ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 10
From जैनकोष
अथानन्तर किसी एक दिन श्रीधरदेव को अवधिज्ञान का प्रयोग करने पर यथार्थ रूप से मालूम हुआ कि हमारे गुरु श्रीप्रभ पर्वत पर विराजमान हैं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ॥१॥
संसार के समस्त प्राणियों के साथ प्रीति करने वाले जो प्रीतिंकर मुनिराज थे वे ही इसके गुरु थे । इन्हीं की पूजा करने के लिए अच्छी-अच्छी सामग्री लेकर श्रीधरदेव उनके सम्मुख गया ॥२॥
जाते ही उसने श्रीप्रभ पर्वत पर विद्यमान सर्वज्ञ प्रीतिंकर महाराज की पूजा की, उन्हें नमस्कार किया, धर्म का स्वरूप सुना और फिर नीचे लिखे अनुसार अपने मन की बात पूछी ॥३॥
हे प्रभो, मेरे महाबल भव में जो मेरे तीन मिथ्यादृष्टि मन्त्री थे वे इस समय कहाँ उत्पन्न हुए हैं, वे कौन-सी गति को प्राप्त हुए हैं ॥४॥
इस प्रकार पूछने वाले श्रीधरदेव से सर्वज्ञदेव, अपने वचनरूपी किरणों के द्वारा उसके हृदयगत समस्त अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हुए कहने लगे ॥५॥
कि हे भव्य, जब तू महाबल का शरीर छोड़कर स्वर्ग चला गया और मैंने रत्नत्रय को प्राप्त कर दीक्षा धारण कर ली तब खेद है कि वे तीनों ढीठ मन्त्री कुमरण से मरकर दुर्गति को प्राप्त हुए थे ॥६॥
उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो तो उस निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानान्धकार का ही अधिकार है और जहाँ अत्यन्त तप्त खौलते हुए जल में उठने वाली खलबलाहट के समान अनेक बार जन्म-मरण होते रहते हैं ॥७॥
तथा शतमति मन्त्री अपने मिथ्यात्व के कारण नरक गति गया है । यथार्थ में खोटे कर्मों का फल भोगने के लिए नरक ही मुख्य क्षेत्र है ॥८॥
जो जीव मिथ्यात्वरूपी विष से मूर्च्छित होकर समीचीन जैन मार्ग का विरोध करते हैं वे कुयोनिरूपी भँवरों से व्याप्त इस संसाररूपी मार्ग में दीर्घकाल तक घूमते रहते हैं ॥९॥
चूँकि सम्यग्ज्ञान के विरोधी जीव अवश्य ही नरकरूपी गाढ़ अन्धकार में निमग्न होते हैं इसलिए विद्वान् पुरुषों को आप्त प्रणीत सम्यग्ज्ञान का ही निरन्तर अभ्यास करना चाहिए ॥१०॥
यह आत्मा धर्म के प्रभाव से स्वर्ग-मोक्ष रूप उच्च स्थानों को प्राप्त होता है । अधर्म के प्रभाव से अधोगति अर्थात् नरक को प्राप्त होता है । और धर्म-अधर्म दोनों के संयोग से मनुष्य पर्याय को प्राप्त होता है । हे भद्र, तू उपर्युक्त अर्हन्तदेव के वचनों का निश्चय कर ॥११॥
वह तुम्हारा शतबुद्धि मंत्री मिथ्याज्ञान की दृढ़ता से दूसरे नरक में अत्यन्त भयंकर दुःख भोग रहा है ॥१२॥
पाप से पराजित आत्मा को स्वयं किये हुए अनर्थ का यह फल है जो उसका धर्म से द्वेष और अधर्म से प्रेम होता है ॥१३॥
'धर्म से सुख प्राप्त होता है और अधर्म से दुःख मिलता है' यह बात निर्विवाद प्रसिद्ध है इसीलिए तो बुद्धिमान् पुरुष अनर्थों को छोड़ने की इच्छा से धर्म में ही तत्परता धारण करते हैं ॥१४॥
प्राणियों पर दया करना, सच बोलना, क्षमा धारण करना, लोभ का त्याग करना, तृष्णा का अभाव करना, सम्यग्ज्ञान और वैराग्यरूपी संपत्ति का इकट्ठा करना ही धर्म है और उससे उलटे अदया आदि भाव अधर्म है ॥१५॥
विषयासक्ति जीवों के इन्द्रियजन्य सुख की तृष्णा को बढ़ाती है, इन्द्रियजन्य सुख की तृष्णा प्रज्वलित अग्नि के समान भारी सन्ताप पैदा करती है । तृष्णा से सन्तप्त हुआ प्राणी उसे दूर करने की इच्छा से पाप में अनुरक्त हो जाता है, पाप में अनुराग करने वाला प्राणी धर्म से द्वेष करने लगता है और धर्म से द्वेष करने वाला जीव अधर्म के कारण अधोगति को प्राप्त होता है ॥१६-१७॥
जिस प्रकार समय आने पर (प्राय: वर्षाकाल में) पागल कुत्ते का विष अपना असर दिखलाने लगता है उसी प्रकार किये हुए पापकर्म भी समय पाकर नरक में भारी दुःख देने लगते हैं ॥१८॥
जिस प्रकार अपथ्य सेवन से मूर्ख मनुष्यों का ज्वर बढ़ जाता है उसी प्रकार पापाचरण से मिथ्यादृष्टि जीवों का पाप भी बहुत बड़ा हो जाता है ॥१९॥
किये हुए कर्मों का परिपाक बहुत ही बुरा होता है । वह सदा कड़वे फल देता रहता है; उसी से यह जीव नरक में पड़कर वहाँ क्षण-भर के लिए भी दुःख से नहीं छूटता ॥२०॥
नरकों में कैसा दुःख है ? और वहाँ जीवों की उत्पत्ति किस कारण से होती है ? यदि तू यह जानना चाहता है तो क्षण-भर के लिए मन स्थिर कर सुन ॥२१॥
जो जीव हिंसा करने में आसक्त रहते हैं, झूठ बोलने में तत्पर होते हैं, चोरी करते हैं, परस्त्रीरमण करते हैं, मद्य पीते हैं मिथ्यादृष्टि हैं, क्रूर हैं, रौद्रध्यान में तत्पर हैं, प्राणियों में सदा निर्दय रहते हैं, बहुत आरम्भ और परिग्रह रखते हैं, सदा धर्म से द्रोह करते हैं, अधर्म में सन्तोष रखते हैं, साधुओं की निन्दा करते हैं, मात्सर्य से उपहत हैं, धर्मसेवन करने वाले परिग्रहरहित मुनियों से बिना कारण ही क्रोध करते हैं, अतिशय पापी हैं, मधु और मांस खाने में तत्पर हैं, अन्य जीवों की हिंसा करने वाले कुत्ता-बिल्ली आदि पशुओं को पालते हैं, अतिशय निर्दय हैं स्वयं मधु, मांस खाते हैं और उनके खाने वालों की अनुमोदना करते हैं वे जीव पाप के भार से नरक में प्रवेश करते हैं । इस नरक को ही खोटे कर्मों के फल देने का क्षेत्र जानना चाहिए ॥२२-२७॥
क्रूर जलचर, थलचर, सर्प, सरीसृप, पाप करने वाली स्त्रियाँ और क्रूर पक्षी आदि जीव नरक में जाते हैं ॥२८॥
असैनी पञ्चेन्द्रिय जीव घर्मानामक पहली पृथ्वी तक जाते हैं, सरीसृप-सरकने वाले-गुहा दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथ्वी तक, सिंह पाँचवीं पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठवीं पृथ्वी तक और पापी मनुष्य तथा मच्छ सातवीं पृथ्वी तक जाते हैं ॥२९-३०॥
