संज्वलन: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">संज्वलन का लक्षण</span></strong> <br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">संज्वलन का लक्षण</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/9/386/10 </span><span class="SanskritText">समेकीभावे वर्तते। संयमेन सहावस्थानादेकीभूय ज्वलंति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलना: क्रोधमानमायालोभा:।</span> =<span class="HindiText">'सं' एकीभाव अर्थ में रहता है। संयम के साथ अवस्थान होने से एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/9/5/575/4 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/5 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/45/46/13 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,95/360/12 </span><span class="SanskritText">सम्यक् शोभनं ज्वलतीति संज्वलन।</span> =<span class="HindiText">जो सम्यक् अर्थात् शोभन रूप से 'ज्वलित' अर्थात् प्रकाशित होता है वह संज्वलन कषाय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/283/608/15 </span><span class="SanskritText">संज्वलनास्ते यथाख्यातचारित्रपरिणामं कषंति, सं समीचीनं विशुद्धं संयमं यथाख्यातचारित्रनामधेयं ज्वलंति दहंति इति संज्वलना: इति निरुक्तिबलेन तदुदये सत्यपि सामायिकादीतरसंयमाविरोध: सिद्ध:। </span>=<span class="HindiText">संज्वलन क्रोधादिक सकल कषाय के अभाव रूप यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं। 'सं' कहिए समीचीन निर्मल यथाख्यात चारित्र को 'ज्वलति' कहिए दहन करता है, तिनको संज्वलन कहते हैं, इस निरुक्ति से संज्वलन का उदय होने पर भी सामायिक आदि चारित्र के सद्भाव का अविरोध सिद्ध होता है।</span></li><br /> | |||
<li><strong name="2" id="2"><span class="HindiText">संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या</span></strong> <br /> | <li><strong name="2" id="2"><span class="HindiText">संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,23/44/6 </span><span class="PrakritText">किमत्र सम्यक्त्वम् । चारित्रेण सह ज्वलनम् । चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - इस संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या ? <strong>उत्तर</strong> - चारित्र के साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है अर्थात् चारित्र को विनाश नहीं करते हुए भी ये उदय को प्राप्त होते हैं, यह अर्थ कहा है।</span><br /> | |||
< | <span class="GRef"> धवला 13/5,5,95/361/1 </span><span class="SanskritText">कुतस्तस्य सम्यक्त्वम् । रत्नत्रयाविरोधात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - इसे (संज्वलन को) सम्यक्पना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong> - रत्नत्रय का अविरोधी होने से।</span></li> <br /> | ||
<li><strong name="3" id="3"><span class="HindiText">यह कषाय यथाख्यात चारित्र को घातती है</span></strong> <br /> | <li><strong name="3" id="3"><span class="HindiText">यह कषाय यथाख्यात चारित्र को घातती है</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/115 </span><span class="PrakritText">चउत्थो जहखायघाईया।</span> =<span class="HindiText">संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है। (और भी देखें [[ #1 | शीर्षक सं - 1]]); (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/110 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/283 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/45 </span>); (पं.सं./सं./1/204)।</span></li> <br /> | |||
