वाचना
From जैनकोष
- वाचना
स.सि./9/25/443/4.निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना। = निर्दोष ग्रन्थ, उसके अर्थ का उपदेश अथवा दोनों ही उसके पात्र को प्रदान करना वाचना है। (रा.वा./9/25/1/624/9); (त.सा./7/17); (चा.सा./153/1); (अन.ध./7/83/714)।
ध.9/4, 1, 55/262/7 जा तत्थ णवसु आगमेसुवायणा अण्णेसिं भवियाणं जहासत्तीए गंथत्थपरूवणा।
ध.9/4, 1, 54/252/6 शिष्याध्यापनं वाचना। =- वाचना आदि नौ आगमों में वाचना अर्थात् अन्य भव्य जीवों के लिए शक्त्यनुसार ग्रन्थ के अर्थ की प्ररूपणा। (ध.14/5, 6, 12/9/3)।
- शिष्यों को पढ़ाने का नाम वाचना है। (ध.14/5, 6, 12/8/6)।
- वाचना के भेद व लक्षण
ध.9/4, 1, 54/252/5 सा चतुर्विधा नन्दा भद्रा जया सौम्या चेति। पूर्वपक्षीकृतपरदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्षस्थापिका व्याख्या नन्दा। तत्र युक्तिभिः प्रत्यवस्थाय पूर्वापरविरोधपरिहारेण विना तन्त्रार्थ कथनं जया। क्वचित् क्वचित् स्खलितवृत्तेर्व्याख्या सौम्या। = वह (वाचना) चार प्रकार है - नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। अन्य दर्शनों को पूर्वपक्ष करके उनका निराकरण करते हुए अपने पक्ष को स्थापित करने वाली व्याख्या नन्दा कहलाती है। युक्तियों द्वारा समाधान करके पूर्वापर विरोध का परिहार करते हुए सिद्धान्त में स्थित समस्त पदार्थों की व्याख्या का नाम भद्रा है। पूर्वा पर विरोध के परिहार के बिना सिद्धान्त के अर्थों का कथन करना जया वाचना कहलाती है। कहीं-कहीं स्खलनपूर्ण वृत्ति से जो व्याख्या की जाती है, वह सौम्या वाचना है।