सल्लेखना
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
अतिवृद्ध या असाध्य रोगग्रस्त हो जाने पर, अथवा अप्रतिकार्य उपसर्ग आ पड़ने पर अथवा दुर्भिक्ष आदि के होने पर साधक साम्यभाव पूर्वक अंतरंग कषायों का सम्यक् प्रकार दमन करते हुए, भोजन आदि का त्याग करके, धीरे-धीरे शरीर को कृश करते हुए, इसका त्यागकर देते हैं। इसे ही सल्लेखना या समाधिमरण कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जनों को यथार्थत: संभव होने से इसे पंडितमरण कहते हैं। शरीर के प्रति जो स्वभाव से ही उपेक्षित हैं, ऐसे श्रावक साधु को ऐसे अवसरों पर अथवा आयुपूर्ण होने पर इस ही प्रकार की वीरता से शरीर का त्याग योग्य है। इसे आत्म हत्या कहना अनभिज्ञता का सूचक है। सल्लेखनागत साधु को क्षपक कहते हैं। पीड़ाओं के प्रकर्ष की संभावना होने के कारण सल्लेखना विधि में निर्यापकों, परिचारकों, वैयावृत्ति उपदेश आदि का प्रधान स्थान है।
- सल्लेखना सामान्य निर्देश
- * दीक्षा सल्लेखना आदि काल-देखें काल - 1।
- बाह्य अभ्यंतर सल्लेखना निर्देश।
- शरीर कृश करने का उपाय।
- सल्लेखना आत्महत्या नहीं है।
- सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती।
- * संयम रक्षार्थ या उपसर्ग आने पर आत्महत्या तक करना न्याय है।-देखें मरण - 1.5 में विप्राणस मरण।
- पर संयम रक्षार्थ भी मरना सल्लेखना नहीं है।
- अभ्यंतर सल्लेखना की प्रधानता।
- सल्लेखना धारने की क्या आवश्यकता।
- सल्लेखना के अतिचार।
- सल्लेखना का महत्त्व व फल।
- क्षपक की भवधारण सीमा।
- सल्लेखना में संभव लेश्याएँ।
- संस्तर धारण व मरण काल में परस्पर संबंध।
- सल्लेखना का स्वामित्व।
- सभी व्रतियों को सल्लेखना आवश्यक नहीं।
- सल्लेखना के लिए हेमंत ऋतु उपयुक्त नहीं।
- * सल्लेखना में तीव्र वेदनाओं की संभावना।-देखें सल्लेखना - 5.8।
- सल्लेखना के योग्य अवसर
- सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल।
- निर्यापक की उपलब्धि की अपेक्षा।
- योग्य कारणों के अभाव में धारने का निषेध।
- अंत समय धारने का निर्देश।
- अंत समय की प्रधानता का कारण।
- परंतु केवल अंत समय में धरना अत्यंत कठिन है।
- अत: इसका अभ्यास व भावना जीवन पर्यंत करना योग्य है।
- अंत समय व जीव पर्यंत की आराधना का समय।
- * मरण का संशय होने पर अथवा अकस्मात् मरण होने पर अथवा स्वकाल मरण होने पर क्या करे।-देखें सल्लेखना - 3.9-10।
- भक्त प्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
- * तीनों आहार का त्याग समन्वय है।-देखें सल्लेखना - 3.2।
- * तीनों का स्वामित्व।-देखें सल्लेखना - 1.14।
- तीनों के योग्य संहनन काल व क्षेत्र।
- तीनों के फल।
- भक्तप्रत्याख्यान की जघन्य व उत्कृष्ट अवधि।
- साधुओं के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- असमर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- मृत्यु का संशय या निश्चय होने की अपेक्षा भक्त प्रत्याख्यान विधि।
- सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण व स्वामी।
- अविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि।
- इंगिनीमरण विधि।
- प्रायोपगमन मरण विधि।
- सविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि
- * सल्लेखना योग्य लिंग।-देखें लिंग - 1.4।
- * सल्लेखना में नग्नता का कारण व महत्त्व।-देखें अचेलकत्व - 2।
- * परगण द्वारा आगत मुनि का परीक्षापूर्वक ग्रहण।-देखें विनय - 5.1।
- * श्रावक को घर या मंदिर दोनों जगह संस्तरधारण की आज्ञा-देखें सल्लेखना - 3.8।
- * निर्यापकाचार्य व उसका मार्गण-देखें सल्लेखना - 5।
- भक्त प्रत्याख्यान में निर्यापक का स्थान
- योग्य निर्यापक व उसकी प्रधानता।
- चारित्रहीन निर्यापक का आश्रय हानिकारक है।
- योग्य निर्यापक का अन्वेषण
- एक निर्यापक एक ही क्षपक को ग्रहण करता है।
- निर्यापकों की संख्या का प्रमाण।
- सर्व निर्यापकों में कर्तव्य विभाग।
- क्षपक की वैयावृत्ति करते हैं।
- आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना।
- कदाचित् क्षपक को उग्र वेदना का उद्रेक।
- उपर्युक्त दशा में भी उसका त्याग नहीं करते।
- यथावसर उपदेश देते हैं।
- मृत शरीर का विसर्जन व फल विचार
- * शरीर क्षेपण योग्य निषद्यका।-देखें निषीधिका ।
- * संस्तर ग्रहण व मरणकाल में परस्पर संबंध।-देखें सल्लेखना - 1.13।
1. सल्लेखना सामान्य निर्देश
1. सल्लेखना सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/22/363/1सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यंतराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। =अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। (सर्वार्थसिद्धि/7/22/3/550/23); (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/157/369/12) ।
देखें सल्लेखना - 2.1 (दुर्भिक्ष आदि के उपस्थित होने पर धर्म के अर्थ शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।)
देखें निक्षेप - 5.5.2 (कदलीघात के बिना बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग करके जीवन व मरण की आशा से रहित छूटा हुआ शरीर त्यक्त शरीर कहलाता है, जो भक्तप्रत्याख्यान आदि की अपेक्षा तीन प्रकार का है।)
2. बाह्य व अभ्यंतर सल्लेखना निर्देश
भगवती आराधना/206/423सल्लेहणा य दुविहा अब्भंतरिया य बाहिरा चेव। अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।206। =सल्लेखना दो प्रकार की है-अभ्यंतर और बाह्य। तहाँ अभ्यंतर सल्लेखना तो कषायों में होती है और बाह्यसल्लेखना शरीर में। अर्थात् उपरोक्त लक्षण में कषायों को कृश करना तो अभ्यंतर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/17 आत्मसंस्कारानंतरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानंतज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:। =आत्मसंस्कार (देखें काल - 1/6) के अनंतर उसके लिए ही क्रोधादि कषायरहित अनंतज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखना के लिए कायक्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण करना सल्लेखना काल है।
3. शरीर कृश करने का उपाय
भगवती आराधना/246-249 उल्लीणोलीणेहिं य अहवा एक्कंतवड्ढमाणेहिं। सल्लिहइ मुणी देहं आहारविधिं पयणुगिंतो।246। अणुपुव्वेणाहारं संवट्ठंतो य सल्लिहइ देहं। दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ।247। विविहाहिं एसणाहिं य अवग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहिं। 1 जहाबलं सल्लिहइ देहं।248। सदि आउगे सदि बले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ। ताओ वि ण बाधंते जहाबलं सल्लिहंतस्स।249। =क्रम से अनशनादि तप को बढ़ाते हुए यतिराज अपने देह को कृश कर शरीर सल्लेखना करते हैं।246। क्रम से आहार कम करते करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन लिये गये नियम के अनुसार कभी उपवास और कभी वृत्तिसंख्यान, इस क्रम से तपश्चरण कर क्षपक शरीर कृश करता है।247। नाना प्रकार के रसवर्जित, अल्प, रूक्ष ऐसे आचाम्ल भोजनों से अपने सामर्थ्य के अनुसार क्षपक मुनि देह को कृश करता है। नाना प्रकार के उग्र नियम ले लेकर संयम की विराधना न करता हुआ स्वशक्ति अनुसार शरीर को कृश करता है।248। यदि आयु व देह की शक्ति अभी काफी शेष हो तो शास्त्रोक्त बारह भिक्षुप्रतिमाओं को (देखें सल्लेखना - 4) स्वीकार करके शरीर को कृश करता है। उन प्रतिमाओं से इस क्षपक को पीड़ा नहीं होती। (विशेष देखें सल्लेखना - 3,4)।
4. सल्लेखना आत्महत्या नहीं है
सर्वार्थसिद्धि/7/22/363/5 स्यान्मतमात्मवघ: प्राप्नोति; स्वाभिसंधिपूर्वकायुरादिनिवृत्ते:। नैष दोष:; अप्रमत्तत्वात् । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति। कुत:। रागाद्यभावात् । रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं ध्नत: स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादय: संति ततो नात्मवधदोष:। =प्रश्न-चूँकि सल्लेखना में अपने अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है (देखें हिंसा )। परंतु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि, इसके रागादिक नहीं पाये जाते। राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघात का दोष प्राप्त होता है (देखें मरण - 4.1)। परंतु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघात को दोष प्राप्त नहीं होता है। (कहा भी है-रागादिक का न होना ही अहिंसा है (देखें अहिंसा - 2.1) और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है (देखें हिंसा /1/1); ( राजवार्तिक/7/22/6-7/550/33 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/177-178 ); ( सागार धर्मामृत/8/8 ); (और भी देखें शीर्षक सं - 9)।
5. सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती
सर्वार्थसिद्धि/7/22/363/4 न केवलमिह सेवनं परिगृह्यते। किं तर्हि प्रीत्यर्थोऽपि। यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते। सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति। =यहाँ पर (सूत्र में प्रयुक्त 'जोषिता' शब्द का) केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि प्रीति के न रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं करायी जाती है। किंतु प्रीति के रहने पर स्वयं ही सल्लेखना करता है। ( राजवार्तिक/7/22/4/550/26 )।
6. संयम रक्षार्थ मरना भी सल्लेखना नहीं
धवला 1/1,1,1/25/1 संजम-विनास-भएण उस्सासणिरोहं काऊण मुदसाहु-सरीरं कत्थ णिवददिग ? ण कत्थ वि तहा-मुददेहस्स मंगलत्ताभावादो। =प्रश्न-संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छ्वास का निरोध करके मरे हुए साधु के शरीर का त्यक्तशरीर के तीन भेदों (भक्त प्रत्याख्यान आदि) में से किस भेद में अंतर्भाव होता है ? उत्तर-ऐसे शरीर का त्यक्त के किसी भी भेद में अंतर्भाव नहीं होता है; क्योंकि, इस प्रकार से मृत शरीर को मंगलपना प्राप्त नहीं होता है।
देखें मरण - 1.5 (उपरोक्त प्रकार का मरण विप्राणसमरण कहलाता है। वह न अनुज्ञात है और न निषिद्ध।)
7. अभ्यंतर सल्लेखना की प्रधानता
भगवती आराधना/ ग.एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुविहा वि फासेंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं खणमवि खवओ ण मुंचेज्ज।256। अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकदस्स णत्थि त्ति। अज्झवसाणकसायसल्लेहणा भणिदा।257। अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगट्ठंपि। कुव्वंति बहिल्लेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी।258। सल्लेहणाविसुद्धा केई तह चेव विविहसंगेहिं। संथारे विहरंता वि संकिलिट्ठा विवज्जंति।1674। =इस प्रकार अनेकविध शरीर सल्लेखना विधि को करते हुए भी, क्षपक एक क्षण के लिए भी परिणामों की विशुद्धि को न छोड़े।256। कषाय से कलुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती। और परिणामों की विशुद्धि ही कषाय सल्लेखना कही गयी है।259। परिणामों की विशुद्धि के बिना उत्कृष्ट भी तप करने वाले साधु ख्याति आदि के कारण ही तप करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए उनके परिणामों की शुद्धि नहीं होती।257। जो साधु शरीर की सल्लेखना तो निरतिचार कर रहे हैं, परंतु उनके अंतरंग में रागद्वेषादिरूप भाव परिग्रह निवास करता है, वे संस्तरारूढ होते हुए भी परिणामों की संक्लेशता के कारण संसार में भ्रमण करते हैं।1674।
सागार धर्मामृत/8/23 सल्लेखनासंल्लिखत: कषायान्निष्फला तनो:। कायोऽजडैर्दंडयितुं काषायानेव दंडयते।23। =जो साधु कषायों को कृश न करके केवल शरीर को ही कृश करता है, उसका वह शरीर को कृश करना निष्फल है, क्योंकि कषायों को कृश करने के लिए ही शरीर को कृश किया जाता है, केवल शरीर को कृश करने के लिए नहीं।
8. सल्लेखना धारने की क्या आवश्यकता
सर्वार्थसिद्धि/7/22/364/1 किंच, मरणरयानिष्टत्वाद्यथा वाणिजो विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्ट:। तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति। दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते। एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसंचये प्रवर्तमान: तदाश्रयस्य न पातमभिवांछति। तदुप्पलवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति। दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् । =मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देने, लेने और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है; फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है, इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो, जिससे विक्रेय वस्तुओं का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है। उसी प्रकार पण्य स्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदि का पतन नहीं चाहता। यदा कदाचित् उनके विनाश के कारण उपस्थित हो जायें तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े, इसप्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हों तो, जिससे अपने गुणों का नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नाम का दोष कैसे हो सकता है। ( राजवार्तिक/7/22/8/551/6 ); ( आत्मानुशासन/205 ); ( सागार धर्मामृत/8/6 )।
9. सल्लेखना के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/37 जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि।37। =जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान ये सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं।37। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/129 ); ( चारित्रसार/49/3 ); ( सागार धर्मामृत/8/46 )।
10. सल्लेखना का महत्त्व व फल
भगवती आराधना/1942-1945 भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमाणुसे। इडि्ढमतुलं चइत्ताचरंति जिणदेसियं धम्मं।1942। सुक्कं लेस्समुवगदा सुक्कज्झाणेण खविदसंसारा। सम्मुक्ककम्मकवया सविंतिं सिद्धिं धुदकिलेसा।1945। =स्वर्गों में अनुत्तर भोग भोगकर वे वहाँ से चय उत्तम मनुष्यभव में जन्म धारणकर संपूर्ण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनि धर्म व तप आदि का पालन करते हैं।1942। शुक्ल लेश्या की प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लध्यान से संसार का नाश करते हैं, और कर्मरूपी कवच को फोड़कर संपूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं।1945। (विशेष देखें सल्लेखना - 3/4)।
रत्नकरंड श्रावकाचार/130 नि:श्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखांबुनिधिं। निष्पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु:खैरनालीढ:।130। =पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकार के दु:खों से रहित होता हुआ, अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदय वाले मोक्षरूपी सुख के समुद्र को पान करता है।
