पूरनकश्यप: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बौद्धग्रंथ महापरि-निर्वाण सूत्र, महावग्ग, औदिव्यावाहन आदि के अनुसार यह महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों में से एक थे। एक म्लेच्छ स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कश्यप इनका नाम था। इससे पहले 99 जन्म धारण करके अब इनका सौंवा जन्म हुआ था इसीलिए इनका नाम पूरन कश्यप पड़ गया था। गुरुप्रदत्त नाम द्वारपाल था। वह नाम पसंद न आया। तब गुरु से पृथक् होकर अकेला वन में नग्न रहने लगे और अपने को सर्वज्ञ व अर्हंत आदि कहने लगे। 500 व्यक्ति उनके शिष्य हो गये। बौद्धों के अनुसार वह अवीचि नामक नरक के निवासी माने जाते हैं। मुत्तपिटक के दीर्घनिकाय (बौद्धग्रंथ) के अनुसार वह असत्कर्म में पाप और सत्कर्म में पुण्य नहीं मानते थे। कृत कर्मों का फल भविष्यत् में मिलना प्रामाणिक नहीं। बौद्ध मतवाले इसे मंखलि गोशाल कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> श्वेतांबरीसूत्र ‘उवासकदसांग’ के अनुसार वह श्रावस्ती के अंतर्गत शरवण के समीप उत्पन्न हुआ था। पिता का नाम ‘मंखलि’ था। एक दिन वर्षा में इसके माता-पिता दोनों एक गोशाल में ठहर गये। उनके पुत्र का नाम उन्होंने गोशाल रखा। अपने स्वामी से झगड़कर वह भागा। स्वामी ने वस्त्र खेंचे जिससे वह नग्न हो गया। फिर वह साधु हो गया। उसके हजारों शिष्य हो गये। बुद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचि नरक में गया। ( दर्शनसार/ प्र. 32-34/प्रेमीजी)। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> दर्शनसार/ प्र. 52 पर पं. वामदेव कृत संस्कृत-भावसंग्रह का एक निम्न उद्धरण है.</span>..... <span class="SanskritText">वीरनाथस्य संसदि। 185। | <li><span class="HindiText"> दर्शनसार/ प्र. 52 पर पं. वामदेव कृत संस्कृत-भावसंग्रह का एक निम्न उद्धरण है.</span>..... <span class="SanskritText">वीरनाथस्य संसदि। 185। जिनेंद्रस्य ध्वनिग्राहिभाजनाभावतस्ततः। शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्माणो गोतमाभिधः। 186। सद्यः स दीक्षितस्तत्र सध्वनेः पात्रतां ययौ। ततः देवसभां त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करी मुनिः। 187। संत्य-स्माददयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिणः। तांस्त्यक्त्वा सध्वतेः पात्रमज्ञानी गीतमोऽभवत्। 188। संचिंत्यैवं क्रुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम्। मिथ्यात्वकर्मणः पाकादज्ञानत्वं हि देहिनाम्। 189। हेयोपदेय-विज्ञानं देहिनां नास्ति जातुचित्। तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रस्य निश्चयः। 190।</span> = <span class="HindiText">वीरनाथ भगवान के समवसरण में जब योग्य पात्र के अभाव में दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इंद्र गौतम नामक ब्राह्माण को ले आये। वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्यध्वनि को धारण करने की उसी समय उसमें पात्रता आ गयी, इससे मस्करि-पूरण मुनि सभा को छोड़कर बाहर चला आया। यहाँ मेरे जैसे अनेक श्रुतधारी मुनि हैं, उन्हें छोड़कर दिव्यध्वनि का पात्र अज्ञानी गौतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आ गया। मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीवधारियों को अज्ञान होता है। उसने कहा देहियों को हेयोपादेय का विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता। अतएव शास्त्र का निश्चय है कि अज्ञान से मोक्ष होता है। पूरणकश्यप का मत - उसके मत से समस्त प्राणी बिना कारण अच्छे-बुरे होते हैं। संसार में शक्ति सामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं हैं। जीव अपने अदृष्ट के प्रभाव से यहाँ-वहाँ संचार करते हैं। उन्हें जो सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं, वे सब उनके अदृष्ट पर निर्भर हैं। 14 लाख प्रधान जन्म, 500 प्रकार के संपूर्ण और असंपूर्ण कर्म, 62 प्रकार के जीवनपथ, 8 प्रकार की जन्म की तहें, 4900 प्रकार के कर्म, 4900 भ्रमण करनेवाले संन्यासी, 3000 नरक और 84 लाख काल हैं। इन कालों के भीतर पंडित और मूर्ख सब के कष्टों का अंत हो जाता है। ज्ञानी और पंडित कर्म के हाथ से छुटकारा नहीं पा सकते। जन्म की गति से सुख और दुःख का परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है। </span></li> | ||
