नमस्कार: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 3: | Line 3: | ||
मू.आ./25 <span class="PrakritGatha">अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं। किदिकम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो।25।</span>=<span class="HindiText">अर्हंत व सिद्ध प्रतिमा को, तप व श्रुत व अन्य गुणों में प्रधान जो तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु उनको तथा दीक्षा व शिक्षा गुरु की, सिद्धभक्ति आदि कृतकर्म द्वारा (देखें [[ कृतिकर्म#4.3 | कृतिकर्म - 4.3]]) अथवा बिना कृतिकर्म के, मन, वचन व काय तीनों का संकोचना या नमस्कार करना प्रणाम कहलाता है।</span><br /> | मू.आ./25 <span class="PrakritGatha">अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं। किदिकम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो।25।</span>=<span class="HindiText">अर्हंत व सिद्ध प्रतिमा को, तप व श्रुत व अन्य गुणों में प्रधान जो तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु उनको तथा दीक्षा व शिक्षा गुरु की, सिद्धभक्ति आदि कृतकर्म द्वारा (देखें [[ कृतिकर्म#4.3 | कृतिकर्म - 4.3]]) अथवा बिना कृतिकर्म के, मन, वचन व काय तीनों का संकोचना या नमस्कार करना प्रणाम कहलाता है।</span><br /> | ||
भगवती आराधना/754/918 <span class="PrakritText">मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणभासणं च पचण्हं। काएण संपणामो एस पयत्थो णमोक्कारो।</span>=<span class="HindiText">मन के द्वारा अर्हंतादि पंचपरमेष्ठी के गुणों का स्मरण करना, वचन के द्वारा उनके गुणों का वर्णन करना, शरीर से उनके चरणों में नमस्कार करना यह नमस्कार शब्द का अर्थ है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/728/13 )</span><br /> | भगवती आराधना/754/918 <span class="PrakritText">मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणभासणं च पचण्हं। काएण संपणामो एस पयत्थो णमोक्कारो।</span>=<span class="HindiText">मन के द्वारा अर्हंतादि पंचपरमेष्ठी के गुणों का स्मरण करना, वचन के द्वारा उनके गुणों का वर्णन करना, शरीर से उनके चरणों में नमस्कार करना यह नमस्कार शब्द का अर्थ है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/728/13 )</span><br /> | ||
धवला 8/3/42/92/7 <span class="PrakritText">पंचहि मुट्ठीहिं जिणिंदचलणेसु णिवदणं णमंसणं।</span>=<span class="HindiText">पाँच मुष्टियों अर्थात् पाँच अंगों से | धवला 8/3/42/92/7 <span class="PrakritText">पंचहि मुट्ठीहिं जिणिंदचलणेसु णिवदणं णमंसणं।</span>=<span class="HindiText">पाँच मुष्टियों अर्थात् पाँच अंगों से जिनेंद्रदेव के चरणों में गिरने को नमस्कार कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> एकांगी आदि नमस्कार विशेष</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> एकांगी आदि नमस्कार विशेष</strong></span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/8/94-95/819 <span class="SanskritGatha">योगै: प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादे: कीर्तनात्त्रिभि:। कं करौ ककरं जानुकरं ककरजानु च।94। नम्रमेकद्वित्रिचतु: | अनगारधर्मामृत/8/94-95/819 <span class="SanskritGatha">योगै: प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादे: कीर्तनात्त्रिभि:। कं करौ ककरं जानुकरं ककरजानु च।94। नम्रमेकद्वित्रिचतु:पंचांग:कायिकै क्रमात् । प्रणाम: पञ्धा वाचि यथास्थानं क्रियते स:।95।</span><br /> | ||
<span class="HindiText">टीका में उद्धृत</span>—<span class="SanskritText">मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनि:। ज्ञानादीनां | <span class="HindiText">टीका में उद्धृत</span>—<span class="SanskritText">मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनि:। ज्ञानादीनां जिनेंद्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मत:। एकांगो नमने मूर्घ्नो द्वयंग: स्यात् करयोरमि। त्र्यंग: करशिरोनामे प्रणाम: कथितो जिनै:। करजानुविनामेऽसौ चतुरंगो मनीषिभि:। करजानुशिरोनामे पंचांग: परिकीर्तित:। प्रणाम: कायिको ज्ञात्वा पंचधेति मुमुक्षुभि:। विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादिवंदने।</span>=<span class="HindiText">जिनेंद्र के ज्ञानादिक का कीर्तन करना, मन, वचन, काय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। जिसमें कायिक प्रणाम पाँच तरह का है। केवल शिर के नमाने पर एकांग, दोनों हाथों को नमाने से द्वयंग, दोनों हाथ और शिर के नमाने पर त्र्यंग, दोनों हाथ और दोनों घुटने नमाने पर चतुरंग तथा दोनों हाथ, दोनों घुटने व मस्तक नमाने पर पंचांग प्रणाम या नमस्कार कहा जाता है। सो इन पाँचों में कैसा प्रणाम कहाँ करना चाहिए ऐसा जानकर यथास्थान यथायोग्य प्रणाम करना चाहिए।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> अवनमन या नति</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> अवनमन या नति</strong></span><br /> | ||
