वैराग्य
From जैनकोष
- वैराग्य
रा.वा./७/१२/४/५३९/१३ विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् = (विषयों से विरक्त होना विराग है । देखें - विराग ) विराग का भाव या कर्म वैराग्य है ।
द्र.स./टी./३५/११२/८ पर उद्धृत-संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । = संसार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ।
देखें - सामायिक / १ । (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।)
- वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ
त.सू./७/१२ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।१२।
स.सि./७/१२/३५०/५ जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ । = संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।१२। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है ( देखें - लोक / २ ) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा–यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । (रा.वा./७/१२/४/५३९/१५) ।
देखें - अनुप्रेक्षा –(अनित्य अशरण आदि १२ भावनाओं का पुनः पुनः चिन्तवन करना वैराग्य के अर्थ होता है । इसीलिए वे १२ वैराग्य भावना कहलाती हैं) ।
- सम्यग्दृष्टी विरागी है– देखें - राग / ६ ।