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Revision as of 16:28, 19 August 2020
पूरन कश्यप का परिचय -
- बौद्धग्रंथ महापरि-निर्वाण सूत्र, महावग्ग, औदिव्यावाहन आदि के अनुसार यह महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों में से एक थे। एक म्लेच्छ स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कश्यप इनका नाम था। इससे पहले 99 जन्म धारण करके अब इनका सौंवा जन्म हुआ था इसीलिए इनका नाम पूरन कश्यप पड़ गया था। गुरुप्रदत्त नाम द्वारपाल था। वह नाम पसंद न आया। तब गुरु से पृथक् होकर अकेला वन में नग्न रहने लगे और अपने को सर्वज्ञ व अर्हंत आदि कहने लगे। 500 व्यक्ति उनके शिष्य हो गये। बौद्धों के अनुसार वह अवीचि नामक नरक के निवासी माने जाते हैं। मुत्तपिटक के दीर्घनिकाय (बौद्धग्रंथ) के अनुसार वह असत्कर्म में पाप और सत्कर्म में पुण्य नहीं मानते थे। कृत कर्मों का फल भविष्यत् में मिलना प्रामाणिक नहीं। बौद्ध मतवाले इसे मंखलि गोशाल कहते हैं।
- श्वेतांबरीसूत्र ‘उवासकदसांग’ के अनुसार वह श्रावस्ती के अंतर्गत शरवण के समीप उत्पन्न हुआ था। पिता का नाम ‘मंखलि’ था। एक दिन वर्षा में इसके माता-पिता दोनों एक गोशाल में ठहर गये। उनके पुत्र का नाम उन्होंने गोशाल रखा। अपने स्वामी से झगड़कर वह भागा। स्वामी ने वस्त्र खेंचे जिससे वह नग्न हो गया। फिर वह साधु हो गया। उसके हजारों शिष्य हो गये। बुद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचि नरक में गया। ( दर्शनसार/ प्र. 32-34/प्रेमीजी)।
- दर्शनसार/ प्र. 52 पर पं. वामदेव कृत संस्कृत-भावसंग्रह का एक निम्न उद्धरण है...... वीरनाथस्य संसदि। 185। जिनेंद्रस्य ध्वनिग्राहिभाजनाभावतस्ततः। शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्माणो गोतमाभिधः। 186। सद्यः स दीक्षितस्तत्र सध्वनेः पात्रतां ययौ। ततः देवसभां त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करी मुनिः। 187। संत्य-स्माददयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिणः। तांस्त्यक्त्वा सध्वतेः पात्रमज्ञानी गीतमोऽभवत्। 188। संचिंत्यैवं क्रुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम्। मिथ्यात्वकर्मणः पाकादज्ञानत्वं हि देहिनाम्। 189। हेयोपदेय-विज्ञानं देहिनां नास्ति जातुचित्। तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रस्य निश्चयः। 190। = वीरनाथ भगवान के समवसरण में जब योग्य पात्र के अभाव में दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इंद्र गौतम नामक ब्राह्माण को ले आये। वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्यध्वनि को धारण करने की उसी समय उसमें पात्रता आ गयी, इससे मस्करि-पूरण मुनि सभा को छोड़कर बाहर चला आया। यहाँ मेरे जैसे अनेक श्रुतधारी मुनि हैं, उन्हें छोड़कर दिव्यध्वनि का पात्र अज्ञानी गौतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आ गया। मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीवधारियों को अज्ञान होता है। उसने कहा देहियों को हेयोपादेय का विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता। अतएव शास्त्र का निश्चय है कि अज्ञान से मोक्ष होता है। पूरणकश्यप का मत - उसके मत से समस्त प्राणी बिना कारण अच्छे-बुरे होते हैं। संसार में शक्ति सामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं हैं। जीव अपने अदृष्ट के प्रभाव से यहाँ-वहाँ संचार करते हैं। उन्हें जो सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं, वे सब उनके अदृष्ट पर निर्भर हैं। 14 लाख प्रधान जन्म, 500 प्रकार के संपूर्ण और असंपूर्ण कर्म, 62 प्रकार के जीवनपथ, 8 प्रकार की जन्म की तहें, 4900 प्रकार के कर्म, 4900 भ्रमण करनेवाले संन्यासी, 3000 नरक और 84 लाख काल हैं। इन कालों के भीतर पंडित और मूर्ख सब के कष्टों का अंत हो जाता है। ज्ञानी और पंडित कर्म के हाथ से छुटकारा नहीं पा सकते। जन्म की गति से सुख और दुःख का परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है।