निश्चय व व्यवहार का कथंचित् मुख्यता गौणता तथा समन्वय: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
</span> समयसार / आत्मख्याति/153 <span class="SanskritText">ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनां....शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। </span>= <span class="HindiText">ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में स्वयं ही अज्ञानरूप होने वाले अज्ञानियों के | </span> समयसार / आत्मख्याति/153 <span class="SanskritText">ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनां....शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। </span>= <span class="HindiText">ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में स्वयं ही अज्ञानरूप होने वाले अज्ञानियों के अंतरंग में व्रत नियम आदि शुभ कर्मों का सद्भाव होने पर भी मोक्ष का अभाव है। अज्ञान ही बंध का कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानरूप होने वाले ज्ञानियों के बाह्य व्रतादि शुभकर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है। ( समयसार / आत्मख्याति/151, 152 )। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 <span class="SanskritText">आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 <span class="SanskritText">आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">आगमज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत करना। </span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/2 <span class="SanskritText"> ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति वचनात्, मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं.......। </span>= <span class="HindiText">‘सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा वचन होने से मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है। <br /> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/2 <span class="SanskritText"> ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति वचनात्, मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं.......। </span>= <span class="HindiText">‘सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा वचन होने से मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार ब्र. त. प्र./199 <span class="PrakritGatha">एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।199। </span><span class="SanskritText">यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थंकराःअचरमशरीरमुमुक्षुश्चामुनैवयथोदितेन शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति। </span>=<span class="HindiText"> | प्रवचनसार ब्र. त. प्र./199 <span class="PrakritGatha">एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।199। </span><span class="SanskritText">यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थंकराःअचरमशरीरमुमुक्षुश्चामुनैवयथोदितेन शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति। </span>=<span class="HindiText"> जिनेंद्र और श्रमण अर्थात् तीर्थंकर और अन्य सामान्य मुनि इस पूर्वोक्त प्रकार से मार्ग में आरूढ़ होते हुए सिद्ध हुए हैं। नमस्कार हो उन्हें और उस निर्वाण मार्ग को। सभी सामान्य चरमशरीर, तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्म तत्त्ववृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं, किंतु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हुए हों। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। ( प्रवचनसार व. त. प्र./82)। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/412/ क. 240 <span class="SanskritText">एको | समयसार / आत्मख्याति/412/ क. 240 <span class="SanskritText">एको मोक्षपंथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति अंतमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशं, सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति।240। </span>= <span class="HindiText">दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है, उसी का निरंतर ध्यान करता है, उसी का अनुभव करता है और अन्य द्रव्यों को स्पर्श न करता हुआ उसी में निरंतर विहार करता है, वह पुरुष नित्य-उदित-समयसार को अल्पकाल में ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है। </span><br /> | ||
यो. सा./अ./8/88 <span class="SanskritGatha">एक एव सदा तेषां | यो. सा./अ./8/88 <span class="SanskritGatha">एक एव सदा तेषां पंथाः सम्यक्त्वपरायिणाम्। व्यक्तीनामिव सामान्यं दशाभेदोऽपि जायते।88। </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार व्यक्ति सामान्य रूप से एक होता हुआ भी अवस्था भेद से ब्राह्मण क्षत्रिय आदि कहलाता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग एक होते हुए भी अवस्थाभेद से औपशमिक क्षायिक आदि कहलाता है। </span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18/ क 34 <span class="SanskritText">असति सति विभावे तस्य | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18/ क 34 <span class="SanskritText">असति सति विभावे तस्य चिंतास्ति नो नः, सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्। हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं, न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात्।