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम:प्रभा ये सात पृथ्वियाँ हैं जो कि क्रम-क्रम से नीचे-नीचे हैं ॥३१॥
घर्मा, वंशा, शिला (मेघा), अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये सात पृथ्वीयों के क्रम से नामान्तर हैं ॥३२॥
उन पृथ्वीयों में वे जीव मधुमक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख कर के पैदा होते हैं । सो ठीक ही है पापी जीवों की उन्नति कैसे हो सकती है ? ॥३३॥
वे जीव पापकर्म के उदय से अन्तर्मुहूर्त में ही दुर्गन्धित, घृणित, देखने के अयोग्य और बुरी आकृति वाले शरीर की पूर्ण रचना कर लेते हैं ॥३४॥
जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते शाखा से बन्धन टूट जाने पर नीचे गिर पड़ते हैं उसी प्रकार वे नारकी जीव शरीर की पूर्ण रचना होते ही उस उत्पत्तिस्थान से जलती हुई अत्यन्त दुःसह नरक की भूमि पर गिर पड़ते हैं ॥३५॥
वहाँ की भूमि पर अनेक तीक्ष्ण हथियार गड़े हुए हैं, नारकी उन हथियारों की नोंक पर गिरते हैं जिसमें उनके शरीर की सब सन्धियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और इस दु:ख से दुःखी होकर वे पापी जीव रोने-चिल्लाने लगते हैं ॥३६॥
वहाँ की भूमि की असह्य गरमी से सन्तप्त होकर व्याकुल हुए नारकी गरम भाड़ में डाले हुए तिलों के समान पहले तो उछलते हैं और फिर नीचे गिर पड़ते हैं ॥३७॥
वहाँ पड़ते ही अतिशय क्रोधी नारकी भयंकर तर्जना करते हुए तीक्ष्ण शस्त्रों से उन नवीन नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं ॥३८॥
जिस प्रकार किसी डण्डे से ताड़ित हुआ जल बूँद-बूँद होकर बिखर जाता है और फिर क्षण-भर में मिलकर एक हो जाता है उसी प्रकार उन नारकियों का शरीर भी हथियारों के प्रहार से छिन्न-भिन्न होकर जहाँ-तहाँ बिखर जाता है और फिर क्षण-भर में मिलकर एक हो जाता है ॥३९॥
उन नारकियों को अवधिज्ञान होने से अपनी पूर्वभव सम्बन्धी घटनाओं का अनुभव होता रहता है, उस अनुभव से वे परस्पर एक दूसरे को अपना पूर्व बैर बतलाकर आपस में दण्ड देते रहते हैं ॥४०॥
पहले की तीन पृथ्वीयों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जाति के देव जाकर वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव के बैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं ॥४१॥
वहाँ के भयंकर गीध अपनी वज्रमयी चोंच से उन नारकियों के शरीर को चीर डालते हैं और काले-काले कुत्ते अपने पैने नखों से फाड़ डालते हैं ॥४२॥
कितने ही नारकियों को खौलती हुई ताँबा आदि धातुएँ पिलायी जाती हैं जिसके दुःख से वे बुरी तरह चिल्ला-चिल्लाकर शीघ्र ही विलीन (नष्ट) हो जाते हैं ॥४३॥
कितने ही नारकियों के टुकड़े-टुकड़े कर कोल्हू (गन्ना पेलने के यन्त्र) में डालकर पेलते हैं । कितने ही नारकियों को कढ़ाई में खौलाकर उनका रस बनाते हैं ॥४४॥
जो जीव पूर्वपर्याय में मांसभक्षी थे उन नारकियों के शरीर को बलवान् नारकी अपने पैने शस्त्रों से काट-काटकर उनका मांस उन्हें ही खिलाते हैं ॥४५॥
जो जीव पहले बड़े शौक से मांस खाया करते थे, संडासी से उनका मुख फाड़कर उनके गले में जबरदस्ती तपाये हुए लोहे के गोले निगलाये जाते हैं ॥४६॥
'यह वही तुम्हारी उत्तमप्रिया है' ऐसा कहते हुए बलवान् नारकी अग्नि के फुलिंगों से व्याप्त तपायी हुई लोहे की पुतली का जबरदस्ती गले से आलिंगन कराते हैं ॥४७॥
जिन्होंने पूर्वभव में परस्त्रियों के साथ रति-क्रीड़ा की थी ऐसे नारकी जीवों से अन्य नारकी आकर कहते हैं कि तुम्हें तुम्हारी प्रिया अभिसार करने की इच्छा से संकेत किये हुए केतकीवन के एकान्त में बुला रही है, इस प्रकार कहकर उन्हें कठोर करोंत-जैसे पत्ते वाले केतकीवन में ले जाकर तपायी हुई लोहे की पुतलियों के साथ आलिङ्गन कराते हैं ॥४८-४९॥
उन लोहे की पुतलियों के आलिङ्गन से तत्क्षण ही मूर्च्छित हुए उन नारकियों को अन्य नारकी लोहे के परेनों से मर्मस्थानों में पीटते हैं ॥५०॥
उन लोहे की पुतलियों के आलिंगनकाल में ही जिनके नेत्र दुःख से बन्द हो गये हैं तथा जिनका शरीर अंगारों से जल रहा है ऐसे वे नारकी उसी क्षण जमीन पर गिर पड़ते हैं ॥५१॥
कितने ही नारकी, जिन पर ऊपर से नीचे तक पैने काँटे लगे हुए हैं और जो धौंकनी से प्रदीप्त किये गये हैं ऐसे लोहे के बने हुए सेमर के वृक्षों पर अन्य नारकियों को जबरदस्ती चढ़ाते हैं ॥५२॥
वे नारकी उन वृक्षों पर चढ़ते हैं, कोई नारकी उन्हें ऊपर से नीचे की ओर घसीट देता है और कोई नीचे से ऊपर को घसीट ले जाता है । इस तरह जब उनका सारा शरीर छिल जाता है और उससे रुधिर बहने लगता है तब कहीं बड़ी कठिनाई से छुटकारा पाते हैं ॥५३॥
कितने ही नारकियों को भिलावे के रस से भरी हुई नदी में जबरदस्ती पटक देते हैं जिससे क्षण भर में उनका सारा शरीर गल जाता है और उसके खारे जल की लहरें उन्हें लिप्त कर उनके घावों को भारी दुःख पहुँचाती हैं ॥५४॥
कितने ही नारकियों को फुलिङ्गों से व्याप्त जलती हुई अग्नि की शय्या पर सुलाते हैं । दीर्घनिद्रा लेकर सुख प्राप्त करने की इच्छा से वे नारकी उस पर सोते हैं जिससे उनका सारा शरीर जलने लगता है ॥५५॥
गरमी के दुःख से पीड़ित हुए नारकी ज्यों ही असिपत्र वन में (तलवार की धार के समान पैने पत्तों वाले वन में) पहुँचते हैं त्यों ही वहाँ अग्नि के फुलिंगों को बरसाता हुआ प्रचण्ड वायु बहने लगता है । उस वायु के आघात से अनेक आयुधमय पत्ते शीघ्र ही गिरने लगते हैं जिनसे उन नारकियों का सम्पूर्ण शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है और उस दुःख से दुःखी होकर बेचारे दीन नारकी रोने-चिल्लाने लगते हैं ॥ ५६-५७॥
