पाँचों परमेष्ठियों के चरणकमलों का भक्त रहता है और सम्यग्दर्शन से विशुद्ध रहता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> संवेगादि सहित साष्टांग सम्यग्दृष्टि</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> संवेगादि सहित साष्टांग सम्यग्दृष्टि</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> निशि भोजन त्यागी</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> निशि भोजन त्यागी</strong></span><br /> | ||
वसुनन्दी श्रावकाचार/314 <span class="PrakritGatha"> एयारसेसु पढमं वि जदो णिसि भोयणं कुणंतस्स। हाणं ण ठाइ तम्हा णिसि भुत्तिं परिहरे णियमा।314। </span>=<span class="HindiText"> | वसुनन्दी श्रावकाचार/314 <span class="PrakritGatha"> एयारसेसु पढमं वि जदो णिसि भोयणं कुणंतस्स। हाणं ण ठाइ तम्हा णिसि भुत्तिं परिहरे णियमा।314। </span>=<span class="HindiText">चूँकि रात्रि को भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं मे से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियम से रात्रि भोजन का परिहार करना चाहिए। ( लाटी संहिता/2/45 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सप्त व्यसन व पंचुदंबर फल का त्यागी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सप्त व्यसन व पंचुदंबर फल का त्यागी</strong> </span><br /> | ||
वसुनन्दी श्रावकाचार/205 <span class="PrakritGatha">पंचुंबरसहियाइं परिहरेइ इय जो सत्तविसणाइं। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।305। </span>=<span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि जीव इन पाँच उदुम्बर सहित सातों व्यसनों का परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन श्रावक कहा गया है।205। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/56-58 ) (गुणभद्र श्रा./112) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/477/884 में उद्धृत)<br /> | वसुनन्दी श्रावकाचार/205 <span class="PrakritGatha">पंचुंबरसहियाइं परिहरेइ इय जो सत्तविसणाइं। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।305। </span>=<span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि जीव इन पाँच उदुम्बर सहित सातों व्यसनों का परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन श्रावक कहा गया है।205। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/56-58 ) (गुणभद्र श्रा./112) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/477/884 में उद्धृत)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">मद्य मांसादि का त्यागी</strong></span><br /> | ||
का.आ./मू./328-329 <span class="PrakritText">बहु-तस-समण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं। जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि।328। जो दिढचित्तो कीरदि एवं पि वयणियाणपरिहीणो। वेरग्ग-भावियमणो सो वि य दंसण-गुणो होदि।329। </span>=<span class="HindiText">बहुत त्रसजीवों से युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओं का जो नियम से सेवन नहीं करता वह दार्शनिक श्रावक है।328। वैराग्य से जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्त को दृढ करके तथा निदान को छोड़कर उक्त व्रतों को पालता है वह दार्शनिक श्रावक है।329। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/205 )। <br /> | का.आ./मू./328-329 <span class="PrakritText">बहु-तस-समण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं। जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि।328। जो दिढचित्तो कीरदि एवं पि वयणियाणपरिहीणो। वेरग्ग-भावियमणो सो वि य दंसण-गुणो होदि।329। </span>=<span class="HindiText">बहुत त्रसजीवों से युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओं का जो नियम से सेवन नहीं करता वह दार्शनिक श्रावक है।328। वैराग्य से जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्त को दृढ करके तथा निदान को छोड़कर उक्त व्रतों को पालता है वह दार्शनिक श्रावक है।329। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/205 )। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">अष्टमूल गुणधारी, निष्प्रयोजन हिंसा का त्यागी</strong> </span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/ मू./137<span class="SanskritText"> सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण:। पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:। </span>=<span class="HindiText">जो संसार भोगों से विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध अर्थात् अतिचार रहित हो, जिसके पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण हो तथा जो व्रतों के मार्ग में मद्यत्यागादि आठ मूलगुणों का ग्रहण करने वाला हो, वह दर्शन प्रतिमाधारी दर्शनिक है।137।</span><br /> | रत्नकरण्ड श्रावकाचार/ मू./137<span class="SanskritText"> सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण:। पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:। </span>=<span class="HindiText">जो संसार भोगों से विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध अर्थात् अतिचार रहित हो, जिसके पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण हो तथा जो व्रतों के मार्ग में मद्यत्यागादि आठ मूलगुणों का ग्रहण करने वाला हो, वह दर्शन प्रतिमाधारी दर्शनिक है।137।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/3 <span class="SanskritText"> सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहित: सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिर्निष्प्रयोजनजीवघातादे: निवृत्त: प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप आठ मूलगुणों को पालता हुआ जो जीव युद्धादि में प्रवृत्त होने पर भी पाप को बढ़ाने वाले शिकार आदि के समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं।<br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/3 <span class="SanskritText"> सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहित: सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिर्निष्प्रयोजनजीवघातादे: निवृत्त: प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप आठ मूलगुणों को पालता हुआ जो जीव युद्धादि में प्रवृत्त होने पर भी पाप को बढ़ाने वाले शिकार आदि के समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं।<br /> | ||
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सागार धर्मामृत/3/7-8 <span class="SanskritText">पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदृक् । भवाङ्गभोगनिर्विण्ण:, परमेष्ठिपदौकधी:।7। निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुक:। न्याय्यां वृत्तिं तनुस्थित्यै, तन्वन् दार्शनिको मत:।8। </span>=<span class="HindiText">पाक्षिक श्रावक के आचरणों के संस्कार से निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार शरीर और भोगों से अथवा संसार के कारणभूत भोगों से विरक्त पंचपरमेष्ठी के चरणों का भक्त मूलगुणों में से अतिचारों को दूर करने वाला व्रतिक आदि पदों को धारण करने में उत्सुक तथा शरीर को स्थिर रखने के लिए न्यायानुकूल आजीविका को करने वाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक माना गया है।<br /> | सागार धर्मामृत/3/7-8 <span class="SanskritText">पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदृक् । भवाङ्गभोगनिर्विण्ण:, परमेष्ठिपदौकधी:।7। निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुक:। न्याय्यां वृत्तिं तनुस्थित्यै, तन्वन् दार्शनिको मत:।8। </span>=<span class="HindiText">पाक्षिक श्रावक के आचरणों के संस्कार से निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार शरीर और भोगों से अथवा संसार के कारणभूत भोगों से विरक्त पंचपरमेष्ठी के चरणों का भक्त मूलगुणों में से अतिचारों को दूर करने वाला व्रतिक आदि पदों को धारण करने में उत्सुक तथा शरीर को स्थिर रखने के लिए न्यायानुकूल आजीविका को करने वाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक माना गया है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">सप्त व्यसन व विषय तृष्णा का त्यागी</strong> </span><br /> | ||