34। </span>= <span class="HindiText">विभाव हो अथवा न हो उसकी हमें चिंता नहीं है। हम तो हृदयकमल में स्थित सर्व कर्मों से विमुक्त, एक शुद्धात्मा का ही अनुभवन करते हैं। क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकार से किया जाता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकार से किया जाता है</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242/ क 16 <span class="SanskritText">इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवंस्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः। दृष्ट्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242/ क 16 <span class="SanskritText">इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवंस्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः। दृष्ट्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कंदतामास्कंदत्वचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसंत्याश्चितेः।16।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार प्रतिपादक के वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ, एकलक्षणता को तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो मोक्ष का मार्ग है, उसे लोक द्रष्टा ज्ञाता में परिणति बाँधकर, अचलरूप से अवलंबन करे, जिससे कि वह उल्लसित चेतना के अतुल विश्वास को अल्पकाल में प्राप्त हो। <br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/365/20 सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं। मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार का है।...एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसै दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। ( दर्शनपाहुड़/ पं. | मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/365/20 सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं। मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार का है।...एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसै दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। ( दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> व्यवहारमार्ग की कथंचित् गौणता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> व्यवहारमार्ग की कथंचित् गौणता</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/376 <span class="PrakritGatha">भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो वि य सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।376। </span>= <span class="HindiText">अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जीव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभ के आधीन रहता हुआ ‘कर्ता’ कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है। </span><br /> | नयचक्र बृहद्/376 <span class="PrakritGatha">भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो वि य सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।376। </span>= <span class="HindiText">अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जीव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभ के आधीन रहता हुआ ‘कर्ता’ कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/276 −277 <span class="SanskritText">आचारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः। शुद्धात्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां | समयसार / आत्मख्याति/276 −277 <span class="SanskritText">आचारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः। शुद्धात्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां ज्ञानाद्यस्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः। तथा हि नाचारादिशब्दश्रुतमेकांतेन ज्ञानास्याश्रय:....शुद्धात्मैव ज्ञानस्याश्रयः....। </span>= <span class="HindiText">आचारांगादि शब्द श्रुतज्ञान का आश्रय होने से ज्ञान हैं, जीवादि नवपदार्थ दर्शन का आश्रय होने से दर्शन हैं और छह जीवनिकाय चारित्र का आश्रय होने से चारित्र हैं, इस प्रकार तो व्यवहार मार्ग है। शुद्धात्मा ही ज्ञान का, दर्शन का व चारित्र का आश्रय होने से ज्ञान दर्शन व चारित्र है, इस प्रकार निश्चयमार्ग है। तहाँ आचारांगादि को ज्ञानादि का आश्रयपना व्यभिचारी होने से व्यवहारमार्ग निषेध्य है और शुद्धात्मा को ज्ञानादि का आश्रयपना निश्चित होने से निश्चयमार्ग उसका निषेधक है। वह इस प्रकार कि आचारांगादि एकांत से ज्ञानादि के आश्रय नहीं हैं और शुद्धात्मा एकांत से ज्ञान का आश्रय है। (क्योंकि आचारांगादि के सद्भाव में भी अभव्य को ज्ञानादि का अभाव है और उनके सद्भाव अथवा असद्भाव में भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञानादि का सद्भाव है)। </span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91/ क 122 <span class="SanskritText">त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदो। शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं, श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे।122।</span> = <span class="HindiText">समस्त विभाव को तथा व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान् पुरुष शुद्धात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान, श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है। <br /> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91/ क 122 <span class="SanskritText">त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदो। शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं, श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे।122।</span> = <span class="HindiText">समस्त विभाव को तथा व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान् पुरुष शुद्धात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान, श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> व्यवहारमार्ग निश्चय का साधन है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> व्यवहारमार्ग निश्चय का साधन है</strong> </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./2/14 <span class="PrakritGatha">जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु। तं परियाणहिं जीव तुहुँ | परमात्मप्रकाश/ मू./2/14 <span class="PrakritGatha">जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु। तं परियाणहिं जीव तुहुँ जँ परु होइ पवित्तु।14। </span>=<span class="HindiText"> हे जीव ! व्यवहारनय जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रूप रत्नत्रय को कहता है, उसको तू जान। जिससे कि तू पवित्र हो जावे। </span><br /> | ||
