GP:प्रवचनसार - गाथा 91 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो (जीव) इन द्रव्यों को-कि जो (द्रव्य) १सादृश्य-अस्तित्व के द्वारा समानता को धारण करते हुए स्वरूप-अस्तित्व के द्वारा विशेष-युक्त हैं उन्हें स्व-पर के भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हुआ यों ही (ज्ञान-श्रद्धा के बिना) मात्र श्रमणता से (द्रव्य-मुनित्व से) आत्मा का दमन करता है वह वास्तव में श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे रेती और स्वर्ण-कणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे धूलधोये को-उसमें से स्वर्ण-लाभ नहीं होता, इसी प्रकार उसमें से (श्रमणाभास में से) २निरुपराग आत्म-तत्त्व की उपलब्धि (प्राप्ति) लक्षण वाले धर्म-लाभ का उद्भव नहीं होता ॥९१॥
'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इस प्रकार (पाँचवीं गाथा में) प्रतिज्ञा करके, 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इस प्रकार (७वीं गाथा में) साम्य का धर्मत्व (साम्य ही धर्म है) निश्चित करके ‘परिणमदि जेण दव्यं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इस प्रकार (८वीं गाथा में) जो आत्मा का धर्मत्व कहना प्रारम्भ किया और जिसकी सिद्धि के लिये ‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो, पावदि णिव्वाणसुहं’ इस प्रकार (११वीं गाथा में) निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार प्रारम्भ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को नष्ट किया (हेय बताया), शुद्धोपयोग का स्वरूप वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले ऐसे आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान के स्वरूप का और सुख के स्वरूप का विस्तार किया, उसे (आत्मा के धर्मत्व को) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से सिद्ध करके, परम निस्पृह, आत्मतृप्त (ऐसी) पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके भेदवासना की प्रगटता का प्रलय हुआ है, ऐसे होते हुए, (आचार्य भगवान) ‘मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ’ इस प्रकार रहते हैं, (-ऐसे भाव में निश्चल-स्थित होते हैं)
१अस्तित्व दो प्रकार का है : -सादृश्य-अस्तित्व और स्वरूप-अस्तित्व । सादृश्य-अस्तित्व की अपेक्षा से सर्व द्रव्यों में समानता है, और स्वरूप-अस्तित्व की अपेक्षा से समस्त द्रव्यों में विशेषता है
२निरुपराग = उपराग (मलिनता, विकार) रहित