मत बिसरावो जिनजी
From जैनकोष
मत बिसरावो जिनजी,
कि अब मैं शरण गहूँ किसकी ।।टेर ।।
भूल मनाये अबलो मैंने, देव तुझे बिसरा करके ।
भोगे भोग अधम तम जग के, मन अति इतरा करके ।।
यह मुझको अभिमान रहा नित अमर रहूँगा आकर के ।
तू सच्चा है आशा झूँठी, प्रीत करी जिसकी ।।१ ।।
संशय विभ्रम मोह मिटा अब, ज्ञान दीपिका जागी है ।
अंतर उज्ज्वल हुये मनोरथ, विषय कालिमा भागी है ।
निजानंद पद पाऊँ तुझसा लगन यही बस लागी ।
सिद्धासन `सौभाग्य' मिले फिर चाह करूँ किसकी ।।२ ।।