वे नारकी कितने ही नारकियों को लोहे की सलाई पर लगाये हुए मांस के समान लोहदण्डों पर टाँगकर अग्नि में इतना सुखाते हैं कि वे सूखकर बल्लूर (शुष्क मांस) की तरह हो जाते हैं और कितने ही नारकियों को नीचे की ओर मुँह कर पहाड़ की चोटी पर से पटक देते हैं ॥५८॥
कितने ही नारकियों के मर्मस्थान और हड्डियों के सन्धिस्थानों को पैनी करोत से विदीर्ण कर डालते हैं और उनके नखों के अग्रभाग में तपायी हुई लोहे की सूइयाँ चुभाकर उन्हें भयंकर वेदना पहुँचाते हैं ॥५९॥
कितने ही नारकियों को पैने शूल के अग्रभाग पर चढ़ाकर घुमाते हैं जिससे उनकी अंतड़ियाँ निकलकर लटकने लगती हैं और छलकते हुए खून से उनका सारा शरीर लाल-लाल हो जाता है ॥६०॥
इस प्रकार अनेक घावों से जिनका शरीर जर्जर हो रहा है ऐसे नारकियों को वे बलिष्ठ नारकी खारे पानी से सींचते हैं । जो नारकी घावों की व्यथा से मूर्च्छित हो जाते हैं खारे पानी के सींचने से वे पुन: सचेत हो जाते हैं ॥६१॥
कितने ही नारकियों को पहाड़ की ऊँची चोटी से नीचे पटक देते हैं और फिर नीचे आने पर उन्हें अनेक निर्दय नारकी बड़ी कठोरता के साथ सैकड़ों वज्रमय मुट्ठियों से मारते हैं ॥६२॥
कितने ही निर्दय नारकी अन्य नारकियों को उनके मस्तक पर मुद्गरों से पीटते हैं जिससे उनके नेत्रों के गोलक (गटेना) निकलकर बाहर गिर पड़ते हैं ॥६३॥
तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को मेढ़ा बनाकर परस्पर में लड़ाते हैं जिससे उनके मस्तक शब्द करते हुए फट जाते हैं और उनसे रक्त मांस आदि बहुत-सा मल बाहर निकलने लगता है ॥६४॥
जो जीव पहले बड़े उद्दण्ड थे उन्हें वे नारकी तपाये हुए लोहे के आसन पर बैठाते हैं और विधिपूर्वक पैने काँटों के बिछौने पर सुलाते हैं ॥६५॥
इस प्रकार नरक की अत्यन्त असह्य और भयंकर वेदना पाकर भयभीत हुए नारकियों के मन में यह चिन्ता उत्पन्न होती है ॥६६॥
कि अहो ! अग्नि की ज्वालाओं से तपी हुई यह भूमि बड़ी ही दुरासद (सुखपूर्वक ठहरने के अयोग्य) है । यहाँ पर सदा अग्नि के फुलिंगों को धारण करने वाला यह वायु बहता रहता है जिसका कि स्पर्श भी सुख से नहीं किया जा सकता ॥६७॥
ये जलती हुई दिशाएँ दिशाओं में आग लगने का सन्देह उत्पन्न कर रही हैं और ये मेघ तप्तधूलि की वर्षा कर रहे हैं ॥६८॥
यह विषवन है जो कि सब ओर से विष लताओं से व्याप्त है और यह तलवार की धार के समान पैने पत्तों से भयंकर असिपत्र वन है ॥६९॥
ये गरम की हुई लोहे की पुतलियाँ नीच व्यभिचारिणी स्त्रियों के समान जबरदस्ती गले का आलिंगन करती हुई हम लोगों को अतिशय सन्ताप देती है (पक्ष में कामोत्तेजन करती है) ॥७०॥
ये कोई महाबलवान् पुरुष हम लोगों को जबरदस्ती लड़ा रहे हैं और ऐसे मालूम होते हैं मानो हमारे पूर्वजन्म सम्बन्धी दुष्कर्मों की साक्षी देने के लिए धर्मराज के द्वारा ही भेजे गये हों ॥७१॥
जिनके शब्द बड़े ही भयानक है, जो अपनी नासिका ऊपर को उठाये हुए है, जो जलती हुई ज्वालाओं से भयंकर हैं और जो मुँह से अग्नि उगल रहे हैं ऐसे ऊँट और गधों का यह समूह हम लोगों को निगलने के लिए ही सामने दौड़ा आ रहा है ॥७२॥
जिनका आकार अत्यन्त भयानक है जिन्होंने अपने हाथ में तलवार उठा रखी है और जो बिना कारण ही लड़ने के लिए तैयार हैं, ऐसे ये पुरुष हम लोगों की तर्जना कर रहे हैं-हम लोगों को घुड़क रहे हैं-डाँट दिखला रहे हैं ॥७३॥
भयंकर रूप से आकाश से पड़ते हुए ये गीध शीघ्र ही हमारे सामने झपट रहे हैं और ये भोंकते हुए कुत्ते हमें अतिशय भयभीत कर रहे हैं ॥७४॥
निश्चय ही इन दुष्ट जीवों के छल से हमारे पूर्वभव के पाप ही हमें इस प्रकार दुःख उत्पन्न कर रहे हैं । बड़े आश्चर्य की बात है कि हम लोगों को सब ओर से दुःखों ने घेर रखा है ॥७५॥
इधर यह दौड़ते हुए नारकियों के पैरों की आवाज सन्ताप उत्पन्न कर रही है और इधर यह करुण विलाप से भरा हुआ किसी के रोने का शब्द आ रहा है ॥७६॥
इधर यह काँव-काँव करते हुए कौवों के कठोर शब्द से विस्तार को प्राप्त हुआ शृगालों का अमंगलकारी शब्द आकाश-पाताल को शब्दायमान कर रहा है ॥७७॥
इधर यह असिपत्र वन में कठिन रूप से चलने वाले वायु के प्रकम्पन से उत्पन्न हुआ शब्द तथा उस वायु के आघात से गिरते हुए पत्तों का कठोर शब्द हो रहा है ॥७८॥
जिसके स्कन्ध भाग पर काँटे लगे हुए हैं ऐसा यह वही कृत्रिम सेमर का पेड़ है जिसकी याद आते ही हम लोगों के समस्त अंग काँटे चुभने के समान दुःखी होने लगते हैं ॥७९॥
इधर यह भिलावे के रस से भरी हुई वैतरणी नाम की नदी है । इसमें तैरना तो दूर रहा इसका स्मरण करना भी भय का देने वाला है ॥८०॥
ये वही नारकियों के रहने के घर (बिल) हैं जो कि गरमी से भीतर-ही-भीतर जल रहे हैं और जिनमें ये नारकी छिद्ररहित साँचे में गली हुई सुवर्ण, चाँदी आदि धातुओं की तरह घुमाये जाते हैं ॥८१॥
यहाँ की वेदना इतनी तीव्र है कि उसे कोई सह नहीं सकता, मार भी इतनी कठिन है कि उसे कोई बरदाश्त नहीं कर सकता । ये प्राण भी आयु पूर्ण हुए बिना छूट नहीं सकते और ये नारकी भी किसी से रोके नहीं जा सकते ॥८२॥
ऐसी अवस्था में हम लोग कहाँ जायें ? कहाँ खड़े हों कहाँ बैठें और कहाँ सोवें ? हम लोग जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ-वहाँ अधिक-ही-अधिक दुःख पाते हैं ॥८३॥
इस प्रकार यहाँ के इस अपार दुःख से हम कब तिरेंगे पार होंगे हम लोगों की आयु भी इतनी अधिक है कि सागर भी उसके उपमान नहीं हो सकते ॥८४॥
