ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 232 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । (232)
णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥266॥
अर्थ:
[श्रमण:] श्रमण [ऐकाग्रगतः] एकाग्रता को प्राप्त होता है; [ऐकाग्र] एकाग्रता [अर्थेषु निश्चितस्य] पदार्थों के निश्चयवान् के होती है; [निश्चिति:] (पदार्थों का) निश्चय [आगमत:] आगम द्वारा होता है; [ततः] इसलिये [आगमचेष्टा] आगम में व्यापार [ज्येष्ठा] मुख्य है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैकाग्यगतः श्रमणो भवति । तच्चैकाग्यमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकाशयति --
एयग्गगदो समणो ऐकाग्यगतः श्रमणो भवति । अत्रायमर्थः -- जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवल-ज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपमैकाग्। तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः श्रमणो भवति । एयग्गं णिच्छिदस्स ऐकाग्रं पुनर्निश्चितस्य तपोधनस्य भवति । केषु । टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतिष्वर्थेषु । णिच्छित्ती आगमदो सा च सा चपदार्थनिश्चित्तिरागमतो भवति । तथाहि --
जीवभेदकर्मभेदप्रतिपादकागमाभ्यासाद्भभवति, न केवल-मागमाभ्यासात्तथैवागमपदसारभूताच्चिदानन्दैकपरमात्मतत्त्वप्रकाशकादध्यात्माभिधानात्परमागमाच्च पदार्थ-परिच्छित्तिर्भवति । आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ततः कारणादेवमुक्तलक्षणागमे परमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठाश्रेष्ठा प्रशस्येत्यर्थः ॥२६६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब श्रमण एकाग्रता को प्राप्त है । और वह एकाग्रता आगम के परिज्ञान से ही होती है, ऐसा प्रकाशित करते हैं --
[एयग्गगदो समणो] एकाग्रता को प्राप्त श्रमण हैं । यहाँ अर्थ यह है-तीन लोक-तीन कालवर्ती सम्पूर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक काल में जानने में समर्थ परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान लक्षण अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप दशा एकाग्रता कहलाती है । उस दशा को प्राप्त अर्थात् तन्मयरूप से परिणत श्रमण--मुनिराज हैं । [एयग्गं णिच्छिदस्स] और एकाग्रता निश्चित के होती है । किनमें निश्चित के एकाग्रता होती है? [अत्थेसु] टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव जो वह परमात्म-पदार्थ--तत्प्रभृति पदार्थों में निश्चित के--पदार्थों के सम्बन्ध में निश्चित बुद्धिवाले के एकाग्रता होती है । [णिच्छित्ति आगमदो] और वह पदार्थों में निश्चित बुद्धि आगम से होती है ।
वह इसप्रकार- जीव भेद, कर्म भेद का प्रतिपादन करनेवाले आगम के अभ्यास से होती है, मात्र आगम के अभ्यास से नहीं, वरन् उसी प्रकार आगमपद के सारभूत ज्ञानानन्द एक परमात्म-तत्त्व को प्रकाशित करनेवाला--बतानेवाला होने से अध्यात्म नामक परमागम से, पदार्थों की जानकारी होती है । [आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा] इस कारण ही कहे गये लक्षण वाले आगम और परमागम में चेष्टा, प्रवृत्ति ज्येष्ठ-श्रेष्ठ-प्रशस्य-श्रेयस्कर है -- ऐसा अर्थ है ॥२६६॥