पद्मपुराण/14/203 गृहधर्ममिमं कृत्वा समाधिप्राप्तपंचत:। प्रपद्यते सुदेवत्वं च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ।203। =इस गृहस्थ धर्म का पालनकर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपर्याय को प्राप्त होता है, और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है।203। (पीछे आठ भवों में मुक्ति प्राप्त करता है-(देखें अगला शीर्षक )
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/179 नीयंतेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि तत: प्राहुरहिंसां प्रसिद्धयर्थम् ।179। =क्योंकि इस संन्यास मरण में हिंसा के हेतुभूत कषाय क्षीणता को प्राप्त होते हैं, तिस कारण से संन्यास को भी श्रीगुरु अहिंसा की सिद्धि के लिए कहते हैं।179।
दे. भगवती आराधना/ अ.ग./2248-2279-[सल्लेखना की अनेक प्रकार से स्तुति]
11. क्षपक की भवधारण की सीमा
भगवती आराधना/ गा. एक्कम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण हु सो हिंडंदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोत्तूण।682। णियमा सिज्झदि उक्कसएण वा सत्तमम्मि भवे।2086। इय बालपंडियं होदिं मरणमरहंतसासणे दिट्ठं।2087। एवं आराधित्ता उक्कस्साराहणं चदुक्खंधं। कम्मरयविप्पमुक्का तेणेव भवेण सिज्झंति।2160। आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खंध। कम्मरयविप्पमुक्का तच्चेण भवेण सिज्झंति।2161। आराधयित्तु धीरा जहण्णमाराहणं चदुक्खंधं। कम्मरयविप्पमुक्का सत्तमजम्मेण सिज्झंति।2162। =1. जो यति एक भव में समाधिमरण से मरण करता है वह अनेक भव धारणकर संसार में भ्रमण नहीं करता। उसको सात आठ भव धारण करने के पश्चात् अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होगी।682। (मू.आ./118)। 2. बालपंडित मरण से मरण करने वाला श्रावक (देखें मरण - 1.4) उत्कृष्टता से सात भवों में नियम से सिद्ध होता है।2086-2087। 3. चार प्रकार के इस (दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप) आराधना को जो उत्कृष्ट रूप से आराधता है वह उसी भव में मुक्त होता है, जो मध्यमरूप से आराधता है वह तृतीय भव से मुक्त होता है, और जो जघन्य रूप से आराधता है वह सातवें भव में सिद्ध होता है।2160-62।
पद्मपुराण/14/204 भावानामेवमष्टानामंत: कृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य निर्ग्रंथो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते।204। =[जो गृहस्थधर्म का पालनकर समाधिपूर्वक मरण करता है-(देखें शीर्षक सं - 10 में पद्मपुराण/14/203 )] ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालनकर अंत में निर्ग्रंथ हो सिद्धपद को प्राप्त होता है।204।
धर्मपरीक्षा/19/96 का भाषार्थ-जो सुधी पुरुष कषाय निदान और मिथ्यात्व रहित होकर संन्यासविधि के धारणपूर्वक मरण करते हैं, वे मनुष्य देवलोक में सुखों को भोगकर 21 भव के भीतर मोक्षपद को प्राप्त होते हैं।
12. सल्लेखना में संभव लेश्याएँ
भगवती आराधना/1918-1921 सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधओ होई।1918। जे सेसा सुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्साए। तल्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे।1920। तेजाए लेस्साए ये अंसा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करेइ तस्स हु जहण्णियाराधणा भणदि।1921। =शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट अंश से परिणत होकर मरने वाला क्षपक उत्कृष्ट आराधक है।1918। शुक्ल लेश्या के शेष मध्यम व जघन्य अंश और पद्मलेश्या के सर्व अंशों से परिणमित होकर मरने वाला मध्यम आराधक है।1920। और पीत लेश्या के सर्व अंशों से परिणमित होकर मरने वाला जघन्य आराधक है।
13. संस्तर धारण व मरणकाल में परस्पर संबंध
भगवती आराधना/ अमितगति कृत प्रशस्ति/पृ.1875-
नं. | संस्तरधारण काल का नक्षत्र | मरणकाल का नक्षत्र | समय |
1 | अश्विनी | स्वाति | रात |
2 | भरणी | रेवती | प्रभात |
3 | कृत्तिका | उत्तर फाल्गुनी | मध्याह्न |
4 | रोहिणी | श्रवण | अर्धरात्रि |
5 | मृगशिर | पूर्व फाल्गुनी | ? |
6 | आर्द्रा | उत्तरा या इससे अगला | दिन |
7 | पुनर्वसु | अश्विनी | अपराह्न |
8 | पुष्य | मृगशिर | ? |
9 | आश्लेषा | चित्रा | ? |
10 | मघा | मघा या इससे अगला | दिन |
11 | पूर्व फाल्गुनी | घनिष्ठा | दिन |
12 | उत्तर फाल्गुनी | मूल | सायं |
13 | हस्त | भरणी | दिन |
14 | चित्रा | मृगशिर | अर्धरात्रि |
15 | स्वाति | रेवती | प्रभात |
16 | विशाखा | आश्लेषा | ? |
17 | आश्लेषा | पूर्वभाद्रापद | दिन |
18 | मूल | ज्येष्ठा | प्रभात |
19 | पूर्वाषाढ़ | मृगशिर | रात का प्रारंभ |
20 | उत्तराषाढ़ | उत्तराषाढ अथवा भाद्रपद | अपराह्न |
21 | श्रवण | उत्तरभाद्रपद | दिन |
22 | घनिष्ठा | घनिष्ठा या उससे अगला | दिन |
23 | शतभिषज | ज्येष्ठा | सूर्यास्त |
24 | पूर्वभाद्रपद | पुनर्वसु | रात |
25 | उत्तर भाद्रपद | उत्तरभाद्रपद | दिन या रात |
26 | रेवती | मृगशिर | ? |
14. सल्लेखना का स्वामित्व
राजवार्तिक/7/22/14/552/3 अयं सल्लेखनाविधि: न श्रावकस्यैव दिग्विरत्यादि शीलवत:। किं तर्हि। संयतस्यापीति अविशेषज्ञापनार्थत्वाद्वापृथगुपदेश: कृत:। =यह सल्लेखना विधि शीलव्रतधारी गृहस्थ को ही नहीं है, किंतु महाव्रती साधु के भी होती है। इस सामान्य नियम की सूचना पृथक् सूत्र बनाने से मिल जाती है।
देखें सल्लेखना - 2.1 में भगवती आराधना/74- [गृहस्थ व साधु दोनों ही भक्तप्रत्याख्यान के योग्य समझे जाते हैं।]
देखें सल्लेखना - 1.8 [गृहस्थ भी व्रत और शीलों की रक्षा करने के लिए सल्लेखना धारण करता है।]
देखें सल्लेखना - 2.4 [श्रावक प्रीतिपूर्वक मारणांतिकी सल्लेखना धारण करता है।]
देखें सल्लेखना - 2.7 में पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/176 ['मैं मरण काल में अवश्य समाधिमरण करूँगा' श्रावक को ऐसी भावना नित्य भानी चाहिए।]
देखें मरण - 1.4 [भक्त प्रत्याख्यान आदि पंडित मरण मुनियों को होता है।]
15. सभी व्रतियों को सल्लेखना आवश्यक नहीं
राजवार्तिक/7/22/12/551/34 स्यादेतत्-पूर्वसूत्रेण सह एक एव योग: कर्त्तव्य: लघ्वर्थ इति; तन्न; किं कारणम् । कदाचित् कस्यचित् तां प्रत्याभिमुख्यज्ञापनार्थत्वात् । सप्ततपशीलवत: कदाचित् कस्यचित् गृहिण: सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति। =प्रश्न-इस सूत्र को पहले सूत्र के साथ ही मिला देना योग्य था, क्योंकि, ऐसा करने से सूत्र छोटा हो जाता? उत्तर-नहीं, क्योंकि, कभी-कभी तथा किसी किसी को ही सल्लेखना की अभिमुखता होती है, यह बात बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया गया है। सात शील व्रतों को धारने वाला कोई एक-आध गृहस्थ ही कदाचित् सल्लेखना के अभिमुख होता है, सब नहीं।
देखें अथालंद [जो साधु बल, वीर्य, धैर्य व स्थिरता में हीन होने के कारण परिहार विधि या भक्त प्रत्याख्यान आदि विधियों को धारण करने में समर्थ नहीं हैं, वे अथालंद विधि को धारण करते हैं।]
16. सल्लेखना के लिए हेमंत ऋतु उपयुक्त है
भगवती आराधना/631/832 एवं वासारत्ते फासेदूण विविधं तवोकम्मं। संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारंम्मि।163। =इस प्रकार से वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप कर वह क्षपक जिसमें अनशनादि करने पर भी महान् कष्ट का अनुभव नहीं आता है, ऐसे हेमंतकाल में संस्तर का आश्रय करता है।631।
2. सल्लेखना के योग्य अवसर
1. सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल
भगवती आराधना/71-74 वाहिव्व दुप्पसज्झा जरा य समण्णजोग्गहाणिकरी। उवसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स।71। अणुलोमा वा सत्त चारित्तविणासया हवे जस्स। दुब्भिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो वा।72। चक्खं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स। जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा।73। अण्णम्मि चावि एदारिसंम्मि आगाढकारणे जादे। अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो वा।74। =महाप्रयत्न से चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर रोग होने पर, श्रामण्य की हानि करने वाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर, अथवा नि:प्रतिकार देव मनुष्य व तिर्यंचकृत उपसर्ग आ पड़ने पर।71। (लोभ आदि के वशीभूत हुए ऐसे) अनुकूल शत्रु जब चारित्र का नाश करने को उद्युक्त हो जायें, भयंकर दुष्काल आ पड़ने पर, हिंसक पशुओं से पूर्ण भयानक वन में दिशा भूल जाने पर।72। आँख, कान व जंघा बल अत्यंत क्षीण हो जाने पर।73। तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी तत्सदृश कारणों के होने पर मुनि या गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यान (शरीर त्याग) के योग्य समझे जाते हैं।74।
रत्नकरंड श्रावकाचार/122 उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या:।122। =निष्प्रतिकार उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष होने पर, बुढ़ापा आने पर, और मृत्युदायक रोग होने पर धर्मार्थ शरीर छोड़ने की सल्लेखना कहते हैं।122। ( चारित्रसार/48/1 )
राजवार्तिक/7/22/11/551/28/ जरारोगेंद्रियहानिभिरावश्यकपरिक्षये।11। =जरा, रोग, इंद्रिय व शरीर बल की हानि तथा षडावश्यक का नाश होने पर सल्लेखना होती है।
सागार धर्मामृत/8/9-10 कालेन वोपसर्गेण निश्चित्यायु: क्षयोन्मुखं। कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ता: सफलयेत्क्रिया।9। देहादिवैकृतै: सम्यग्निमित्तेश्च सुनिश्चित्ते। मृत्यावाराधनामग्नयतेर्दूरेन तत्पदं।10। =स्वकाल पाकद्वारा अथवा उपसर्ग द्वारा निश्चित रूप से आयु का क्षय सन्मुख होने पर यथाविधि रूप से संन्यासमरण धारकर सकल क्रियाओं को सफल करना चाहिए।9। जिनके होने पर शरीर ठहर नहीं सकता ऐसे सुनिश्चित देहादि विकारों के होने पर, अथवा उसके कारण उपस्थित हो जाने पर अथवा आयु का क्षय निश्चित हो जाने पर निश्चय से आराधनाओं के चिंतवन करने में मग्न होता है, उसे मोक्ष पद दूर नहीं।10।
देखें सल्लेखना - 3/10 [स्व कालपाकवश आयु क्षय होने पर सविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है और अकस्मात् आयुक्षय होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है।]
2. निर्यापक की उपलब्धि की अपेक्षा
भगवती आराधना/75/204 उस्सरइ जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचारं वा। णिज्जावया य सुलहा दुब्भिक्खभयं च जदि णत्थि।75।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/75/205/1 इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्यां निर्यापका: पुनर्न लप्स्यंते सूरयस्तदभावे नाहं पंडितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याख्यानार्ह एव। =जिस मुनीश्वर का चारित्रपालन सुखपूर्वक व निरतिचार हो रहा है, तथा जिसका निर्यापक भी सुलभ हो और जिसे दुर्भिक्ष आदि का भी भय न हो, ऐसा मुनीश्वर यद्यपि भक्त प्रत्याख्यान के अयोग्य है।75। तो भी 'इस समय यदि मैं भक्तप्रत्याख्यान न करूँ और आगे यदि निर्यापकाचार्य कदाचित् न मिले तो मैं पंडितमरण न साध सकूंगा' ऐसा जिसको भय हो तो वह मुनि भक्त प्रत्याख्यान के योग्य ही है।
3. योग्य कारणों के अभाव में सल्लेखना धारने का निषेध
भगवती आराधना/76/205 तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्णणिव्विणो।76। =पूर्व में कहे गये सर्व भयों के उपस्थित न होने पर भी जो मुनि मरण की इच्छा करेगा, वह मुनि चारित्र से विरक्त है ऐसा समझना चाहिए।
देखें शीर्षक नं - 2-[जिसका चारित्र निर्विघ्न पल रहा है और जिसे निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्ष आदि का भी भय नहीं है, वह भक्तप्रत्याख्यान के अयोग्य है।]
4. अंत समय में धारने का निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/7/22 मारणांतिकीं की सल्लेखनां जोषिता।22।
सर्वार्थसिद्धि/7/22/362/12 'अंतग्रहणं' तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरणमंतो मरणांत:। स प्रयोजनमस्येति मारणांतिकी। तथा वह श्रावक मारणांतिक सल्लेखना का प्रीति पूर्वक सेवन करने वाला होता है। उसी भव के मरण का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्द के साथ अंत पद का ग्रहण किया है। मरण यही अंत मरणांत है और जिसका यह मरणांत ही प्रयोजन है वह मारणांतिकी कहलाती है। ( राजवार्तिक/7/22/2/550/21 ); ( चारित्रसार/47/5 )
देखें श्रावक - 1.3 [अंत समय समाधिमरण धरने वाला श्रावक साधक कहलाता है।]
5. अंत समय की प्रधानता का कारण
भगवती आराधना/ गा. जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं। तल्लेस्सो उववज्जइ तल्लेस्से चेव सो सग्गे।1922। जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण। परिवडदि वेदणट्ठो खवओ संथारमारूढो।1948। सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाणदंसणचरित्ते। मरणे विराधयित्ता अणंतससारिओ दिट्ठो।15। =जो जीव जिस लेश्या से परिणत होकर मरण को प्राप्त होता है, वह उत्तर भव में उसी लेश्या का धारक होकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है।1922। जिसने आत्मा को आराधनाओं से सुसंस्कृत किया था, तो भी मरण समय संक्लेशपरिणामों की उत्पत्ति होने से वह संस्तर पर आरूढ हुआ श्रमण सन्मार्ग से भ्रष्ट होता है।1948। पूर्व में न आराधी गयी रत्नत्रय की आराधना को यदि अंतकाल में कोई भाये तो वह जीव स्थानु के दृष्टांत को प्राप्त होता है (अर्थात् जैसे अंधे को स्तंभ से टकराकर नेत्र खुल जाने से भाग्य वश वहाँ से रत्नप्राप्ति हो जाय ऐसे ही उसे समझना।24।)
सागार धर्मामृत/8/16 आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा। सत्त्वाराद्धस्तत्क्षणेंऽह: क्षिपत्यपि चिरार्जितं।16। =चिर काल से आराधन किया हुआ धर्म भी यदि मरने के समय छोड़ दिया जाय वा उसकी विराधना की जाय तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरने के समय उस धर्म की आराधना की जाय तो वह चिरकाल के उपार्जित पापों का भी नाश कर देता है।
6. परंतु केवल अंत समय में धरना अत्यंत कठिन है
भगवती आराधना व वि./28/83 चिरमभाविरत्नत्रयाणामंतर्मुहूर्तकालभावनानां सिद्धिरिष्यते तत्किं चिरभावनयेत्यस्योत्तरमाचष्टे-पुव्वमभाविदजोग्गो आराधेज्ज मरणे जदि वि कोई। खण्णुगदिट्ठंतो सो तं खु पमाणं ण सव्वत्थ।24। =जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रय का आराधन नहीं किया परंतु केवल अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत ही आराधन किया है, उनको भी मोक्षलाभ हो गया है। अत: चिरकाल पर्यंत रत्नत्रय की भावना आवश्यक नहीं है ? उत्तर-पूर्व काल में जिस जीव ने रत्नत्रय का कभी आराधन नहीं किया है, वह मरणसमय उसकी आराधना करले, ऐसा व्यक्ति स्थानु के दृष्टांत को प्राप्त होता है। अर्थात् बिलकुल उस अंधे व्यक्ति की भाँति है जो कि अकस्मात् स्थानु से सर टकरा जाने के कारण नेत्रवान हो गया है और साथ ही उस स्थानु की जड़ में पड़े रत्न का लाभ भी जिसे हो गया हो।24।
