तीर्थंकर: Difference between revisions
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<p> धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । <span class="GRef"> महापुराण 2.117 </span>अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । <span class="GRef"> महापुराण 2.127-133 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.18, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 </span>इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 43.78 </span>उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । <span class="GRef"> महापुराण 76.477-481, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.558-562 </span></p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में वे 24 होते हैं। उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पाँच अवसरों पर महान् उत्सव होते हैं जिन्हें पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बनने के संस्कार षोडशकारण रूप अत्यंत विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बँधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थंकर वा केवली के पादमूल में होने संभव है। ऐसे व्यक्ति प्राय: देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और पीछे तीर्थंकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनंतर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं। <br /> | |||
<strong>1. तीर्थंकर निर्देश</strong><br /> | |||
1. तीर्थंकर का लक्षण।<br /> | |||
2. तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते।<br /> | |||
3. गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते।<br /> | |||
4. तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं।<br /> | |||
* तीर्थंकर के जन्म पर रत्नवृष्टि आदि ‘अतिशय’।–देखें [[ कल्याणक ]]।<br /> | |||
5. कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् प्रकृति का बंध करके उसी भव से मुक्त हो सकता है ? <br /> | |||
6. तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ।<br /> | |||
* केवलज्ञान के पश्चात् शरीर 5000 धनुष ऊपर चला जाता है।–देखें [[ केवली#2 | केवली - 2]]।<br /> | |||
* तीर्थंकरों का शरीर मृत्यु के पश्चात् कर्पूरवत् उड़ जाता है।–देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।<br /> | |||
7. हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है।<br /> | |||
* तीर्थंकर एक काल में एक क्षेत्र में एक ही होता है। तीर्थंकर उत्कृष्ट 170 व जघन्य 20 होते हैं।–देखें [[ विदेह#1 | विदेह - 1]]।<br /> | |||
* दो तीर्थंकरों का परस्पर मिलाप संभव नहीं है।–देखें [[ शलाका पुरुष#1 | शलाका पुरुष - 1]]।<br /> | |||
8. तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव है।<br /> | |||
* तीर्थंकर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते हैं।–देखें [[ छेदोपस्थापना#5 | छेदोपस्थापना - 5]]।<br /> | |||
* प्रथम व अंतिम तीर्थों में छेदोपस्थापना चारित्र की प्रधानता।–देखें [[ छेदोपस्थापना ]]।<br /> | |||
9. सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में अणुव्रती हो जाते हैं।<br /> | |||
* सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में 11 अंग का ज्ञान प्राप्त किया था।–देखें [[ वह वह तीर्थंकर ]]।<br /> | |||
* स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं।–देखें [[ वेद#7.9 | वेद - 7.9]]।<br /> | |||
* तीर्थंकरों के गुण अतिशय 1008 लक्षणादि।–देखें [[ अर्हंत#1 | अर्हंत - 1]]।<br /> | |||
* तीर्थंकरों के साता-असाता के उदयादि संबंधी।–देखें [[ केवली#4 | केवली - 4]]।<br /> | |||
<strong>2. तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश</strong> <br /> | |||
1. तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण।<br /> | |||
* तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | |||
* तीर्थंकर प्रकृति के बंध योग्य परिणाम−देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]।<br /> | |||
* दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएँ−देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | |||
2. इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही होता है।<br /> | |||
3. परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं।<br /> | |||
4. मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है।<br /> | |||
5. अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है।<br /> | |||
6. तीर्थंकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरें भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।<br /> | |||
7. तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व।<br /> | |||
* तीर्थंकर व आहारक दोनों प्रकृतियों का युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं−देखें [[ सत्त्व#2 | सत्त्व - 2]]।<br /> | |||
* तीर्थंकर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियों का भी उल्लेख क्यों नहीं किया।–देखें [[ नामकर्म ]]।<br /> | |||
* तीर्थंकर प्रकृति व उच्चगोत्र में अंतर।–देखें [[ वर्णव्यवस्था#1 | वर्णव्यवस्था - 1]]।<br /> | |||
<strong>3. तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम</strong> <br /> | |||
1. तीर्थंकर प्रकृति बंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम।<br /> | |||
2. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम।<br /> | |||
3. नरक तिर्यंचगति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है।<br /> | |||
4. इसके साथ केवल देवगति बँधती है।<br /> | |||
5. इसके बंध के स्वामी।<br /> | |||
6. मनुष्य व तिर्यगायु का बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है।<br /> | |||
7. सभी सम्यक्त्व में तथा 4-8 गुणस्थानों में बँधने का नियम।<br /> | |||
8. तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव।<br /> | |||
9. बद्ध नरकायुष्क मरणकाल में सम्यक्त्व से च्युत होता है।<br /> | |||
10. उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते।<br /> | |||
11. नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते।<br /> | |||
12. वहाँ भी अंतिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है।<br /> | |||
13. तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है।<br /> | |||
14. नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं।<br /> | |||
<strong>4. तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान</strong> <br /> | |||
1. मनुष्य गति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों? <br /> | |||
2. केवली के पादमूल में ही बँधने का नियम क्यों? <br /> | |||
3. अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है।<br /> | |||
4. तिर्यंचगति में उसके बंध पर सर्वथा निषेध क्यों? <br /> | |||
5. नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है? <br /> | |||
6. कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों? <br /> | |||
7. प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि-भेद।<br /> | |||
<strong>5. तीर्थंकर परिचय सूची</strong><br /> | |||
1. भूत, भावी तीर्थंकर परिचय।<br /> | |||
2. वर्तमान चौबीसी के पूर्वभव नं. 2 का परिचय।<br /> | |||
3. वर्तमान चौबीसी के वर्तमान भव का परिचय (सामान्य)<br /> | |||
1 गर्भावतरण। 2 जन्मावतरण। 3 दीक्षा धारण। 4 ज्ञानावतरण। 5 निर्वाण-प्राप्ति। 6 संघ<br /> | |||
4. वर्तमान चौबीसी के आयुकाल का विभावव परिचय।<br /> | |||
5. वर्तमान चौबीसी के तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध पुरुष।<br /> | |||
6. विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का परिचय।<br /> | |||
<strong>1. तीर्थंकर निर्देश</strong><br /> | |||
<strong> 1. तीर्थंकर का लक्षण</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ </span>गा.44/58 सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठै:। विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वे चतु:षष्टि:।44। =जिनके ऊपर चंद्रमा के समान धवल चौसठ चंवर ढुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर कहते हैं।<br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/302/516 </span>णित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि।<br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/302/516/7 </span>श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकर:। ...मार्गो रत्नत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति।=मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ऐसे चार ज्ञानों के धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकों में चतुर्णिकाय देवों से जो पूजे गये हैं, जिनकी नियम से मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधर को भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।...अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग को जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।<br /> | |||
<span class="GRef"> समाधिशतक/ </span>टी./2/222/24 तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवत:। =संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं, उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर है।<br /> | |||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/686 </span>सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहिं चामरेहिं चउसट्ठिहिं विज्जमाणो सो।686। =जो सकल लोक का एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुंदे का फुल के समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थंकर जानना।<br /> | |||
<strong>2. तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/14/165 </span>धाव्यो नियोजिताश्चास्य देव्य: शक्रेण सादरम् । मज्जने मंडने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च।165। =इंद्र आदर सहित भगवान् को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीर के संस्कार करने और खिलाने के कार्य करने में अनेकों देवियों को धाय बनाकर नियुक्त किया था।165।<br /> | |||
<strong>3. गृहस्थावस्था में ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/43/78 </span>योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन। जानन्नपि न स ब्रू यान्न विद्मो केन हेतुना।78। =[कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के धूमकेतु नामक असुर द्वार चुराये जाने पर नारद कृष्ण से कहता है]...यहाँ जो तीन ज्ञान के धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे। किस कारण से नहीं कहेंगे ? यह मैं नहीं जानता।<br /> | |||
<strong>4. तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/6 </span>अथ तृतीयभवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बद्धवा देवो भवेत् तस्य पंचकल्याणानि स्यु:। यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणदयश्च भवंति। =तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधैं तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसकै छ: महीना अवशेष रहैं मनुष्यायु का बंध होइ अर पंच कल्याणक ताकैं होइ। बहुरि जाकै मिथ्यादृष्टि विषैं नरकायु का बंध भया था अर तीर्थंकर का सत्त्व होई तौ वह जीव नरक पृथ्वीविषैं उपजै तहाँ नरकायु सहित एक सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होई अर नारक उपसर्ग का निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 </span>)<br /> | |||
<strong>5. कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव हैं</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 </span>तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणा संयमदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे। =तीर्थंकर बंध का प्रारंभ चरम शरीरीनिकैं असंयत देशसंयत गुणस्थानविषैं होइ तो तिनकैं तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होंइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विषैं होर्इ तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/5 </span>)।<br /> | |||
<strong>6. तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ</strong><strong> </strong><br /> | |||
<span class="GRef"> बोधपाहुड़/ </span>टी./32/98 पर उद्धृत−तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्को य अद्धचक्की य। देवा य भूयभूमा आहारो णत्थि नीहारो।1। तथा तीर्थकराणां स्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुंतलास्तु भवंति। =तीर्थंकरों के, उनके पिताओं के, बलदेवों के, चक्रवर्ती के, अर्धचक्रवर्ती के, देवों के तथा भोगभूमिजों के आहार होता है परंतु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थंकरों के मूछ-दाढी नहीं होती परंतु शिर पर बाल होते हैं। निगोद से रहित होता है।<br /> | |||
<strong>7. हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/1620 </span>सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो।1620। =(हुंडावसर्पिणी काल में) सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है।<br /> | |||
<strong>8. तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1617 </span>तक्काले जायंते पढमजिणो पढमचक्की य।1617। =(हुंडावसर्पिणी) काल के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।1617।<br /> | |||
<strong>9. सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में देशव्रती हो जाते हैं</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/53/35 </span>सवायुराद्यष्टवर्षेभ्य: सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयम:।35। =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है।<br /> | |||
<strong>2. तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश</strong><br /> | |||
<strong> 1. तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/7 </span>आर्हंत्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। =आर्हंत्य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/40/580 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/12 </span>)।<br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,30/67/1 </span>जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम। =जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है।<br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,101/366/7 </span>जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरणामं। =जिस कर्म के उदय से जीव पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है।<br /> | |||
<strong>2. इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/111/15 </span>स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् ।=स्त्रीवेदी अर नपुंसकवेदी कैं तीर्थंकर अर आहारक द्विक का उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के होइ अर बंध होने विषै किछु विरोध नाहीं।<br /> | |||
देखें [[ वेद#7.9 | वेद - 7.9]] षोडशकारण भावना भाने वाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता।<br /> | |||
<strong>3. परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/111/98/6 </span>कल्पस्त्रोषु च तीर्थबंधाभावात् । =कल्पवासिनी देवांगना के तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव नाहीं (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/112/99/13 </span>)।<br /> | |||