Line 13: | Line 13: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">शिरोनति</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">शिरोनति</strong></span><br /> | ||
धवला/13/5,4,28/89/12 <span class="PrakritText"> जं जिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं।</span>=<span class="HindiText"> | धवला/13/5,4,28/89/12 <span class="PrakritText"> जं जिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं।</span>=<span class="HindiText">जिनेंद्रदेव को शिर नवाना एक सिर अर्थात् शिरोनति कहलाती है।</span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/8/90/817 <span class="SanskritText"> प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिर:। | अनगारधर्मामृत/8/90/817 <span class="SanskritText"> प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिर:। यत्पाणिकुड्मलांकं तत् क्रियायां स्याच्चतु:शिर:।</span>=<span class="HindiText">प्रकृत में शिर या शिरोनति शब्द का अर्थ भक्ति पूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथों से संयुक्त मस्तक का तीन-तीन आवर्तों के अनंतर नम्रीभूत होना समझना चाहिए।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> कृतिकर्म में नमस्कार व नति करने की विधि</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> कृतिकर्म में नमस्कार व नति करने की विधि</strong></span><br /> | ||
धवला 13/5,4,28/89/5 <span class="PrakritText">तं च तिण्णिबारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं। तं जहा‒सुद्धमणो धोदपादो जिणिंददंसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे वइसदि तमेगमोणदं। जमुट्ठिऊण जिणिंदादीणं विण्णत्तिं कादूण वइसणं तं विदियमोणदं। पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धिं काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होंति। सव्वकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा सामाइयस्स आदीए जं जिणिंदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सीसं। थोस्सामिदंडयस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं। एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि।...अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं पउत्तिं दंसणादो।</span>=<span class="HindiText">वह (अवनमन या नमस्कार) तीन बार किया जाता है, इसलिए तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा‒शुद्धमन, धौतपाद और | धवला 13/5,4,28/89/5 <span class="PrakritText">तं च तिण्णिबारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं। तं जहा‒सुद्धमणो धोदपादो जिणिंददंसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे वइसदि तमेगमोणदं। जमुट्ठिऊण जिणिंदादीणं विण्णत्तिं कादूण वइसणं तं विदियमोणदं। पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धिं काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होंति। सव्वकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा सामाइयस्स आदीए जं जिणिंदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सीसं। थोस्सामिदंडयस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं। एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि।...अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं पउत्तिं दंसणादो।</span>=<span class="HindiText">वह (अवनमन या नमस्कार) तीन बार किया जाता है, इसलिए तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा‒शुद्धमन, धौतपाद और जिनेंद्र के दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से पुलकित वदन होकर जो जिनदेव के आगे बैठना (पंचांग नमस्कार करना), प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेंद्र आदि के सामने विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा) कर बैठना यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दंडक के द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देह का उत्सर्ग करके अर्थात् कायोत्सर्ग करके, जिनदेव के अनंतगुणों का ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके जो भूमि में बैठना (नमस्कार करना) वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं। सब क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। यथा सामायिक (दंडक) के आदि में जो जिनेंद्रदेव को सिर नवाना वह एकसिर है। उसी के अंत में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। त्थोस्सामि दंडक के आदि में जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसी के अंत में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर अर्थात् चतु:प्रधान होता है, क्योंकि अर्हंत, सिद्ध, साधु और धर्म को प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। ( अनगारधर्मामृत/8/93/819 )।