<span class="HindiText">क्रिया कोष/1042 पहिली पड़िमा धर बुद्धा सम्यग्दर्शन शुद्धा। त्यागे जो सातो व्यसना छोड़े विषयनि की तृष्णा।1042। =प्रथम प्रतिमा का धारी सम्यग्दर्शन से शुद्ध होता है, तथा सातों व्यसनों को और विषयों की तृष्णा को छोड़ता है।<br /> | <span class="HindiText">क्रिया कोष/1042 पहिली पड़िमा धर बुद्धा सम्यग्दर्शन शुद्धा। त्यागे जो सातो व्यसना छोड़े विषयनि की तृष्णा।1042। =प्रथम प्रतिमा का धारी सम्यग्दर्शन से शुद्ध होता है, तथा सातों व्यसनों को और विषयों की तृष्णा को छोड़ता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">स्थूल पंचाणुव्रतधारी</strong> </span><br /> | ||
रयणसार/8 <span class="SanskritGatha">उहयगुणवसणभयमलवेरग्गाइचार भत्तिविग्घं वा। एदे सत्तत्तरिया दंसणसावयगुणा भणिया।8।</span><span class="HindiText"> आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणों (बारह व्रत अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत) का प्रतिपालन, सात व्यसन और पच्चीस सम्यक्त्व के दोषों का परित्याग, बारह वैराग्य भावना का चिंतवन, सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचारों का परित्याग, भक्ति भावना इस प्रकार दर्शन को धारण करने वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के सत्तर गुण हैं।<br /> | रयणसार/8 <span class="SanskritGatha">उहयगुणवसणभयमलवेरग्गाइचार भत्तिविग्घं वा। एदे सत्तत्तरिया दंसणसावयगुणा भणिया।8।</span><span class="HindiText"> आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणों (बारह व्रत अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत) का प्रतिपालन, सात व्यसन और पच्चीस सम्यक्त्व के दोषों का परित्याग, बारह वैराग्य भावना का चिंतवन, सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचारों का परित्याग, भक्ति भावना इस प्रकार दर्शन को धारण करने वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के सत्तर गुण हैं।<br /> | ||
राजवार्तिक हिं./7/20/558 प्रथम प्रतिमा विषै ही स्थूल त्याग रूप पाँच अणुव्रत का ग्रहण है... | राजवार्तिक हिं./7/20/558 प्रथम प्रतिमा विषै ही स्थूल त्याग रूप पाँच अणुव्रत का ग्रहण है...तहाँ ऐसा समझना जो...पंच उदम्बर फल में तो त्रस के मारने का त्याग भया। ऐसा अहिंसा अणुव्रत भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ अचौर्य न ब्रह्मचर्य अणुव्रत भये। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्यागतैं असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी (सत्य व परिग्रह परिणाम अणुव्रत हुए)। मांस, मद्य, शहद के त्यागतैं त्रस कूं मारकरि भक्षण करने का त्याग भया (अहिंसा अणुव्रत हुआ) ऐसे पहिली प्रतिमा में पांच अणुव्रत की प्रवृत्ति सम्भवे है। अर इनिके अतिचार दूर करि सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै अतिचार के त्याग का अभ्यास यहाँ अवश्य करे। ( चारित्तपाहुड़/ भाषा/23)।<br /> | ||
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पद्मपुराण/118/15-16 <span class="SanskritText">इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमां तावत् पिब न्यस्तां चषके विकचोत्पले।15। इत्युक्त्वा तां मुखे न्यस्य चकार सुमहादर:। कथं विशतु सा तत्र चार्वी संक्रान्तचेतने।16।</span> =<span class="HindiText">हे लक्ष्मीधर ! तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमल से सुशोभित पानपात्र में रखी हुई इस मदिरा को पिओ।15। ऐसा कहकर उन्होंने बड़े आदर के साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुख में कैसे प्रवेश करती।16।</span><br /> | पद्मपुराण/118/15-16 <span class="SanskritText">इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमां तावत् पिब न्यस्तां चषके विकचोत्पले।15। इत्युक्त्वा तां मुखे न्यस्य चकार सुमहादर:। कथं विशतु सा तत्र चार्वी संक्रान्तचेतने।16।</span> =<span class="HindiText">हे लक्ष्मीधर ! तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमल से सुशोभित पानपात्र में रखी हुई इस मदिरा को पिओ।15। ऐसा कहकर उन्होंने बड़े आदर के साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुख में कैसे प्रवेश करती।16।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/2/133 <span class="SanskritText">गृहस्थावस्थायां दानशीलपूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृत:, दार्शनिकव्रतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो वा।