दर्शनपाहुड गाथा 27
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं -
ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो ।
को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ ।।२७।।
नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्त: ।
क:१ वंद्यते गुणहीन: न खलु श्रमण: नैव श्रावक: भवति ।।२७।।
ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की ।
कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की ।।२७।।
अर्थ - देह को भी नहीं वंदते हैं और कुल को भी नहीं वंदते हैं तथा जातियुक्त को भी नहीं वंदते हैं, क्योंकि गुणरहित हो उसको कौन वंदे ? गुण बिना प्रकट मुनि नहीं, श्रावक भी नहीं है ।
भावार्थ - लोक में भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है, देह रूपवान हो तो क्या, कुल बड़ा हो तो क्या, जाति बड़ी हो तो क्या, क्योंकि मोक्षमार्ग में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण हैं, इनके बिना जाति-कुल-रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनिश्रावक पणा नहीं आता है, मुनि-श्रावकपणा तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से होता है, इसलिए इनके धारक हैं वही वंदने योग्य हैं, जाति, कुल आदि वंदने योग्य नहीं हैं ।।२७।।