</span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/8/91/817 <span class="SanskritText">प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकश्चरेत् । त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति।</span>=<span class="HindiText">चैत्यादि की भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणा में पूर्वादि चारों दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशा में तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिए।<br /> | अनगारधर्मामृत/8/91/817 <span class="SanskritText">प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकश्चरेत् । त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति।</span>=<span class="HindiText">चैत्यादि की भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणा में पूर्वादि चारों दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशा में तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिए।<br /> | ||
विशेष टप्पणी‒देखें [[ कृतिकर्म#2 | कृतिकर्म - 2 ]]तथा 4/2।<br /> | विशेष टप्पणी‒देखें [[ कृतिकर्म#2 | कृतिकर्म - 2 ]]तथा 4/2।<br /> | ||
Line 33: | Line 33: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name="7" id="7"><span class="HindiText"><strong> द्रव्य व भाव नमस्कार सामान्य निर्देश</strong></span><br /> | <li name="7" id="7"><span class="HindiText"><strong> द्रव्य व भाव नमस्कार सामान्य निर्देश</strong></span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/722/897/2 <span class="SanskritText">नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/722/897/2 <span class="SanskritText">नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, उत्तमांगावनति:, कृतांजलिता द्रव्यनमस्कार:। नमस्कर्तव्यानां गुणानुरागो भावनमस्कारस्तत्र रति:।</span>=<span class="HindiText">श्री जिनेंद्रदेव को नमस्कार हो ऐसा मुख से कहना, मस्तक नम्र करना और हाथ जोड़ना यह द्रव्य नमस्कार है और नमस्कार करने योग्य व्यक्तियों के गुणों में अनुराग करना, यह भाव नमस्कार है। <strong>नोट</strong>‒द्रव्य नमस्कार विशेष के लिए‒देखें [[ शीर्षक#5 | शीर्षक - 5 ]]तथा भाव नमस्कार विशेष के लिए‒देखें [[ आगे नं#8 | आगे नं - 8]]। नाम व स्थापनादि चार भेदों के लक्षण‒देखें [[ निक्षेप ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li name="8" id="8"><span class="HindiText"><strong> भेद अभेद भाव नमस्कार निर्देश</strong></span><br /> | <li name="8" id="8"><span class="HindiText"><strong> भेद अभेद भाव नमस्कार निर्देश</strong></span><br /> | ||
प्रवचनसार/ ता.प्र./200 <span class="SanskritText">स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया | प्रवचनसार/ ता.प्र./200 <span class="SanskritText">स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यंतमव्याबाधरतत्वात्साधोरपि साक्षात्सिद्धभूतस्य स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कार:।</span><br /> | ||
प्रवचनसार/ ता.प्र./274 <span class="SanskritText">मोक्षसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य | प्रवचनसार/ ता.प्र./274 <span class="SanskritText">मोक्षसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमंगांगिभावपरिणतभाव्यभावकभावत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यंत अव्याबाध (निर्विघ्न व निश्चल) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत निज आत्मा को तथा सिद्धभूत परमात्माओं को, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो। अथवा मोक्ष के साधन तत्त्वरूप ‘शुद्ध’ को जिसमें से परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भाव्यभावता के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हुआ है ऐसा भाव नमस्कार हो। (अर्थात् अभेद रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग परिणति ही भाव नमस्कार है।)</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5/6/16 <span class="SanskritText">अहमाराधक:, एते च अर्हदादय: आराध्या इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते। रागाद्युपाधिरहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभाव: पुनद्वैतनमस्कारो भण्यते।</span>=<span class="HindiText">’मैं आराधक हूँ और ये अर्हंत आदि आराध्य हैं,’ इस प्रकार आराध्य-आराधक के विकल्परूप द्वैत नमस्कार है, तथा रागादिरूप उपाधि के विकल्प से रहित परमसमाधि के बल से आत्मा में (तन्मयतारूप) आराध्य-आराधक भाव का होना अद्वैत नमस्कार कहलाता है।</span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/1/4/12 <span class="SanskritText">एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनलक्षणभावस्तवनेन, असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5/6/16 <span class="SanskritText">अहमाराधक:, एते च अर्हदादय: आराध्या इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते। रागाद्युपाधिरहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभाव: पुनद्वैतनमस्कारो भण्यते।</span>=<span class="HindiText">’मैं आराधक हूँ और ये अर्हंत आदि आराध्य हैं,’ इस प्रकार आराध्य-आराधक के विकल्परूप द्वैत नमस्कार है, तथा रागादिरूप उपाधि के विकल्प से रहित परमसमाधि के बल से आत्मा में (तन्मयतारूप) आराध्य-आराधक भाव का होना अद्वैत नमस्कार कहलाता है।</span><br> द्रव्यसंग्रह टीका/1/4/12 <span class="SanskritText">एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनलक्षणभावस्तवनेन, असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च ‘वंदे’ नमस्करोमि। परमशुद्धनिश्चयनयेन पुनर्वंद्यवंदकभावो नास्ति।</span>=<span class="HindiText">एकदेश शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से निज शुद्धात्मा का आराधन करने रूप भावस्तवन से और असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा उस निजशुद्धात्मा का प्रतिपादन करने वाले वचनरूप द्रव्यस्तवन से नमस्कार करता हूँ। तथा परम शुद्धनिश्चयनय से वंद्य-वंदक भाव नहीं है। </span> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/20 <span class="SanskritText">अनंतज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्धनिश्चयनयेन, नमो जिनेभ्य इति वचनात्मद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेनशुद्धनिश्चयनयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव:।</span>=<span class="HindiText">भगवान् के अनंतज्ञानादि गुणों के स्मरणरूप भावनमस्कार अशुद्ध निश्चयनय से है। ‘जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार हो’ ऐसा वचनात्मक द्रव्यनमस्कार भी असद्भूत व्यवहारनय से है। शुद्धनिश्चयनय से तो अपने में ही आराध्य-आराधक भाव होता है। विशेषार्थ‒वचन और काय से किया गया द्रव्य नमस्कार व्यवहारनय से नमस्कार है। मन से किया गया भाव नमस्कार तीन प्रकार का है‒भगवान् के गुण चिंतवनरूप, निजात्मा के गुण चिंतवनरूप तथा शुद्धात्म संवेदनरूप। तहाँ पहला और दूसरा भेद या द्वैतरूप हैं और तीसरा अभेद व अद्वैतरूप। पहला अशुद्ध निश्चयनय से नमस्कार है, दूसरा एकदेश शुद्धनिश्चयनय से नमस्कार है और तीसरा साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से नमस्कार है। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> साधुओं आदि को नमस्कार करने | <li><span class="HindiText"><strong> साधुओं आदि को नमस्कार करने संबंधी‒</strong>देखें [[ विनय ]]।</span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
Line 47: | Line 47: | ||
[[ नभस्तिलक | पूर्व पृष्ठ ]] | [[ नभस्तिलक | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ नमस्कार | [[ नमस्कार मंत्र | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: न]] | [[Category: न]] |
Revision as of 16:26, 19 August 2020
- नमस्कार व प्रणाम सामान्य
मू.आ./25 अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं। किदिकम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो।25।=अर्हंत व सिद्ध प्रतिमा को, तप व श्रुत व अन्य गुणों में प्रधान जो तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु उनको तथा दीक्षा व शिक्षा गुरु की, सिद्धभक्ति आदि कृतकर्म द्वारा (देखें कृतिकर्म - 4.3) अथवा बिना कृतिकर्म के, मन, वचन व काय तीनों का संकोचना या नमस्कार करना प्रणाम कहलाता है।
भगवती आराधना/754/918 मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणभासणं च पचण्हं। काएण संपणामो एस पयत्थो णमोक्कारो।=मन के द्वारा अर्हंतादि पंचपरमेष्ठी के गुणों का स्मरण करना, वचन के द्वारा उनके गुणों का वर्णन करना, शरीर से उनके चरणों में नमस्कार करना यह नमस्कार शब्द का अर्थ है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/728/13 )
धवला 8/3/42/92/7 पंचहि मुट्ठीहिं जिणिंदचलणेसु णिवदणं णमंसणं।=पाँच मुष्टियों अर्थात् पाँच अंगों से जिनेंद्रदेव के चरणों में गिरने को नमस्कार कहते हैं।
- एकांगी आदि नमस्कार विशेष