इस प्रकार प्रतिक्षण चिन्तवन करते हुए नारकियों को जो निरन्तर मानसिक सन्ताप होता रहता है वही उनके प्राणों को संशय में डाले रखने के लिए समर्थ है अर्थात् उक्त प्रकार के सन्ताप से उन्हें मरने का संशय बना रहता है ॥८५॥
इस विषय में और अधिक कहने से क्या लाभ है ? इतना ही पर्याप्त हैं कि संसार में जो-जो भयंकर दुःख होते हैं उन सभी को, कठिनता से दूर होने योग्य कर्मों ने नरकों में इकट्ठा कर दिया है ॥८६॥
उन नारकियों को नेत्रों के निमेष मात्र भी सुख नहीं है । उन्हें रात-दिन इसी प्रकार दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है ॥८७॥
नाना प्रकार के दुःखरूपी सैकड़ों आवर्तों से भरे हुए नरकरूपी समुद्र में डूबे हुए नारकियों को सुख की प्राप्ति तो दूर रही उसका स्मरण होना भी बहुत दूर रहता है ॥८८॥
शीत अथवा उष्ण नरकों में इन नारकियों को जो दुःख होता है वह सर्वथा असह्य और अचिन्त्य है । संसार में ऐसा कोई पदार्थ भी तो नहीं है जिसके साथ उस दुःख की उपमा दी जा सके ॥८९॥
पहले की चार पृथ्वीयों में उष्ण वेदना है । पाँचवीं पृथ्वी में उष्ण और शीत दोनों वेदनाएँ हैं अर्थात् ऊपर के दो लाख बिलों में उष्ण वेदना है और नीचे के एक लाख बिलों में शीत वेदना है । छठी और सातवीं पृथ्वी में शीत वेदना है । यह उष्ण और शीत की वेदना नीचे-नीचे के नरकों में क्रम-क्रम से बढ़ती हुई है ॥९०॥
उन सातों पृथ्वीयों में क्रम से तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच बिल हैं । ये बिल सदा ही जाज्वल्यमान रहते हैं और बड़े-बड़े हैं । इन बिलों में पापी नारकी जीव हमेशा कुम्भीपाक (बन्द घड़े में पकाये जाने वाले जल आदि) के समान पकते रहते हैं ॥९१-९२॥
उन नरकों में क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है ॥९३॥
पहली पृथ्वी में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल है । और द्वितीय आदि पृथ्वीयों में क्रम-क्रम से दूनी-दूनी समझनी चाहिए । अर्थात् दूसरी पृथ्वी में पन्द्रह धनुष दो हाथ बारह अंगुल, तीसरी पृथ्वी में इकतीस धनुष एक हाथ, चौथी पृथ्वी में बासठ धनुष दो हाथ, पाँचवीं पृथ्वी में एक सौ पच्चीस धनुष, छठी पृथ्वी में दो सौ पचास हाथ और सातवीं पृथ्वी में पाँच सौ धनुष शरीर की ऊँचाई है ॥९४॥
वे नारकी विकलांग हुण्डक संस्थान वाले, नपुंसक, दुर्गन्धयुक्त, बुरे काले रंग के धारक, कठिन स्पर्श वाले, कठोर स्वरसहित तथा दुर्भग (देखने में अप्रिय) होते हैं ॥९५॥
उन नारकियों का शरीर अन्धकार के समान काले और रूखे परमाणुओं से बना हुआ होता है । उन सबकी द्रव्यलेश्या अत्यन्त कृष्ण होती है ॥९६॥
परन्तु भावलेश्या में अन्तर है जो कि इस प्रकार है-पहली पृथ्वी में जघन्य कापोती भावलेश्या है, दूसरी पृथ्वी में मध्यम कापोती लेश्या है, तीसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट कापोती लेश्या और जघन्य नील लेश्या है, चौथी पृथ्वी में मध्यम नील लेश्या है, पाँचवीं में उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण लेश्या है, छठी पृथ्वी में मध्यम कृष्ण लेश्या है और सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है । इस प्रकार घर्मा आदि सात पृथ्वीयों में क्रम से भावलेश्या का वर्णन किया ॥९७-९८॥
कड़वी तूम्बी और कांजीर के संयोग से जैसा कडुआ और अनिष्ट रस उत्पन्न होता है वैसा ही रस नारकियों के शरीर में भी उत्पन्न होता है ॥९९॥
कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट आदि जीवों के मृतक कलेवरों को इकट्ठा करने से जो दुर्गन्ध उत्पन्न होती है वह भी इन नारकियों के शरीर की दुर्गन्ध की बराबरी नहीं कर सकती ॥१००॥
करोत और गोखुरू में जैसा कठोर स्पर्श होता है वैसा ही कठोर स्पर्श नारकियों के शरीर में भी होता है ॥१०१॥
उन नारकियों के अशुभ कर्म का उदय होने से अपृथक् विक्रिया ही होती है और वह भी अत्यन्त विकृत, घृणित तथा कुरूप हुआ करती है । भावार्थ-एक नारकी एक समय में अपने शरीर का एक ही आकार बना सकता है सो वह भी अत्यन्त विकृत, घृणा का स्थान और कुरूप आकार बनाता है, देवों के समान मनचाहे अनेक रूप बनाने की सामर्थ्य नारकी जीवों में नहीं होती ॥१०२॥
पर्याप्तक होते ही उन्हें विभंगावधि ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिससे वे पूर्वभव से बैरों का स्मरण कर लेते हैं और उन्हें प्रकट भी करने लगते हैं ॥१०३॥
जो जीव पूर्वजन्म में पाप करने में बहुत ही पण्डित थे, जो खोटे वचन कहने में चतुर थे और दुराचारी थे यह उन्हीं के दुष्कर्म का फल है ॥१०४॥
हे देव, वह शतबुद्धि मन्त्री का जीव अपने पापकर्म के उदय से ऊपर कहे अनुसार द्वितीय नरक सम्बन्धी बड़े-बड़े दुःखों को प्राप्त हुआ है ॥१०५॥
इसलिए जो जीव ऊपर कहे हुए नरकों के तीव्र दुःख नहीं चाहते उन बुद्धिमान् पुरुषों को इस जिनेन्द्रप्रणीत धर्म की उपासना करनी चाहिए ॥१०६॥
यही जैन धर्म ही दुःखों से रक्षा करता है, यही धर्म सुख विस्तृत करता है, और यही धर्म कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले मोक्षसुख को देता है ॥१०७॥
इस जैन धर्म से इन्द्रचक्रवर्ती और गणधर के पद प्राप्त होते हैं । तीर्थंकर पद भी इसी धर्म से प्राप्त होता है और सर्वोत्कृष्ट सिद्ध पद भी इसी से मिलता है ॥१०८॥
यह जैन धर्म ही जीवों का बन्धु है, यही मित्र है और यही गुरु है, इसलिए हे देव, स्वर्ग और मोक्ष के सुख देने वाले इस जैनधर्म में ही तू अपनी बुद्धि लगा ॥१०९॥
उस समय प्रीतिंकर जिनेन्द्र के ऊपर कहे वचन सुनकर पवित्र बुद्धि का धारक श्रीधरदेव अतिशय धर्मप्रेम को प्राप्त हुआ ॥११०॥