</span> <span class="HindiText">=गृहस्थावस्था में जिसने सम्यक्त्व पूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थ का धर्म नहीं किया, दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमा के भेदरूप श्रावक का धर्म नहीं धारण किया।</span><br /> | परमात्मप्रकाश टीका/2/133 <span class="SanskritText">गृहस्थावस्थायां दानशीलपूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृत:, दार्शनिकव्रतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो वा।</span> <span class="HindiText">=गृहस्थावस्था में जिसने सम्यक्त्व पूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थ का धर्म नहीं किया, दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमा के भेदरूप श्रावक का धर्म नहीं धारण किया।</span><br /> | ||
वसुनन्दी श्रावकाचार/56-57 <span class="PrakritGatha"> एरिसगुण अट्ठजुयं सम्मतं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मदिट्ठी सद्दहमाणो पयत्थे य।56। पंचुंबरसहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।57।</span> =<span class="HindiText">जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ (निशंकितादि) गुणों से युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।56। और जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बर फल सहित सातों ही व्यसनों का त्याग करता है वह दर्शन श्रावक कहा गया है।57।</span><br> लाटी संहिता/3/131 <span class="SanskritGatha"> दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवलपाक्षिक: स: स्याद्गुणस्थानादसंयत:।131। </span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य मद्यादि तथा सप्त व्यसनों का सेवन नहीं करता परन्तु उनके सेवन न करने का नियम भी नहीं लेता, उसके न तो दर्शन प्रतिमा है और न | वसुनन्दी श्रावकाचार/56-57 <span class="PrakritGatha"> एरिसगुण अट्ठजुयं सम्मतं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मदिट्ठी सद्दहमाणो पयत्थे य।56। पंचुंबरसहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।57।</span> =<span class="HindiText">जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ (निशंकितादि) गुणों से युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।56। और जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बर फल सहित सातों ही व्यसनों का त्याग करता है वह दर्शन श्रावक कहा गया है।57।</span><br> लाटी संहिता/3/131 <span class="SanskritGatha"> दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवलपाक्षिक: स: स्याद्गुणस्थानादसंयत:।131। </span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य मद्यादि तथा सप्त व्यसनों का सेवन नहीं करता परन्तु उनके सेवन न करने का नियम भी नहीं लेता, उसके न तो दर्शन प्रतिमा है और न पाँचवाँ गुणस्थान ही होता है। उसको केवल पाक्षिक श्रावक कहते हैं, उसके असंयत नामा चौथा गुणस्थान होता है। <strong>भावार्थ</strong>–जो सम्यग्दृष्टि मद्य मांसादि के त्याग का नियम नहीं लेता, परन्तु कुल क्रम से चली आयी परिपाटी के अनुसार उनका सेवन भी नहीं करता उसके चौथा गुणस्थान होता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ भाषा पं.जयचन्द/307 पच्चीस दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक अविरत सम्यग्दृष्टि है तथा अष्टमूलगुण धारक तथा सप्त व्यसन त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> दर्शन प्रतिमा व व्रत प्रतिमा में अन्तर</strong><br> राजवार्तिक/ हि./7/20/558 पहिली प्रतिमा में | <li class="HindiText"><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> दर्शन प्रतिमा व व्रत प्रतिमा में अन्तर</strong><br> राजवार्तिक/ हि./7/20/558 पहिली प्रतिमा में पाँच अणुव्रतों की प्रवृत्ति सम्भवै है अर इनके अतिचार दूर कर सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै।<br> चारित्तपाहुड़/ पं.जयचन्द/23/93 दर्शन प्रतिमा का धारक भी अणुव्रती ही है...