भावपाहुड गाथा 34
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए भावलिंग को प्रधान कर कहते हैं -
कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं ।
जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण ।।३४।।
कालमनंतं जीव: जन्मजरामरणपीडित: दु:खम् ।
जिनलिंगेन अपि प्राप्त: परम्पराभावरहितेन ।।३४।।
रे भावलिंग बिना जगत में अरे काल अनंत से ।
हा ! जन्म और जरा-मरण के दु:ख भोगे जीव ने ।।३४।।
अर्थ - यह जीव इस संसार में जिसमें परम्परा भावलिंग न होने से अनंतकालपर्यन्त जन्म- जरा-मरण से पीड़ित दु:ख को ही प्राप्त हुआ ।
भावार्थ - द्रव्यलिंग धारण किया और उसमें परम्परा से भी भावलिंग की प्राप्ति न हुई, इसलिए द्रव्यलिंग निष्फल गया, मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई, संसार में ही भ्रण किया । यहाँ आशय इसप्रकार है कि द्रव्यलिंग है वह भावलिंग का साधन है, परन्तु १काललब्धि बिना द्रव्यलिंग धारण करने पर भी भावलिंग की प्राप्ति नहीं होती है इसलिए द्रव्यलिंग निष्फल जाता है । इसप्रकार मोक्षमार्ग में प्रधान भावलिंग ही है । यहाँ कोई कहे कि इसप्रकार है तो द्रव्यलिंग पहिले क्यों धारण करें ? उसको कहते हैं कि इसप्रकार माने तो व्यवहार का लोप होता है, इसलिए इसप्रकार मानना जो द्रव्यलिंग पहिले धारण करना, इसप्रकार न जानना कि इसी से सिद्धि है । भावलिंग को प्रधान मानकर उसके सन्मुख उपयोग रखना, द्रव्यलिंग को यत्नपूर्वक साधना, इसप्रकार का श्रद्धान भला है ।।३४।।