और गुरु के आज्ञानुसार दूसरे नरक में जाकर शतबुद्धि को समझाने लगा कि हे भोले मूर्ख शतबुद्धि, क्या तू मुझ महाबल को जानता है ? ॥१११॥
उस भव में अनेक मिथ्यानयों के आश्रय से तेरा मिथ्यात्व बहुत ही प्रबल हो रहा था । देख, उसी मिथ्यात्व का यह दुःख देनेवाला फल तेरे सामने है ॥११२॥
इस प्रकार श्रीधरदेव के द्वारा समझाये हुए शतबुद्धि के जीव ने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया और मिथ्यात्वरूपी मैल के नष्ट हो जाने से उत्कृष्ट विशुद्धि प्राप्त की ॥११३॥
तत्पश्चात् वह शतबुद्धि का जीव आयु के अन्त में भयंकर नरक से निकलकर पूर्व पुष्कर द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में मंगलावती देश के रत्नसंचयनगर में महीधर चक्रवर्ती के सुन्दरी नामक रानी से जयसेन नाम का पुत्र हुआ । जिस समय उसका विवाह हो रहा था उसी समय श्रीधरदेव ने आकर उसे समझाया जिससे विरक्त होकर उसने यमधर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली । श्रीधरदेव ने उसे नरकों के भयंकर दुःख की याद दिलायी जिससे वह विषयों से विरक्त होकर कठिन तपश्चरण करने लगा ॥११४-११७॥
तदनन्तर आयु के अन्त समय में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्र पद को प्राप्त हुआ । देखो, कहाँ तो नारकी होना और कहाँ इन्द्र पद प्राप्त होना । वास्तव में कर्म की गति बड़ी ही विचित्र है ॥११८॥
यह जीव हिंसा आदि अधर्मकार्यों से नरकादि नीच गतियों में उत्पन्न होता है और अहिंसा आदि धर्मकार्यों से स्वर्ग आदि उच्च गतियों को प्राप्त होता है इसलिए उच्च पद की इच्छा करने वाले पुरुष को सदा धर्म में तत्पर रहना चाहिए ॥११९॥
अनन्तर अवधिज्ञानरूपी नेत्र से युक्त उस ब्रह्मेन्द्र ने (शतबुद्धि या जयसेन के जीव ने) ब्रह्म स्वर्ग से आकर अपने कल्याणकारी मित्र श्रीधरदेव की पूजा की ॥१२०॥
अनन्तर वह श्रीधरदेव स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र में स्वर्ग के समान शोभायमान होने वाले महावत देश के सुसीमानगर में सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्द नाम की रानी से पवित्र-बुद्धि का धारक सुविधि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥१२१-१२२॥
वह सुविधि बाल्यावस्था से ही चन्द्रमा के समान समस्त कला का भण्डार था और प्रतिदिन लोगों के नेत्रों का आनन्द बढ़ाता रहता था ॥१२३॥
उस बुद्धिमान् सुविधि ने बाल्य अवस्था में ही समीचीन धर्म का स्वरूप समझ लिया था । सो ठीक ही है, आत्मज्ञानी पुरुषों का चित्त आत्मकल्याण में ही अनुरक्त रहता है ॥१२४॥
वह बाल्य अवस्था में ही लोगों को आनन्द देने वाली रूपसम्पदा को प्राप्त था और पूर्ण युवा होने पर विशेष रूप से मनोहर सम्पदा को प्राप्त हो गया था ॥१२५॥
उस सुविधि का ऊँचा मस्तक सदा मुकुट से अलंकृत रहता था इसलिए अन्य राजाओं के बीच में वह सुविधि उस प्रकार उच्चता धारण करता था जिस प्रकार कि कुलाचलों के बीच में चूलिकासहित मेरु पर्वत है ॥१२६॥
उसका मुख, सूर्य, चन्द्रमा, तारे और इन्द्रधनुष से सुशोभित आकाश के समान शोभायमान हो रहा था । क्योंकि वह दो कुण्डलों से शोभायमान था जो कि सूर्य और चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे तथा कुछ ऊँची उठी हुई भौंहोंसहित चमकते हुए नेत्रों से युक्त हुआ था इसलिए इन्द्रधनुष और ताराओं से युक्त हुआ-सा जान पड़ता था ॥१२७॥
अथवा उसका मुख एक फूले हुए कमल के समान शोभायमान हो रहा था क्योंकि फूले हुए कमल में जिस प्रकार उसकी कलिकाएँ विकसित होती है उसी प्रकार उसके मुख में मनोहर ओठ शोभायमान थे और फूला हुआ कमल जिस प्रकार मनोज्ञ गन्ध से युक्त होता है उसी प्रकार उसका मुख भी श्वासोच्छ्वास की मनोज्ञ गन्ध से युक्त था ॥१२८॥
उसकी नाक स्वभाव से ही लम्बी थी, इसीलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने मुख-कमल की सुगन्धि सूँघने के लिए ही लम्बाई धारण की हो । और उसमें जो दो छिद्र थे उनसे ऐसी मालूम होती थी मानो नीचे की ओर मुँह करके उन छिद्रों-द्वारा उसका रसपान ही कर रही हो ॥१२९॥
उसका गला मृणालवलय के समान श्वेत हार से शोभायमान था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मुखरूपी कमल की उत्तम नाल को ही धारण कर रहा हो ॥१३०॥
बड़े-बड़े रत्नों की किरणों से मनोहर उसका विशाल वक्षःस्थल ऐसा शोभायमान होता था मानो कमलवासिनी लक्ष्मी का जलते हुए दीपकों से शोभायमान निवासगृह ही हो ॥१३१॥
वह सुविधि स्वयं दिग्गज के समान शोभायमान था और उसके ऊँचे उठे हुए दोनों कन्धे दिग्गज के कुम्भस्थल के समान शोभायमान हो रहे थे । क्योंकि जिस प्रकार दिग्गज सद्गति अर्थात् समीचीन चाल का धारक होता है उसी प्रकार वह सुविधि भी सद्गति अर्थात् समीचीन आचरणों का धारक अथवा सत्पुरुषों का आश्रय था । दिग्गज जिस प्रकार सुवंश अर्थात् पीठ की रीढ़ से सहित होता है इसी प्रकार वह सुविधि भी सुवंश अर्थात् उच्च कुल वाला था और दिग्गज जिस प्रकार महोन्नत अर्थात् अत्यन्त ऊँचा होता है उसी प्रकार वह सुनिधि भी महोन्नत अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट था ॥१३२॥
उस राजा की अत्यन्त लम्बी दोनों भुजाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो उपद्रवों से लोक की रक्षा करने के लिए वज्र के बने हुए दो अर्गलदण्ड ही हों ॥१३३॥
उसकी दोनों सुन्दर हथेलियाँ नखरूपी ताराओं से शोभायमान थी और सूर्य तथा चन्द्रमा के चिह्नों से सहित थी इसलिए तारे और सूर्य-चन्द्रमा से सहित आकाश के समान शोभायमान हो रही थी ॥१३४॥