याकैं अणुव्रत अतिचार सहित होय है तातैं व्रती नाम न कह्या दूजी प्रतिमा में अणुव्रत अतिचार रहित पालै तातैं व्रत नाम कह्या इहाँ सम्यक्त्वकैं अतीचार टालै है सम्यक्त्व ही प्रधान है तातैं दर्शन प्रतिमा नाम है (क्रिया कोष/1042-1043)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> दर्शन प्रतिमा के अतिचार</strong> <br> चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/10 (<strong>नोट</strong>–मूल के लिए देखें [[ सांकेतिक स्थान ]])। समस्त कन्दमूल का त्याग करता है, तथा पुष्प जाति का त्याग करता है। (देखें [[ भक्ष्याभक्ष्य#4.34 | भक्ष्याभक्ष्य - 4.34]])। नमक तैल आदि अमर्यादित वस्तुओं का त्याग करता है ( | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> दर्शन प्रतिमा के अतिचार</strong> <br> चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/10 (<strong>नोट</strong>–मूल के लिए देखें [[ सांकेतिक स्थान ]])। समस्त कन्दमूल का त्याग करता है, तथा पुष्प जाति का त्याग करता है। (देखें [[ भक्ष्याभक्ष्य#4.34 | भक्ष्याभक्ष्य - 4.34]])। नमक तैल आदि अमर्यादित वस्तुओं का त्याग करता है (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/2) तथा मांसादि से स्पर्शित वस्तु का त्याग (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/2) एवं द्विदल का दूध के संग त्याग करता है (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/3) तथा रात्रि को ताम्बूल, औषधादि और जल का त्याग करता है। (देखें [[ रात्रि भोजन ]])। अन्तराय टालकर भोजन करता है। (देखें [[ अन्तराय#2 | अन्तराय - 2]]) उपरोक्त त्याग में यदि कोई दोष लगे तो वह दर्शन प्रतिमा का अतिचार कहलाता है। विशेष देखें [[ भक्ष्याभक्ष्य ]]। <br> | ||
<strong>सप्त व्यसन के अतिचार—</strong>देखें [[ वह वह नाम ]]।</span></li> | <strong>सप्त व्यसन के अतिचार—</strong>देखें [[ वह वह नाम ]]।</span></li> | ||
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Revision as of 14:22, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
श्रावक की 11 भूमिकाओं में से पहली का नाम दर्शन प्रतिमा है। इस भूमिका में यद्यपि वह यमरूप से 12 व्रतों को धारण नहीं कर पाता पर अभ्यास रूप से उनका पालन करता है। सम्यग्दर्शन में अत्यन्त दृढ हो जाता है और अष्टमूलगुण आदि भी निरतिचार पालने लगता है।
- दर्शन प्रतिमा का लक्षण
- संसार शरीर भोग से निर्विण्ण पंचगुरु भक्ति
चारित्रसार/3/5 दार्शनिक: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: पञ्चगुरुचरणभक्त: सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति। =दर्शन प्रतिमा वाला संसार और शरीर भोगों से विरक्त पाँचों परमेष्ठियों के चरणकमलों का भक्त रहता है और सम्यग्दर्शन से विशुद्ध रहता है।
- संवेगादि सहित साष्टांग सम्यग्दृष्टि
सुभाषितरत्नसन्दीह/833 शंकादिदोषनिर्मुक्तं संवेगादिगुणान्वितं। यो धत्ते दर्शनं सोऽत्र दर्शनी कथितो जिनै:।833। =जो पुरुष शंकादि दोषों से निर्दोष संवेगादि गुणों से संयुक्त सम्यग्दर्शन को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि (दर्शन प्रतिमावाला) कहा गया है।833।
- संसार शरीर भोग से निर्विण्ण पंचगुरु भक्ति
- दर्शन प्रतिमाधारी के गुण व व्रतादि
- निशि भोजन त्यागी
वसुनन्दी श्रावकाचार/314 एयारसेसु पढमं वि जदो णिसि भोयणं कुणंतस्स। हाणं ण ठाइ तम्हा णिसि भुत्तिं परिहरे णियमा।314। =चूँकि रात्रि को भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं मे से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियम से रात्रि भोजन का परिहार करना चाहिए। ( लाटी संहिता/2/45 )।
- सप्त व्यसन व पंचुदंबर फल का त्यागी
वसुनन्दी श्रावकाचार/205 पंचुंबरसहियाइं परिहरेइ इय जो सत्तविसणाइं। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।305। =जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि जीव इन पाँच उदुम्बर सहित सातों व्यसनों का परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन श्रावक कहा गया है।205। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/56-58 ) (गुणभद्र श्रा./112) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/477/884 में उद्धृत)
- मद्य मांसादि का त्यागी
का.आ./मू./328-329 बहु-तस-समण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं। जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि।328। जो दिढचित्तो कीरदि एवं पि वयणियाणपरिहीणो। वेरग्ग-भावियमणो सो वि य दंसण-गुणो होदि।329। =बहुत त्रसजीवों से युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओं का जो नियम से सेवन नहीं करता वह दार्शनिक श्रावक है।328। वैराग्य से जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्त को दृढ करके तथा निदान को छोड़कर उक्त व्रतों को पालता है वह दार्शनिक श्रावक है।329। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/205 )।
