योगवर्गणानिर्देश
From जैनकोष
- योगवर्गणानिर्देश
- योगवर्गणा का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 181/442-443/8 असंखेज्जलोगमेत्तजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि त्ति भणिदे जोगाविभागपडि-च्छेदेहि सरिसधणियसव्वजीवपदेसाणं जोगाविभागपडिच्छेदासंभवादो असंखेज्जलोगमेत्ताविभागपडिच्छेदपमाणा एया वग्गणा होदि त्ति घेत्तव्वं ।......जोगाविभागपडिच्छेदेहिं सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि । = असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहने पर योगाविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान धन वाले सब जीव प्रदेशों के योगाविभाग प्रतिच्छेद असंभव होने से असंख्यात लोकमात्र अविभाग प्रतिच्छेदों के बराबर एक वर्गणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।....योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है ।
- योगवर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों की रचना
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/ सू. 178-181, 440 असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा ।178। एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा ।179। वग्गणपरूवणदाएअसंखेज्जलोगजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि । एवमसंखेज्जाओ वग्गणाओ सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ।181।
धवला 10/4, 2, 4, 181/443-444/3 जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एग्गा वग्गणा होदि । पुणो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोण्णं समाणे पुव्विल्लवग्गणाजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहिंतो अहिए उवरि वुच्चमाणाणमेगजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहिंतो ऊणे घेत्तूण विदिया वग्गणा होदि ।....असंखेज्जपदरमेत्ता जीवपदेसा एक्केक्किस्से वग्गणाए होंति । ण च सव्ववग्गणाणं दीहत्तं समाणं, आदिवग्गणप्पहुडि विसेसहीणसरूवेण अवट्ठाणादो ।
धवला 10/4, 2, 4, 181/449/9 पढमवग्गणाए अविभागपडिच्छेदेहिंतो विदियवग्गण अविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा ।....पढम-वग्गणाएगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदे णिसेगविसेसेण गुणिय पुणो तत्थ विदियगोवुच्छाए अवणिदाए जं सेसं तेत्तियमेत्तेण ।...एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव पढमफद्दयचरिमवग्गणेत्ति । पुणोपढमफद्दयचरिमवग्गणविभागपडिच्छेदेहिंतो विदियफद्दयआदिवग्गणाए जोगाविभागपडिच्छेदा किंचूणदुगुणमेत्ता ।=एक एक जीव प्रदेश में असंख्यात लोकप्रमाण योगाविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ।178। एक योगस्थान में इतने मात्र योगाविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ।179। वर्गणा प्ररूपणा के अनुसार असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है ।180। इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणाएँ होती हैं ।181। योगाविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है । पुनः योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा परस्पर समान पूर्व वर्गणासंबंधी जीवप्रदेशों के योगाविभाग प्रतिच्छेदों से अधिक, परंतु आगे कहीं जाने वाली वर्गणाओं के एक जीवप्रदेश संबंधी योगाविभागप्रतिच्छेदों से हीन, ऐसे दूसरे भी जीव प्रदेशों को ग्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है । (इसी प्रकार सब वर्गणाएँ श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं)....असंख्यात प्रतर प्रमाण जीव प्रदेश एक वर्गणा में होते हैं । सब वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, क्योंकि प्रथम वर्गणा को आदि लेकर आगे की वर्गणाएँ विशेष हीन रूप से अवस्थित हैं ।443-444 । प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों से द्वितीय वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेद विशेष हीन हैं ।...प्रथम वर्गणा संबंधी एक जीवप्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदों को निषेक विशेष से गुणित कर फिर उसमें से द्वितीय गोपुच्छ को कम करने पर जो शेष रहे उतने मात्र से वे विशेष अधिक हैं ।....इस प्रकार जानकर प्रथम स्पर्धक की वर्गणा संबंधी अविभागप्रतिच्छेदों से द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के योगाविभागप्रतिच्छेद कुछ कम दुगुने मात्र हैं । (इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक स्पर्धक में वर्गणाओं के अविभाग प्रतिच्छेद क्रमशः हीन-हीन और उत्तरोत्तर स्पर्धक से अधिक-अधिक हैं) ।
- योग स्पर्धक का लक्षण
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/ सूत्र 182/452 फद्दयपरूवणाए असंखेज्जाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तीयो तमेगं फद्दयं होदि ।182।
धवला 10/4, 2, 4, 181/452/5 फद्दयमिदि किं वुत्तं होदि । क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । को एत्थ कमो णाम । सगसगजहण्णवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदवुड्ढी, वुक्कस्सवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्ढी हाणी च अक्कमो । = (योगस्थान के प्रकरण में) स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार श्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र जो असंख्यात वर्गणाएँ हैं, उनका एक स्पर्धक होता है ।182। प्रश्न−स्पर्धक से क्या अभिप्राय है ? उत्तर−जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है । प्रश्न−यहाँ ‘क्रम’ का अर्थ क्या है ? उत्तर−अपने-अपने जघन्य वर्ग के अविभागप्रतिच्छेद की वृद्धि और उत्कृष्ट वर्ग के अविभागप्रतिच्छेदों से एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की जो हानि होती है उसे क्रम कहते हैं । दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदों की हानि व वृद्धि का नाम अक्रम है । (विशेष देखें स्पर्धक ) ।
- योगवर्गणा का लक्षण