7. अत: सल्लेखना की भावना व अभ्यास जीवन पर्यंत करना योग्य है
भगवती आराधना/18-21 जदि पवयणस्स सारो मरणे आराहणा हवदि दिट्ठा। किं दाइं सेसकाले जदि जददि तवे चरित्ते य।18। आराहणाए कज्जे परियम्मं सव्वदा वि य कायव्वं। परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होइ।19। जह रायकुलपसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परिकम्मं। तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि।20। इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्मं। तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्संति।21। =प्रश्न-आगम की सारभूत रत्नत्रयपरिणति मरणकाल में यदि होती हुई देखी जाती है तो उससे भिन्न काल में चारित्र व तपश्चरण करने की क्या आवश्यकता है ?।18। उत्तर-मरण समय में रत्नत्रय की सिद्धि के लिए सम्यग्दर्शनादि कारणकलाप सामग्री की अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिए, अर्थात् उसका सर्वदा अभ्यास करना योग्य है, क्योंकि ऐसा करने वाले को मरण समय में सुखपूर्वक अर्थात् बिना क्लेश के उस आराधना की सिद्धि हो जाती है।19। जैसे राजपुत्र शस्त्रविद्या का नित्य अभ्यास करता है और उसी से वह युद्ध में उस प्रकार का कर्म करने को समर्थ होता है।20। इसी प्रकार साधु भी आराधना के योग्य नित्य अभ्यास करता है, इसी से वह जितेंद्रिय होता हुआ मरण समय ध्यान करने को समर्थ हो जाता है।21।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/175-176 इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या।175। मरणांतेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ।176। =यह एक ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले चलने को समर्थ है। इस प्रकार भक्ति करके मरणांत सल्लेखना को निरंतर भावना चाहिए।175। मैं मरणकाल में अवश्य ही शास्त्रोक्त विधि से समाधिमरण करूँगा इस प्रकार भावनारूप परिणति करके मरणकाल प्राप्त होने के पहले ही यह सल्लेखनाव्रत पालना चाहिए।176। ( सागार धर्मामृत/7/57 )
सागार धर्मामृत/8/18-31 सम्यग्भावितमार्गोऽंते स्यादेवाराधको यदि। प्रतिरोधि सुदुर्वारं किंचिन्नोदेति दुष्कृतम् ।18। प्रस्थितां यदि तीर्थायम्रियते वांतरे तदा। अस्त्येवाराधको यस्माद्भावना भवनाशिनी।31। =यदि कोई दुर्निवार प्रतिरोधी कर्म उदय में न आवे तो सम्यक् प्रकार से पूर्व में भावित रत्नत्रय के कारण वह अंतकाल में अवश्य ही आराधक होता है।18। तीर्थक्षेत्र या निर्यापक के प्रति प्रारंभ कर दिया है गमन जिसने, ऐसा व्यक्ति यदि मार्ग में मरण को प्राप्त हो जाये तो भी उस भावना के कारण आराधक ही गिना जाता है, क्योंकि भावना भवनाशिनी होती है।30।
8. अंत समय व जीवन पर्यंत की आराधना का समन्वय
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/18/68/6 मरणे या विराधना सा महतीं संसृतिमावहति। अन्यदा जातायामपि विराधनायां मृतकाले रत्नत्रयोपगतौ संसारोच्छित्तिर्भवत्येव ततो मरणकाले प्रयत्न: कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तम् । इतरकालवृत्तं तु रत्नत्रयं संवरनिर्जरयोर्घातिकर्मणां च क्षयकारणनिमित्तं इतीष्यत एव। =मरण समय में रत्नत्रय की विराधना करने से विराधक को दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। परंतु दीक्षा, शिक्षा आदि काल (देखें काल ) में विराधना हो गयी हो तो भी मरणकाल में रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाने से संसार का नाश हो जाता है। अत: मरणकाल में रत्नत्रय में परिणति करनी चाहिए। ऐसा हमारा अभिप्राय है। परंतु इतर कालों में की गयी आराधना भी विफल नहीं होती, उससे कर्म का सवंर व निर्जरा होती है, तथा घाती कर्मों के क्षय करने में वह निमित्त होगी, ऐसा हम समझते हैं।
3. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
1. सल्लेखनामरण के व विधि के भेद
देखें मरण - 1.4 [पंडितमरण तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन। भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार है-सविचार व अविचार। अविचार तीन प्रकार है-निरुद्धतर व परम निरुद्ध। निरुद्ध दो प्रकार है-प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप।]
भगवती आराधना/155/352 किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णेंगिणी य परिहारो। पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो।155। =अथालंद विधि, भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि, चारित्र, पादोपगमन मरण और जिनकल्पावस्था, इनमें से कौन-सी अवस्था का आश्रय कर मैं रत्नत्रय में विहार करूँ ऐसा विचार करके साधु को धारण करने योग्य अवस्था को धारण करके समाधिमरण करना चाहिए।
2. भक्तप्रत्याख्यान आदि तीन लक्षण
धवला 1/1,1,1/23/4 तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनम् । आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति। =[भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों समान हैं। अंतर है शरीर के प्रति उपेक्षा भाव में] तहाँ अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण को प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यास में अपने द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है किंतु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्त्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं। जिस संन्यास में अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/2064/1791 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/61/57 ); ( चारित्रसार/154/4 ); ( भावपाहुड़ टीका/32/149/14 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/29/113/6 पादाभ्यामुपगमनं ढौकनं तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम् । इतरमरणयोरपि पादाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रैविध्यानुपपत्तिरिति चेन्न, मरणविशेषे वक्ष्यमाणलक्षणं रूढिरूपेणायं प्रवर्तते..। अथवा पाउग्गगमणमरणं इति पाठ:। भवांतकरणप्रायोग्यं संहननं संस्थानं च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते। अस्य गमनं प्राप्ति:, तेन कारणभूतेन यन्निर्वार्यं करणं तदुच्यते पाउग्गगमण मरणमिति। भज्ये सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा। इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यानसंभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेषे एव शब्दोऽयं प्रवर्तते। इंगिनीशब्देन इंगितमात्मनो भण्यते स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं मरणं इंगिनीमरणं। =पादोपगमन इसका शब्दार्थ, 'अपने पाँव के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है। इतर मरणों में भी यद्यपि अपने पाँव से चलकर मरण करना समान है, परंतु यहाँ रूढि का आश्रय लेकर मरण विशेष में ही यह लक्षण घटित किया है, इसलिये मरण के तीन भेदों की अनुपपत्ति नहीं बनती है। अथवा गाथा में 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा भी पाठ है। उसका ऐसा अभिप्राय है कि भव का अंत करने योग्य ऐसे संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्यगमन है। अर्थात् विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रतिज्ञा शब्द का अर्थ त्याग होता है। अर्थात् आहार का त्याग करके मरण करना वह भक्तप्रत्याख्यान है। यद्यपि आहार का त्याग इतर दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षण का प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है। स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं। अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है उसी को इंगिनीमरण कहते हैं।
3. तीनों योग्य संहनन काल व क्षेत्र
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/64/110/8 मरणं सा चेव भक्तप्रत्याख्यानमृतिरेव। ...एदंहि काले...। संहननविशेषसमन्वितानां इतरमरणद्वयं। न च संहननविशेषा: वज्रऋषभनाराचादय: अद्यत्वेऽमुष्मिन्क्षेत्रे संति गणानां।...यदि ते वर्तयितुं इदानीतनानामसामर्थ्यं किं तदुपदेशेनेति चेत् स्वरूपपरिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/2041/1779/17 आद्येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसंहनन: शुभसंस्थानोऽभेद्यधृतिकवचो जितकरणो जितनिद्रो नितरां शूर:। =1. भक्तप्रत्याख्यान मरण ही इस काल में उपयुक्त है। इतर दो अर्थात् इंगिनी व प्रायोपगमनमरण संहनन विशेष वालों के ही होते हैं। व्रजऋषभ आदि वे संहनन विशेष इस पंचमकाल में इस भरतक्षेत्र में मनुष्यों में होते नहीं हैं। यद्यपि इंगिनी व प्रायोपगमन की सामर्थ्य इस काल में नहीं है, फिर भी उनके स्वरूप का परिज्ञान कराने के लिए उनका उपदेश दिया गया है। 2. इंगिनीमरण के धारक मुनि पहिले तीन (अर्थात् वज्रऋषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच) संहननों में से कोई एक संहनन के धारक रहते हैं। उनका शुभ संस्थान रहता है। वे निद्रा को जीतते हैं। महाबल व शूर रहते हैं।
4. तीनों के फल
भगवती आराधना/ गा. इयमुक्कस्सियमाराधणमणुपालेत्तु केवली भविया। लोगग्गसिहरवासी हवंति सिद्धा धुयकिलेसा।1929। इयमज्झिममा राधणमणुपालित्ता सरीरयं हिच्चा। हुंति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य।1933। दंसणणाणचरित्ते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य। इरियावहपडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा।1934। जे वि हु जहण्णियं तेउलेस्समाराहणं उवणमंति। ते वि हु सोधम्माइसु हवंति देवा ण हेट्ठिल्ला।1940। एवमधक्खादविधिं साधित्ता इंगिणीं धुदकिलेसा। सिज्झंति केइ केई हवंति देवा विमाणेसु।2061। =इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यान की उत्कृष्ट आराधना का पालनकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। संपूर्ण कर्मक्लेश से मुक्त होकर लोकाग्र शिखरवासी सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।1929। उसी भक्तप्रत्याख्यान की मध्यम आराधना का पालन कर शरीर का त्याग करने वाले मुनिराज विशुद्ध लेश्या को धारणकर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ललेश्या के स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होते हैं।1933। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र पालने में पूर्ण दक्ष, उत्कृष्ट तप ध्यान वगैरह नियमों के धारक, ईर्यापथ को जिन्होंने प्राप्त किया है अर्थात् कल्पवासी देवत्व की प्राप्ति योग्य शुभास्रव को जो प्राप्त हो गये हैं, ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते हैं। अर्थात् मरकर नवग्रैवेयक, अनुदिश विमान में रहने वाले देव हो जाते हैं।1934। तेजोलेश्या के धारक ऐसे क्षपक की भक्तप्रत्याख्यान आराधना को जघन्य आराधना कहते हैं। इस आराधना के आराधक क्षपक सौधर्मादिक स्वर्गों में देव होते हैं। इन देवों से हीन देवों में इनका जन्म नहीं होता।1940। यहाँ तक जो इंगिनी मरण की विधि कही है, उसको सिद्ध करके कोई मुनि संपूर्ण कर्मक्लेशों को दूर करके मुक्त होते हैं। और कोई वैमानिक देव होते हैं।2061।
5. भक्त प्रत्याख्यान की जघन्य व उत्कृष्ट कालावधि
भगवती आराधना 252/474 उक्कस्सेण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो। कालम्मि संपहुत्ते बारसबरिसाणि पुण्णाणि।252। =आयुष्काल अधिक होने पर अर्थात् भक्त प्रतिज्ञा का उत्कृष्ट कालप्रमाण जिनेंद्र भगवान् ने बारह वर्ष प्रमाण कहा है।252।
धवला 1/1,1,1/24/1 तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघंयमंतर्मुहूर्त प्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रणाम् । मध्यमेतयोरंतरालमिति। =भक्तप्रत्याख्यान विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य का प्रमाण अंतर्मुहूर्तमात्र है। उत्कृष्ट का बारह वर्ष है। इन दोनों के अंतरालवर्ती सर्व कालप्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यान का है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/59-60/57 ); ( चारित्रसार/154/4 ); ( अनगारधर्मामृत/7/101/726 )
6. साधुओं के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि
मू.आ./109-111 सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च। सव्वमदत्तादाणं मेहुण्ण परिग्गहं चेव।109। सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि। आसाए वोसरित्ताणं समाधिं पडिवज्जइ।110। सव्वं आहारविहिं सण्णाओ आसाए कसाए य। सव्वं चेय ममत्तिं जहामि सव्वं खमावेमि।111। =संक्षेप से प्रत्याख्यान करने वाला ऐसी प्रतिज्ञा करता है, कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पाँचों पापों का त्याग करता हूँ।109। मेरे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं है इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणाम को प्राप्त होता हूँ।110। मैं अब अन्नपान आदि आहार की अवधि को, आहार संज्ञा को, संपूर्ण आशाओं का, कषायों का और सर्व पदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूँ।111। (देखें संस्कार - 2 में 31वीं क्रिया)
देखें सल्लेखना - 3.9 [जीवित का संदेह होने पर तो 'उपसर्ग टलने पर पारणा कर लूँगा' ऐसा आहारत्याग करता है, और मरण निश्चित होने पर सर्वथा आहार का त्याग करता है।]
7. समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि
रत्नकरंड श्रावकाचार/124-125 ,126 ,127 ,128 स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमना:। स्वजनं परिजनमपि च क्षांत्वा क्षमयेत् प्रियवचनै:।124। आलोच्य सर्वमेन: कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजं । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषं।125। शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा। सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै:।126। आहारं परिहाप्य क्रमश: स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानं। स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमश:।127। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन।128। =[सल्लेखना धारण करने वाला शीत उष्ण में हर्ष विषाद न करे-( चारित्रसार )] स्नेह, वैर, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ प्रिय वचनों से अपने कुटुंबियों और चाकरों से भी क्षमा करावे और आप भी सबको क्षमा करे।124। छलकपट रहित और कृत कारित अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापों की आलोचना करके मरण पर्यंत रहने वाले समस्त महाव्रतों को धारण करे।125। शोक, भय, विषाद, राग, कलुषता और अरति का त्याग करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके संसार के दु:खरूपी संताप को दूर करने वाले अमृतरूप शास्त्रों के श्रवण से मन को प्रसन्न करे।126। क्रम क्रम से आहार को छोड़कर दुग्ध वा छाछ को बढ़ावे और पीछे दुग्धादिक को छोड़कर कांजी और गरम जल को बढ़ावे।127। तत्पश्चात् उष्ण जलपान का भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पंचनमस्कार मंत्र को मन में धारण करता हुआ शरीर को छोड़े।128। ( चारित्रसार/48/2 ); ( सागार धर्मामृत/8/57,64,65,67 ); (विशेष देखें सल्लेखना - 4)।
8. असमर्थ श्रावकों के लिए भक्तप्रत्याख्यान की सामान्य विधि
वसुनंदी श्रावकाचार/271-272 धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं। सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं।271। जं कुणइ गुरुसयासम्मि सम्ममालोइऊण तिविहेण। सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं।272। =[उपरोक्त दोनों शीर्षकों में कथित राग द्वेष का त्याग, समता धारण और परिजनों आदि से क्षमा आदि की यहाँ भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए] वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप में मन वचन काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य इन तीन का) त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है।271-272।
सागार धर्मामृत/8/66- व्याध्याद्यपेक्षयामभो वा समाध्यर्थं विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युक:।66। =व्याधि आदि की अपेक्षा से समाधि में निश्चल होने के लिए उस क्षपक गुरु की आज्ञानुसार केवल पानी पीने की प्रतिज्ञा रख लेनी चाहिए। और मृत्यु का समय निकट आने पर जब शरीर की शक्ति अत्यंत क्षीण हो जाय तब उसे जल का भी त्याग कर देना चाहिए।66। (और भी देखें सल्लेखना - 4/11/3)।
देखें मरण - 1.4 [बिना सल्लेखना धारण किये अपने घर में ही संस्तरारूढ हो साम्यता पूर्वक शरीर को त्यागना बालपंडित मरण है]।
9. मृत्यु का संशय या निश्चय होने की अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान विधि
मू.आ./112-114 एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स, जदि मज्झं। एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा होज्जं।112। सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामी य पाणयं वज्ज। उवहिं च वोसरामि य दुविहे तिविहेण सावज्जं।113। जो कोइ मज्झ उवधी सब्भंतरबाहिरो य हवे। आहारं च सरीरं जावाजीवं य वोसरे।114। =जीवित में संदेह होने की अवस्था में ऐसा विचार करे कि इस देश में इस काल में मेरा जीने का सद्भाव रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जब तक उपसर्ग रहेगा तब तक आहारादिक का त्याग है। उपसर्ग दूर होने के पश्चात् यदि जीवित रहा तो फिर पारणा करूँगा।112। [पर जहाँ निश्चय हो जाय कि इस उपसर्गादि में मैं नहीं जी सकूँगा। वहाँ ऐसा त्याग करे।] मैं जल को छोड़ अन्य तीन प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह को तथा मन वचन काय की पाप क्रियाओं को छोड़ता हूँ।113। जो कुछ मेरे अभ्यंतर बाह्य परिग्रह है उसे तथा चारों प्रकार के आहारों को और अपने शरीर को यावज्जीवन छोड़ता हूँ। यही उत्तमार्थ त्याग है।114।
10. सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण व स्वामी
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/65/192/6 द्विविधमेव भक्तप्रत्याख्यानं। सविचारमध अविचारं इति। विचरणं नानागमनं विचार:। विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति। वक्ष्यमाणर्हलिंगादिविकल्पेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं इति। अविचारं वक्ष्यमाणार्हादिनानाप्रकाररहितं। भवतु द्विविधं। सविचारभक्तप्रत्याख्यानं कस्य भवति इत्यस्योत्तरं। सविचारं भक्तप्रत्याख्यानं अणागाढे सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत् । सपरक्कमस्स सह पराक्रमेण वर्तते इति सपराक्रमस्तस्य भवे भवेत् । पराक्रम: उत्साह: एतेनैव सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते यतो विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूत्रे नोक्तं। =भक्तप्रत्याख्यानमरण के सविचार व अविचार ऐसे दो भेद हैं। तहाँ नाना प्रकार से चारित्र पालना, चारित्र में विहार करना विचार है। इस विचार के अर्ह, लिंग आदि 40 अधिकार हैं जिनका विवेचन आगे करेंगे (देखें सल्लेखना - 4) उस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो उन अर्ह लिंगादि रूप विचार के विकल्पों के साथ नहीं वर्तता सो अविचार है। तहाँ जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण दीर्घकाल के अनंतर प्राप्त होगा ऐसे साधु के मरण को सविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसको सामर्थ्य नहीं है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे पराक्रमरहित साधु के मरण को अविचारभक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। [तहाँ सविचार विधि तो आगे सल्लेखना/4 के अंतर्गत पृथक् से सविस्तार दी गयी है और अविचार विधि निम्न प्रकार है।]
11. अविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
भगवती आराधना/2011-2024 तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाढो। अपरक्कमस्स मुणिणो कालम्मि असंपुहत्तम्मि।2011। तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं। तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचारं।2012। तस्स णिरुद्धं भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूदो। जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो।2013। इय सण्णिरुद्धमरणं मणियं अणिहारिमं अवीचारं। सा चेव जधाजोग्गं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स।2015। दुविहं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगासं च। जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं।2016। खवयस्स चित्तसारं खित्तं कालं पडुच्च सजणं वा। अण्णम्मि य तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु।2017। बालग्गिवग्घमहिसगयरिंछ पडिणीय तेण मेच्छहिं। मुच्छाविसूचियादीहिं होज्ज सज्जो हु वावत्ती।2018। जाव ण वाया खिप्पदिं बलं च विरियं च जाव कायम्मि। तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्खत्तं।2019। णच्चा संवटिज्जं तमाउगं सिग्घमेव तो भिक्खू। गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्मं।2020। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचारं। सो चेव जधाजोग्गे पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स।2021। वालादिएहिं जइया अक्खित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया। तइया परमणिरुद्धं भणिदं मरणं अवीचारं।2022। णच्चा संवट्टिजं तमाउगं सिग्घमेव तो भिक्खू। अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगे सिग्घमालोचे।2023। आराधणाविधी जो पुव्वं उववण्णिदो सवित्थारो। सो चेव जुज्जमाणो एत्थ विही होदि णादव्वो।2024। =पराक्रमरहित मुनि को सहसा मरण उपस्थित होने पर अविचारभक्त प्रत्याख्यान करना योग्य है।2012। वह तीन प्रकार है-निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्धतर व परमनिरुद्ध।2012। रोगों से पीड़ित होने के कारण जिसका जंघाबल क्षीण हो गया है और जो परगण में जाने को समर्थ नहीं है, वह मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान करते हैं।2013। यह मुनि परगण में न जाकर स्वगण में ही रहता हुआ यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्तप्रत्याख्यान वाली विधि का पालन करता है।2015। इसके दो भेद हैं-प्रकाश और अप्रकाश। जो अन्य जनों के द्वारा जाना जाय वह प्रकाशरूप है और जो दूसरों के द्वारा न जाना जाय वह अप्रकाशरूप है।2016। क्षपक का मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बांधव आदि कारणों का विचार करके क्षपक के उस निरुद्धाविचार भक्तप्रत्याख्यान को प्रगट करते हैं अथवा अप्रगट करते हैं। अर्थात् अनुकूल कारणों के होने पर तो वह मरण प्रगट कर दिया जाता है और प्रतिकूल कारणों के होने पर प्रगट नहीं किया जाता।2017। सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मूर्च्छा, तीव्र शूलरोग इत्यादि से तत्काल मरण का प्रसंग प्राप्त होने पर।2018। जब तक वचन व कायबल शेष रहता है और जब तक तीव्र वेदना से चित्त आकुलित नहीं होता।2019। तब तक आयुष्य को प्रतिक्षण क्षीण होता जानकर शीघ्र ही अपने गण के आचार्य आदि के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना करनी चाहिए।2020। इस प्रकार निरुद्धतर नाम के दूसरे अविचार भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप है। इसमें भी यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्त प्रत्याख्यान वाली सर्व विधि (देखें सल्लेखना - 4) होती है।2021। व्याघ्रादि उपरोक्त कारणों से पीड़ित साधु के शरीर का बल और वचन बल यदि क्षीण हो जाय तो परमनिरुद्ध नाम का मरण प्राप्त होता है।2022। अपने आयुष्य को शीघ्र ही क्षीण होता जान वह मुनि शीघ्र ही मन में अर्हंत व सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करे।2023। आराधना विधि का जो पूर्व में सविस्तार वर्णन किया है अर्थात् सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि (देखें सल्लेखना - 4) उसी की ही यहाँ भी यथायोग्य रूप से योजना करनी चाहिए।2024।
12. इंगिनी मरण विधि
भगवती आराधना/2030-2061/1773 जो भत्तपदिण्णाए उवक्कमो वण्णिदो सवित्थारो। सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि।2030। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणिविधिसाधणाए परिणमिया।...।2032। परियाइगमालोचिय अणुजाणित्ता दिसं महजणस्स। तिविधेण खमावित्ता सवालवुड्ढाउलं गच्छं।2033। एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं च थंडिले जोगे। पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को।2035। पुव्वुत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थंडिलम्मि पुव्वुत्ते। जदणाए संथरित्ता उतरसिरमधव पुव्वसिरं।2036। अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं। दंसणणाणचरित्तं परिसारेदूण णिस्सेसं।2038। सव्वं आहारविधिं जावज्जीवाय वोसरित्ताणं। वोसरिदूण असेसं अभ्भंतरबाहिरे गंथे।2039। ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदूणव सकायपडिचरणं। सयमेव णिरुवसंग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयबं।2041। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचिदे विधिणा।2042। सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदि तमुवणमेज्ज। तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि।2047। सव्वो पोग्गलकाओ सोक्खत्ताए जदि वि तमुवणमेज्ज। तधवि हु तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोतिया को वि।2048। वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मथुदिं। सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्थमेय मणो।2052। एवं अट्ठवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो। जदि आधच्चा णिद्दा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णो।2053। सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ। जम्हा सुसाणमज्झे तस्स य झाणं अपडिसिद्धं।2054। आवासगं च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहिं कमदि। उवकरणं पि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए।2055। पादे कंटयमादिं अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज। गच्छदि अधाविधिं सो परिणीहरणे य तुसिणीओ।2057। वेउव्वणमाहारयचारणखीरासवादिलद्धीसु। तवसा उप्पण्णासु वि विरागभावेण सेवदि सो।2058। मोणाभिग्गहणिरिदो रोगादंकादिवेदणाहेदुं। ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाछुहादीणं।2059। उवएसो पुण आइरियाणं इंगिणिगदो वि छिण्णकधो। देवेहिं माणुसेहिं व पुट्ठो धम्मं कधेदित्ति।2060। =भक्त प्रतिज्ञा में जो प्रयोगविधि कही है (देखें सल्लेखना - 4) वही यथा संभव इस इंगिनीमरण में भी समझनी चाहिए।2030। अपने गण को साधु आचरण के योग्य बनाकर इंगिनी मरण साधने के लिए परिणत होता हुआ, पूर्व दोषों की आलोचना करता है, तथा संघ का त्याग करने से पहिले अपने स्थान में दूसरे आचार्य की स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल वृद्ध आदि सभी गण से क्षमा के लिए प्रार्थना करता है।2032-2033। स्वगण से निकलकर अंदर बाहर से समान ऊँचे व ठोस स्थडिल का आश्रय लेता है। वह स्थंडित निर्जंतुक पृथिवी या शिलामयी होना चाहिए।2035। ग्राम आदि से याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछाकर संस्तर तैयार करे जिसका सिराहना पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखे।2036। तदनंतर अर्हंत आदिकों के समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगे दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय को शुद्ध करे।2038। संपूर्ण आहारों के विकल्पों का तथा बाह्याभ्यंतर परिग्रह का यावज्जीवन त्याग करे।2039। कायोत्सर्ग से खड़े होकर, अथवा बैठकर अथवा लेटकर एक कर्वट पर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीर की क्रिया करते हैं।2041। शौच व प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं।2042। जगत् के संपूर्ण पुद्गल दु:खरूप या सुखरूप परिणमित होकर उनको दु:खी सुखी करने को उद्यत होवें तो भी उनका मन ध्यान से च्युत नहीं होता।2047-2048। वे मुनि याचना पृच्छना परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभों का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।2052। इस प्रकार आठों पहरों में निद्रा का परित्याग करके वे एकाग्र मन से तत्त्वों का विचार करते हैं। यदि बलात् निद्रा आ गयी तो निद्रा लेते हैं।2053। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं हैं। श्मशान में भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है।2054। यथाकाल षडावश्यक कर्म नियमित रूप से करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्त में प्रयत्नपूर्वक उपकरणों की प्रतिलेखना करते हैं।2055। पैरों में काँटा चुभने और नेत्र में रजकण पड़ जाने पर वे उसे स्वयं नहीं निकालते। दूसरों के द्वारा निकाला जाने पर मौन धारण करते हैं।2057। तप के प्रभाव से प्रगटी वैक्रियक आदि ऋद्धियों का उपयोग नहीं करते।2058। मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादिकों का प्रतिकार नहीं करते।2059। किन्हीं आचार्यों के अनुसार वे कदाचित् उपदेश भी देते हैं।2060।
देखें अगला शीर्षक /अंतिमा गाथा-[कोई मुनि कायोत्सर्ग से और कोई दीर्घ उपवास से शरीर का त्याग करते?]