- अष्टमूल गुणधारी, निष्प्रयोजन हिंसा का त्यागी
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/ मू./137 सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण:। पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:। =जो संसार भोगों से विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध अर्थात् अतिचार रहित हो, जिसके पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण हो तथा जो व्रतों के मार्ग में मद्यत्यागादि आठ मूलगुणों का ग्रहण करने वाला हो, वह दर्शन प्रतिमाधारी दर्शनिक है।137।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/3 सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहित: सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिर्निष्प्रयोजनजीवघातादे: निवृत्त: प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते। =सम्यग्दर्शन पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप आठ मूलगुणों को पालता हुआ जो जीव युद्धादि में प्रवृत्त होने पर भी पाप को बढ़ाने वाले शिकार आदि के समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं।
- अष्टमूलगुण धारण व सप्त व्यसन का त्याग
लाटी संहिता/2/6 अष्टमूलगुणोपेतो द्यूतादिव्यसनोज्झित:। नरो दार्शनिक: प्रोक्त: स्याच्चेत्सद्दर्शनान्वित:।6। =जो जीव सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला हो और फिर वह यदि आठों मूलगुणों को धारण कर ले तथा जूआ, चोरी आदि सातों व्यसनों का त्याग कर दे तो वह दर्शन प्रतिमा को धारण करने वाला कहलाता है।6।
- निरतिचार अष्टगुणधारी
सागार धर्मामृत/3/7-8 पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदृक् । भवाङ्गभोगनिर्विण्ण:, परमेष्ठिपदौकधी:।7। निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुक:। न्याय्यां वृत्तिं तनुस्थित्यै, तन्वन् दार्शनिको मत:।8। =पाक्षिक श्रावक के आचरणों के संस्कार से निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार शरीर और भोगों से अथवा संसार के कारणभूत भोगों से विरक्त पंचपरमेष्ठी के चरणों का भक्त मूलगुणों में से अतिचारों को दूर करने वाला व्रतिक आदि पदों को धारण करने में उत्सुक तथा शरीर को स्थिर रखने के लिए न्यायानुकूल आजीविका को करने वाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक माना गया है।
- सप्त व्यसन व विषय तृष्णा का त्यागी
क्रिया कोष/1042 पहिली पड़िमा धर बुद्धा सम्यग्दर्शन शुद्धा। त्यागे जो सातो व्यसना छोड़े विषयनि की तृष्णा।1042। =प्रथम प्रतिमा का धारी सम्यग्दर्शन से शुद्ध होता है, तथा सातों व्यसनों को और विषयों की तृष्णा को छोड़ता है।
- स्थूल पंचाणुव्रतधारी
रयणसार/8 उहयगुणवसणभयमलवेरग्गाइचार भत्तिविग्घं वा। एदे सत्तत्तरिया दंसणसावयगुणा भणिया।8। आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणों (बारह व्रत अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत) का प्रतिपालन, सात व्यसन और पच्चीस सम्यक्त्व के दोषों का परित्याग, बारह वैराग्य भावना का चिंतवन, सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचारों का परित्याग, भक्ति भावना इस प्रकार दर्शन को धारण करने वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के सत्तर गुण हैं।
राजवार्तिक हिं./7/20/558 प्रथम प्रतिमा विषै ही स्थूल त्याग रूप पाँच अणुव्रत का ग्रहण है...तहाँ ऐसा समझना जो...पंच उदम्बर फल में तो त्रस के मारने का त्याग भया। ऐसा अहिंसा अणुव्रत भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ अचौर्य न ब्रह्मचर्य अणुव्रत भये। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्यागतैं असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी (सत्य व परिग्रह परिणाम अणुव्रत हुए)। मांस, मद्य, शहद के त्यागतैं त्रस कूं मारकरि भक्षण करने का त्याग भया (अहिंसा अणुव्रत हुआ) ऐसे पहिली प्रतिमा में पांच अणुव्रत की प्रवृत्ति सम्भवे है। अर इनिके अतिचार दूर करि सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै अतिचार के त्याग का अभ्यास यहाँ अवश्य करे। ( चारित्तपाहुड़/ भाषा/23)।