अनगारधर्मामृत/8/94-95/819 योगै: प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादे: कीर्तनात्त्रिभि:। कं करौ ककरं जानुकरं ककरजानु च।94। नम्रमेकद्वित्रिचतु:पंचांग:कायिकै क्रमात् । प्रणाम: पञ्धा वाचि यथास्थानं क्रियते स:।95।
टीका में उद्धृत—मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनि:। ज्ञानादीनां जिनेंद्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मत:। एकांगो नमने मूर्घ्नो द्वयंग: स्यात् करयोरमि। त्र्यंग: करशिरोनामे प्रणाम: कथितो जिनै:। करजानुविनामेऽसौ चतुरंगो मनीषिभि:। करजानुशिरोनामे पंचांग: परिकीर्तित:। प्रणाम: कायिको ज्ञात्वा पंचधेति मुमुक्षुभि:। विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादिवंदने।=जिनेंद्र के ज्ञानादिक का कीर्तन करना, मन, वचन, काय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। जिसमें कायिक प्रणाम पाँच तरह का है। केवल शिर के नमाने पर एकांग, दोनों हाथों को नमाने से द्वयंग, दोनों हाथ और शिर के नमाने पर त्र्यंग, दोनों हाथ और दोनों घुटने नमाने पर चतुरंग तथा दोनों हाथ, दोनों घुटने व मस्तक नमाने पर पंचांग प्रणाम या नमस्कार कहा जाता है। सो इन पाँचों में कैसा प्रणाम कहाँ करना चाहिए ऐसा जानकर यथास्थान यथायोग्य प्रणाम करना चाहिए।
- अवनमन या नति
धवला 13/5,4,28/89/5 ओणदं अवनमनं भूमावासनमित्यर्थ:।=ओणद का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमि में बैठना है।
- शिरोनति
धवला/13/5,4,28/89/12 जं जिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं।=जिनेंद्रदेव को शिर नवाना एक सिर अर्थात् शिरोनति कहलाती है।
अनगारधर्मामृत/8/90/817 प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिर:। यत्पाणिकुड्मलांकं तत् क्रियायां स्याच्चतु:शिर:।=प्रकृत में शिर या शिरोनति शब्द का अर्थ भक्ति पूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथों से संयुक्त मस्तक का तीन-तीन आवर्तों के अनंतर नम्रीभूत होना समझना चाहिए।
- कृतिकर्म में नमस्कार व नति करने की विधि
धवला 13/5,4,28/89/5 तं च तिण्णिबारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं। तं जहा‒सुद्धमणो धोदपादो जिणिंददंसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे वइसदि तमेगमोणदं। जमुट्ठिऊण जिणिंदादीणं विण्णत्तिं कादूण वइसणं तं विदियमोणदं। पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धिं काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होंति। सव्वकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा सामाइयस्स आदीए जं जिणिंदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सीसं। थोस्सामिदंडयस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं। एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि।...अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं पउत्तिं दंसणादो।=वह (अवनमन या नमस्कार) तीन बार किया जाता है, इसलिए तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा‒शुद्धमन, धौतपाद और जिनेंद्र के दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से पुलकित वदन होकर जो जिनदेव के आगे बैठना (पंचांग नमस्कार करना), प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेंद्र आदि के सामने विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा) कर बैठना यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दंडक के द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देह का उत्सर्ग करके अर्थात् कायोत्सर्ग करके, जिनदेव के अनंतगुणों का ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके जो भूमि में बैठना (नमस्कार करना) वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं। सब क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। यथा सामायिक (दंडक) के आदि में जो जिनेंद्रदेव को सिर नवाना वह एकसिर है। उसी के अंत में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। त्थोस्सामि दंडक के आदि में जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसी के अंत में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर अर्थात् चतु:प्रधान होता है, क्योंकि अर्हंत, सिद्ध, साधु और धर्म को प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। ( अनगारधर्मामृत/8/93/819 )।
अनगारधर्मामृत/8/91/817 प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकश्चरेत् । त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति।=चैत्यादि की भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणा में पूर्वादि चारों दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशा में तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिए।
विशेष टप्पणी‒देखें कृतिकर्म - 2 तथा 4/2।
- अधिक बार करने का निषेध नहीं‒देखें कृतिकर्म - 2.9।