आराधना सार/7/30 <span class="SanskritText">जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्गं न निश्चयं ज्ञातुमपैतिशक्तिम्। प्रभाविकाशे | आराधना सार/7/30 <span class="SanskritText">जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्गं न निश्चयं ज्ञातुमपैतिशक्तिम्। प्रभाविकाशे क्षणमंतरेण भानूदयं को वदते विवेकी।</span> = <span class="HindiText">व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चयमार्ग को जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे कि प्रभात हुए बिना सूर्य का उदय नहीं हो सकता। </span><br /> | ||
तत्त्वसार/9/2 <span class="SanskritText">निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्।</span> =<span class="HindiText"> निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। ( नयचक्र बृहद्/341 में उदृधृत गाथा नं. 2); ( तत्त्वानुशासन/28 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/12/126/5; 2/14/129/1 )। </span><br /> | तत्त्वसार/9/2 <span class="SanskritText">निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्।</span> =<span class="HindiText"> निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। ( नयचक्र बृहद्/341 में उदृधृत गाथा नं. 2); ( तत्त्वानुशासन/28 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/12/126/5; 2/14/129/1 )। </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/159 <span class="SanskritText">न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्णपाषाणवत्।</span> = <span class="HindiText">(निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभाव से तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्ग का दो प्रकार प्ररूपण किया गया है) इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहार को साध्यसाधनपना है [अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोग से शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्ग को प्राप्त हो जाता है। (देखें [[ पं ]]का./ता. वृ./160/232/14); ( द्रव्यसंग्रह टीका/39/162/11 )]। </span><br /> | पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/159 <span class="SanskritText">न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्णपाषाणवत्।</span> = <span class="HindiText">(निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभाव से तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्ग का दो प्रकार प्ररूपण किया गया है) इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहार को साध्यसाधनपना है [अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोग से शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्ग को प्राप्त हो जाता है। (देखें [[ पं ]]का./ता. वृ./160/232/14); ( द्रव्यसंग्रह टीका/39/162/11 )]। </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/1/92/101 <span class="SanskritGatha">उद्योतोद्यवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भजनम्। भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साध्यत्येव वास्तवम्।92। </span><span class="HindiText">उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायों के द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्ग को नियम से प्राप्त करता है। </span><br /> | अनगारधर्मामृत/1/92/101 <span class="SanskritGatha">उद्योतोद्यवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भजनम्। भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साध्यत्येव वास्तवम्।92। </span><span class="HindiText">उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायों के द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्ग को नियम से प्राप्त करता है। </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/105/167 <span class="SanskritText">निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपरया कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम्। </span>=<span class="HindiText"> व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/105/167 <span class="SanskritText">निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपरया कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम्। </span>=<span class="HindiText"> व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का परंपरा कारण है। </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/2/14/128/10 हे जीव ! ....<span class="SanskritText">.निश्चमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्गं जानीहि। त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतोः भविष्यसि। | परमात्मप्रकाश टीका/2/14/128/10 हे जीव ! ....<span class="SanskritText">.निश्चमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्गं जानीहि। त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतोः भविष्यसि। परंपरया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि।</span> = <span class="HindiText">हे जीव ! तू निश्चय मोक्षमार्ग के साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को जान। उसको जानने से तू परंपरा में जाकर परमात्मा हो जायेगा। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> दोनों के साध्य-साधन भाव की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> दोनों के साध्य-साधन भाव की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ. 