<li><strong name="4" id="4"><span class="HindiText">इसके चार भेद कैसे</span></strong> <br /> | <li><strong name="4" id="4"><span class="HindiText">इसके चार भेद कैसे</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,95/361/1 </span><span class="PrakritText">लोह-माण-माया-लोहेसु पादेक्कं संजलणणिद्देसो किमट्ठं कदो। एदेसिं बंधोदया पुध पुध विणट्ठा, पुव्विल्लतिय चउक्कस्सेव अक्कमेण ण विणट्ठा त्ति जाणावणट्ठं।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - क्रोध, मान, माया और लोभ में से प्रत्येक पद के साथ संज्वलन शब्द का निर्देश किसलिए किया गया है ? <strong>उत्तर</strong> - इनके बंध और उदय का विनाश पृथक्-पृथक् होता है, पहली तीन कषायों के चतुष्क के समान इनका युगपत् विनाश नहीं होता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए क्रोधादि प्रत्येक पद के साथ संज्वलन पद निर्देश किया गया है। (<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,23/44/9 </span>)।</span></li> <br /> | |||
<li><strong name="5" id="5"><span class="HindiText">इसको चारित्र मोहनीय कहने का कारण</span></strong> <br /> | <li><strong name="5" id="5"><span class="HindiText">इसको चारित्र मोहनीय कहने का कारण</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,23/44/6 </span><span class="PrakritText">चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि। चारित्तमविणासेंताणं संजुलणाणं कधं चारित्तावरणत्तं जुज्जदे। ण, संजमम्हि मलमुव्वाइय जहाक्खादचारित्तुप्पत्तिपडिबंधयाणं चारित्तावरणत्ताविरोहा।</span> =<span class="HindiText">चारित्र को विनाश नहीं करते हुए, ये (संज्वलन) कषाय प्रगट होते हैं। <strong>प्रश्न</strong> - चारित्र को नहीं नाश करने वाले संज्वलन कषायों के चारित्रावरणता कैसे बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि ये संज्वलन कषाय संयम में मल को उत्पन्न करके यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति के प्रतिबंधक होते हैं, इसलिए इनके चारित्रावरणता मानने में विरोध नहीं है।</span></li> <br /> | |||
<li><strong name="6" id="6"><span class="HindiText">संज्वलन कषाय का वासना काल</span></strong> <br /> | <li><strong name="6" id="6"><span class="HindiText">संज्वलन कषाय का वासना काल</span></strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड व टी./46/47</span> <span class="PrakritText">अंतोमुहुत्त...संजलणमवासणाकालो दु णियमेण।46।</span> | |||
<span class="SanskritText">उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल: स च संज्वलनानामंतर्मुहूर्त </span>=<span class="HindiText">उदय का अभाव होने पर भी कषाय का संस्कार जितने काल तक रहे उसका नाम वासना काल है। सो संज्वलन कषायों का वासना काल अंतर्मुहूर्त है।</span></li> <br /> | <span class="SanskritText">उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल: स च संज्वलनानामंतर्मुहूर्त </span>=<span class="HindiText">उदय का अभाव होने पर भी कषाय का संस्कार जितने काल तक रहे उसका नाम वासना काल है। सो संज्वलन कषायों का वासना काल अंतर्मुहूर्त है।</span></li> <br /> | ||
Revision as of 10:14, 24 April 2022
सिद्धांतकोष से
- संज्वलन का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/9/386/10 समेकीभावे वर्तते। संयमेन सहावस्थानादेकीभूय ज्वलंति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलना: क्रोधमानमायालोभा:। ='सं' एकीभाव अर्थ में रहता है। संयम के साथ अवस्थान होने से एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। ( राजवार्तिक/8/9/5/575/4 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/5 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/45/46/13 )।