13. प्रायोपगमन मरण विधि
भगवती आराधना/2063-2071/1970 पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव वुवक्कमो सव्वो। वुत्तो इंगिणीमरणस्सुक्कमो जो सवित्थारो।2063। णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो। आदपरपओगेण य पडिसिद्धं सव्वपरियम्मं।2064। सो सल्लेहिददेहो जम्हा पाओवगमणमुवजादि। उच्चारादिविकिंचणमवि णत्थि पवोगदो तम्हा।2065। पुढवी आऊतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तत्थ।2066। मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे किरंते। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तधवि।2067। वोसट्टचत्तदेहो दु णिक्खिवेज्जो जहिं जधा अंगं। जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेज्ज।2068। एवं णिप्पडियम्मं भणंति पाओवगमणमरहंता। णियमा अणिहारं तं सया णीहारमुवसग्गे।2069। उवसग्गेण य साहरिदो सो अण्णत्थ कुणदि जं कालं। तम्हा वुत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहारं।2070। पडिमापडिवण्णा वि हु करंति पाओवगमणमप्पेगे।2071। =इंगिनीमरण में जो सविस्तार विधि कही है वही प्रायोपगमन में भी समझनी चाहिए।2063। इतनी विशेषता है कि यहाँ तृण के संस्तर का निषेध है, क्योंकि यहाँ स्व व पर दोनों के प्रयोग का अर्थात् शुश्रूषा आदि का निषेध है।2064। ये मुनि अपने मूत्र व विष्ठा तक का भी निराकरण न स्वयं करते हैं और न अन्य से कराते हैं।2065। सचित्त, पृथिवी, अग्नि, जल, वनस्पति व त्रस जीवनिकायों में यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो वे शरीर से ममत्व छोड़कर अपनी आयु समाप्ति होने तक वहाँ ही निश्चल रहते हैं।2066। इसी प्रकार यदि कोई उनका अभिषेक करे या गंध पुष्पादि से उनकी पूजा करे तो वे न उनके ऊपर क्रोध करते हैं, न प्रसन्न होते हैं और न ही उनका निराकरण करते हैं।2067। जिसके ऊपर इन मुनि ने अपना अंग रख दिया है, उस पर से यावज्जीव वे उस अंग को बिलकुल हिलाते नहीं है।2068। इस प्रकार स्व व पर दोनों के प्रतिकार से रहित इस मरण को प्रायोपगमनमरण कहते हैं। निश्चय से यद्यपि यह मरण अनीहार अर्थात् अचल है परंतु उपसर्ग की अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है।2069। उपसर्ग के वश होने पर अर्थात् किसी देव आदि के द्वारा उठाकर अन्यत्र ले जाये जाने पर स्वस्थान के अतिरिक्त यदि अन्यस्थान में मरण होता है तो उसको नीहारप्रायोपगमन मरण कहते हैं और जो उपसर्ग के अभाव में स्वस्थान में ही होता है उसको अनीहार कहते हैं।2070। कायोत्सर्ग को धारणकर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं, और कोई दीर्घकाल तक उपवास कर इस मरण से शरीर का त्याग करते हैं। इसी प्रकार इंगिनी मरण के भी भेद समझने चाहिए।2071।
4. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
1. इस विषय के 40 अधिकार
भगवती आराधना/66-70/193 सविचारभत्तपच्चक्खाणस्सिणमो उवक्कमो होइ। तत्थ य सुत्तपदाइं चत्तालं होंति णेयाइं।66। अरिहे लिंगे सिक्खा विणय समाधी य अणियदविहारे। परिणामोवधिजहणासिदो य तह भावणाओ य।67। सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिट्ठि परगणे चरिया। मग्गण सुट्ठिम उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा।68। आपुच्छा य पडिच्छणमेगस्सालोयणा य गुणदोसा। सेज्जा संथारो वि य णिज्जवग पयासणा हाणी।69। पच्चक्खाणं खामण खमणं अणुसट्ठिसारणाकवचे। समदाज्झाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाइं।70। =सविचार भक्तप्रत्याख्यान के वर्णन करने में चालीस सूत्र या अधिकार जानने चाहिए।66। [जिनके नाम व संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार हैं]।
सं. | नाम | लक्षण ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/67-70 ) |
1 | अर्ह | अगले अधिकारों को धारण करने के योग्य व्यक्ति। |
2 | लिंग | शिक्षा विनय आदि रूप साधन सामग्री के चिह्न। |
3 | शिक्षा | ज्ञानोपार्जन |
4 | विनय | ज्ञानादि के प्रति विनय होना |
5 | समाधि | मन की एकाग्रता |
6 | अनियत विहार | अनियत स्थानों में रहना |
7 | परिणाम | कर्तव्य परायणता |
8 | उपाधि त्याग | बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग |
9 | श्रिति | शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर उन्नति। |
10 | भावना | उत्तरोत्तर उत्तम भावनाओं का अभ्यास |
11 | सल्लेखना | कषाय व शरीर का कृश करना |
12 | दिशा | अपने स्थान पर स्थापित करने योग्य बालाचार्य। |
13 | क्षमणा | अन्योन्य क्षमा की याचना करना। |
14 | अनुशिष्टि | आगमानुसार उपदेश करना। |
15 | परगणचर्या | अपना संघ छोड़कर अन्य संघ में जाना। |
16 | मार्गण | समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज। |
17 | सुस्थित | परोपकार तथा आचार्य पद योग्य कार्य करने में प्रवीण गुरु। |
18 | उपसंपदा | आचार्य के चरणमूल में गमन करना। |
19 | परीक्षा | उत्साह, अभिलाषा, परिचारक गण आदि की परीक्षा करना। |
20 | प्रतिलेखन या निरूपण | राज्य देश आदि का शुभाशुभ अवलोकन। |
21 | पृच्छा | संग्रह से अनुग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करना। |
22 | एक संग्रह | प्रतिचारक मुनियों की स्वीकृति पूर्वक एक आराधक का ग्रहण। |
23 | आलोचना | गुरु के आगे अपने अपराध कहना। |
24 | गुण दोष | आलोचना के गुण दोषों का वर्णन। |
25 | शय्या | आराधक योग्य वसतिका। |
26 | संस्तर | आराधक योग्य शय्या। |
27 | निर्यापक | सहायक आचार्य आदि। |
28 | प्रकाशन | अंतिम आहार को दिखाना। |
29 | हानि | क्रम से आहार को दिखाना। |
30 | प्रत्याख्यान | जल के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहार का त्याग। |
31 | क्षमण | आचार्य आदि से क्षमा की याचना। |
32 | क्षपणा | प्रतिक्रमण आदि द्वारा कर्मों का क्षय। |
33 | अनुशिष्टि | आचार्य द्वारा उद्यत मुनि को उपदेश। |
34 | सारणा | दु:ख पीड़ित मोहग्रस्त साधु को सचेत करना। |
35 | कवच | क्षपक को वैराग्योत्पादक उपदेश देना। |
36 | समता | जीवन मरण लाभ अलाभ के प्रति उपेक्षा। |
37 | ध्यान | एकाग्रचिंतानिरोध। |
38 | लेश्या | कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति। |
39 | फल | आराधना से प्राप्त फल। |
40 | शरीर त्याग | आराधक का शरीर त्याग। |
2. इन अधिकारों का कथन क्रम
नोट-[उपरोक्त 40 अधिकारों में सल्लेखना धारने की विधि का क्रम से व्याख्यान किया गया है। तहाँ नं.1-11, 17, 18, 20, 21 व 24 ये अधिकार अन्वर्थक होने से सरल है। नं.12, 13, 14, 23, 29, 30, 31, 32, 36, 37 इनका कथन सल्लेखना/4 में किया गया है। नं.16, 22, 27, 28, 34 व 35 का कथन सल्लेखना/5 में; नं. 38 का सल्लेखना/1 में और नं.39 व 40 का सल्लेखना/6 में किया गया है।]
3. आचार्य पदात्याग विधि
भगवती आराधना/272-274 सल्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण। ताए वि अवत्थाए चितेदव्वं गणस्स हियं।272। कालं सभावित्ता सव्वगणमणुदिसं च वाहरिय। सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे मंगलोगासे।273। गच्छाणुपालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिम्खू। तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धीरो।274।=सल्लेखना करने के लिए उद्युक्त हुआ क्षपक यदि आचार्य पदवी का धारक होगा तो उसको क्षपक की अवस्था में भी अर्थात् जब तक आयु का अंत निकट न आवे तब तक अपने गण के हित की चिंता करनी चाहिए।273। अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनंतर अपने शिष्य समुदाय को और अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर, सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय, शुभप्रदेश में।273। अपने गुण के समान जिसके गुण हैं ऐसा वह बालाचार्य गच्छ का पालन करने के लिए योग्य है, ऐसा विचारकर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं, और उस समय उसे थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं।274। ( भगवती आराधना/177/395 ) (देखें संस्कार - 2 में 29वीं क्रिया का लक्षण)।
4. सबसे क्षमा
भगवती आराधना/ गा. आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि तं गणिं ठवेदूण। तिविहेण खमावेदि हु स वालउड्ढाउलं गच्छं।276। जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण। कडुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि।277। अब्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो। खामेइ सव्वसंघं संवेगं संजणेमाणो।711। मणवयणकायजोगेहिं पुरा कदकारिदे अणुमदे वा। सव्वे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सल्लो।712। =उस नवीन आचार्य को बुलाकर उसको गण के बीच में स्थापित कर और स्वयं अलग होकर बाल व वृद्ध आदि मुनियों से पूर्ण ऐसे गण से मन वचन काय से वह आचार्य क्षमा माँगते हैं। हे मुनिगण ! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सहवास हुआ है। मैंने ममत्व से, स्नेह से, द्वेष से, आपको कटु और कठोर वाक्य कहे होंगे। इसलिए आप सब मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है।277। (आयु का अंत निकट आने पर) वह क्षपक अपने मस्तक पर दो हाथ रखकर सर्व संघ को नमस्कार करता है और साधर्मिकों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है।712। मन, वचन और शरीर के द्वारा जो-जो अपराध मैंने किये हैं, उनके लिए आप लोग मुझे क्षमा करो। मैं शल्य रहित हुआ हूँ।712। (मू.आ./58)।
5. परगणचर्या व इसका कारण
भगवती आराधना/384-400 एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं पविहरंतो। आराधणाणिमित्तं परगणगमणे मइं कुणदि।384। सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादो य। णिब्भयसिणेहकालुगिणझाणविग्घो य असमाधी।385। परगणवासी य पुणो अव्वावारो गणी हवदि तेसु। णत्थि य असमाहाणं आणाकोवम्मि वि कदम्मि।387। कलहपरिदावणादि दोसे वा अमाउले करंतेसु। गणिणी हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधि।390। तण्हादिएसु सहणिज्जेसु वि सगणम्मि णिब्भओ संतो। जाएज्ज वे सेएज्ज य अकप्पिदं किं पि वीसत्थो।392। एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स। भिक्खुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा।396। एदे सव्वे दोसा ण होंति परगणणिवासिणो गणिणो। तम्हा सगणं पयहिय वच्चदि सो परगणं समाधीए।397। संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स विहरंतो। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी।400।=इस प्रकार अपने गण से पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्न से प्रवृत्ति करने वाले वे आचार्य आराधना के निमित्त परगण में गमन करने की इच्छा मन में धारण करते हैं।384। स्वसंघ में रहने से आज्ञाकोप, कठोरवचन, कलह, दु:ख, विषाद, खेद वगैरह निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं।385। जब आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनियों को वे उपदेश आज्ञा करते नहीं, जिससे उनके द्वारा आज्ञाभंग का प्रसंग आता नहीं। और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाय तो भी 'इन पर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है, जो कि ये मेरी आज्ञा मानें' ऐसा विचारकर उनको वहाँ असमाधि दोष उत्पन्न नहीं होता है।387। अथवा अपने संघ में क्षुल्लकादि मुनि कलह, शोक, संतापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्य को अपने गणपर ममता होने से चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जायेगी।390। समाधिमरणोद्युक्त आचार्य को भूख-प्यास वगैरह का दु:ख सहन करना चाहिए। परंतु वे अपने संघ में रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थों की याचना करेंगे अथवा स्वयं आहारादि का सेवन करेंगे। और भय व लज्जा रहित होकर छोड़ी हुई अयोग्य वस्तुओं का भी ग्रहण करेंगे।392। स्वगण में रहने वाले आचार्यों को ये दोष होंगे तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय तथा प्रवर्तक मुनि हैं उन्हें भी स्वगण में रहने से ये दोष होंगे।396। परगण निवासी गणी को ये दोष नहीं होते हैं। इसलिए स्वगण को छोड़कर परगण में जाते हैं।397। संसारभीरु, पापभीरु और आगम के ज्ञाता आचार्य के चरणमूल में ही वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधना की सिद्धि करता है।400।
6. उद्यत साधु के उत्साह आदि का विचार
भगवती आराधना/515-516 तो तस्स उत्तमट्ठे करणुच्छाहं पडिच्छदि विहण्हू। खीरोदणदव्वुग्गहदुगुंछणाए समाधीप।515। खवयस्सुवसंपण्णस्स तस्स आराधणा अविक्खेवं। दिव्वेण णिमित्तेण य पडिलेहदि अप्पमत्तो सो।516। =यह क्षपक रत्नत्रयाराधन की क्रिया करने में उत्साही है या नहीं, इसकी परीक्षा करके अथवा मिष्ठ आहारों में यह अभिलषित है या विरक्त, इसकी परीक्षा करके ही आचार्य उसे अनुज्ञा देने का निर्णय करते हैं।515। हमारे संघ का इस क्षपक ने समाधि के लिए आश्रय लिया है। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषय का भी आचार्य शुभाशुभ निमित्तों से निर्णय कर लेते हैं। यह भी एक परीक्षा है।516।
7. आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण
भगवती आराधना/ गा. इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय। सव्वगुणसोधिकंखी गुरूवएस समायरइ।614। आलोयणं सुणित्ता तिक्खुत्तो भिक्खुणो उवायेण। जदि उज्जुगीत्ति णिज्जइ जहाकदं पट्ठवेदव्वं।617। पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि जहाकमं सव्वे। कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणो तस्स।621। सो कदसामाचारी सोज्झं कट्टुं विधिणा गुरुसयासे। विहरदि सुविसुद्धप्पा अब्भुज्जदचरणगुणकंखी।630। =विशेषालोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशल्य को हृदय से निकालकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणों में शुद्धि की अभिलाषा रखता हुआ गुरु के द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त, रोष, दीनता और अश्रद्धान का त्यागकर क्षपक ग्रहण करता है।614। संपूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपक को तीन बार उपायसहित पूछते हैं। तब यदि यह क्षपक सरल परिणाम का है, ऐसा गुरु के अनुभव में आ जाय तो उसको प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा नहीं।617। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए संपूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं।621। जिसका आचार निर्दोष है ऐसा वह क्षपक प्रायश्चित्त लेकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार गुरु समीप रहकर अपने को निर्मल चारित्रयुक्त बनाता हुआ रत्नत्रय में प्रवृत्ति करता है, तथा समाधिमरण के लिए जिस विशिष्ट आचरण को स्वीकार किया है, उसमें उन्नति की इच्छा करता है।630। (विशेष दे.'आलोचना' व 'प्रायश्चित्त'); (मू.आ./55-56)