55 <span class="SanskritText">व्यवहारप्रसिद्ध्यैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति। सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात्।</span> = <span class="HindiText">व्यवहार की प्रसिद्धि के साथ निश्चय की सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकार से नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा समीचीन प्रकार से सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रय की समीचीन सिद्धि होती है। </span><br /> | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ. 55 <span class="SanskritText">व्यवहारप्रसिद्ध्यैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति। सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात्।</span> = <span class="HindiText">व्यवहार की प्रसिद्धि के साथ निश्चय की सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकार से नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा समीचीन प्रकार से सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रय की समीचीन सिद्धि होती है। </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/2/14/129/1 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः। निश्चमोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भविष्यतीति। अत्र परिहारमाह। भूतनैगमनयेन | परमात्मप्रकाश टीका/2/14/129/1 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः। निश्चमोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भविष्यतीति। अत्र परिहारमाह। भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति। अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानंतज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः।</span> <span class="PrakritText">सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्ग विषये संवादगाथामाह−जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं। सवियप्पं सासवयं निरासवं विगयसंकप्पं।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उसके होते हुए सविकल्प (व्यवहार) मोक्षमार्ग नहीं होता। तब वह निश्चय का साधक कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर−</strong>भूतनैगमनय की अपेक्षा परंपरा से वह साधक हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकार से यों समझ लीजिए कि सविकल्प व निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग है। तहाँ ‘मैं अनंत ज्ञानस्वरूप हूँ’ इत्यादि रूप सविकल्प मार्ग तो साधक होता है और निर्विकल्प समाधिरूप साध्य होता है, ऐसा भावार्थ है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/159/230/10 )। <br /> | ||
पंचास्तिकाय/ पं. हेमराज/161/233/17= <strong>प्रश्न−</strong>जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किसलिये कहाँ ? <strong>उत्तर−</strong>यह आत्मा अनादि अविद्या से युक्त है, जब काललब्धि पाने से उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति होती है।...(तब) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाश का उपाय....सम्यक् रत्नत्रय के ग्रहण करने का विचार होता है। इस विचार के होने पर जो (अविद्या) अनादि का ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है । तत्पश्चात् कभी आचरण में दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते हैं और जिस काल में शुद्धात्म-तत्त्व का उदय होता है, तब...ग्रहण त्यजन की बुद्धि मिट जाती है....स्वरूप गुप्त होता है।...तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्ग कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्यसाधन भाव की सिद्धि होती है। </span></li> | पंचास्तिकाय/ पं. हेमराज/161/233/17= <strong>प्रश्न−</strong>जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किसलिये कहाँ ? <strong>उत्तर−</strong>यह आत्मा अनादि अविद्या से युक्त है, जब काललब्धि पाने से उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति होती है।...(तब) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाश का उपाय....सम्यक् रत्नत्रय के ग्रहण करने का विचार होता है। इस विचार के होने पर जो (अविद्या) अनादि का ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है । तत्पश्चात् कभी आचरण में दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते हैं और जिस काल में शुद्धात्म-तत्त्व का उदय होता है, तब...ग्रहण त्यजन की बुद्धि मिट जाती है....स्वरूप गुप्त होता है।...तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्ग कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्यसाधन भाव की सिद्धि होती है। </span></li> | ||
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Revision as of 16:27, 19 August 2020
- निश्चय व व्यवहार का कथंचित् मुख्यता गौणता तथा समन्वय
- निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता
समयसार / आत्मख्याति/153 ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनां....शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। = ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में स्वयं ही अज्ञानरूप होने वाले अज्ञानियों के अंतरंग में व्रत नियम आदि शुभ कर्मों का सद्भाव होने पर भी मोक्ष का अभाव है। अज्ञान ही बंध का कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानरूप होने वाले ज्ञानियों के बाह्य व्रतादि शुभकर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है। ( समयसार / आत्मख्याति/151, 152 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/238 आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमंतव्यम्। = आगमज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत करना।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/2 ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति वचनात्, मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं.......। = ‘सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा वचन होने से मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है।
- निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं
प्रवचनसार ब्र. त. प्र./199 एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।199। यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थंकराःअचरमशरीरमुमुक्षुश्चामुनैवयथोदितेन शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति। = जिनेंद्र और श्रमण अर्थात् तीर्थंकर और अन्य सामान्य मुनि इस पूर्वोक्त प्रकार से मार्ग में आरूढ़ होते हुए सिद्ध हुए हैं। नमस्कार हो उन्हें और उस निर्वाण मार्ग को। सभी सामान्य चरमशरीर, तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्म तत्त्ववृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं, किंतु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हुए हों। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। ( प्रवचनसार व. त. प्र./82)।
समयसार / आत्मख्याति/412/ क. 240 एको मोक्षपंथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति अंतमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशं, सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति।240। = दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है, उसी का निरंतर ध्यान करता है, उसी का अनुभव करता है और अन्य द्रव्यों को स्पर्श न करता हुआ उसी में निरंतर विहार करता है, वह पुरुष नित्य-उदित-समयसार को अल्पकाल में ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है।
यो. सा./अ./8/88 एक एव सदा तेषां पंथाः सम्यक्त्वपरायिणाम्। व्यक्तीनामिव सामान्यं दशाभेदोऽपि जायते।88। = जिस प्रकार व्यक्ति सामान्य रूप से एक होता हुआ भी अवस्था भेद से ब्राह्मण क्षत्रिय आदि कहलाता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग एक होते हुए भी अवस्थाभेद से औपशमिक क्षायिक आदि कहलाता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18/ क 34 असति सति विभावे तस्य चिंतास्ति नो नः, सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्। हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं, न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात्।34। = विभाव हो अथवा न हो उसकी हमें चिंता नहीं है। हम तो हृदयकमल में स्थित सर्व कर्मों से विमुक्त, एक शुद्धात्मा का ही अनुभवन करते हैं। क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है ।
- केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकार से किया जाता है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242/ क 16 इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवंस्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः। दृष्ट्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कंदतामास्कंदत्वचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसंत्याश्चितेः।16। = इस प्रकार प्रतिपादक के वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ, एकलक्षणता को तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो मोक्ष का मार्ग है, उसे लोक द्रष्टा ज्ञाता में परिणति बाँधकर, अचलरूप से अवलंबन करे, जिससे कि वह उल्लसित चेतना के अतुल विश्वास को अल्पकाल में प्राप्त हो।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/365/20 सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं। मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार का है।...एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसै दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। ( दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2)।
- व्यवहारमार्ग की कथंचित् गौणता
नयचक्र बृहद्/376 भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो वि य सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।376। = अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जीव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभ के आधीन रहता हुआ ‘कर्ता’ कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है।
समयसार / आत्मख्याति/276 −277 आचारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः। शुद्धात्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां ज्ञानाद्यस्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः। तथा हि नाचारादिशब्दश्रुतमेकांतेन ज्ञानास्याश्रय:....शुद्धात्मैव ज्ञानस्याश्रयः....। = आचारांगादि शब्द श्रुतज्ञान का आश्रय होने से ज्ञान हैं, जीवादि नवपदार्थ दर्शन का आश्रय होने से दर्शन हैं और छह जीवनिकाय चारित्र का आश्रय होने से चारित्र हैं, इस प्रकार तो व्यवहार मार्ग है। शुद्धात्मा ही ज्ञान का, दर्शन का व चारित्र का आश्रय होने से ज्ञान दर्शन व चारित्र है, इस प्रकार निश्चयमार्ग है। तहाँ आचारांगादि को ज्ञानादि का आश्रयपना व्यभिचारी होने से व्यवहारमार्ग निषेध्य है और शुद्धात्मा को ज्ञानादि का आश्रयपना निश्चित होने से निश्चयमार्ग उसका निषेधक है। वह इस प्रकार कि आचारांगादि एकांत से ज्ञानादि के आश्रय नहीं हैं और शुद्धात्मा एकांत से ज्ञान का आश्रय है। (क्योंकि आचारांगादि के सद्भाव में भी अभव्य को ज्ञानादि का अभाव है और उनके सद्भाव अथवा असद्भाव में भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञानादि का सद्भाव है)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91/ क 122 त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदो। शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं, श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे।122। = समस्त विभाव को तथा व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान् पुरुष शुद्धात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान, श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है।
