दर्शनपाहुड़ गाथा 21: Difference between revisions
From जैनकोष
('<div class="PrakritGatha"><div>एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावे...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 7: | Line 7: | ||
<br> | <br> | ||
<div class="HindiUtthanika">अब कहते हैं कि यह सम्यग्दर्शन ही सब गुणों में सार है, उसे धारण करो -</div> | <div class="HindiUtthanika">अब कहते हैं कि यह सम्यग्दर्शन ही सब गुणों में सार है, उसे धारण करो -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन है सो गुणों में और दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीन रत्नों में सार है-उत्तम है और मोक्षमन्दिर में चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी </div> | ||
<div> | <div>है, इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! तुम इसको अंतरंग भाव से धारण करो, बाह्य क्रियादिक से धारण करना तो परमार्थ नहीं है, अंतरंग की रुचि से धारण करना मोक्ष का कारण है ॥२१॥</div> | ||
</div> | </div> | ||
<br> | <br> |
Latest revision as of 22:30, 2 November 2013
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥
एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥
अब कहते हैं कि यह सम्यग्दर्शन ही सब गुणों में सार है, उसे धारण करो -
अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन है सो गुणों में और दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीन रत्नों में सार है-उत्तम है और मोक्षमन्दिर में चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी
है, इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! तुम इसको अंतरंग भाव से धारण करो, बाह्य क्रियादिक से धारण करना तो परमार्थ नहीं है, अंतरंग की रुचि से धारण करना मोक्ष का कारण है ॥२१॥