उसका मध्य भाग लोक के मध्य भाग की शोभा को धारण करता हुआ अत्यन्त शोभायमान था, क्योंकि लोक का मध्य भाग जिस प्रकार कृश है उसी प्रकार उसका मध्य भाग भी कृश था और जिस प्रकार लोक के मध्य भाग से ऊपर और नीचे का हिस्सा विस्तीर्ण होता है उसी प्रकार उसके मध्य भाग से ऊपर, नीचे का हिस्सा भी विस्तीर्ण था ॥१३५॥
जिस प्रकार मेरु पर्वत इन्द्रधनुषसहित मेघों से घिरे हुए नितम्ब भाग (मध्यभाग को) धारण करता है उसी प्रकार वह सुविधि भी सुवर्णमय करधनी को धारण किये हुए नितम्ब भाग (जघन भाग) को धारण करता था ॥१३६॥
वह सुविधि, सुवर्ण कमल की केशर के समान पीली जिन दो ऊरुओं को धारण कर रहा था वे ऐसी मालूम होती थीं मानो जगत्रूपी घर के दो तोरण-स्तम्भ (तोरण बाँधने के खम्भे) ही हों ॥१३७॥
उसकी दोनों जंघाएँ सुश्लिष्ट थीं अर्थात् संगठित होने के कारण परस्पर में सटी हुई थीं, मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करने वाली थीं और उनके अलंकारों (आभूषणों से) सहित थीं इसलिए किसी उत्तम कवि की सुश्लिष्ट अर्थात् श्लेषगुण से सहित मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करने वाली और उपमा, रूपक आदि अलंकारों से युक्त काव्य-रचना को भी जीतती थीं ॥१३८॥
अत्यन्त कोमल स्पर्श के धारक और लक्ष्मी के द्वारा सेवा करने योग्य (दाबने के योग्य) उसके दोनों चरण-कमल जिस स्वाभाविक लालिमा को धारण कर रहे थे वह ऐसी मालूम होती थी मानो सेवा करते समय लक्ष्मी के कर-पल्लव से छूटकर ही लग गयी हो ॥१३९॥
इस प्रकार वह सुविधि बालक होने पर भी अनेक सामुद्रिक चिह्नों से युक्त प्रकट हुए अपने मनोहर रूप के द्वारा संसार के समस्त जीवों के मन को जबरदस्ती हरण करता था ॥१४०॥
उस जितेन्द्रिय राजकुमार ने काम का उद्रेक करने वाले यौवन के प्रारम्भ समय में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओं का निग्रह कर दिया था इसलिए वह तरुण होकर भी वृद्धों के समान जान पड़ता था ॥१४१॥
उसने यथायोग्य समय पर गुरुजनों के आग्रह से उत्तम स्त्री के साथ पाणिग्रहण कराने की अनुमति दी थी और छत्र, चमर आदि राज्य-लक्ष्मी के चिह्न भी धारण किये थे, राज्य-पद स्वीकृत किया था ॥१४२॥
तरुण अवस्था को धारण करने वाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवर्ती का भानजा था इसलिए उसने उन्हीं चक्रवर्ती की पुत्री मनोरमा के साथ विवाह किया था ॥१४३॥
सदा अनुकूल सती मनोरमा के साथ वह राजा चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा सो ठीक है । सुशील और अनुकूल स्त्री ही पति को प्रसन्न कर सकती है ॥१४४॥
इस प्रकार प्रीतिपूर्वक क्रीड़ा करते हुए उन दोनों का समय बीत रहा था कि स्वयंप्रभ नाम का देव (श्रीमती का जीव) स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के केशव नाम का पुत्र हुआ ॥१४५॥
वज्रजंघ पर्याय में जो इसकी श्रीमती नाम की प्यारी स्त्री थी वही इस भव में इसका पुत्र हआ है । क्या कहा जाये ? संसार की स्थिति ही ऐसी है ॥१४६॥
उस पुत्र पर सुविधि राजा का भारी प्रेम था सों ठीक ही है । जब कि पुत्र मात्र ही प्रीति के लिए होता है तब यदि पूर्वभव का प्रेमपात्र स्त्री का जीव ही आकर पुत्र उत्पन्न हुआ हो तो फिर कहना ही क्या है उस पर तो सबसे अधिक प्रेम होता ही है ॥१४७॥
सिंह, नकुल, वानर और शूकर के जीव जो कि भोगभूमि के बाद द्वितीय स्वर्ग में देव हुए थे वे भी वहाँ से चय कर इसी वत्सकावती देश में सुविधि के समान पुण्याधिकारी होने से उसी के समान विभूति के धारक राजपुत्र हुए ॥१४८॥
सिंह का जीव-चित्रांगद देव स्वर्ग से च्युत होकर विभीषण राजा से उसकी प्रियदत्ता नाम की पत्नी के उदर में वरदत्त नाम का पुत्र हुआ ॥१४९॥
शूकर का जीव-मणिकुण्डल नाम का देव नन्दिषेण राजा और अनन्तमती रानी के वरसेन नाम का पुत्र हुआ ॥१५०॥
वानर का जीव-मनोहर नाम का देव स्वर्ग से च्युत होकर रतिषेण राजा की चन्द्रमती रानी के चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ ॥१५१॥
और नकुल का जीव-मनोरथ नाम का देव स्वर्ग से च्युत होकर प्रभंजन राजा की चित्रमालिनी रानी के प्रशान्तमदन नाम का पुत्र हुआ ॥१५२॥
समान आकार, समान रूप, समान सौन्दर्य और समान सम्पत्ति के धारण करने वाले वे सभी राजपुत्र अपने-अपने योग्य राज्यलक्ष्मी पाकर चिरकाल तक भोगों का अनुभव करते रहे ॥१५३॥
तदनन्तर किसी दिन वे चारों ही राजा, चक्रवर्ती अभयघोष के साथ विमलवाह जिनेन्द्र देव की वन्दना करने के लिए गये । वहाँ सबने भक्तिपूर्वक वन्दना की और फिर सभी ने विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली ॥१५४॥
वह चक्रवर्ती अठारह हजार राजाओं और पाँच हजार पुत्रों के साथ दीक्षित हुआ था ॥१५५॥
वे सब मुनीश्वर उत्कृष्ट संवेग और निर्वेदरूप परिणामों को प्राप्त होकर स्वर्ग और मोक्ष के मार्गभूत कठिन तप तपने लगे ॥१५६॥
धर्म और धर्म के फलों में उत्कृष्ट प्रीति करना संवेग कहलाता हे और शरीर, भोग तथा संसार से विरक्त होने को निर्वेद कहते हैं ॥१५७॥
राजा सुविधि केशव पुत्र के स्नेह से गृहस्थ अवस्था का परित्याग नहीं कर सका था, इसलिए श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रहकर कठिन तप तपता था ॥१५८॥
जिनेन्द्रदेव ने गृहस्थों के नीचे लिखे अनुसार ग्यारह स्थान या प्रतिमाएँ कही हैं (१) दर्शनप्रतिमा (२) व्रतप्रतिमा (३) सामायिकप्रतिमा (४) प्रोषधप्रतिमा (५) सचित्तत्यागप्रतिमा (६) दिवामैथुनत्यागप्रतिमा (७) ब्रह्मचर्यप्रतिमा (८) आरम्भत्यागप्रतिमा (९) परिग्रह-त्यागप्रतिमा (१०) अनुमतित्यागप्रतिमा और (११) उद्दिष्टत्यागप्रतिमा । इनमें से सुविधि राजा ने क्रम-क्रम से ग्यारहवाँ स्थान-उद्दिष्टत्यागप्रतिमा धारण की थी ॥१५९-१६१॥
