अध्यवसाय
From जैनकोष
समयसार / आत्मख्याति गाथा 250/331 परजीवानहं जीवयामि परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् = मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते हैं, ऐसा आशय निश्चय से अज्ञान है। (और भी देखें अध्यवसान ) ।1. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थानधवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/6 सव्वमूलपयडीणं सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं। = सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी ही अपनी-अपनी स्थिति के बन्ध में कारण होने से स्थिति बन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा है। गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / भाषा / गाथा 310/12 ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञानकौं आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहने को जो काल ताकौं स्थिति कहिये, तिसके सम्बन्ध कौं कारणभूत जे परिणामनि के स्थान तिनिका नाम स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान है।2. कषाय व स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान में अन्तरधवला पुस्तक 11/4,2,6,165/310/3 (जदि पुण कसायउदयट्ठाणाणि चेव ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि) होंति तो णेदमप्पाबहुगं घडदे, कसायोदयट्ठाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सव्वपयडिट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं समाणत्तप्पसंगादो। तम्हा सव्वमूलपयडीणं सग-सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगट्ठिदिबंधकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं। = यदि कषायोदय स्थान ही स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हों तो यह अल्पबहुत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि कषायोदय स्थानके बिना मूल प्रकृतियों का बन्ध न हो सकने से सभी मूल प्रकृतियों के स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानों की समानता का प्रसंग आता है। अतएव सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी अपनी-अपनी स्थिति के बन्ध में कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान संज्ञा है।3. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानों में हानि वृद्धि रचनाधवला पुस्तक 6/1,9-7,43/200/3 सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदि बंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवट्ठिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति। ताणि च जहण्णकसाउदयअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणप्पहुडि उवरिं जाव जहण्णट्ठिदि-उक्कस्सकसाउदयट्ठाणअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि त्ति विसेसाहियाणि। विसेसे पुण असंखेज्जा लोगा। = सर्वस्थिति-बन्धों सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते हैं। वे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान जघन्य कषायोदय सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान से लेकर ऊपर जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान तक विशेष-विशेष अधिक हैं। यहाँ पर विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है।4. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानों में गुणहानि शलाका सम्बन्धी दृष्टिभेदगोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./964/1191/4 अनुभागबन्धाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाकाः सन्ति न सन्तोत्युपदेशद्वयमस्ति। = अनुभाग बन्धाध्यवसायनि कै नाना गुणहानि शलाका हैं वा नाही हैं ऐसा आचार्यनि के मतिकरि दोऊ उपदेश हैं।5. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थानों में हानि-वृद्धि रचना धवला पुस्तक 6/1,9-7,43/199/4 एक्केक्कस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणस्स असंखेज्जा लोगा ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि। विसेसो पुण असंखेज्जा लोगा। ...ताणि च ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणादो जावप्पप्पणो उक्कस्सट्ठाणं ताव अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी, असंखेज्जगुणवड्ढी, अणंतगुणवड्ढी त्ति छव्विधाए वड्ढीए ट्ठिदाणि। अणंतभागवड्ढिकंडयं गंतूण, एगा असंखेज्जभागवड्ढी होदि। असंखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जभागवड्ढी होदि। संखेज्जभागवड्ढिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जगुणवड्ढी हादि। संखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा असंखेज्जगुणवड्ढी होदि। असंखेज्जगुणवड्ढिकंडयं गंतूण एगा अणंतगुणवड्ढि होदि। एदमेगं छट्ठाणं। एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि होंति। = एक-एक स्थिति बन्धस्थान के असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान होते हैं। जो कि यथाक्रम से विशेष-विशेष अधिक हैं। इस विशेष का प्रमाण असंख्यात लोक है। ...वे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान जघन्य स्थानसे लेकर अपने अपने उत्कृष्ट स्थान तक अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, इस 6 प्रकारकी वृद्धि से अवस्थित हैं। अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक जाकर अर्थात् सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बार अनन्तभागवृद्धि हो जानेपर एक बार असंख्यातभागवृद्धि होती है। असंख्यात भागवृद्धि काण्डक जाकर एक बार संख्यात भागवृद्धि होती है। संख्यातभागवृद्धि काण्डक जाकर एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है। संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक जाकर एक बार असंख्यात गुणवृद्धि होती है। असंख्यातगुणवृद्धि काण्डक जाकर एक बार अनन्तगुण वृद्धि होती है। (यहाँ सर्वत्र काण्डक से अभिप्राय सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र बारों से है) यह एक षड्वृद्धि रूप स्थान है। इस प्रकार के असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों के होते हैं।6. पहले-पहलेवाले स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थान अगले-अगले स्थानों में नहीं पाये जातेधवला पुस्तक 11/4,2,6,270/364/5 जाणि विदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झावसाणट्ठाणाणि ताणि तदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणेसु होंति त्ति ण घेत्तव्वं, पढमखंडज्झवसाणट्ठाणाणं तदियट्ठिदि अज्झवसाणट्ठाणेसु अणुवलंभादो। = जो स्थिति बन्ध अध्यवसाय स्थान (कर्मकी) द्वितीय स्थिति (बन्ध) में हैं, वे तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में (भी) होते हैं, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्वितीय स्थिति के प्रथम खण्ड सम्बन्धी अध्यवसायस्थान तृतीय स्थिति के अध्यवसायस्थानों में नहीं पाये जाते हैं।7. स्थिति व अनुभाग बन्ध अध्यवसायस्थानों में परस्पर सम्बन्धधवला पुस्तक 6/1,9-7, 43/200/3 सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एक्केक्कट्ठिदिबन्धज्झवसाणट्ठाणस्स हेट्ठा छवड्ढिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होंति। = सर्व स्थिति बन्धों सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान के नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते हैं।8. अनुभाग अध्यवसायस्थानों में परस्पर सम्बन्ध1. मूल प्रकृति – देखो म. बं. 4/371-386/168। 2. उत्तर प्रकृति - देखो म. बं. 5/626-658/372।