<strong>4. मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है</strong><br /> | |||
म.बं./2/70/257/8 तित्थयरं उक्क.टि्ठदि. कस्स। अण्णद. मणुसस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स सागार-जागार. तप्पाओग्गस्स. मिच्छादिटि्ठमुहस्स। =<strong>प्रश्न</strong>–तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी कौन है ? <strong>उत्तर</strong>−जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्व के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है।<br /> | |||
<strong> 5. अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है</strong><br /> | |||
म.बं./1/187/132/4 किण्णणीलासु तित्थयरं-सयुतं कादव्वं। =कृष्ण और नील लेश्याओं में तीर्थंकर...को संयुक्त करना चाहिए।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 </span>अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । बद्धनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्यो: कपोतलेश्ययैव गमनात् । =अशुभ लेश्या विषैं तीर्थंकर का प्रारंभ न होय बहुरि जाकैं नरकायु बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये।<br /> | |||
<strong>6. तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे भव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/75/1 </span>पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो। =जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है।<br /> | |||
<strong>7. तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/2/24 </span>प्रच्छन्नोऽभासयद्गर्भस्तां रवि: प्रावृषं यथा।24। =जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतु को सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणी को वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था।<br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/12/96-97,163 </span>षण्मासानिति सापप्तत् पुण्ये नाभिनृपालये। स्वर्गावतरणाद् भर्त्तु: प्राक्तरां द्युम्नसंतति:।96। पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता। अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविन:।97। तदा प्रभृति सुत्रामशासनात्ता: सिषेविरे। दिक्कुमार्योऽनुचारिण्य: तत्कालोचितकर्मभि:।163। =कुबेर ने स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा की थी।96। और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है।97। उसी समय से लेकर इंद्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान मरुदेवी की सेवा करने लगीं।163। और भी−देखें [[ कल्याणक ]]।<br /> | |||
<strong>3. तीर्थंकर प्रकृतिबंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम</strong><br /> | |||
<strong> 1. तीर्थंकर प्रकृतिबंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,40/78/7 </span>तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंधपारं भो होदि, ण अण्णत्थेत्ति। ...केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ होता है, अन्यत्र नहीं। ...क्योंकि अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/7 </span>)।<br /> | |||
<strong>2. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/4 </span>णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे संते अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो। =बंध इस प्रकृति का निरंतर है, क्योंकि अपने कारण के होने पर कालक्षय से बंध का विश्राम नहीं होता।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 </span>न च तिर्यग्वर्जितगतित्रये तीर्थबंधाभावोऽस्ति तद्बंधकालस्य उत्कृष्टेन अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षोनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात् । =तिर्यंच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृति का बंध है। ताकौ प्रारंभ कहिये तिस समयतैं लगाय समय समय विषै समयप्रबद्ध रूप बंध विषै तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध हुआ करै है। सो उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोय कोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाणकाल पर्यंत बंध हो है (गो.क./भाषा/745/905/15); (गो.क./भाषा/367/529/8)। <br /> | |||
<strong>3. नरक व तिर्यंच गति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/5 </span>तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो। =तीर्थंकर प्रकृति के बंध का नरक व तिर्यंच गतियों के बंध के साथ विरोध है।<br /> | |||
<strong>4. इसके साथ केवल देवगति बँधती है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/6 </span>उवरिमा देवगइसंजुत्तं, मणुसगइट्ठिदजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगइं मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोहादो। =उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों के तीर्थंकर प्रकृति के बंध का देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है।<br /> | |||
<strong>5. इसके बंध के स्वामी</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/7 </span>तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। =तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बंध के स्वामी हैं, क्योंकि तिर्यग्गति के साथ तीर्थंकर के बंध का अभाव है।<br /> | |||
<strong>6. मनुष्य व तिर्यगायु बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/366/524/11 </span>बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावात् ।...देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध ...संभवात् । =मनुष्यायु तिर्यंचायु का पहले बंध भया होइ ताकैं तीर्थंकर का बंध न होइ। ...देवनारकी विषै तीर्थंकर का बंध संभवै है।<br /> | |||
<strong> 7. सभी सम्यक्त्वों में तथा 4-8 गुणस्थानों में बंधने का नियम</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/93/78 </span>पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदगंते।93।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/92/77/12 </span>तीर्थबंध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागांतसम्यग्दृष्टिष्वेव। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयततैं लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध को प्रारंभ करे है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंयमते लगाई अपूर्वकरण का छटा भाग पर्यंत सम्यग्दृष्टि विषै ही हो है।<br /> | |||
<strong>8. तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/743/3 </span>प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात् । =देवायु का बंध सहित तीर्थंकर बंधवालै के जैसे सम्यक्त्वतैं भ्रष्टता न होइ तैसैं अबद्धायु देव के भी न होइ।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/6 </span>प्रारब्धतीर्थबंधस्यांयत्र बद्धनरकायुष्कात्सम्यक्त्वाप्रच्युतिर्नेति तीर्थबंधस्य नैरंतर्यात् ।=तीर्थंकर बंध का प्रारंभ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बंध बिना सम्यक्त्व तैं भ्रष्टता न होइ अर तीर्थंकर का बंध निरंतर है।<br /> | |||
<strong>9. बद्ध नरकायुष्क मरण काल में सम्यक्त्व से च्युत होता है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,54/105/5 </span>तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। =तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने वाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/336/487/3 </span>मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुद्वेल्य नरकायुर्बध्वाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्धवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्यादृष्टिर्भंवति। =मिथ्यात्व गुणस्थान में आय आहारकद्विक का उद्वेलन किया, पीछै नरकायु का बंध किया, तहाँ पीछै असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थंकर प्रकृति का बंध कीया पीछै दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीकौं जाने का कालविषैं मिथ्यादृष्टी भया।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/725/18 </span>बंशामेघयो: सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा। =वंशा मेघा विषैा तीर्थंकर सत्त्व सहित जीव सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वकौं छोडि सम्यग्दृष्टि होइ।<br /> | |||