- नमस्कार के आध्यात्मिक भेद
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/722/897/2 नमस्कारो द्विविध: द्रव्यनमस्कारो भावनमस्कार:।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/753/916/5 नमस्कार: नामस्थापनाद्रव्यभावविकल्पेन चतुर्धा व्यवस्थित:।=नमस्कार दो प्रकार का है‒द्रव्य नमस्कार व भाव नमस्कार। अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव की अपेक्षा नमस्कार चार प्रकार का है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/9 आशीर्वस्तुनमस्क्रियाभेदेन नमस्कारस्त्रिधा।=आशीर्वाद, वस्तु और नमस्क्रिया के भेद से नमस्कार तीन प्रकार का होता है।
- द्रव्य व भाव नमस्कार सामान्य निर्देश
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/722/897/2 नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, उत्तमांगावनति:, कृतांजलिता द्रव्यनमस्कार:। नमस्कर्तव्यानां गुणानुरागो भावनमस्कारस्तत्र रति:।=श्री जिनेंद्रदेव को नमस्कार हो ऐसा मुख से कहना, मस्तक नम्र करना और हाथ जोड़ना यह द्रव्य नमस्कार है और नमस्कार करने योग्य व्यक्तियों के गुणों में अनुराग करना, यह भाव नमस्कार है। नोट‒द्रव्य नमस्कार विशेष के लिए‒देखें शीर्षक - 5 तथा भाव नमस्कार विशेष के लिए‒देखें आगे नं - 8। नाम व स्थापनादि चार भेदों के लक्षण‒देखें निक्षेप ।
- भेद अभेद भाव नमस्कार निर्देश
प्रवचनसार/ ता.प्र./200 स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यंतमव्याबाधरतत्वात्साधोरपि साक्षात्सिद्धभूतस्य स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कार:।
प्रवचनसार/ ता.प्र./274 मोक्षसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमंगांगिभावपरिणतभाव्यभावकभावत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु।=इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यंत अव्याबाध (निर्विघ्न व निश्चल) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत निज आत्मा को तथा सिद्धभूत परमात्माओं को, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो। अथवा मोक्ष के साधन तत्त्वरूप ‘शुद्ध’ को जिसमें से परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भाव्यभावता के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हुआ है ऐसा भाव नमस्कार हो। (अर्थात् अभेद रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग परिणति ही भाव नमस्कार है।)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5/6/16 अहमाराधक:, एते च अर्हदादय: आराध्या इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते। रागाद्युपाधिरहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभाव: पुनद्वैतनमस्कारो भण्यते।=’मैं आराधक हूँ और ये अर्हंत आदि आराध्य हैं,’ इस प्रकार आराध्य-आराधक के विकल्परूप द्वैत नमस्कार है, तथा रागादिरूप उपाधि के विकल्प से रहित परमसमाधि के बल से आत्मा में (तन्मयतारूप) आराध्य-आराधक भाव का होना अद्वैत नमस्कार कहलाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/1/4/12 एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनलक्षणभावस्तवनेन, असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च ‘वंदे’ नमस्करोमि। परमशुद्धनिश्चयनयेन पुनर्वंद्यवंदकभावो नास्ति।=एकदेश शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से निज शुद्धात्मा का आराधन करने रूप भावस्तवन से और असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा उस निजशुद्धात्मा का प्रतिपादन करने वाले वचनरूप द्रव्यस्तवन से नमस्कार करता हूँ। तथा परम शुद्धनिश्चयनय से वंद्य-वंदक भाव नहीं है। पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/20 अनंतज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्धनिश्चयनयेन, नमो जिनेभ्य इति वचनात्मद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेनशुद्धनिश्चयनयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव:।=भगवान् के अनंतज्ञानादि गुणों के स्मरणरूप भावनमस्कार अशुद्ध निश्चयनय से है। ‘जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार हो’ ऐसा वचनात्मक द्रव्यनमस्कार भी असद्भूत व्यवहारनय से है। शुद्धनिश्चयनय से तो अपने में ही आराध्य-आराधक भाव होता है। विशेषार्थ‒वचन और काय से किया गया द्रव्य नमस्कार व्यवहारनय से नमस्कार है। मन से किया गया भाव नमस्कार तीन प्रकार का है‒भगवान् के गुण चिंतवनरूप, निजात्मा के गुण चिंतवनरूप तथा शुद्धात्म संवेदनरूप। तहाँ पहला और दूसरा भेद या द्वैतरूप हैं और तीसरा अभेद व अद्वैतरूप। पहला अशुद्ध निश्चयनय से नमस्कार है, दूसरा एकदेश शुद्धनिश्चयनय से नमस्कार है और तीसरा साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से नमस्कार है।
- साधुओं आदि को नमस्कार करने संबंधी‒देखें विनय ।