GP:प्रवचनसार - गाथा 71 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सोक्खं सहावसिद्धं] - उपादान-कारणभूत ज्ञानानन्द एक स्वभाव से उत्पन्न जो रागादि उपाधि रहित स्वाभाविक सुख, वह स्वभाव-सिद्ध सुख कहलाता है । [तच्च णत्थि सुराणं पि] - वह सुख मनुष्यादि के तो दूर ही रहो, देवेन्द्रादि के भी नहीं है । [सिद्धमुवदेसे] - ऐसा परमागम में कहा गया है । [ते देहवेदणट्ठा रमंति विसएसु रम्मेसु] - उस प्रकार के स्वभावसिद्ध सुख का अभाव होने से वे देवादि शरीर सम्बन्धी वेदना से पीड़ित-दु:खित होते हुये रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।
अब इसका विस्तार करते हैं - जैसे कोई पुरुष विशेष
- नीचे भाग में सात नरक स्थानीय (रूपी) विशाल अजगर के फैलाये हुये मुख में,
- क्रोध-मान-माया-लोभ स्थानीय चारों कोनों पर स्थित चार सर्पों द्वारा फैलाये हुये मुख में,
- शरीर स्थानीय महान अन्धकूप में गिरा हुआ,
- संसार स्थानीय विशाल भयंकर वन में,
- मिथ्यात्वादि कुमार्ग में नष्ट होता हुआ,
- मृत्यु स्थानीय हाथी के भय से,
- जिसकी जड़ शुक्ल और कृष्ण पक्ष रूपी दो चूहे काट रहे हैं ऐसी आयुकर्म स्थानीय वृक्ष की शाखा-विशेष पर,
- रोग स्थानीय मधु-मक्खियों से घिरा हुआ,
- उसी हाथी द्वारा वृक्ष हिलाये जाने पर,
- विषय-सुख स्थानीय मधु-बिन्दु के स्वाद से