धवला 13/5,5,95/360/12 सम्यक् शोभनं ज्वलतीति संज्वलन। =जो सम्यक् अर्थात् शोभन रूप से 'ज्वलित' अर्थात् प्रकाशित होता है वह संज्वलन कषाय है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/283/608/15 संज्वलनास्ते यथाख्यातचारित्रपरिणामं कषंति, सं समीचीनं विशुद्धं संयमं यथाख्यातचारित्रनामधेयं ज्वलंति दहंति इति संज्वलना: इति निरुक्तिबलेन तदुदये सत्यपि सामायिकादीतरसंयमाविरोध: सिद्ध:। =संज्वलन क्रोधादिक सकल कषाय के अभाव रूप यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं। 'सं' कहिए समीचीन निर्मल यथाख्यात चारित्र को 'ज्वलति' कहिए दहन करता है, तिनको संज्वलन कहते हैं, इस निरुक्ति से संज्वलन का उदय होने पर भी सामायिक आदि चारित्र के सद्भाव का अविरोध सिद्ध होता है। - संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या
धवला 6/1,9-1,23/44/6 किमत्र सम्यक्त्वम् । चारित्रेण सह ज्वलनम् । चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि। =प्रश्न - इस संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या ? उत्तर - चारित्र के साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है अर्थात् चारित्र को विनाश नहीं करते हुए भी ये उदय को प्राप्त होते हैं, यह अर्थ कहा है।
धवला 13/5,5,95/361/1 कुतस्तस्य सम्यक्त्वम् । रत्नत्रयाविरोधात् । =प्रश्न - इसे (संज्वलन को) सम्यक्पना कैसे है ? उत्तर - रत्नत्रय का अविरोधी होने से। - यह कषाय यथाख्यात चारित्र को घातती है
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/115 चउत्थो जहखायघाईया। =संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है। (और भी देखें शीर्षक सं - 1); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/110 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/283 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/45 ); (पं.सं./सं./1/204)। - इसके चार भेद कैसे
धवला 13/5,5,95/361/1 लोह-माण-माया-लोहेसु पादेक्कं संजलणणिद्देसो किमट्ठं कदो। एदेसिं बंधोदया पुध पुध विणट्ठा, पुव्विल्लतिय चउक्कस्सेव अक्कमेण ण विणट्ठा त्ति जाणावणट्ठं। =प्रश्न - क्रोध, मान, माया और लोभ में से प्रत्येक पद के साथ संज्वलन शब्द का निर्देश किसलिए किया गया है ? उत्तर - इनके बंध और उदय का विनाश पृथक्-पृथक् होता है, पहली तीन कषायों के चतुष्क के समान इनका युगपत् विनाश नहीं होता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए क्रोधादि प्रत्येक पद के साथ संज्वलन पद निर्देश किया गया है। ( धवला 6/1,9-1,23/44/9 )। - इसको चारित्र मोहनीय कहने का कारण
धवला 6/1,9-1,23/44/6 चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि। चारित्तमविणासेंताणं संजुलणाणं कधं चारित्तावरणत्तं जुज्जदे। ण, संजमम्हि मलमुव्वाइय जहाक्खादचारित्तुप्पत्तिपडिबंधयाणं चारित्तावरणत्ताविरोहा। =चारित्र को विनाश नहीं करते हुए, ये (संज्वलन) कषाय प्रगट होते हैं। प्रश्न - चारित्र को नहीं नाश करने वाले संज्वलन कषायों के चारित्रावरणता कैसे बन सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि ये संज्वलन कषाय संयम में मल को उत्पन्न करके यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति के प्रतिबंधक होते हैं, इसलिए इनके चारित्रावरणता मानने में विरोध नहीं है। - संज्वलन कषाय का वासना काल
गोम्मटसार कर्मकांड व टी./46/47 अंतोमुहुत्त...संजलणमवासणाकालो दु णियमेण।46। उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल: स च संज्वलनानामंतर्मुहूर्त =उदय का अभाव होने पर भी कषाय का संस्कार जितने काल तक रहे उसका नाम वासना काल है। सो संज्वलन कषायों का वासना काल अंतर्मुहूर्त है। - अन्य संबंधित विषय
- संज्वलन प्रकृति के बंध उदय सत्त्व संबंधी नियम व शंका समाधानादि। - देखें वह वह नाम ।
- कषायों की मंदता संज्वलन के कारण से नहीं बल्कि लेश्या के कारण से है। - देखें कषाय - 3।
- संज्वलन में दशों करण संभव है। - देखें करण - 2।
- संज्वलन प्रकृति का देशघातीपना। - देखें अनुभाग - 4।
पुराणकोष से
एक कषाय । यह चार प्रकार की होती है― संज्वलन-क्रोध, संज्वलन-मान, संज्वलन-माया और संज्वलन-लोभ । अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ कषायों का क्षय होने के पश्चात् इस कषाय का नाश होता है । महापुराण 20.245-247