भावपाहुड गाथा 5
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं -
परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुञ्चेइ बाहिरे य जई ।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ।।५।।
परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि ।
बाह्यग्रन्थत्याग: भावविहीनस्य किं करोति ।।५।।
परिणामशुद्धि के बिना यदि परीग्रह सब छोड़ दें ।
तब भी अरे निज आत्महित का लाभ कुछ होगा नहीं ।।५।।
अर्थ - यदि मुनि बनकर परिणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिग्रह को छोड़े तो बाह्य परिग्रह का त्याग उस भावरहित मुनि को क्या करे ? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं करता है ।
भावार्थ - जो बाह्य परिग्रह को छोड़कर मुनि बन जावे और परिणाम परिग्रहरूप अशुद्ध हों, अभ्यन्तर परिग्रह न छोड़े तो बाह्यत्याग कुछ कल्याणरूप फल नहीं कर सकता । सम्यग्दर्शनादि भाव बिना कर्मनिर्जरारूप कार्य नहीं होता है ।।५।।
पहिली गाथा से इसमें यह विशेषता है कि यदि मुनिपद भी लेवे और परिणाम उज्ज्वल न रहे, आत्मज्ञान की भावना न रहे तो कर्म नहीं कटते हैं ।