- निशि भोजन त्यागी
- अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमा में अन्तर
पद्मपुराण/118/15-16 इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमां तावत् पिब न्यस्तां चषके विकचोत्पले।15। इत्युक्त्वा तां मुखे न्यस्य चकार सुमहादर:। कथं विशतु सा तत्र चार्वी संक्रान्तचेतने।16। =हे लक्ष्मीधर ! तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमल से सुशोभित पानपात्र में रखी हुई इस मदिरा को पिओ।15। ऐसा कहकर उन्होंने बड़े आदर के साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुख में कैसे प्रवेश करती।16।
परमात्मप्रकाश टीका/2/133 गृहस्थावस्थायां दानशीलपूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृत:, दार्शनिकव्रतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो वा। =गृहस्थावस्था में जिसने सम्यक्त्व पूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थ का धर्म नहीं किया, दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमा के भेदरूप श्रावक का धर्म नहीं धारण किया।
वसुनन्दी श्रावकाचार/56-57 एरिसगुण अट्ठजुयं सम्मतं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मदिट्ठी सद्दहमाणो पयत्थे य।56। पंचुंबरसहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ।57। =जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ (निशंकितादि) गुणों से युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।56। और जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बर फल सहित सातों ही व्यसनों का त्याग करता है वह दर्शन श्रावक कहा गया है।57।
लाटी संहिता/3/131 दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवलपाक्षिक: स: स्याद्गुणस्थानादसंयत:।131। =जो मनुष्य मद्यादि तथा सप्त व्यसनों का सेवन नहीं करता परन्तु उनके सेवन न करने का नियम भी नहीं लेता, उसके न तो दर्शन प्रतिमा है और न पाँचवाँ गुणस्थान ही होता है। उसको केवल पाक्षिक श्रावक कहते हैं, उसके असंयत नामा चौथा गुणस्थान होता है। भावार्थ–जो सम्यग्दृष्टि मद्य मांसादि के त्याग का नियम नहीं लेता, परन्तु कुल क्रम से चली आयी परिपाटी के अनुसार उनका सेवन भी नहीं करता उसके चौथा गुणस्थान होता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ भाषा पं.जयचन्द/307 पच्चीस दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक अविरत सम्यग्दृष्टि है तथा अष्टमूलगुण धारक तथा सप्त व्यसन त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। - दर्शन प्रतिमा व व्रत प्रतिमा में अन्तर
राजवार्तिक/ हि./7/20/558 पहिली प्रतिमा में पाँच अणुव्रतों की प्रवृत्ति सम्भवै है अर इनके अतिचार दूर कर सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै।
चारित्तपाहुड़/ पं.जयचन्द/23/93 दर्शन प्रतिमा का धारक भी अणुव्रती ही है...याकैं अणुव्रत अतिचार सहित होय है तातैं व्रती नाम न कह्या दूजी प्रतिमा में अणुव्रत अतिचार रहित पालै तातैं व्रत नाम कह्या इहाँ सम्यक्त्वकैं अतीचार टालै है सम्यक्त्व ही प्रधान है तातैं दर्शन प्रतिमा नाम है (क्रिया कोष/1042-1043)। - दर्शन प्रतिमा के अतिचार
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/10 (नोट–मूल के लिए देखें सांकेतिक स्थान )। समस्त कन्दमूल का त्याग करता है, तथा पुष्प जाति का त्याग करता है। (देखें भक्ष्याभक्ष्य - 4.34)। नमक तैल आदि अमर्यादित वस्तुओं का त्याग करता है (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/2) तथा मांसादि से स्पर्शित वस्तु का त्याग (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/2) एवं द्विदल का दूध के संग त्याग करता है (दे.–भक्ष्याभक्ष्य/3) तथा रात्रि को ताम्बूल, औषधादि और जल का त्याग करता है। (देखें रात्रि भोजन )। अन्तराय टालकर भोजन करता है। (देखें अन्तराय - 2) उपरोक्त त्याग में यदि कोई दोष लगे तो वह दर्शन प्रतिमा का अतिचार कहलाता है। विशेष देखें भक्ष्याभक्ष्य ।
सप्त व्यसन के अतिचार—देखें वह वह नाम ।
- दर्शन प्रतिमा में प्रासुक पदार्थों के ग्रहण का निर्देश–देखें सचित्त ।
पुराणकोष से
श्रावक की ग्यारह भूमिकाओं में प्रथम भूमिका । इसमें श्रावक सम्यग्दर्शन में अत्यन्त दृढ़ हो जाता है और वह सात व्यसनों का त्याग कर आठ मूलगुणों को निरतिचार पालता है । वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 36