<strong>10. उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/4 </span>ण चउक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अत्थि, तहोवएसाभावादो। =उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है।<br /> | |||
<strong>11. नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/3 </span>तत्थ हेटि्ठमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढ़वीए उक्कस्साउदंसणादो। =(तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवी की उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। (<span class="GRef"> धवला 8/3,54/105/6 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 </span>)।<br /> | |||
<strong>12. वहाँ अंतिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/195 </span>तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयंति सुरा। छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालंको।195। =तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले जीव के नरकायु विषै छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विषैं छह महीना आयु अवशेष रहे माला का मलिन होना चिन्ह न हो है।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 </span>यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: ...तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवंति। =जिस जीव के नरकायु का बंध तथा तीर्थंकर का सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होइ अर नारक उपसर्ग का निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई।<br /> | |||
<strong>13. तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1-9-8,12/247/17 </span>विशेषार्थ−पूर्वोक्त व्याख्यान का अभिप्राय यह है कि सामान्यत: तो जीव दुषम-सुषम काल में तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्वी के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारंभ करते हैं, किंतु जो उसी भव में तीर्थंकर या जिन होने वाले हैं वे तीर्थंकरादि की अनुपस्थिति में तथा सुषमदुषम काल में भी दर्शनमोह का क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ−कृष्णादि व वर्धनकुमार।<br /> | |||
<strong>14. नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ </span>सू.220,229 मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति...।220। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति।229। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा...णो तित्थयरमुप्पाएंति। =ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।220। देवगति से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।229। भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य होकर...तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।233। [इसी प्रकार तिर्यंच व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियों से मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।] <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/6/7/169/2 </span>उपरि तिसृभ्य उद्वर्तिता...मनुष्येषूत्पन्ना: ... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयंति। =तीसरी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।<br /> | |||
<strong>4. तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान</strong><br /> | |||
<strong> 1. मनुष्यगति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,40/78/8 </span>अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते−ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =<strong>प्रश्न</strong>−मनुष्यगति के सिवाय अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>−अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 </span>नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् ।=बहुरि मनुष्य कहने का अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थंकर बंध का प्रारंभ न करैं जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्री का अभाव है सो प्रारंभ तौ मनुष्य विषै ही है।<br /> | |||
<strong>2. केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/11 </span>केवलिद्वयांते एवेति नियम: तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् । =<strong>प्रश्न</strong>−[केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों?] <strong>उत्तर</strong>−बहुरि केवलि के निकट कहने का अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाहीं, जिसतैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ होई।<br /> | |||
<strong>3. अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/524/12 </span>देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध: कथं। सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतंनिरंतरबंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षंयूनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभवात् । =<strong>प्रश्न</strong>−जो मनुष्य ही विषैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविषैं तीर्थंकर बंध कैसे कहा ? <strong>उत्तर</strong>−जो पहिलैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछें जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अंतर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यंत उत्कृष्टपनै तीर्थंकर प्रकृति का बंध समयप्रबद्धविषैं हुआ करै तातै देव नारकी विषैं भी तीर्थंकर का बंध संभवै है।<br /> | |||
<strong>4. तिर्यंचगति में उसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/8 </span>मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेसुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते−ण, बद्धतिरिक्खमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं। =<strong>प्रश्न</strong>−तिर्यग्गति में तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है। किंतु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायु को बांध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणों के प्राप्त हो जाने से तीर्थंकर कर्म को बांधकर पुन: तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर तीर्थंकर के बंध का स्वामीपना पाया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>−ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच व मनुष्यायु का बंध कर लिया है उन जीवों के नरक व देव आयुओं के बंध से संयुक्त जीवों के समान तीर्थंकर कर्म के बंध का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>–वह भी कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>−क्योंकि जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्वयुक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। परंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की तृतीय भव में मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध के स्वामी हैं।<br /> | |||
<strong>5. नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है।</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/742/20 </span>नन्वविरदादिचंत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति। तन्न। प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात् । =<strong>प्रश्न</strong>−‘‘अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते’’ इस वचन तै अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विककैं निकटि तीर्थंकर बंध के प्रारंभक कहे नरक विषैं कैसे तीर्थंकर का बंध है ? <strong>उत्तर</strong>−जिनके पूर्वे नरकायु का बंध होइ, प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थंकर का बंध प्रारंभ मनुष्य करै पीछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहां शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्व को पाई समय प्रबद्ध विषैं तीर्थंकर का भी बंध करै है।<br /> | |||
<strong>6. कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/3 </span>तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। ...तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। =<strong>प्रश्न</strong>−[कृष्ण, नीललेश्या में इसका बंध क्यों संभव नहीं है।] <strong>उत्तर</strong>−नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। ...अथवा नारकियों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थंकर की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 </span>)<br /> | |||
<strong>7. प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि भेद</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/8 </span>अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकांतर्मुहूर्तकालत्वात् षोडशभावनासमृद्धयभावात् तद्बंधप्रारंभो न इति केषांचित्पक्षं ज्ञापयति। =इहां प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जुदा कहने का अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशम का काल थोरा अंतर्मुहूर्त मात्र है तातैं षोडश भावना भाई जाइ नाहीं, तातै प्रथमोपशम विषैं तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ नाहीं है।</p> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । <span class="GRef"> महापुराण 2.117 </span>अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । <span class="GRef"> महापुराण 2.127-133 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.18, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 </span>इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 43.78 </span>उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । <span class="GRef"> महापुराण 76.477-481, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.558-562 </span></p> | |||
Revision as of 13:00, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में वे 24 होते हैं। उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पाँच अवसरों पर महान् उत्सव होते हैं जिन्हें पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बनने के संस्कार षोडशकारण रूप अत्यंत विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बँधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थंकर वा केवली के पादमूल में होने संभव है। ऐसे व्यक्ति प्राय: देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और पीछे तीर्थंकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनंतर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
1. तीर्थंकर निर्देश
1. तीर्थंकर का लक्षण।
2. तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते।
3. गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते।
4. तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं।
* तीर्थंकर के जन्म पर रत्नवृष्टि आदि ‘अतिशय’।–देखें कल्याणक ।
5. कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् प्रकृति का बंध करके उसी भव से मुक्त हो सकता है ?
6. तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ।
* केवलज्ञान के पश्चात् शरीर 5000 धनुष ऊपर चला जाता है।–देखें केवली - 2।
* तीर्थंकरों का शरीर मृत्यु के पश्चात् कर्पूरवत् उड़ जाता है।–देखें मोक्ष - 5।
7. हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है।
* तीर्थंकर एक काल में एक क्षेत्र में एक ही होता है। तीर्थंकर उत्कृष्ट 170 व जघन्य 20 होते हैं।–देखें विदेह - 1।
* दो तीर्थंकरों का परस्पर मिलाप संभव नहीं है।–देखें शलाका पुरुष - 1।
8. तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव है।
* तीर्थंकर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते हैं।–देखें छेदोपस्थापना - 5।
* प्रथम व अंतिम तीर्थों में छेदोपस्थापना चारित्र की प्रधानता।–देखें छेदोपस्थापना ।
9. सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में अणुव्रती हो जाते हैं।
* सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में 11 अंग का ज्ञान प्राप्त किया था।–देखें वह वह तीर्थंकर ।
* स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं।–देखें वेद - 7.9।
* तीर्थंकरों के गुण अतिशय 1008 लक्षणादि।–देखें अर्हंत - 1।
* तीर्थंकरों के साता-असाता के उदयादि संबंधी।–देखें केवली - 4।
2. तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश
1. तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण।
* तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
* तीर्थंकर प्रकृति के बंध योग्य परिणाम−देखें भावना - 2।
* दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएँ−देखें वह वह नाम ।
2. इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही होता है।
3. परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं।
4. मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है।
5. अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है।
6. तीर्थंकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरें भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
7. तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व।
* तीर्थंकर व आहारक दोनों प्रकृतियों का युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं−देखें सत्त्व - 2।
* तीर्थंकर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियों का भी उल्लेख क्यों नहीं किया।–देखें नामकर्म ।
* तीर्थंकर प्रकृति व उच्चगोत्र में अंतर।–देखें वर्णव्यवस्था - 1।
3. तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम
1. तीर्थंकर प्रकृति बंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम।
2. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम।
3. नरक तिर्यंचगति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है।
4. इसके साथ केवल देवगति बँधती है।
5. इसके बंध के स्वामी।
6. मनुष्य व तिर्यगायु का बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है।
7. सभी सम्यक्त्व में तथा 4-8 गुणस्थानों में बँधने का नियम।
8. तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव।
9. बद्ध नरकायुष्क मरणकाल में सम्यक्त्व से च्युत होता है।
10. उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते।
11. नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते।
12. वहाँ भी अंतिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है।
13. तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है।
14. नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं।
4. तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान
1. मनुष्य गति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों?
2. केवली के पादमूल में ही बँधने का नियम क्यों?
3. अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है।
4. तिर्यंचगति में उसके बंध पर सर्वथा निषेध क्यों?
5. नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है?
6. कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों?
7. प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि-भेद।
5. तीर्थंकर परिचय सूची
1. भूत, भावी तीर्थंकर परिचय।
2. वर्तमान चौबीसी के पूर्वभव नं. 2 का परिचय।
3. वर्तमान चौबीसी के वर्तमान भव का परिचय (सामान्य)
1 गर्भावतरण। 2 जन्मावतरण। 3 दीक्षा धारण। 4 ज्ञानावतरण। 5 निर्वाण-प्राप्ति। 6 संघ
4. वर्तमान चौबीसी के आयुकाल का विभावव परिचय।
5. वर्तमान चौबीसी के तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध पुरुष।
6. विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का परिचय।
1. तीर्थंकर निर्देश
1. तीर्थंकर का लक्षण
धवला 1/1,1,1/ गा.44/58 सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठै:। विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वे चतु:षष्टि:।44। =जिनके ऊपर चंद्रमा के समान धवल चौसठ चंवर ढुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर कहते हैं।
भगवती आराधना/302/516 णित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/302/516/7 श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकर:। ...मार्गो रत्नत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति।=मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ऐसे चार ज्ञानों के धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकों में चतुर्णिकाय देवों से जो पूजे गये हैं, जिनकी नियम से मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधर को भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।...अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग को जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।
समाधिशतक/ टी./2/222/24 तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवत:। =संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं, उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर है।
त्रिलोकसार/686 सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहिं चामरेहिं चउसट्ठिहिं विज्जमाणो सो।686। =जो सकल लोक का एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुंदे का फुल के समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थंकर जानना।
2. तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते
महापुराण/14/165 धाव्यो नियोजिताश्चास्य देव्य: शक्रेण सादरम् । मज्जने मंडने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च।165। =इंद्र आदर सहित भगवान् को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीर के संस्कार करने और खिलाने के कार्य करने में अनेकों देवियों को धाय बनाकर नियुक्त किया था।165।
3. गृहस्थावस्था में ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते
हरिवंशपुराण/43/78 योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन। जानन्नपि न स ब्रू यान्न विद्मो केन हेतुना।78। =[कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के धूमकेतु नामक असुर द्वार चुराये जाने पर नारद कृष्ण से कहता है]...यहाँ जो तीन ज्ञान के धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे। किस कारण से नहीं कहेंगे ? यह मैं नहीं जानता।
4. तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/6 अथ तृतीयभवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बद्धवा देवो भवेत् तस्य पंचकल्याणानि स्यु:। यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणदयश्च भवंति। =तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधैं तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसकै छ: महीना अवशेष रहैं मनुष्यायु का बंध होइ अर पंच कल्याणक ताकैं होइ। बहुरि जाकै मिथ्यादृष्टि विषैं नरकायु का बंध भया था अर तीर्थंकर का सत्त्व होई तौ वह जीव नरक पृथ्वीविषैं उपजै तहाँ नरकायु सहित एक सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होई अर नारक उपसर्ग का निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 )
5. कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव हैं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणा संयमदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे। =तीर्थंकर बंध का प्रारंभ चरम शरीरीनिकैं असंयत देशसंयत गुणस्थानविषैं होइ तो तिनकैं तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होंइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विषैं होर्इ तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/5 )।
6. तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ
बोधपाहुड़/ टी./32/98 पर उद्धृत−तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्को य अद्धचक्की य। देवा य भूयभूमा आहारो णत्थि नीहारो।1। तथा तीर्थकराणां स्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुंतलास्तु भवंति। =तीर्थंकरों के, उनके पिताओं के, बलदेवों के, चक्रवर्ती के, अर्धचक्रवर्ती के, देवों के तथा भोगभूमिजों के आहार होता है परंतु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थंकरों के मूछ-दाढी नहीं होती परंतु शिर पर बाल होते हैं। निगोद से रहित होता है।
7. हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है
तिलोयपण्णत्ति/6/1620 सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो।1620। =(हुंडावसर्पिणी काल में) सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है।
8. तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव
तिलोयपण्णत्ति/4/1617 तक्काले जायंते पढमजिणो पढमचक्की य।1617। =(हुंडावसर्पिणी) काल के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।1617।
9. सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में देशव्रती हो जाते हैं
महापुराण/53/35 सवायुराद्यष्टवर्षेभ्य: सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयम:।35। =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है।
2. तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश
1. तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/7 आर्हंत्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। =आर्हंत्य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/40/580 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/12 )।
धवला 6/1,9-1,30/67/1 जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम। =जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है।
धवला 13/5,101/366/7 जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरणामं। =जिस कर्म के उदय से जीव पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है।
2. इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/111/15 स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् ।=स्त्रीवेदी अर नपुंसकवेदी कैं तीर्थंकर अर आहारक द्विक का उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के होइ अर बंध होने विषै किछु विरोध नाहीं।
देखें वेद - 7.9 षोडशकारण भावना भाने वाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता।
3. परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/111/98/6 कल्पस्त्रोषु च तीर्थबंधाभावात् । =कल्पवासिनी देवांगना के तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव नाहीं ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/112/99/13 )।
4. मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है
म.बं./2/70/257/8 तित्थयरं उक्क.टि्ठदि. कस्स। अण्णद. मणुसस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स सागार-जागार. तप्पाओग्गस्स. मिच्छादिटि्ठमुहस्स। =प्रश्न–तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी कौन है ? उत्तर−जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्व के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है।
5. अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है
म.बं./1/187/132/4 किण्णणीलासु तित्थयरं-सयुतं कादव्वं। =कृष्ण और नील लेश्याओं में तीर्थंकर...को संयुक्त करना चाहिए।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । बद्धनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्यो: कपोतलेश्ययैव गमनात् । =अशुभ लेश्या विषैं तीर्थंकर का प्रारंभ न होय बहुरि जाकैं नरकायु बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये।
6. तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे भव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है
धवला 8/3,38/75/1 पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो। =जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है।
7. तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व
हरिवंशपुराण/2/24 प्रच्छन्नोऽभासयद्गर्भस्तां रवि: प्रावृषं यथा।24। =जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतु को सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणी को वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था।
महापुराण/12/96-97,163 षण्मासानिति सापप्तत् पुण्ये नाभिनृपालये। स्वर्गावतरणाद् भर्त्तु: प्राक्तरां द्युम्नसंतति:।96। पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता। अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविन:।97। तदा प्रभृति सुत्रामशासनात्ता: सिषेविरे। दिक्कुमार्योऽनुचारिण्य: तत्कालोचितकर्मभि:।163। =कुबेर ने स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा की थी।96। और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है।97। उसी समय से लेकर इंद्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान मरुदेवी की सेवा करने लगीं।163। और भी−देखें कल्याणक ।
3. तीर्थंकर प्रकृतिबंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम
1. तीर्थंकर प्रकृतिबंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम
धवला 8/3,40/78/7 तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंधपारं भो होदि, ण अण्णत्थेत्ति। ...केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ होता है, अन्यत्र नहीं। ...क्योंकि अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/7 )।
2. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम
धवला 8/3,38/74/4 णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे संते अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो। =बंध इस प्रकृति का निरंतर है, क्योंकि अपने कारण के होने पर कालक्षय से बंध का विश्राम नहीं होता।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 न च तिर्यग्वर्जितगतित्रये तीर्थबंधाभावोऽस्ति तद्बंधकालस्य उत्कृष्टेन अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षोनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात् । =तिर्यंच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृति का बंध है। ताकौ प्रारंभ कहिये तिस समयतैं लगाय समय समय विषै समयप्रबद्ध रूप बंध विषै तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध हुआ करै है। सो उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोय कोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाणकाल पर्यंत बंध हो है (गो.क./भाषा/745/905/15); (गो.क./भाषा/367/529/8)।
3. नरक व तिर्यंच गति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है
धवला 8/3,38/74/5 तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो। =तीर्थंकर प्रकृति के बंध का नरक व तिर्यंच गतियों के बंध के साथ विरोध है।
4. इसके साथ केवल देवगति बँधती है
धवला 8/3,38/74/6 उवरिमा देवगइसंजुत्तं, मणुसगइट्ठिदजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगइं मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोहादो। =उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों के तीर्थंकर प्रकृति के बंध का देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है।
5. इसके बंध के स्वामी
धवला 8/3,38/74/7 तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। =तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बंध के स्वामी हैं, क्योंकि तिर्यग्गति के साथ तीर्थंकर के बंध का अभाव है।
6. मनुष्य व तिर्यगायु बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/366/524/11 बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावात् ।...देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध ...संभवात् । =मनुष्यायु तिर्यंचायु का पहले बंध भया होइ ताकैं तीर्थंकर का बंध न होइ। ...देवनारकी विषै तीर्थंकर का बंध संभवै है।
7. सभी सम्यक्त्वों में तथा 4-8 गुणस्थानों में बंधने का नियम
गोम्मटसार कर्मकांड/93/78 पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदगंते।93।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/92/77/12 तीर्थबंध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागांतसम्यग्दृष्टिष्वेव। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयततैं लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध को प्रारंभ करे है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंयमते लगाई अपूर्वकरण का छटा भाग पर्यंत सम्यग्दृष्टि विषै ही हो है।
8. तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/743/3 प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात् । =देवायु का बंध सहित तीर्थंकर बंधवालै के जैसे सम्यक्त्वतैं भ्रष्टता न होइ तैसैं अबद्धायु देव के भी न होइ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/6 प्रारब्धतीर्थबंधस्यांयत्र बद्धनरकायुष्कात्सम्यक्त्वाप्रच्युतिर्नेति तीर्थबंधस्य नैरंतर्यात् ।=तीर्थंकर बंध का प्रारंभ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बंध बिना सम्यक्त्व तैं भ्रष्टता न होइ अर तीर्थंकर का बंध निरंतर है।
9. बद्ध नरकायुष्क मरण काल में सम्यक्त्व से च्युत होता है
धवला 8/3,54/105/5 तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। =तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने वाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/336/487/3 मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुद्वेल्य नरकायुर्बध्वाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्धवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्यादृष्टिर्भंवति। =मिथ्यात्व गुणस्थान में आय आहारकद्विक का उद्वेलन किया, पीछै नरकायु का बंध किया, तहाँ पीछै असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थंकर प्रकृति का बंध कीया पीछै दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीकौं जाने का कालविषैं मिथ्यादृष्टी भया।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/725/18 बंशामेघयो: सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा। =वंशा मेघा विषैा तीर्थंकर सत्त्व सहित जीव सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वकौं छोडि सम्यग्दृष्टि होइ।
10. उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते
धवला 8/3,258/332/4 ण चउक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अत्थि, तहोवएसाभावादो। =उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है।
11. नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते
धवला 8/3,258/332/3 तत्थ हेटि्ठमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढ़वीए उक्कस्साउदंसणादो। =(तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवी की उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। ( धवला 8/3,54/105/6 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 )।
12. वहाँ अंतिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है
त्रिलोकसार/195 तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयंति सुरा। छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालंको।195। =तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले जीव के नरकायु विषै छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विषैं छह महीना आयु अवशेष रहे माला का मलिन होना चिन्ह न हो है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: ...तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवंति। =जिस जीव के नरकायु का बंध तथा तीर्थंकर का सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होइ अर नारक उपसर्ग का निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई।
13. तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है
धवला 6/1-9-8,12/247/17 विशेषार्थ−पूर्वोक्त व्याख्यान का अभिप्राय यह है कि सामान्यत: तो जीव दुषम-सुषम काल में तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्वी के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारंभ करते हैं, किंतु जो उसी भव में तीर्थंकर या जिन होने वाले हैं वे तीर्थंकरादि की अनुपस्थिति में तथा सुषमदुषम काल में भी दर्शनमोह का क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ−कृष्णादि व वर्धनकुमार।
14. नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं
षट्खंडागम 6/1,9-9/ सू.220,229 मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति...।220। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति।229। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा...णो तित्थयरमुप्पाएंति। =ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।220। देवगति से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।229। भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य होकर...तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।233। [इसी प्रकार तिर्यंच व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियों से मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।]
राजवार्तिक/3/6/7/169/2 उपरि तिसृभ्य उद्वर्तिता...मनुष्येषूत्पन्ना: ... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयंति। =तीसरी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।
4. तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान
1. मनुष्यगति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों
धवला 8/3,40/78/8 अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते−ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =प्रश्न−मनुष्यगति के सिवाय अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ क्यों नहीं होता ? उत्तर−अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् ।=बहुरि मनुष्य कहने का अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थंकर बंध का प्रारंभ न करैं जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्री का अभाव है सो प्रारंभ तौ मनुष्य विषै ही है।
2. केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/11 केवलिद्वयांते एवेति नियम: तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् । =प्रश्न−[केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों?] उत्तर−बहुरि केवलि के निकट कहने का अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाहीं, जिसतैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ होई।
3. अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/524/12 देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध: कथं। सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतंनिरंतरबंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षंयूनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभवात् । =प्रश्न−जो मनुष्य ही विषैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविषैं तीर्थंकर बंध कैसे कहा ? उत्तर−जो पहिलैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछें जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अंतर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यंत उत्कृष्टपनै तीर्थंकर प्रकृति का बंध समयप्रबद्धविषैं हुआ करै तातै देव नारकी विषैं भी तीर्थंकर का बंध संभवै है।
4. तिर्यंचगति में उसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों
धवला 8/3,38/74/8 मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेसुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते−ण, बद्धतिरिक्खमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं। =प्रश्न−तिर्यग्गति में तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है। किंतु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायु को बांध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणों के प्राप्त हो जाने से तीर्थंकर कर्म को बांधकर पुन: तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर तीर्थंकर के बंध का स्वामीपना पाया जाता है ? उत्तर−ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच व मनुष्यायु का बंध कर लिया है उन जीवों के नरक व देव आयुओं के बंध से संयुक्त जीवों के समान तीर्थंकर कर्म के बंध का अभाव है। प्रश्न–वह भी कैसे संभव है ? उत्तर−क्योंकि जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्वयुक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। परंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की तृतीय भव में मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध के स्वामी हैं।
5. नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/742/20 नन्वविरदादिचंत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति। तन्न। प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात् । =प्रश्न−‘‘अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते’’ इस वचन तै अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विककैं निकटि तीर्थंकर बंध के प्रारंभक कहे नरक विषैं कैसे तीर्थंकर का बंध है ? उत्तर−जिनके पूर्वे नरकायु का बंध होइ, प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थंकर का बंध प्रारंभ मनुष्य करै पीछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहां शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्व को पाई समय प्रबद्ध विषैं तीर्थंकर का भी बंध करै है।
6. कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों
धवला 8/3,258/332/3 तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। ...तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। =प्रश्न−[कृष्ण, नीललेश्या में इसका बंध क्यों संभव नहीं है।] उत्तर−नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। ...अथवा नारकियों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थंकर की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 )
7. प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि भेद
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/8 अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकांतर्मुहूर्तकालत्वात् षोडशभावनासमृद्धयभावात् तद्बंधप्रारंभो न इति केषांचित्पक्षं ज्ञापयति। =इहां प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जुदा कहने का अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशम का काल थोरा अंतर्मुहूर्त मात्र है तातैं षोडश भावना भाई जाइ नाहीं, तातै प्रथमोपशम विषैं तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ नाहीं है।
पुराणकोष से
धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । महापुराण 2.117 अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । महापुराण 2.127-133 हरिवंशपुराण 2.18, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, हरिवंशपुराण 43.78 उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । महापुराण 76.477-481, हरिवंशपुराण 66.558-562