8. क्षपणा, समता व ध्यान
भगवती आराधना/ गा. एवं पडिक्कमणाए काउसग्गे य विणयसज्झाए। अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं।719। एवं अधियासेंतो सम्मं खवओ परीसहे एदे। सव्वत्थ अपर्डि उवेदि सव्वत्थ समभावं।1683। मित्तेमुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि। रागं वा दोसं वा पुव्वं जायंपि सो जहइ।1686। इट्ठेसु अणिट्ठेसु य सद्दफरिसरसरूवगंधेसु। इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च।1688। सव्वत्थ णिव्विसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा। खवयस्स रागदोसा हु उत्तमट्ठं विराधेंति।1689। सेज्जा संथारं पाणयं च उवधिं तहा सरीरं च। विज्जावच्चकरा वि य वोसरइ समत्तमारूढा।1693। एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा। मित्ती करुणं मुदिदमुवेक्खं खवओ पुण उवेदि।1695। एवं कसायजुद्धंमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं। ज्झाणविहूणो खवओ जुद्धेव णिरावुधो होदि।1892।=1. उक्त क्रम से संस्तरारूढ जो क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा इनमें एकाग्र होकर कर्म का क्षय करता है।719। 2. इस प्रकार समस्त परीषहों को अव्याकुलता से सहन करने वाला यह क्षपक शरीर, वसतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुओं में ममत्वरहित होता है। रागद्वेषों को छोड़कर समताभाव में तत्पर होता है।1683। मित्र, बंधु, माता, पिता, गुरु वगैरह, शिष्य और साधर्मिक इनके ऊपर दीक्षा ग्रहण के पूर्व में अथवा कवच से अनुगृहीत होने के पूर्व जो राग-द्वेष उत्पन्न हुए थे, क्षपक उनका त्याग करता है।1686। इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रस, गंध, स्पर्श, रूप विषयों में, इहलोक और परलोक में, जीवित और मरण में, मान और अपमान में यह क्षपक समानभाव धारण करता है। ये राग-द्वेष रत्नत्रय, उत्तमध्यान और समाधिमरण का नाश करते हैं, इसलिए क्षपक अपने हृदय से इनको दूर करता है।1688-1681। संपूर्ण रत्नत्रय पर आरूढ होकर यह क्षपक वसतिका, तृणादिका संस्तर, पानाहार अर्थात् जलपान, पिच्छ, शरीर और वैयावृत्त्य करने वाले परिचारक मुनि, इनका निर्मोह होकर त्याग करता है।1693। इस प्रकार संपूर्ण वस्तुओं में समताभाव धारणकर यह क्षपक अंत:करण को निर्मल बनाता है। उसमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं को स्थान देता है।1695। 3. कषायों के साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनि को शस्त्र के समान उपयोगी होता है। जैसे शस्त्र रहित वीर पुरुष युद्ध में शत्रु का नाश नहीं कर सकता है, वैसे ही ध्यान के बिना कर्म शत्रु को मुनि नहीं जीत सकता है।1892। (विशेष देखें ध्यान - 2.9)।
9. कुछ विशेष भावनाओं का चिंतवन
भगवती आराधना/ गा. जावंतु केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वज्जिंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो।178। एदाओ पंच वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो। पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सव्वसंगेसु।186। तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव। धिदिबलविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा।187। =जितना कुछ भी परिग्रह है वह सब राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला है। और नि:संग होकर अर्थात् परिग्रह को छोड़ने से क्षपक राग द्वेष को भी जीत लेता है।178। इन कंदर्पी आदि पाँच कुत्सित भावनाओं का (देखें भावना - 3) त्यागकर जो धीर मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालनकर संपूर्ण परिग्रहों से निस्पृह रहते हैं वे ही छठी भावना के आश्रय से रत्नत्रय में प्रवृत्त होते हैं।186। तप, श्रुताभ्यास, भयरहित होना, एकत्व, धृतिबल, ये पाँच प्रकार की असंक्लिष्ट भावनाएँ हैं, जिन्हें क्षपक को भाना चाहिए।187।
मू.आ./75-82 उड्मधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि। दंसणणाणसहगदो पंडियमरणं अणुमरिस्से।75। जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये। कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण।78। संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा ण य मे गदा तित्ती।79। आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमीं पुढविं। सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं।82। =ऊर्ध्व अधो व तिर्यक् लोक में मैंने बालमरण बहुत किये हैं, अब दर्शनज्ञानमयी होकर संन्यासपूर्वक पंडित मरण करूँगा।75। यदि संन्यास के समय क्षुधादि की वेदना उपजे तो नरक के स्वरूप का चिंतवन करना चाहिए तथा जन्म, जरा, मरणरूप संसार में मैंने कौन से दु:ख नहीं उठाये ऐसा चिंतवन करना चाहिए।78। चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किये हैं, और खल रस रूप से परिणमित किये हैं परंतु आज तक मेरी इनसे तृप्ति नहीं हुई है।79। आहार के कारण ही तंदुल मत्स्य सातवें नरक जाता है। इसलिए जीवघात से उत्पन्न सचित्त आहार मन से भी याचना करने योग्य नहीं।82।
10. मौन वृत्ति
भगवती आराधना/174/391 गणिणा सह संलाओ कज्जं पइ सेसएहिं साहूहिं। मोणं से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य।174। =क्षपक को संघ में आचार्य के साथ तो बोलना चाहिए, पर अन्य साधुओं के साथ अल्प मात्र ही भाषण करना चाहिए अधिक नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों के साथ बिलकुल मौन से रहे तथा विवेकी जनों या स्वजनों के साथ थोड़ा बहुत बोले अथवा बिलकुल न बोले।174।
11. क्रमपूर्वक आहार व शरीर का त्याग
1. 12 वर्षों का कार्यक्रम
भगवती आराधना/253-254 जोगेहिं विचित्तेहिं दु खवेइ संवच्छराणि चत्तारि। वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेदि।253। आयंबिलणिव्वियडीहिं दोण्णि आयंबिलेण एक्कं च। अद्धं णादिविगट्ठेहिं अदो अद्धं विगट्ठेहिं।254। =[भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल 12 वर्ष प्रमाण है-(देखें सल्लेखना - 3/5)। इन बारह वर्षों का कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं।] प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा बिताये, आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग करके शरीर को कृश करता है। इस तरह आठ वर्ष व्यतीत होते हैं।253। दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन ग्रहण करके रहता है। (देखें वह वह नाम )। एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है। छह महीने तक मध्यम तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता है और अंत के छह महीनों में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता है।254। (देखें आगे उपशीर्षक नं - 4)।
2. आहारत्याग की 12 प्रतिमाएँ
देखें सल्लेखना - 1.3 [यदि आयु व देह की शक्ति अभी बहुत शेष है तो शास्त्रोक्त 12 भिक्षु प्रतिमाओं को ग्रहण करे, जिससे कि क्षपक को पीड़ा न हो।]
भगवती आराधना/ मूलाराधना टीका/249/471/5 ईदृशमाहारं यदि मासाभ्यंतरे लभेऽहं ततो भोजनं करोमि नान्यथेति। तस्य मासस्यांतिमे दिने प्रतिमायोगमास्ते। सा एका भिक्षुप्रतिमा एवं पूर्वोक्ताहाराच्छतगुणेनोत्कृष्टदुर्लभान्यान्याभ्यवहारस्यावग्रहं गृह्णाति। यावद्द्वित्रिचतु:पंचषट्सप्तमासा: सर्वत्रांतिमदिनकृतप्रतिमायोगा: एता:। सप्त भिक्षुप्रतिमा:। पुन: पूर्वाहाराच्छतगुणोत्कृष्टस्य दुर्लभस्य अन्यान्याहारस्य सप्त-सप्त दिनानि वारत्रयं व्रतं गृह्णाति। एतास्तिस्रो भिक्षुप्रतिमा:। ततो रात्रिदिनं प्रतिमायोगेन स्थित्वा पश्चाद्रात्रिप्रतिमायोगमास्ते। एते द्वे भिक्षुप्रतिमे। पूर्वमवधिमन:पर्ययज्ञाने प्राप्य पश्चात्सूर्योदये केवलज्ञानं प्राप्नोति। एवं द्वादशभिक्षुप्रतिमा:। =1. मुनि स्वयं ठहरे हुए देश में उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार का व्रत ग्रहण करता है। अर्थात् उत्कृष्ट और दुर्लभ इस प्रकार का आहार यदि एक महीने के भीतर-भीतर मिल गया तो मैं आहार करूँगा अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस महीने के अंतिम दिन में वह प्रतिमा-योग धारण करता है। यह एक भिक्षु प्रतिमा हुई।-(2-7) पूर्वोक्त, आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार का व्रत वह क्षपक ग्रहण करता है यह व्रत क्रम से दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास तक के लिए ग्रहण करता है। प्रत्येक अवधि के अंतिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये कुल मिलकर सात भिक्षु प्रतिमाएँ हुईं।-(8-10) पुन: सात-सात दिनों में पूर्व आहार की अपेक्षा से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार तीन दफा लेने की प्रतिज्ञा करता है। आहार की प्राप्त होने पर तीन, दो और एक ग्रास लेता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं।-(11-12) तदनंतर रात्रि और दिन भर प्रतिमायोग से खड़ा रहकर अनंतर प्रतिमायोग से ध्यानस्थ रहता है। ये दो भिक्षुप्रतिमाएँ हुईं।-प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति होती है। अनंतर सूर्योदय होने पर वह क्षपक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इस रीति से 12 भिक्षु प्रतिमाएँ होती है।
3. शक्ति की अपेक्षा तीन प्रकार के अथवा चारों प्रकार के आहार का त्याग
भगवती आराधना/707-708 खवयं पच्चक्खावेदि तदो सव्वं च चदुविधाहारं। संघसमवायमज्झे सागारं गुरुणिओगेण।707। अहवा समाधिहेदुं कायव्वो पाणयस्स आहारो। तो पाणयंपि पच्छा वोसरिदव्वं जहाकाले।708। =तदनंतर संघ के समुदाय में सविकल्पक प्रत्याख्यान अर्थात् चार प्रकार के आहारों का निर्यापकाचार्य क्षपक को त्याग कराते हैं, और इतर प्रत्याख्यान भी गुरु की आज्ञा से वह क्षपक करता है।707। अथवा क्षपक के चित्त की एकाग्रता के लिए पानक के अतिरिक्त अशन खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकार के आहारों का त्याग कराना चाहिए। जब क्षपक की शक्ति अतिशय कम होती है तब पानक का भी त्याग करना चाहिए। अर्थात् परीषह सहन करने में खूब समर्थ है उसको चार प्रकार के आहार का और असमर्थ साधु को तीन प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए। (और भी देखें सल्लेखना - 3/7-9)।
4. आहार त्याग का सामान्य क्रम
भगवती आराधना/698-699 अणुसज्जमाणए पुण समाधिकामस्स सव्वमुहरिय। एक्केक्कं हावेंतो ठवेदि पोराणमाहारे।698। अणुपुव्वेण य ठविदो सवट्टेदूण सव्वमाहारं। पाणयपरिक्कमेण दु पच्छा भावेदि अप्पाणं।699। संथारत्थो खवओ जइया खीणो हवेज्ज तो तइया। वोसरिदव्वो पुव्व विधिणेव सोपाणगाहारो।1492। =निर्यापकाचार्य के द्वारा आहाराभिलाषा के दोष बताने पर भी क्षपक उस आहार में यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरण की इच्छा रखने वाले उस क्षपक के संपूर्ण आहारों में से एक-एक आहार को घटाते हैं, अर्थात् क्षपक के एक-एक आहार का क्रम से त्याग कराते हैं।698। आचार्य उपर्युक्त क्रम से मिष्टाहार का त्याग कराकर क्षपक को सादे भोजन में स्थिर करते हैं। तब वह क्षपक भात वगैरह अशन और अपूप वगैरह खाद्य पदार्थों को क्रम से कम करता हुआ पानकाहार करने में अपने को उद्युक्त करता है। (पानक के अनेकों भेद हैं-देखें पानक )।699। संस्तर पर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तब पानक के विकल्प का भी उपरोक्त सूत्रों के अनुसार त्याग करना चाहिए।1492। (और भी देखें सल्लेखना - 3/7-9)।
12. क्षपक के लिए उपयुक्त आहार
भगवती आराधना/ गा. सल्लेहणासरीरे तवोगुणविधी अणेगहा भणिदा। आयंबिलं महेसी तत्थ दु उक्कस्सयं विंति।250। छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं भत्तेहिं अदिविकट्ठेहिं। मिदलहुगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो।251। आयंबिलेण सिंभं खीयदि पित्तं च उवसमं जादि। वादस्स रक्खणट्ठं एत्थ पपत्तं खु कादव्वं।701। अकडुगमतित्तयमणं विलंब अकसायमलवणं मधुरं। अविरस मदुव्विगंधं अच्छमणुण्हं अणदिसीदं।1490। पाणगमसिंभलं परिपूयं खीणस्स तस्स दादव्वं। जह वा पच्छं खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं।1491। =शरीर सल्लेखना के लिए जो तपों के अनेक विकल्प पूर्वोक्त गाथाओं में कहे हैं, उनमें आचाम्ल भोजन करना उत्कृष्ट विकल्प है, ऐसा महर्षि गण कहते हैं।250। दो दिन का उपवास, तीन दिन का उपवास, चार दिन का उपवास, पाँच दिन का उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होने के अनंतर मित और हलका ऐसा कांजी भोजन ही क्षपक बहुश: करता है।251। आचाम्ल के कफ का क्षय होता है, पित्त का उपशम होता है और वात का रक्षण होता है, अर्थात् वात का प्रकोप नहीं होता। इसलिए आचाम्ल में प्रयत्न करना चाहिए।701। जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला, नमकीन, मधुर, विरस, दुर्गंध, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है, ऐसा आहार क्षपक को देना चाहिए अर्थात् मध्यम रसों का आहार देना चाहिए।1190। जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपक को दिया जात है, वह कफ को उत्पन्न करने वाला नहीं होना चाहिए और स्वच्छ होना चाहिए। क्षपक को जो देने से पथ्य-हितकर होगा ऐसा ही पानक देने योग्य है।1491।
देखें भक्ष्याभक्ष्य - 1.3 [शरीर की प्रकृति तथा क्षेत्र काल के अनुसार देना चाहिए]।
5. भक्तप्रत्याख्यान में निर्यापक का स्थान
1. योग्य निर्यापक व उसकी प्रधानता
भगवती आराधना/ गा. पंचविधे आचारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ। सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुट्ठ आयारे।423। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ।427। =[क्षपक को सल्लेखना धारण कराने वाला आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत और उत्पीलक होता है। इनके अतिरिक्त वह अपरिस्रावी निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान, और निर्यापक के गुणों से पूर्ण होना चाहिए-(देखें आचार्य - 1.2)] जो आचार्य स्वयं पंचाचार में तत्पर रहते हैं, अपनी सब चेष्टाएँ जो समितियों के अनुसार ही करते हैं वे ही क्षपक को निर्दोष-तथा पंचाचार में प्रवृत्ति करा सकते हैं।423। आचारवत्त्व गुण को धारण करने वाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषों का (देखें अगला शीर्षक ) त्याग करते हैं, इसलिए गुणों में प्रवृत्त होने वाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक समझने चाहिए।427। (और भी देखें आगे शीर्षक नं - 3)
