वनराज
From जैनकोष
वनगिरि-नगर के भिल्लराज हरिविक्रम तथा भीलनी सुन्दरी का पुत्र । लोहजंघ और श्रीषेण इसके दो मित्र थे । ये दोनों मित्र इसके लिए हेमाभनगर के राजा की पुत्री श्रीचन्द्रा को हरकर सुरंग से ले आये थे । श्रीचन्द्रा के भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्र ने इसके दोनों मित्रों के साथ युद्ध भी किया था किन्तु दोनों पराजित हो गये थे । श्रीचन्द्र । इस घटना से इससे विरक्त हो गयी थी । समझाने पर भी सफलता प्राप्त न होने पर दोनों ओर से युद्ध होना निश्चित हो गया । हेमाभनगर के जीवन्धरकुमार ने युद्ध को जीव-घातक जानकर उसे टालना चाहा । उन्होने सुदर्शन यक्ष का स्मरण किया । यक्ष ने तुरन्त आकर श्रीचन्द्रा जीवन्धरकुमार को सौंप दी । इसे छोड़ शेष सभी नगर लौट गये । यह युद्ध की इच्छा से खड़ा रहा । फलत: यह यक्ष द्वारा पकड़ा गया तथा जीवन्धरकुमार द्वारा कैद किया गया । हरिविक्रम ने इसके पकड़े जाने से क्षुब्ध होकर युद्ध करना चाहा किन्तु यक्ष ने उसे भी पकड़कर जीवन्धरकुमार को सौंप दिया । इसे अन्त में अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया था । इसका श्रीचन्द्रा के साथ पूर्वभव का स्नेह जानकर सभी शान्त हो गये और पिता-पुत्र दोनों को मुक्त कर दिया गया तथा श्रीचन्द्रा नंदाढ्य के साथ विवाह दी गयी थी । महापुराण 75.478-521