जिनेन्द्रदेव ने गृहस्थाश्रम के उक्त ग्यारह स्थानों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों का निरूपण किया है ॥१६२॥
स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से निवृत्त होने को क्रम से अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहते हैं ॥१६३॥
यदि इन पाँच अणुव्रतों को हर एक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं से सुसंस्कृत और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि से युक्त कर धारण किया जाये तो उनसे गृहस्थों को बड़े-बड़े फलों की प्राप्ति हो सकती है ॥१६४॥
दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं । कोई-कोई आचार्य भोगोपभोग परिमाणव्रत को भी गुणव्रत कहते हैं [और देशव्रत को शिक्षाव्रतों में शामिल करते हैं] ॥१६५॥
सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और मरण समय में संन्यास धारण करना ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं । [अनेक आचार्यों ने देशव्रत को शिक्षाव्रत में शामिल किया है और संन्यास का बारह व्रतों से भिन्न वर्णन किया है] ॥१६६॥
गृहस्थों के ये उपर्युक्त बारह व्रत स्वर्गरूपी राजमहल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी के समान हैं और नरकादि दुर्गतियों का आवरण करने वाले हैं ॥१६७॥
इस प्रकार सम्यग्दर्शन से पवित्र व्रतों की शुद्धता को प्राप्त हुए राजर्षि सुविधि चिरकाल तक श्रेष्ठ मोक्षमार्ग की उपासना करते रहे ॥१६८॥
अनन्तर जीवन के अन्त समय में परिग्रहरहित दिगम्बर दीक्षा को प्राप्त हुए सुविधि महाराज ने विधिपूर्वक उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की आराधना कर समाधि-मरणपूर्वक शरीर छोड़ा जिससे अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए ॥१६९॥
वहाँ उनकी आयु बीस सागर प्रमाण थी और उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं ॥१७०॥
श्रीमती के जीव केशव ने भी समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की और आयु के अन्त में अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया ॥१७१॥
जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसे वरदत्त आदि राजपुत्र भी अपने-अपने पुण्य के उदय से उसी अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए ॥१७२॥
पूर्ण आयु को धारण करने वाला वह अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अणिमा, महिमा आदि आठ गुण, ऐश्वर्य और दिव्य भोगों का अनुभव करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता था ॥१७३॥
उसका शरीर दिव्य प्रभाव से सहित था, स्वभाव से ही सुन्दर था, विष-शस्त्र आदि की बाधा से रहित था और अत्यन्त निर्मल था ॥१७४॥
वह अपने मस्तक पर कल्पवृक्ष के पुष्पों का सेहरा धारण करता था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो पूर्वभव में किये हुए तपश्चरण के विशाल फल को मस्तक पर उठाकर सबको दिखा ही रहा हो ॥१७५॥
उसका सुन्दर शरीर साथ-साथ उत्पन्न हुए आभूषणों से ऐसा मालूम होता था मानो उसके प्रत्येक अंग पर दयारूपी लता के प्रशंसनीय फल ही लग रहे हैं ॥१७६॥
समचतुरस्र संस्थान का धारक वह इन्द्र अपने अनेक दिव्य लक्षणों से ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि ऊँचे-नीचे सभी प्रदेशों में स्थित फलों से व्याप्त हुआ कल्पवृक्ष सुशोभित होता है ॥१७७॥
काले-काले केश और श्वेतवर्ण की पगड़ी से सहित उसका मस्तक ऐसा जान पड़ता था मानो तापिच्छ पुष्प से सहित और आकाशगंगा के पूर से युक्त हिमालय का शिखर ही हो ॥१७८॥
उस इन्द्र का मुखकमल फूले हुए कमल के समान शोभायमान था, क्योंकि जिस प्रकार कमल पर भौंरे होते हैं उसी प्रकार उसके मुख पर शोभायमान नेत्र थे और कमल जिस प्रकार जल से आक्रान्त होता है उसी प्रकार उसका मुख भी मुसकान की सफेद-सफेद किरणों से आक्रान्त था ॥१७९॥
वह अपने मनोहर और विशाल वक्षःस्थल पर जिस निर्मल हार को धारण कर रहा था वह ऐसा मालूम होता था मानो मेरु पर्वत के तट पर अवलम्बित शरद् ऋतु के बादलों का समूह ही हो ॥१८०॥
शोभायमान वस्त्र से ढँका हुआ उसका नितम्बमण्डल ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो लहरों से ढँका हुआ समुद्र का बालूदार टीला ही हो ॥१८१॥
देवाङ्गनाओं के मन को हरण करने वाले उसके दोनों सुन्दर ऊरु सुवर्ण कदली के स्तम्भों का सन्देह करते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ।१८२॥
उस इन्द्र के दोनों चरण किसी तालाब के समान मालूम पड़ते थे क्योंकि तालाब जिस प्रकार जल से सुशोभित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी नखों की किरणोंरूपी निर्मल जल से सुशोभित थे, तालाब जिस प्रकार कमलों से शोभायमान होता है उसी प्रकार उसके चरण भी कमल के चिह्नों से सहित थे और तालाब जिस प्रकार मच्छ वगैरह से सहित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी मत्स्य रेखा आदि से युक्त थे । इस प्रकार उसके चरणों में कोई अपूर्व ही शोभा थी ॥१८३॥
इस तरह अत्यन्त श्रेष्ठ और सुन्दर वैक्रियिक शरीर को धारण करता हुआ वह अच्युतेन्द्र अपने स्वर्ग में उत्पन्न हुए भोगों का अनुभव करता था ॥१८४॥
वह अच्युत स्वर्ग इस मध्यलोक से छह राजु ऊपर चलकर है तथापि पुण्य के उदय से वह सुविधि राजा के भोगोपभोग का स्थान हुआ सो ठीक ही है । पुण्य के उदय से क्या नहीं प्राप्त होता ? ॥१८५॥
