ग्रन्थ:सूत्रपाहुड़ गाथा 11
From जैनकोष
जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि ।
सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए ॥११॥
य: संयमेषु सहित: आरम्भपरिग्रहेषु विरत: अपि ।
स: भवति वन्दनीय: ससुरासुरमानुषे लोके ॥११॥
आगे दिगम्बर मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति कहते हैं -
अर्थ - जो दिगम्बर मुद्रा का धारक मुनि इन्द्रिय-मन को वश में करना, छह काय के जीवों की दया करना इसप्रकार संयम सहित हो और आरम्भ अर्थात् गृहस्थ के सब आरम्भों से तथा बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हो इनमें नहीं प्रवर्ते तथा आदि शब्द से ब्रह्मचर्य आदि गुणों से युक्त हो वह देव-दानव सहित मनुष्यलोक में वंदने योग्य है, अन्य भेषी परिग्रह-आरंभादि से युक्त पाखण्डी (ढोंगी) वंदने योग्य नहीं है ॥११॥