भगवती आराधना/ गा. गीदत्थपादमूले होंति गुणा एवमादिया बहुगा। ण य होइ संकिलेसो ण चावि उप्पज्जदि विवत्ती।447। खवओ किलामिदंगो पडिचरय गुणेण णिववुदिं लहइ। तम्हा णिव्विसिदव्वं खवएण पकुव्वयसयासे।458। धिदिबलकरमादहिदं महुरं कण्णाहुदिं जदि ण देइ। सिद्धिसुहमावहंती चत्ता साराहणा होइ।505। इय णिव्ववओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदायरिओ। होइ य कित्ती पधिदा एदेहिं गुणेहिं जुत्तस्स।506। =जो आचार्य सूत्रार्थज्ञ है उसके पादमूल में जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा, उसको उपर्युक्त अनेक गुणों की प्राप्ति होती है, उसके संक्लेश परिणाम नहीं होते, न ही रत्नत्रय में कोई बाधा होती है। इसलिए आधारगुणयुक्त आचार्य का आश्रय लेना ही क्षपके के लिए योग्य है।447। रोग से ग्रसित क्षपक आचार्य के द्वारा की गयी शुश्रूषा से सुखी होता है, इसलिए प्रकुर्वी गुण के धारक आचार्य के पास ही रहना श्रेयस्कर है।458। निर्यापकाचार्य की वाणी धैर्य उत्पन्न करती है, वह आत्मा के हित का वर्णन करती है, मधुर और कर्णाह्लादक होती है। यदि ऐसी वाणी का प्रयोग न करें तो क्षपक आराधनाओं का त्याग करेगा।505। इस प्रकार से क्षपक का मन आह्लादित करने वाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं अर्थात् निर्वापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपक का समाधिमरण करा सकता है। इन आचारवत्त्वादि गुणों से परिपूर्ण आचार्य की जगत् में कीर्ति होती है।506।
2. चारित्रहीन निर्यापक का आश्रय हानिकारक है
भगवती आराधना/424-426 सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्धं पडिचरए वा असंविग्गे।424। सल्लेहणं पयासेज्ज गंधं मल्लं च समणुजाणिज्जा। अप्पाउग्गं व कधं करिज्ज सइरं व जंपिज्ज।425। ण करेज्ज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो। उद्देज्ज वा महल्लं खवयस्स किंचणारंभं।426। =पंचाचार से भ्रष्ट आचार्य क्षपक को वसतिका, उपकरण, संस्तर, भक्त, पान, उद्गमादि दोष सहित देगा। वह वैराग्य रहित मुनियों को उसकी शुश्रूषा के लिए नियुक्त करेगा, जिनसे क्षपक का आत्महित होना अशक्य है।424। वह क्षपक की सल्लेखना को लोक में प्रगट कर देगा, उसके लिए लोगों को पुष्पादि लाने को कहेगा, उसके सामने परिणामों को बिगाड़ने वाली कथाएँ कहेगा, अथवा योग्यायोग्य का विचार किये बिना कुछ भी बकने लगेगा।425। वह न तो क्षपक को रत्नत्रय में करने योग्य उपदेश देगा और न उसे रत्नत्रय से च्युत होने से रोक सकेगा। उसके निमित्त पट्टकशाला, पूजा, विमान आदि के अनेक आरंभ लोगों से करायेगा, इसलिए ऐसे आचार्य के सहवास में क्षपक का हित होना शक्य नहीं।426।
भगवती आराधना/ उपोद्धात-क्षपकस्य चतुरंगं कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्थमसौ नाशयतीति दर्शयति)-सम्मं सुदिमलहंतो दीहद्धं मुत्तिमुवगमित्ता वि। परिवडइ मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि।433। सक्का वंसी छेत्तं तत्तो उक्कढिओ पुणो दुक्खं। इय संजमस्स वि मणो विसएसुक्कडि्ढदुं दुक्खं।434। पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स। ण कुणदि उवदेसादिं समाधिकरणं अगीदत्थो।437। =प्रश्न-चतुरंग को न जानने वाला आचार्य क्षपक का नाश कैसे करता है ? उत्तर-[अनादि संसार चक्र में उत्तम देश, कुल आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं।-गा.430-432] योग्य कार्य में प्रवृत्ति करने वाली स्मृति प्राप्त होने पर भी और चिरकाल तक संयम पालनकर लेने पर भी अल्पज्ञ आचार्य के आश्रय से मरणकाल में क्षपक संयम छोड़ देता है।433। जिस प्रकार बाँस के समूह में से एक छोटे बाँस को उखाड़ना बहुत कठिन है उसी प्रकार मन विषयों से निकालकर संयम में स्थापित करना अत्यंत कठिन है।434। अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तृषा से पीड़ित क्षपक को उपदेशादिक नहीं करता इसलिए उसके आश्रय से उसको समाधि मरण लाभ नहीं होता।437।
3. योग्य निर्यापक का अन्वेषण
भगवती आराधना/ गा. पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं। णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं।401। एक्कं व दो व तिण्णि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो। जिणवयणमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु।402। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जवमद्दवलाघवतुट्ठी पल्हादणं च गुणा।409। =जिसको समाधिमरण की इच्छा है ऐसा मुनि 500,600,700 अथवा इससे भी अधिक योजन तक विहारकर शास्त्रोक्त निर्यापक का शोध करता है।401। वह एक, दो, तीन वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक खेदयुक्त न होता हुआ जिनागम से निर्णीत निर्यापकाचार्य का अन्वेषण करता है।402। निर्यापकत्व की शोध करने के लिए विहार करने से क्षपक को आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। आत्मा की शुद्धि होती है, संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं। आर्जव, मार्दव, लाघव (लोभरहितता) संतुष्टी, आह्लाद आदि गुण प्रगट होते हैं।409।
4. एक निर्यापक एक ही क्षपक को ग्रहण करता है
भगवती आराधना/519-520 एगो संथारगदो जजइ सरीरं जिणोवदेसेण। एगो सल्लिहदि मुणी उग्गेहिं तवोविहाणेहिं।519। तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज बाघादो। पडिदेसु दोसु तीसु य समाधिकरणाणि हायंति।520।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/520/739/16 तृतीयो यतिर्नानुज्ञात: तीर्थकृद्भि: एकेन निर्यापकेनानुग्राह्यत्वेन। =एक क्षपक जिनेश्वर के उपदेशानुसार संस्तर पर चढ़कर शरीर का त्याग करता है अर्थात् समाधिमरण का साधन करता है और एक मुनि उग्र अनशनादि तपों के द्वारा शरीर को शुष्क करता है।519। इन दोनों के अतिरिक्त तृतीय यति निर्यापकाचार्य के द्वारा अनुग्राह्य नहीं होता है। दो या तीन मुनि यदि संस्तरारूढ़ हो जायेंगे तो उनकी धर्म में स्थित रखने का कार्य, विनय वैयावृत्त्य आदि कार्य यथायोग्य नहीं हो सकेंगे, जिससे उनके मन को संक्लेश होगा। अत: एक ही क्षपक संस्तरारूढ़ हो सकता है।520।
5. निर्यापकों की संख्या का प्रमाण
भगवती आराधना/ गा. कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदत्था भयवंता अडदालीसं तु णिज्जवया।648।...। कालम्मि संकिलिट्ठंमि जाव चत्तारि साधेंति।672। णिज्जावया य दोण्णि वि होंति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते।673। एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परोयवयणं च। वसणमसमाधिमरणं वड्डाहो दुग्गदी चावि।674। =योग्यायोग्य आहार को जानने में कुशल, क्षपक के चित्त का समाधान करने वाले, प्रायश्चित्त ग्रंथ के रहस्य को जानने वाले, आगमज्ञ, स्व व पर का उपकार करने में तत्पर निर्यापक या परिचारक उत्कृष्टत: 48 होते हैं।648। संक्लेश परिणामयुक्त काल में वे चार तक भी होते हैं।672। और अतिशय संक्लिष्ट काल में दो निर्यापक भी क्षपक के कार्य को साध सकते हैं। परंतु जिनागम में एक निर्यापक का किसी भी काल में उल्लेख नहीं है।673। यदि एक ही निर्यापक होगा तो उसमें आत्मत्याग, क्षपक का त्याग और प्रवचन का भी त्याग हो जाता है। एक निर्यापक से दु:ख उत्पन्न होता है और रत्नत्रय में एकाग्रता के बिना मरण हो जाता है। धर्मदूषण और दुर्गति भी होती है। (विशेष दे. भगवती आराधना/675-679 )।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/92 इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण=जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय बयालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह दिया जाने के कारण देहत्याग व्यवहार से धर्म है।
6. सर्व निर्यापकों में कर्तव्य विभाग
भगवती आराधना/649-670 का भावार्थ [1. चार परिचारक सावधानी पूर्वक क्षपक के हाथ पाँव दबाना, चलने-फिरने में सहारा देना, सुलाना-बैठाना, खड़ा करना, करवट दिलाना, पाँव पसारना व सिकोड़ना आदि उपकार करते हैं।649-650। 2. चार मुनि विकथाओं का त्यागकर क्षपक को असंदिग्ध, मधुर, हृदयस्पर्शी, सुखकर, तथा हितप्रद धर्मोपदेश देते हैं।651-653। 3. भिक्षा लब्धि युक्त चार मुनि याचना के प्रति ग्लानि का त्याग करके क्षपक के लिए उसकी रुचि व प्रकृति के अनुसार उद्गमादि दोषों रहित आहार माँगकर लाते हैं।662। (देखें अपवाद - 3.3) 4. चार मुनि उसके लिए पीने योग्य पदार्थ माँगकर लाते हैं।663। (देखें अपवाद - 3.3)। 5. चार मुनि उस माँगकर लाये हुए आहार व पान के पदार्थों की चूहों आदि से रक्षा करते हैं।664। (देखें अपवाद - 3.3)। 6. चार मुनि क्षपक को मलमूत्र कराने का तथा उसकी वसतिका संस्तर व उपकरणों को शोधने का कार्य करते हैं।665। 7. चार मुनि क्षपक की वसतिका के द्वार का रक्षण करते हैं ताकि असंयतजन वहाँ प्रवेश न कर सकें।666। 8. तथा चार मुनि धर्मोपदेश देने के मंडप के द्वार की रक्षा करते हैं।666। 9. चार मुनि क्षपक के पास रात को जागरण करते हैं।667। 10. और चार मुनि उस नगर या देश की शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते हैं।667। 11. चार मुनि आगंतुक श्रोताओं को सभामंडप में आक्षेपणी आदि कथाओं का तथा स्व व पर मत का सावधानीपूर्वक उपदेश देते हैं, ताकि क्षपक उसे न सुन सके।668। 12. चार वादी मुनि धर्मकथा करने वाले उपरोक्त मुनियों की रक्षार्थ सभा में इधर-उधर घूमते हैं।669।]
7. क्षपक की वैयावृत्ति करते हैं
भगवती आराधना/ गा. तो पाणएण परिभाविदस्स उदरमलसोधणिच्छाए। मधुरं पज्जेदव्वो मंडं व विरेयणं खवओ।702। आणाहवत्तियादीहिं वा वि कादव्वमुदरसोधणयं। वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्थंतयं उदरे।703। वेज्जावच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं फिडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज तं खवयं।1496। तो तस्स तिगिंछा जाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए। विज्जादेसेण वसे पडिकम्मं होइ कायव्वं।1497। =पानक पदार्थ का सेवन करने वाले क्षपक को पेट के मल की शुद्धि करने के लिए माँड के समान मधुर रेचक औषध देना चाहिए।702। उसके पेट को सेंकना चाहिए तथा सेंधा नमक आदि पदार्थों की बत्ती बनाकर उसकी गुदा में प्रवेश कराना चाहिए। ऐसा करने से उसके उदर का मल निकल जाता है।703। वैयावृत्त्य के गुणों का विस्तार से पूर्व में वर्णन किया गया है (देखें वैयावृत्त्य )। जो निर्यापक क्षपक की उपेक्षा करता है वह उन गुणों से भ्रष्ट होता है।1496। रोग का निदान जानने वाले मुनि को वैद्य के उपदेशानुसार अपनी सर्व शक्ति से क्षपक के रोग का परिहार करना चाहिए।1497।
देखें सल्लेखना - 5/6 [क्षपक के हाथ-पाँव दबाना, उसे उठाना, बैठाना, चलाना, सुलाना, करवट दिलाना, मल-मूत्र कराना, उसके लिए आहारादि माँगकर लाना इत्यादि कार्य निर्यापक व परिचारक नित्य करते हैं।]
देखें अपवाद - 3.4-5 [जीभ और कानों की सामर्थ्य के लिए क्षपक को कई बार तेल व कषायले पदार्थों के कुल्ले कराने चाहिए। उदर में मल का शोधन करने के लिए इनिमा करना, सर्दी में उष्णोपचार और गरमी में शीतोपचार करना तथा अंग मर्दन आदि रूप से उसकी सेवा करते हैं।]
8. आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना
भगवती आराधना/689-695 दव्वपयासमकिच्चा जइ कीरइ तस्स तिविहवोसरणं। कम्हिवि भत्तविसेसंमि उस्सुगो होज्ज सो खवओ।689। तम्हा तिविहं वोसरिहिदित्ति उक्कस्सयाणि दव्वाणि। सोसित्ता संविरलिय चरिमाहारं पायासेज्ज।690। पासित्तु कोइ तादी तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मेत्ति। वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि।691। देसं भोच्चा हा हा तीरं...।693। सव्वं भोच्चा धिद्धी तीरं...।694। कोई तमादयित्ता मणुण्णरसवेदणाए संविद्धो। तं चेवणुबंधेज्ज हु सव्वं देसं च गिद्धीए।695। =क्षपक को आहार न दिखाकर ही यदि तीन प्रकार के आहारों का त्याग कराया जायेगा तो वह क्षपक किसी आहार विशेष में उत्सुक होगा।689। इसलिए अच्छे-अच्छे आहार के पदार्थ बरतनों में पृथक् परोसकर उस क्षपक के समीप लाकर उसे दिखाना चाहिए।690। ऐसे उत्कृष्ट आहार को देखकर कोई क्षपक 'मैं तो अब इस भव में दूसरे किनारे को प्राप्त हुआ हूँ, इन आहारों की अब मुझको कोई आवश्यकता नहीं है' ऐसा मन में समझकर भोग से विरक्त व संसार से भययुक्त होकर आहार का त्याग कर देता है।691। कोई उसमें थोड़ा सा खाकर।693। और कोई संपूर्ण का भक्षण करके उपरोक्त प्रकार ही विचारता हुआ उसका त्याग कर देता है।694। परंतु कोई क्षपक दिखाया हुआ भक्षण कर उसके स्वादिष्ट रस में लुब्ध होकर उस संपूर्ण आहार को बारंबार भक्षण करने की इच्छा रखता है अथवा उसमें किसी एक पदार्थ को बारंबार खाने की अभिलाषा रखता है।695। [ऐसा क्षपक कदाचित् निर्यापक का उपदेश सुनकर उससे विरक्त होता है (देखें शीर्षक सं - 11) और इस पर भी विरक्त न हो तो धीरे-धीरे क्रमपूर्वक उसका प्रत्याख्यान कराया जाता है। (देखें सल्लेखना - 4/11)]
9. कदाचित् क्षपक को उग्र वेदना का उद्रेक
भगवती आराधना/1501-1510 अहवा तण्हादिपरसिहेहिं खवओ हविज्ज अभिभूदो। उवसग्गेहिंव खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो।1501। तो वेदणावसट्ठो वाउलिदो वा परीसहादीहिं। खवओ अणप्पवसिओ सो विप्पलवेज्ज जं किं पि।1502। उब्भासेज्ज व गुणसेढीदो उदरणबुद्धिओ खवओ। छट्ठं दोच्चं पढमं वसिया कुंटिलिदपदमिच्छंतो।1503। चेयंतोपि य कम्मोदएण कोह परीसहपरद्धो। उब्भासेज्ज वउक्कावेज्ज व भिंदेज्ज व पदिण्णं।1510। =भूख-प्यास इत्यादि परिषहों से पीड़ित होकर क्षपक निश्चेत होगा अथवा भ्रांत होगा, अथवा मूर्च्छित होगा।1501। वेदना की असह्यता से दु:खी होकर, परीषह और उपसर्ग से व्याकुल होकर क्षपक आपे में नहीं रहेगा, जिससे वह बड़-बड़ करेगा।1502। अयोग्य भाषण बोलेगा, संयम से गिरने को बुद्धि करेगा। रात्रि को भोजन-पान करने का अथवा दिन में प्रथम भोजन करने का विचार उसके मन में उत्पन्न होगा।1503। कोई क्षपक सावध होकर कर्मोदय से परिषहों से व्याकुल होकर जो कुछ भी उचित-अनुचित भाषण करेगा। अथवा ली हुई प्रतिज्ञाओं का भंग करेगा।1510।
10. उपरोक्त दशा में भी उसका त्याग नहीं करते
भगवती आराधना/1511 ण हु सो कडुवं फरुसं व भाणिदव्वो ण खीसिदव्वो य। ण य वित्तासेदव्वो ण य वट्टदि हीलणं कादुं।1511। =प्रतिज्ञा भंग करने पर भी निर्यापकाचार्य उसे कड़वे और कठोर शब्द न बोले, उसकी भर्त्सना न करे, उसको भय न दिखावे अथवा उसका अपमान न करे।1511।
11. यथावसर उपदेश देते हैं
1. सामान्य निर्देश
देखें उपदेश - 3.4 [आक्षेपिणी, संवेजनी, और निर्वेजनी ये तीन कथाएँ क्षपक को सुनाने योग्य हैं। पर विक्षेपणी कथा नहीं।] ( भगवती आराधना/655,1608 )।
भगवती आराधना/ गा.सं.का भावार्थ- [हे क्षपक ! तुम सुख-स्वभाव का त्याग करके चारित्र को धारण करो।522। इंद्रिय व कषायों को जीतो।523। हे क्षपक ! तू मिथ्यात्व का वमन कर। सम्यग्दर्शन, पंच-परमेष्ठी की भक्ति व ज्ञानोपयोग में सदा प्रवृत्ति कर।722,725। पंच महाव्रतों का रक्षण कर, कषायों का दमन कर, इंद्रियों को वश कर।723। (मू.आ./83-94)]।
2. वेदना की उग्रता में सारणात्मक उपदेश
भगवती आराधना/ गा.सं.का भावार्थ-क्षुधादि से पीड़ित होने पर, वे आधारवान् निर्यापकाचार्य क्षपक की मधुर व हितकर उपदेश द्वारा आर्तध्यान से रक्षा करते हैं।441। हे मुनि ! यदि परिचारकों ने तेरा त्याग भी कर दिया है, तब भी तू कोई भय मत कर ऐसा कहकर उसे निर्भय करते हैं।443। शिक्षावचन रूप आहार देकर उसकी भूख-प्यास शांत करते हैं।445। आचार्य क्षपक की आहार की गृद्धि से संयम की हानि व असंयम की वृद्धि दर्शाते हैं।696। जिसे सुनकर वह संपूर्ण अभिलाषा का त्याग करके वैराग युक्त व संसार से भययुक्त हो जाता है।697। पूर्वाचरण का स्मरण कराने के लिए आचार्य उस क्षपक को निम्न प्रकार पूछते हैं, जिससे कि उसकी लेश्या निर्मल हो जाती है।1504। हे मुने ! तुम कौन हो, तुम्हारा क्या नाम है, कहाँ रहते हो, अब कौन-सा काल है अर्थात् दिन है या रात, तुम क्या कार्य करते हो, कैसे रहते हो ? मेरा क्या नाम है?।1505। ऐसा सुनकर कोई क्षपक स्मरण को प्राप्त हो जाता है कि मैंने यह अकाल में भोजन करने की इच्छा की थी। यह आचरण अयोग्य है, और अनुचित आचरण से निवृत्त हो जाता है।1508। (मू.आ./95-102)।
3. प्रतिज्ञा को कवच करने के अर्थ उपदेश
भगवती आराधना/ गा.सं.का भावार्थ-प्रतिज्ञा भंग करने को उद्यत हुए क्षपक को निर्यापकाचार्य प्रतिज्ञा भंग से निवृत्त करने के लिए कवच करते हैं।1513। अर्थात् मधुर व हृदयस्पर्शी उपदेश देते हैं।1514। हे क्षपक ! तू दीनता को छोड़कर मोह का त्याग कर। वेदना व चारित्र के शत्रु जो राग व कोप उनको जीत।1515। तूने शत्रु को पराजित करने की प्रतिज्ञा की है, उसे याद कर। कौन कुलीन व स्वाभिमानी शत्रु समक्ष आने पर पलायन करता है।1518। हे क्षपक ! तूने चारों गतियों में जो-जो दु:ख सहन किये हैं उनको याद कर।1561। [विशेष देखें वह वह गति अथवा भगवती आराधना/1562-1601 )] उस अनंत दु:ख के सामने यह दु:ख तो ना के बराबर है।1602। अनंत बार तुम्हें तीव्र भूख व प्यास सहन करनी पड़ी है।1605-1607। तुम संवेजनी आदि तीन प्रकार कथाएँ सुनो, जिससे कि तुम्हारा बल बढ़े।1608। कर्मों के उदय होने पर औषधि आदि भी असमर्थ हो जाती हैं।1610। मरण तो केवल उस भव में ही होता है परंतु असंयम से सैकड़ों भवों का नाश होता है।1614। असाता का उदय आने पर देव भी दु:ख दूर करने को समर्थ नहीं।1617-1619। अत: वह दुर्निवार है।1322। प्रतिज्ञा भंग करने से तो मरना भला है।1633। (देखें व्रत - 1.7)। आहार की लंपटता पाँचों पापों की जननी है।1642। हे क्षपक ! यदि तेरी आहार की अभिलाषा इस अंतिम समय में भी शांत नहीं हुई हो तो अवश्य ही तू अनंत संसार में भ्रमण करने वाला है।1652। हे क्षपक ! आज तक अनंत बार तूने चारों प्रकार का आहार भक्षण किया है, पर तू तृप्त नहीं हुआ।1657। जिह्वा पर आने के समय ही आहार सुखदायक प्रतीत होता है, पीछे तो दु:खदायक ही है।1660। वह सुख अत्यंत क्षणस्थायी है।1662। तलवार की धार एक भव में ही नाश का कारण है पर अयोग्य आहार सैकड़ों भवों में हानिकारक है।1666। अब तू इस शरीर की ममता को छोड़।1667। नि:संगत्व की भावना से अब इस मोह को क्षीण कर।1671। मरण समय संक्लेश परिणाम होने पर ये संस्तर आदि बाह्य कारण तेरी सल्लेखना में निमित्त न हो सकेंगे।1672। (देखें सल्लेखना - 1.7)। यद्यपि अब यह श्रम तुझे दुष्कर प्रतीत होता है परंतु यह स्वर्ग व मोक्ष का कारण है, इसलिए हे क्षपक ! इसे तू मत छोड़।1675। जैसे अभेद्य कवच धारण करके योद्धा रण में शत्रु को जीत लेता है, वैसे ही इस उपदेशरूपी कवच से युक्त होकर क्षपक परीषहों को जीत लेता है।1681-1682।
6. मृत शरीर का विसर्जन व फल विचार
1. शव विसर्जन विधि
भगवती आराधना/ गा. जे वेलं कालगदो भिक्खू तं वेलमेव णीहरणं। जग्गणबंधणछेदणविधी अवेलाए कादव्वा।1974। गीदत्था...रमिज्जबाधेज्ज।1976-77 (देखें अपवाद - 3.6)। उयसय पडिदावण्णं...पि तो होज्ज।1978-79। (देखें अपवाद - 3.3);। तेण परं संठाविय संथारगदं च तत्थ बंधित्ता। उट्ठेंतरक्खणट्ठं गामं तत्तो सिरं किच्चा।1980। पुव्वाभोगिय मग्गेण आसु गच्छंति तं समादाय। अट्ठिदमणियत्तंता य पीट्टदो ते अणिब्भंता।1981। तेण कुसमुट्ठिधाराए अव्वोच्छिणाए समणिपादाए। संथारो कादव्वो सव्वत्थ समो सगिं तत्थ।1983। जत्थ ण होज्ज तणाइं चुण्णेहिं वि तत्थ केसरेहिं वा। संघरिदव्वा लेहा सव्वत्थ समा अवोच्छिण्णा।1984। जत्तो दिसाए गामो तत्तो सीसं करित्त सोवधियं। उट्ठेंतरक्खणट्ठं वोसरिदव्वं सरीरं तं।1986। जो वि विराधिय दंसणमंते कालं करित्तु होज्ज सुरो। सो वि विबुज्झदि दट्ठूण सदेहं सोवधिं सज्जो।1987। गणरक्खत्थं तम्हा तणमयपडिविंबयं खु कादूण। एक्कं तु समे खेत्ते दिवड्ढखेत्ते दुवे देज्ज।1990। तट्ठाणंसावणं चिय तिक्खुत्तो ठविय मडयपासम्मि। विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा तह विदियतदियाणं।1991। असदि तणे चुण्णेहिं च केसरच्छारिट्टियादिचुण्णेहिं। कादव्वोथ ककारो उवरिं हिट्ठा यकारो से।1992। =जिस समय भिक्षु का मरण हुआ होगा, उसी वेला में उसका प्रेत ले जाना चाहिए। अवेला में मर जाने पर जागरण, अथवा छेदन करना चाहिए।1974। [पराक्रमी मुनि उस शव के हाथ और पाँव तथा अँगूठा इनके कुछ भाग बाँधते हैं अथवा छेदते हैं। यदि ऐसा न करे तो किसी भूत या पिशाच के उस शरीर में प्रवेश कर जाने की संभावना है, जिसको लेकर वह शव अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं द्वारा संघ को क्षोभ उत्पन्न करेगा।1976-1977। (देखें अपवाद - 3.6)।-गृहस्थों से माँगकर लाये गये थाली आदि उपकरणों को गृहस्थों को वापस दे देने चाहिए। यदि सर्व जनों की विदित किसी आर्यिका या क्षुल्लक ने सल्लेखना मरण किया है तो उसके शव को किसी पालकी या विमान में स्थापित करके गृहस्थजन उसे ग्राम से बाहर ले जावें।1978-1979। (देखें अपवाद - 3.3)] शिविका में बिछाने के साथ उस शव को बाँधकर उसका मस्तक ग्राम की ओर करना चाहिए। क्योंकि कदाचित् उसका मुख ग्राम की तरफ न होने से वह ग्राम में प्रवेश नहीं करेगा। अन्यथा ग्राम में प्रवेश करने का भय है।1980। पूर्व में देखे गये मार्ग से उस शव को शीघ्र ले जाना चाहिए। मार्ग में न खड़े होना चाहिए और न पीछे मुड़कर देखना।1981। जिसने निषद्यका स्थान पहले देखा हो वह मनुष्य आगे ही वहाँ जाकर दर्भमुष्टि की समानधारा से सर्वत्र सम ऐसा संस्तर करे।1983। दर्भ तृण के अभाव में प्रासुक तंडुल मसूर की दाल इत्यादिकों के चूर्ण से, कमल केशर वगैरह से मस्तक से लेकर पाँव तक बिना टूटी हुई रेखाएँ खेंचे।1984। अब ग्राम की दिशा में मस्तककर पीछी के साथ उस शव को उस स्थान पर रखे।1986। जिसने सम्यग्दर्शन की विराधना से मरणकर देवपर्याय पाया है, वह भी पीछी के साथ अपना देह देखकर 'मैं पूर्व जन्म में मुनि था' ऐसा जान सकेगा।1987। गण के रक्षण के हेतु मध्यम नक्षत्र में तृण का एक या दो प्रतिबिंब बनाकर उसके पास रखना चाहिए।1990। उन्हें वहाँ स्थापनकर जोर से बोलकर ऐसा कहें कि मैंने यह एक अथवा दो क्षपक तेरे अर्पण किये हैं। यहाँ रहकर ये चिरकाल पर्यंत तप करें।1991। यदि तृण न हों तो तंडुल चूर्ण, पुष्प केसर, भस्म आदि जो कुछ भी उपलब्ध हो उससे ही वहाँ 'काय' ऐसा शब्द लिखकर उसके ऊपर क्षपक को स्थापन करे।1992।
2. शरीर विसर्जन के पश्चात् संघ का कर्तव्य
भगवती आराधना/1993-1996 उसगहिदं उवकरणं हवेज्ज जं तत्थ पाडिहरियं तु। पडिबोधित्ता सम्मं अप्पेदव्वं तयं तेसिं।1993। आराधणपत्तीयं काउसग्गं करेदि तो संघो। अधिउत्ताए इच्छागारं खवयस्स वसधीए।1994। सगणत्थे कालगदे खमणमसज्झाइयं च तद्दिवसं। सज्झाइ परगणत्थे भयणिज्जं खमणकरणं पि।1995। एवं पडिट्ठवित्ता पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खंति। संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णादुंजे।1996। =मृतक को निषीधिका के पास ले जाने के समय जो कुछ वस्त्र काष्ठादिक उपकरण गृहस्थों से याचना करके लाया गया था उसमें जो कुछ लौटाकर देने योग्य होगा वह गृहस्थों को समझाकर देना चाहिए।1993। चार आराधनाओं की प्राप्ति हमको होवे ऐसी इच्छा से संघ को कायोत्सर्ग करना चाहिए। क्षपक की वसतिका का जो अधिष्ठान देवता है उसके प्रति 'यहाँ संघ बैठना चाहता है' ऐसा इच्छाकार करना चाहिए।1994। अपने गण का मुनि मरण को प्राप्त होवे तो उपवास करना चाहिए और उस दिन स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। यदि परगण के मुनि की मृत्यु हुई हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपवास करे अथवा न करे।1995। उपर्युक्त क्रम से क्षपक के शरीर की स्थापना कर पुन: तीसरे दिन वहाँ जाकर देखते हैं कि संघ का सुख से विहार होगा या नहीं और क्षपक को कौनसी गति हुई है।[ये बातें जानने के लिए, पक्षियों द्वारा इधर-उधर ले जाकर डाले गये, शव के अंगोपांगों को देखकर विचारते हैं। (देखें अगला शीर्षक )]।1996।
3. फल विचार
1. निषीधिका की दिशाओं पर से
भगवती आराधना/1971-1973 जा अवरदक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वण्णिज्जदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति।1970। सव्वसमाधी पढ़माए दक्खिणाए दु भत्तगं सुलभं। अवराए सुहविहारो होदि य उवधिस्स लाभो य।1971। जद तेसिं बाघादो दट्ठव्वा पुव्वदक्खिणा होइ। अवरुत्तरा य पुव्वा उदीचिपुव्वुत्तरा कमसो।1972। एदासु फलं कमसो जाणेज्ज तुमंतुमा य कलहो य। भेदो य गिलाणं पि य चरिमा पुण कड्ढदे अण्णं।1973। =वह निषीधिका क्षपक की वसतिका से नैऋत्य दिशा में, दक्षिण दिशा में, अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। इन दिशाओं में निषीधिका की रचना करना प्रशस्त माना गया है।1970। नैऋत्य दिशा की निषीधिका का सर्व संघ के लिए समाधि की कारण है। अर्थात् वह संघ का हित करने वाली है। दक्षिण दिशा की निषीधिका से संघ को आहार सुलभता से मिलता है। पश्चिम दिशा में निषीधिका का होने से संघ का सुख से विहार होता रहेगा, और उनकी पुस्तक आदि उपकरणों का लाभ होता रहेगा।1971। यदि उपरोक्त तीन दिशाओं में निषीधिका बनवाने में कुछ बाधा उपस्थित होती है तो 1. आग्नेय, 2. वायव्य, 3. ऐशान्य, 4. उत्तर दिशाओं में से किसी एक दिशा में बनवानी चाहिए।1972। इन दिशाओं का फल क्रम से-1. संघ में, 'मैं कैसा हूँ, तू ऐसा है' इस प्रकार की स्पर्धा, 2. संघ में कलह, फूट, व्याधि, परस्पर खेंचातानी और मुनिमरण समझना चाहिए।1973।
2. शव के संस्तर पर से
भगवती आराधना/1985 जदि विसमो संथारो उवरिं मज्झे व होज्ज हेट्ठा वा। मरणं व गिलाणं वा गणिवसभजदीण णायव्वं।1985। =यदि तंदुल चूर्ण आदि से अंकित संस्तर में रेखाएँ ऊपर नीचे व मध्यम में विषम हैं तो अनिष्ट सूचक है। ऊपर की रेखाओं के विषम होने पर आचार्य का मरण अथवा व्याधि; मध्य की रेखाएँ विषम होने पर एलाचार्य का मरण अथवा व्याधि, और नीचे की रेखाओं के विषम होने पर सामान्य यति का मरण अथवा व्याधि की सूचना मिलती है।1985।
3. नक्षत्रों पर से
भगवती आराधना/1988-1989 णत्ता भाए रिक्खे जदि कालगदो सिवं तु सव्वेसिं। एको दु समे खेत्ते दिवड्ढखेत्ते मरंति दुवे।1988। सदभिसभरणा अद्दा सादा असलेस्स जिट्ठ अवखरा। रोहिणिविसाहपुणव्वसुत्ति उत्तरा मज्झिमा सेसा।1989।=जो नक्षत्र 15 मुहूर्त के रहते हैं उनको जघन्य नक्षत्र कहते हैं। शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, स्वाती, आश्लेषा इन छह नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र पर अथवा उसके अंश पर यदि क्षपक का मरण होगा तो सर्व संघ का क्षेम होगा। 30 मुहूर्त के नक्षत्रों को मध्यम नक्षत्र कहते हैं। अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, और रेवती इन 15 नक्षत्रों पर अथवा इनके अंशों पर क्षपक का मरण होने से, और भी एक मुनि का मरण होता है। 45 मुहूर्त के नक्षत्र उत्कृष्ट हैं-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रापद, पुनर्वसु, रोहिणी इन छह में से किसी नक्षत्र पर अथवा उसके अंश पर क्षपक का मरण होने से और भी दो मुनियों का मरण होता है।
4. शरीर के अंगोपांगों पर से
भगवती आराधना/1997 जदिदिवसे संचिट्ठदि तमणालद्धं च अक्खदं भडयं। तदिवसिसाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि।1997। जं वा दिवसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पदगणेहिं। खेमं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तं दिसं संघो।1998। जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे। कम्ममलविप्पमुक्को सिद्धिं पत्तोत्ति णादव्वो।1999। वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य वाणविंतरओ। गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासणे।2000। =जितने दिन तक वृकादि पशु-पक्षियों के द्वारा वह क्षपक शरीर स्पर्शित नहीं होगा और अक्षत रहेगा उतने वर्ष तक राज्य में क्षेम रहेगा।1997। पक्षी अथवा चतुष्पद प्राणी जिस दिशा में उस क्षपक का शरीर ले गये होंगे, उस दिशा में संघ विहार करे, क्योंकि वे अंग उस दिशा में क्षेम के सूचक हैं।1998। क्षपक का मस्तक अथवा दंतपंक्ति पर्वत के शिखर पर दीख पड़ेगी तो यह क्षपक कर्ममल से पृथक् होकर मुक्त हो गया है, ऐसा समझना चाहिए।1999। क्षपक का मस्तक उच्च स्थल में दीखने पर वह वैमानिक देव हुआ है, समभूमि में दीखने पर ज्योतिष्क देव अथवा व्यंतर देव और गड्ढे में दीखने पर भवनवासी देव हुआ समझना चाहिए।2000।
पुराणकोष से
(1) मृत्यु के कारण (रोगादि) उपस्थित होने पर बहिरंग में शरीर को और अंतरंग में कषायों को कृश करना । गृहस्थधर्म का पालन करते हुए जो ऐसा मरण करता है वह देव होता है तथा स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य पर्याय पाता है । ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवो में निर्ग्रंथ होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है । इसके तीन भेद है― भक्तप्रत्याख्यान (भोजन-पान को घटाना), इगिनीमरण (अपने शरीर की स्वयं सेवा करना) और प्रायोपगमनस्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचारों की इच्छा नहीं करना । महापुराण 5.233-234 पद्मपुराण 14.203-204, हरिवंशपुराण 58.160
(2) चार शिक्षाव्रतों में चौथा शिक्षाव्रत-आयु का क्षय उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण करना । पद्मपुराण 14.199