उस इन्द्र के उपभोग में आने वाले विमानों की संख्या सर्वज्ञ प्रणीत आगम में जिनेन्द्रदेव ने एक-सौ उनसठ कही है ॥१८६॥
उन एक सौ उनसठ विमानों में एक सौ तेईस विमान प्रकीर्णक हैं, एक इन्द्रक विमान है और बाकी के पैंतीस बड़े-बड़े श्रेणीबद्ध विमान हैं ॥१८७॥
उन इन्द्र के तैंतीस त्रायस्त्रिंश जाति के उत्तम देव थे । वह उन्हें अपनी स्नेह-भरी बुद्धि से पुत्र के समान समझता था ॥१८८॥
उसके दश हजार सामानिक देव थे । वे सब देव भोगोपभोग की सामग्री से इन्द्र के ही समान थे परन्तु इन्द्र के समान उनकी आज्ञा नहीं चलती ॥१८९॥
उसके अंगरक्षकों के समान चालीस हजार आत्मरक्षक देव थे । यद्यपि स्वर्ग में किसी प्रकार का भय नहीं रहता तथापि इन्द्र की विभूति दिखलाने के लिए ही वे होते हैं ॥१९०॥
अन्त-परिषद, मध्यमपरिषद् और बाह्यपरिपद् के भेद से उस इन्द्र की तीन सभाएं थीं । उनमें से पहली परिषद् में एक सौ पच्चीस देव थे, दूसरी परिषद् में दो सौ पचास देव थे और तीसरी परिषद् में पाँच सौ देव थे ॥१९१॥
उस अच्युत स्वर्ग के अन्तभाग की रक्षा करने वाले चारों दिशाओं सम्बन्धी चार लोकपाल थे और प्रत्येक लोकपाल की बत्तीस-बत्तीस देवियाँ थीं ॥१९२॥
उस अच्युतेन्द्र की आठ महादेवियाँ थीं जो कि अपने वर्ण और सौन्दर्यरूपी सम्पत्ति के द्वारा इन्द्र के मनरूपी लोहे को खींचने के लिए बनी हुई पुतलियों के समान शोभायमान होती थीं ॥१९३॥
इन आठ महादेवियों के सिवाय उसके तिरसठ वल्लभिका देवियाँ और थीं तथा एक-एक महादेवी अढ़ाईसौ-अढ़ाईसौ अन्य देवियों से घिरी रहती थी ॥१९४॥
इस प्रकार सब मिलाकर उसकी दो हजार इकहत्तर देवियाँ थीं । इन देवियों का स्मरण करने मात्र से ही उसका चित्त सन्तुष्ट हो जाता था-उसकी कामव्यथा नष्ट हो जाती थी ॥१९५॥
वह इन्द्र उन देवियों के कोमल हाथों के स्पर्श से, मुखकमल के देखने से और मानसिक संभोग से अत्यन्त तृप्ति को प्राप्त होता था ॥१९६॥
इस इन्द्र की प्रत्येक देवी अपनी विक्रिया शक्ति के द्वारा सुन्दर स्त्रियों के दस लाख चौबीस हजार सुन्दर रूप बना सकती थी ॥१९७॥
हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गन्धर्व और नृत्यकारिणी के भेद से उसकी सेना की सात कक्षाएँ थीं । उनमें से पहली कक्षा में बीस हजार हाथी थे, फिर आगे की कक्षाओं में दूनी-दूनी संख्या थी । उसकी यह विशाल सेना किसी बड़े समुद्र की लहरों के समान जान पड़ती थी । यह सातों ही प्रकार की सेना अपने-अपने महत्तर (सर्वश्रेष्ठ) के अधीन रहती थी ॥१९८-१९९॥
उस इन्द्र की एक-एक देवी की तीन-तीन सभाएँ थीं । उनमें से पहली सभा में २५ अप्सराएँ थीं, दूसरी सभा में ५० अप्सराएँ थीं, और तीसरी सभा में सौ अप्सराएँ थीं ॥२००॥
इस प्रकार ऊपर कहे हुए परिवार के साथ अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुई लक्ष्मी का उपभोग करने वाले उस अच्युतेन्द्र की उत्कृष्ट विभूति का वर्णन करना कठिन है-जितना वर्णन किया जा चुका है उतना ही पर्याप्त है ॥२०१॥
उस अच्युतेन्द्र का मैथुन मानसिक था और आहार भी मानसिक था तथा वह बाईस हजार वर्षों में एक बार आहार करता था ॥२०२॥
ग्यारह महीने में एक बार श्वासोच्छ्वास लेता था और तीन हाथ ऊँचे सुन्दर शरीर को धारण करनेवाला था ॥२०३॥
वह अच्युतेन्द्र धर्म के द्वारा ही उत्तम-उत्तम विभूति प्राप्त हुआ था इसलिए उत्तम-उत्तम विभूतियों के अभिलाषी जनों को जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे धर्म में ही बुद्धि लगानी चाहिए ॥२०४॥
उस अच्युत स्वर्ग में, जिनके वेष बहुत ही सुन्दर हैं जो उत्तम-उत्तम आभूषण पहने हुई हैं, जो सुगन्धित पुष्पों की मालाओं से सहित हैं, जिनके लम्बी चोटी नीचे की ओर लटक रही है, जो अनेक प्रकार की लीलाओं से सहित हैं, जो मधुर शब्दों से गाती हुई राग-रागिनियों का प्रारम्भ कर रही हैं, और जो हर प्रकार से समान हैं-सदृश हैं अथवा गर्व से युक्त हैं ऐसी देवाङ्गनाएँ उस अच्युतेन्द्र को बड़ा आनन्द प्राप्त करा रही थीं ॥२०५॥
जिनके मुख कमल के समान सुन्दर हैं ऐसी देवाङ्गनाएँ, अपने मनोहर चरणों के गमन, भौंहों के विकार, सुन्दर दोनों नेत्रों के कटाक्ष, अंगोपांगों की लचक, सुन्दर हास्य, स्पष्ट और कोमल हाव तथा रोमाञ्च आदि अनुभवों से सहित रति आदि अनेक भावों के द्वारा उस अच्युतेन्द्र का मन ग्रहण करती रहती थीं ॥२०६॥
जो अपनी विशाल कान्ति से शोभायमान है, जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता, और जो अपने स्थूल कन्धों से शोभायमान है ऐसा वह समृद्धिशाली अच्युतेन्द्र, स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रमा से अत्यन्त देदीप्यमान अपने विस्तृत विमान में कभी देवांगनाओं के चन्द्रमा की कला के समान निर्मल कपोलरूपी दर्पण में अपना मुख देखता हुआ, कभी उनके मुख की श्वास को सूँघकर उनके मुखरूपी कमल पर भ्रमर-जैसी शोभा को प्राप्त होता हुआ, कभी भौंहरूपी धनुष से, छोड़े हुए उनके नेत्रों के कटाक्षों से घायल हुए अपने हृदय को उन्हीं के कोमल हाथों के स्पर्श से धैर्य बँधाता हुआ, कभी दिव्य भोगों का अनुभव करता हुआ, कभी अनेक देवों से परिवृत होकर हाथी के आकार विक्रिया किये हुए देवों पर चढ़कर गमन करता हुआ और कभी बार-बार जिनेन्द्रदेव की पूजा का विस्तार करता हुआ अपनी देवाङ्गनाओं के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥२०७-२०८॥ इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में श्रीमान् अच्युतेन्द्र के ऐश्वर्य का वर्णन करने वाला दसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१०॥