- व्यवहारमार्ग निश्चय का साधन है
परमात्मप्रकाश/ मू./2/14 जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु। तं परियाणहिं जीव तुहुँ जँ परु होइ पवित्तु।14। = हे जीव ! व्यवहारनय जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रूप रत्नत्रय को कहता है, उसको तू जान। जिससे कि तू पवित्र हो जावे।
आराधना सार/7/30 जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्गं न निश्चयं ज्ञातुमपैतिशक्तिम्। प्रभाविकाशे क्षणमंतरेण भानूदयं को वदते विवेकी। = व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चयमार्ग को जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे कि प्रभात हुए बिना सूर्य का उदय नहीं हो सकता।
तत्त्वसार/9/2 निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्। = निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। ( नयचक्र बृहद्/341 में उदृधृत गाथा नं. 2); ( तत्त्वानुशासन/28 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/12/126/5; 2/14/129/1 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/159 न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्णपाषाणवत्। = (निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभाव से तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्ग का दो प्रकार प्ररूपण किया गया है) इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहार को साध्यसाधनपना है [अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोग से शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्ग को प्राप्त हो जाता है। (देखें पं का./ता. वृ./160/232/14); ( द्रव्यसंग्रह टीका/39/162/11 )]।
अनगारधर्मामृत/1/92/101 उद्योतोद्यवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भजनम्। भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साध्यत्येव वास्तवम्।92। उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायों के द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्ग को नियम से प्राप्त करता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/105/167 निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपरया कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम्। = व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का परंपरा कारण है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/14/128/10 हे जीव ! .....निश्चमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्गं जानीहि। त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतोः भविष्यसि। परंपरया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि। = हे जीव ! तू निश्चय मोक्षमार्ग के साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को जान। उसको जानने से तू परंपरा में जाकर परमात्मा हो जायेगा।
- दोनों के साध्य-साधन भाव की सिद्धि
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ. 55 व्यवहारप्रसिद्ध्यैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति। सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात्। = व्यवहार की प्रसिद्धि के साथ निश्चय की सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकार से नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा समीचीन प्रकार से सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रय की समीचीन सिद्धि होती है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/14/129/1 अत्राह शिष्यः। निश्चमोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भविष्यतीति। अत्र परिहारमाह। भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति। अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानंतज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः। सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्ग विषये संवादगाथामाह−जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं। सवियप्पं सासवयं निरासवं विगयसंकप्पं। = प्रश्न−निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उसके होते हुए सविकल्प (व्यवहार) मोक्षमार्ग नहीं होता। तब वह निश्चय का साधक कैसे हो सकता है ? उत्तर−भूतनैगमनय की अपेक्षा परंपरा से वह साधक हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकार से यों समझ लीजिए कि सविकल्प व निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग है। तहाँ ‘मैं अनंत ज्ञानस्वरूप हूँ’ इत्यादि रूप सविकल्प मार्ग तो साधक होता है और निर्विकल्प समाधिरूप साध्य होता है, ऐसा भावार्थ है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/159/230/10 )।
पंचास्तिकाय/ पं. हेमराज/161/233/17= प्रश्न−जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किसलिये कहाँ ? उत्तर−यह आत्मा अनादि अविद्या से युक्त है, जब काललब्धि पाने से उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति होती है।...(तब) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाश का उपाय....सम्यक् रत्नत्रय के ग्रहण करने का विचार होता है। इस विचार के होने पर जो (अविद्या) अनादि का ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है । तत्पश्चात् कभी आचरण में दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते हैं और जिस काल में शुद्धात्म-तत्त्व का उदय होता है, तब...ग्रहण त्यजन की बुद्धि मिट जाती है....स्वरूप गुप्त होता है।...तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्ग कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्यसाधन भाव की सिद्धि होती है।
- निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता