म्लेच्छ: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | | ||
== सिद्धांतकोष से == | |||
<ol> | <ol> | ||
<li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> म्लेच्छखंड निर्देश </strong><br /> | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> म्लेच्छखंड निर्देश </strong><br /> | ||
Line 52: | Line 53: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> मनुष्य जाति का एक भेद-आर्येतर <span class="GRef"> महापुराण </span>। थे सदाचारादि गुणो से रहित और धर्म-कर्म से हीन होते हुए भी अन्य चरणों से समान होते हैं । भरतेश चक्रवर्ती ने इन्हें अपने अधीन किया था और इनसे उपभोग के योग्य कन्या आदि रत्न प्राप्त किये थे । ये हिंसाचार, मांसाहार, पर-धनहरण और धूर्तता करने में आनंद मनाते थे । ये अर्धवर्वर देश में रहते थे । जनक के देश को इन्होंने उजाड़ने का उद्यम किया था किंतु थे सफल नहीं हो सके थे । जनक के निवेदन मर राम-लक्ष्मण ने वहाँँ पहुँचकर उन्हें परास्त कर दिया था । पराजित होकर ये सह्य और विंध्य पर्वतों पर रहने लगे थे । ये लाल रंग का शिरस्त्राण धारण करते थे । इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांति वाला तथा लाल रंग का होता था । ये पत्ते पहिनते थे । हाथों में ये हथियार लिये रहते थे । मांस इनका भोजन था । इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक चिह्न अकित रहते थे । <span class="GRef"> महापुराण </span>31.141-142, 42.184 <span class="GRef"> पद्मपुराण 14.41, 26.101, 27.5-6, 10-11, 67-73 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> मनुष्य जाति का एक भेद-आर्येतर <span class="GRef"> महापुराण </span>। थे सदाचारादि गुणो से रहित और धर्म-कर्म से हीन होते हुए भी अन्य चरणों से समान होते हैं । भरतेश चक्रवर्ती ने इन्हें अपने अधीन किया था और इनसे उपभोग के योग्य कन्या आदि रत्न प्राप्त किये थे । ये हिंसाचार, मांसाहार, पर-धनहरण और धूर्तता करने में आनंद मनाते थे । ये अर्धवर्वर देश में रहते थे । जनक के देश को इन्होंने उजाड़ने का उद्यम किया था किंतु थे सफल नहीं हो सके थे । जनक के निवेदन मर राम-लक्ष्मण ने वहाँँ पहुँचकर उन्हें परास्त कर दिया था । पराजित होकर ये सह्य और विंध्य पर्वतों पर रहने लगे थे । ये लाल रंग का शिरस्त्राण धारण करते थे । इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांति वाला तथा लाल रंग का होता था । ये पत्ते पहिनते थे । हाथों में ये हथियार लिये रहते थे । मांस इनका भोजन था । इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक चिह्न अकित रहते थे । <span class="GRef"> महापुराण </span>31.141-142, 42.184 <span class="GRef"> पद्मपुराण 14.41, 26.101, 27.5-6, 10-11, 67-73 </span></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Revision as of 16:56, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
- म्लेच्छखंड निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा नं. सेसा विपंचखंडा णामेणं होंति म्लेच्छखंडत्ति। उत्तरतियखंडेसुं मज्झिमखंडस्स बहुमज्झे।268। गंगामहाणदीए अइढाइज्जेसु। कुंडजसरिपरिवारा हुवंति ण हु अज्जखंडम्मि।245। = [विजयार्ध पर्वत व गंगा सिंधु, नदियों के कारण भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं। इनमें से दक्षिण वाला मध्यखंड आर्यखंड है। (देखें आर्यखंड )]। शेष पाँचों ही खंड म्लेच्छखंड नाम से प्रसिद्ध हैं।268। गंगा महानदी की ये कुंडों से उत्पन्न हुई (14000) परिवार नदियाँ म्लेच्छखंडों में ही हैं, आर्यखंड में नहीं।245। (विशेष देखें लोक - 7)।
- म्लेच्छमनुष्यों के भेद व स्वरूप
सर्वार्थसिद्धि/3/36/ पृ./पंक्ति म्लेच्छा द्विविधाः - अंतर्द्वीपजा कर्मभूमिजाश्चेति। (230/3)...ते एतेऽंतर्द्वीपजा म्लेच्छाः। कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिंदादयः। (231/6)। = म्लेच्छ दो प्रकार के हैं−अंतर्द्वीपज और कर्मभूमिज। अंतर्द्वीपों में उत्पन्न हुए अंतर्द्वीपजम्लेक्ष हैं और शक, यवन, शवर व पुलिंदादिक कर्मभूमिजम्लेच्छ हैं। ( राजवार्तिक/3/36/4/204/14, 26 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/26 इत्येवमादयो ज्ञेया अंतर्द्वीपजा नराः। समुद्रद्वीपमध्यस्थाः कंदमूलफलाशिनः। वेदयंते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिताः। = समुद्रों में (लवणोद व कालोद में) स्थित अंतर्द्वीपों में रहने वाले तथा कंद-मूल फल खाने वाले ये लंबकर्ण आदि (देखें आगे शीर्षक नं - 3) अंतर्द्वीपज मनुष्य हैं। जो मनुष्यायु का अनुभव करते हुए भी पशुओं की भाँति आचरण करते हैं।
महापुराण/31/141-142 इत्युपायैरुपायज्ञः साधयन्म्लेच्छभूभुजः। तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभोर्भोग्यान्युपाहरत्।141। धर्मकर्मबहिभूता इत्यमी म्लेच्छका मताः। अन्यथाऽन्यैः समाचारैः आर्यावर्तेन ते समाः।142। = इस प्रकार अनेक उपायों को जानने वाले सेनापति ने अनेक उपायों के द्वारा म्लेच्छ राजाओं को वश किया और उनसे चक्रवर्ती के उपभोग के योग्य कन्या आदि अनेक रत्न भेंट में लिये।141। ये लोग धर्म क्रियाओं से रहित हैं, इसलिए म्लेच्छ माने गये हैं। धर्म क्रियाओं के सिवाय अन्य आचरणों से आर्यखंड में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान हैं।142। [यद्यपि ये सभी लोग मिथ्यादृष्टि होते हैं परंतु किसी भी कारण से आर्यखंड में आ जाने पर दीक्षा आदि को प्राप्त हो सकते हैं।−देखें प्रब्रज्या - 1.3।]
त्रिलोकसार/921 दीवा तावदियंतरवासा कुणरा वि सण्णामा। = तीन अंतर्द्वीपों में बसने वाले कुमानुष तिस तिस द्वीप के नाम के समान होते हैं।
- अंतर्द्वीपज म्लेच्छों का आकार
- लवणोद स्थित अंतर्द्वीपों में (दृष्टि नं. 1)
तिलोयपण्णत्ति/4/2484-2488 एक्कोस्फलंगुलिका वेसणकाभासका य णामेहिं। पुव्वादिसुं दिसासुं चउदीवाणं कुमाणुसा होंति।2484। सुक्कलिकण्णा कण्णप्पावरणा लंबकण्णससकण्णा। अग्गिदिसादिसु कमसो चउद्दीवकुमाणुसा एदे।2485। सिंहस्ससाणमहिसव्वराहसद्दू-लघूककपिवदणा। सक्कुलिकण्णे कोरुगपहुदीणे अंतरेसु ते कमसो।2486। मच्छमुहा कालमुहा हिमगिरिपणिधीए पुव्वपच्छिमदो। मेसमुहगोमुहक्खा दक्खिणवेयड्ढपणिधीए।2487। पुव्वावरेण सिहरिप्पणिधीए मेघविज्जुमुहणामा। आदंसणहत्थिमुहा उत्तरवेयड्ढपणिधीए।2488। = पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जाँघ वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूँगे होते हुए इन्हीं नामों से युक्त हैं।2484। अग्नि आदिक विदिशाओं में स्थित ये चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से शष्कुलीकर्ण, कर्ण प्रावरण, लंबकर्ण और शशकर्ण होते हैं।2485। शष्कुलीकर्ण और एकोरुक आदिकों के बीच में अर्थात् अंतरदिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं।2486। हिमवान् पर्वत के प्रणिधि भाग में पूर्व-पश्चिम दिशाओं में क्रम से मत्स्यमुख व कालमुख तथा दक्षिणविजयार्ध के प्रणिधि भाग में मेषमुख व गोमुख कुमानुष होते हैं।2487। शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम प्रणिधि भाग में क्रम से मेघमुख व विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के प्रणिधि भाग में आदर्शमुख व हस्तिमुख कुमानुष होते हैं।2488। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/23 पर उद्धृत श्लो. नं. 9−10); ( त्रिलोकसार/916 −919); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/53 −57)।
- लवणोद स्थित अंतर्द्वीपों में (दृष्टि नं. 2)
तिलोयपण्णत्ति/4/2494-2499 एक्कोरुकवेसणिका लंगुलिका तह य भासगा तुरिमा। पुव्वादिसु वि दिससुं चउदीवाणं कुमाणुसा कमसो।2494। अणलादिसु विदिसासुं ससकण्णाताण उभयपासेसुं। अट्ठंतरा य दीवा पुव्वगिदिसादिगणणिज्जा।2495। पुव्वदिसट्ठि-एक्कोरुकाण अग्गिदिसट्ठियससकण्णाणं विच्चालादिसु कमेण अट्ठंतरदीवट्ठिदकुमाणुसणामाणि गणिदव्वाकेसरिमुहा मणुस्सा चक्कुलि-कण्णा अचक्कुलिकण्णा। साणमुहा कपिवदणा चक्कुलिकण्णा अचक्कुलीकण्णा।2496। हयकणाइं कमसो कुमाणुसा तेसु होंति दीवेसुं। घूकमुहा कालमुहा हिमवंतगिरिस्स पुव्वपच्छिमदो।2497। गोमुहमेसमुहक्खा दक्खिणवेयङ्ढपणिधिदीवेसुं। मेघमुहा विज्जुमुहा सिहरिगि- रिंदस्स पुच्छिमदो।2498। दप्पणगयसरिसमुहा उत्तरवेयड्ढपणिधि भागगदा। अब्भंतरम्मि भागे बाहिरए होंति तम्मेत्ता।2499। = पूर्वादिक दिशाओं में स्थिर चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जाँघ वाले, सींग वाले, पूँछवाले और गूँगे होते हैं।2494। आग्नेय आदिक दिशाओं के चार द्वीपों में शशकर्ण कुमानुष होते हैं। उनके दोनों पार्श्वभागों में आठ अंतरद्वीप हैं जो पूर्व आग्नेय दिशादि क्रम से जानना चाहिए।2495। पूर्व दिशा में स्थित एकोरुक और अग्नि दिशा में स्थित शशकर्ण कुमानुषों के अंतराल आदिक अंतरालों में क्रम से आठ अंतरद्वीपों में स्थित कुमानुषों के नामों को गिनना चाहिए। इन अंतरद्वीपों में क्रम से केशरीमुख, शष्कुलिकर्ण, अशष्कुलिकर्ण, श्वानमुख, वानरमुख, अशष्कुलिकर्ण, शष्कुलिकर्ण और हयकर्ण कुमानुष होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम भागों में क्रम से वे कुमानुष घूकमुख और कालमुख होते हैं।2496-2497। दक्षिण विजयार्ध के प्रणिधिभागस्थ द्वीपों में रहने वाले कुमानुष गोमुख और मेषमुख, तथा शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम द्वीपों में रहने वाले वे कुमानुष मेघमुख और विद्युन्मुख होते हैं।2498। उत्तरविजयार्ध के प्रणिधिभागों में स्थित वे कुमानुष क्रम से दर्पण और हाथी के सदृश मुखवाले होते हैं। जितने द्वीप व उनमें रहने वाले कुमानुष अभ्यंतर भाग में है, उतने ही वे बाह्य भाग में भी विद्यमान हैं।2499। ( सर्वार्थसिद्धि/3/36/230/9 ); ( राजवार्तिक/3/36/4/204/20 ); ( हरिवंशपुराण/5/471-476 )।
- कालोदस्थित अंतरद्वीपों में
तिलोयपण्णत्ति/4/2727-2734 मुच्छमुहा अभिकण्णा पवित्रमुहा तेसु हत्थिकण्णा य। पुव्वादिसु दीवेसु विचिट्ठंति कुमाणुसा कमसो।2727। अणिलादियासु सूवरकण्णा दीवेसु ताण विदिसासं। अट्ठंतरदीवेसुं पुव्वग्गिदिसादि गणणिज्जा।2728। चेट्ठंति अट्टकण्णा मज्जरमुहा पुणो वि तच्चेय। कण्णप्पावरणा गजवण्णा य मज्जाखयणा य।2729। मज्जरमुहा य तहा गोकण्णा एवमट्ठ पत्तेक्कं। पुव्वपवण्णिदबहुविहपाव-फलेहिं कुमणसाणि जायंति।2730। पुव्वावरपणिधीए सिसुमारमुहा तह य मयरमुहा। चेट्ठंति रुप्पगिरिणो कुमाणुसा कालजल-हिम्मि।2731। वयमुहवग्गमुहक्खा हिमवंतणगस्स पुव्वपच्छिमदो। पणिधीए चेट्ठंते कुमाणुसा पावपाकेहिं।2732। सिहरिस्स तरच्छमुहा सिगालवयणा कुमाणसा होंति। पुव्वावरपणिधीए जम्मंतरदरियकम्मेहिं।2733। दीपिकमिंजारमुहा कुमाणुसा होंति रुप्पसेलस्स। पुव्वावरपणिधीए कालोदयजलहिदीवम्मि।2734। = उनमें से पूर्वादिक दिशाओं में स्थित द्वीपों में क्रम से मत्स्यमुख, अभिकर्ण (अश्वकर्ण), पक्षिमुख और हस्तिकर्ण कुमानुष होते हैं।2727। उनकी वायव्यप्रभृति विदिशाओं में स्थित द्वीपों में रहने वाले कुमानुष शूकरकर्ण होते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वाग्निदिशादिक क्रम से गणनीय आठ अंतरद्वीपों में कुमानुष निम्न प्रकार स्थित हैं।2728। उष्ट्रकर्ण, मार्जारमुख, पुनः मार्जारमुख, कर्णप्रावरण, गजमुख, मार्जारमुख, पुनः मार्जारमुख और गोकर्ण, इन आठ में से प्रत्येक पूर्व में बतलाये हुए बहुत प्रकार के पापों के फल से कुमानुष जीव उत्पन्न होते हैं।2729-2730। काल समुद्र के भीतर विजयार्ध के पूर्वापर पार्श्वभागों में जो कुमानुष रहते हैं, वे क्रम से शिशुमारमुख और मकरमुख होते हैं।2731। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागों में रहने वाले कुमानुष क्रम से पापकर्मों के उदय से वृकमुख और व्याघ्रमुख होते हैं।2732। शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागों में रहने वाले कुमानुष पूर्व जन्म में किये हुए पापकर्मों से तरक्षमुख (अक्षमुख) और शृगालमुख होते हैं।2733। विजयार्ध पर्वत के पूर्वापर प्रणिधिभाग में कालोदक-समुद्रस्थ द्वीपों में क्रम से द्वीपिकमुख और भृंगारमुख कुमानुष होते हैं।2734। ( हरिवंशपुराण/5/567-572 )।
- म्लेच्छ मनुष्यों का जन्म, आहार गुणस्थान आदि
तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा नं. एक्कोरुगा गुहासुं वसंति भुंजंति मट्टियं मिट्ठं। सेसा तरुतलवासा पुप्फेहिं फलेहिं जीवंति।2489। गव्भादो ते मणुवाजुगलंजुगला सुहेण णिस्सरिया। तिरिया समुच्चिदेहिं दिणेहिं धारंति तारुण्णं।2512। वेधणुसहस्सतुंगा मंदकसाया पियंगुसामलया। सव्वे ते पल्लाऊ कुभोगभूमोए चेट्ठंति।2513। तब्भूमिजोग्गभोगं भोत्तूणं आउसस्स अवसाणे। कालवसं संपत्ता जायंते भवणतिदयम्मि।2514। सम्मद्दंसणरयणं गहियं जेहिं णरेहिं तिरिएहिं। दीवेसु चउविहेसुं सोहम्मदुगम्मि जायंते।2515। सव्वेसिं भोगभुवे दो गुणठाणाणि सव्व्कालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।2937।=- इन उपरोक्त सब अंतर्द्वीपज म्लेच्छों में से, एकोरुक (एक टाँगवाले) कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मीठी मिट्टी की खाते हैं। शेष सब वृक्षों के नीचे रहते हैं और (कल्पवृक्षों के) फलफूलों से जीवन व्यतीत करते हैं।2489। ( सर्वार्थसिद्धि/3/3 /231/3); ( राजवार्तिक/3/3 /4/204/24); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/58,82 ); ( त्रिलोकसार/120 )।
- वे मनुष्य व तिर्यंच युगल-युगलरूप में गर्भ से सुखपूर्वक जन्म लेकर समुचित (उनचास) दिनों में यौवन अवस्था को धारण करते हैं।2512। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/80 )।
- वे सब कुमानुष 2000 धनुष ऊँचे, मंदकषायी, प्रियंगु के समान श्यामल और एक पल्यप्रमाण आयु से युक्त होकर कुभोगभूमि में स्थित रहते हैं।2513। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/10/81 82)।
- पश्चात् वे उस भूमि के योग्य भोगों को भोगकर आयु के अंत में मरण को प्राप्त हो भवनत्रिक देवों में उत्पन्न होते हैं।2514। जिन मनुष्यों व तिर्यंचों ने इन चार प्रकार के द्वीपों में (दिशा, विदिशा, अंतर्दिशा तथा पर्वतों के पार्श्व भागों में स्थित, इन चार प्रकार के अंतर्द्वीपों में) सम्यग्दर्शनरूप रत्न को ग्रहण कर लिया है, वे सौधर्मयुगल में उत्पन्न होते हैं।2515। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/83 8)।
- सब भोगभूमिजों में (भोग व कुभोगभूमिजों में) दो गुणस्थान (प्र. व चतु.) और उत्कृष्टरूप से चार (14) गुणस्थान रहते हैं। सब म्लेच्छखंडों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहते हैं।2937।
- म्लेच्छ खंड से आर्यखंड में आये हुए कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनकी कन्याओं से उत्पन्न हुई चक्रवर्ती की संतान कदाचित् प्रव्रज्या के योग्य भी होते हैं। (देखें प्रव्रज्या - 1.3)।
देखें काल - 4−(कुमानुषों या अंतर्द्वीपों में सर्वदा जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। ( त्रिलोकसार/ भाषा/920)।
- कुमानुष म्लेच्छों में उत्पन्न होने योग्य परिणाम
देखें आयु - 3.10 (मिथ्यात्वरत, व्रतियों की निंदा करने वाले तथा भ्रष्टाचारी आदि मरकर कुमानुष होते हैं।)।
देखें पाप - 4 (पाप के फल से कुमानुषों में उत्पन्न होते हैं।)।
- लवणोद स्थित अंतर्द्वीपों में (दृष्टि नं. 1)
पुराणकोष से
मनुष्य जाति का एक भेद-आर्येतर महापुराण । थे सदाचारादि गुणो से रहित और धर्म-कर्म से हीन होते हुए भी अन्य चरणों से समान होते हैं । भरतेश चक्रवर्ती ने इन्हें अपने अधीन किया था और इनसे उपभोग के योग्य कन्या आदि रत्न प्राप्त किये थे । ये हिंसाचार, मांसाहार, पर-धनहरण और धूर्तता करने में आनंद मनाते थे । ये अर्धवर्वर देश में रहते थे । जनक के देश को इन्होंने उजाड़ने का उद्यम किया था किंतु थे सफल नहीं हो सके थे । जनक के निवेदन मर राम-लक्ष्मण ने वहाँँ पहुँचकर उन्हें परास्त कर दिया था । पराजित होकर ये सह्य और विंध्य पर्वतों पर रहने लगे थे । ये लाल रंग का शिरस्त्राण धारण करते थे । इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांति वाला तथा लाल रंग का होता था । ये पत्ते पहिनते थे । हाथों में ये हथियार लिये रहते थे । मांस इनका भोजन था । इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक चिह्न अकित रहते थे । महापुराण 31.141-142, 42.184 पद्मपुराण 14.41, 26.101, 27.5-6, 10-11, 67-73