ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 22
From जैनकोष
अथानन्तर जब जिनेन्द्र भगवान् ने घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त की तब समस्त संसार का सन्ताप नष्ट हो गया-सारे संसार में शान्ति छा गयी और केवलज्ञान की उत्पत्तिरूप वायु के समूह से तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न हो गया ॥१॥
उस समय क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र की लहरों के शब्द का अनुकरण करता हुआ कल्पवासी देवों का घण्टा समस्त संसार को वाचालित कर रहा था ॥२॥
ज्योतिषी देवों के लोक में बड़ा भारी सिंहनाद हो रहा था जिससे देवताओं के हाथी भी मदरहित अवस्था को प्राप्त हो गये थे ॥३॥
व्यन्तर देवों के घरों में नगाड़ों के ऐसे जोरदार शब्द हो रहे थे जो कि गरजते हुए मेघों के शब्दों को भी तिरस्कृत कर रहे थे ॥४॥
'भो भवनवासी देवों, तुम भी आकाश में चलने वाले कल्पवासी देवों के साथ-साथ भगवान् के दर्शन से उत्पन्न हुए सुख अथवा शान्ति को ग्रहण करने के लिए आओ' इस प्रकार जोर-जोर से घोषणा करता हुआ शंख भवनवासी देवों के भवनों में अपने आप शब्द करने लगा था ॥५॥
उसी समय समस्त इन्द्रों के आसन भी शीघ्र ही कम्पायमान हो गये थे मानो जिनेन्द्रदेव को घातिया कर्मों के जीत लेने से जो गर्व हुआ था उसे वे सहन करने के लिए असमर्थ होकर ही कम्पायमान होने लगे थे ॥६॥
जिन्होंने अपनी-अपनी रहने अनुभाग से पकड़कर कमलरूपी अर्घ ऊपर को उठाये हैं और जो पर्वतों के समान ऊँचे हैं ऐसे देवों के हाथी नृत्य कर रहे थे तथा वे ऐसे मालूम होते थे मानो बड़े-बड़े सर्पोंसहित पर्वत ही नृत्य कर रहे हों ॥७॥
अपनी लम्बी-लम्बी शाखाओंरूपी हाथों से चारों ओर फूल बरसाते हुए कल्पवृक्ष ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भगवान् के लिए पुष्पांजलि ही समर्पित कर रहे हों ॥८॥
समस्त दिशाएँ प्रसन्नता को प्राप्त हो रही थीं, आकाश मेघों से रहित होकर सुशोभित हो रहा था और जिसने पृथ्वीलोक को धूलिरहित कर दिया है ऐसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी ॥९॥
इस प्रकार संसार के भीतर अकस्मात् आनन्द को विस्तृत करता हुआ केवलज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्रमा संसाररूपी समुद्र को बढ़ा रहा था अर्थात् आनन्दित कर रहा था ॥१०॥
अवधिज्ञानी इन्द्र ने इन सब चिह्नों से संसार में प्राप्त हुए और संसार को नष्ट करने वाले, भगवान वृषभदेव के केवलज्ञानरूपी वैभव को शीघ्र ही जान लिया था ॥११॥
तदनन्तर परम आनन्द को धारण करता हुआ इन्द्र शीघ्र ही आसन से उठा और उस आनन्द के भार से ही मानो नतमस्तक होकर उसने भगवान् के लिए नमस्कार किया था ॥१२॥
'यह क्या है' इस प्रकार बड़े आश्चर्य से पूछती हुई इन्द्राणी के लिए भी इन्द्र ने भगवान् के केवलज्ञान की उत्पत्ति का समाचार बतलाया था ॥१३॥
अथानन्तर जब प्रस्थानकाल की सूचना देने वाले नगाड़े जोर-जोर से शब्द कर रहे थे तब इन्द्र अनेक देवों से परिवृत होकर भगवान् के केवलज्ञान की पूजा करने के लिए निकला ॥१४॥
उसी समय बलाहकदेव ने एक कामग नाम का विमान बनाया जिसका आकार बलाहक अर्थात् मेघ के समान था और जो जम्बूद्वीप के प्रमाण था ॥१५॥
वह विमान रत्नों का बना हुआ था और मोतियों की लटकती हुई मालाओं से सुशोभित हो रहा था तथा उस पर जो किंकिणियों के शब्द हो रहे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो सन्तोष से हँस ही रहा हो ॥१६॥
जो आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य था ऐसे नागदत्त नाम के देव ने विक्रिया ऋद्धि से एक ऐरावत हाथी बनाया । वह हाथी शरद᳭ऋतु के बादलों के समान सफेद था, बहुत बड़ा था और उसने अपनी सफेदी से समस्त दिशाओं को सफेद कर दिया था ॥१७॥
तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने अपनी इन्द्राणी और ऐशान इन्द्र के साथ-साथ विक्रिया ऋद्धि से बने हुए उस दिव्यवाहन पर आरूढ़ होकर प्रस्थान किया ॥१८॥
सबसे आगे किल्विषिक जाति के देव जोर-जोर से सुन्दर नगाड़ों के शब्द करते जाते थे और उनके पीछे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक और प्रकीर्णक जाति के देव अपनी-अपनी सवारियों पर आरूढ़ हो इच्छानुसार जाते हुए सौधर्मेन्द्र के पीछे-पीछे जा रहे थे ॥१९-२०॥
उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं, गन्धर्व देव बाजे बजा रहे थे और किन्नरी जाति की देवियाँ गीत गा रही थी, इस प्रकार वह देवों की सेना बड़े वैभव के साथ जा रही थी ॥२१॥
अब यहाँ पर इन्द्र आदि देवों के कुछ लक्षण लिखे जाते हैं-अन्य देवों में न पाये जाने वाले अणिमा महिमा आदि गुणों से जो परम ऐश्वर्य को प्राप्त हों उन्हें इन्द्र कहते हैं ॥२२॥
जो आज्ञा और ऐश्वर्य के बिना अन्य सब गुणों से इन्द्र के समान हों और इन्द्र भी जिन्हें बड़ा मानता हो वे सामानिकदेव कहलाते हैं ॥२३॥
वे सामानिक जाति के देव इन्द्रों के पिता माता और गुरु के तुल्य होते हैं तथा ये अपनी मान्यता के अनुसार इन्द्रों के समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं ॥२४॥
इन्द्रों के पुरोहित मन्त्री और अमात्यों (सदा साथ में रहने वाले मन्त्री) के समान जो देव होते हैं वे त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं । ये देव एक-एक इन्द्र की सभा में गिनती के तैंतीस-तैंतीस ही होते हैं ॥२५॥
जो इन्द्र की सभा में उपस्थित रहते हैं उन्हें पारिषद कहते हैं । ये पारिषद् जाति के देव इन्द्रों के पीठमर्द अर्थात् मित्रों के तुल्य होते हैं और इन्द्र उन पर अतिशय प्रेम रखता है ॥२६॥
जो देव अंगरक्षक के समान तलवार ऊँची उठाकर इन्द्र के चारों ओर घूमते रहते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं । यद्यपि इन्द्र को कुछ भय नहीं रहता तथापि ये देव इन्द्र का वैभव दिखलाने के लिए ही उसके पास ही पास घूमा करते हैं ॥२७॥
जो दुर्गरक्षक के समान स्वर्गलोक की रक्षा करते हैं उन्हें लोकपाल कहते हैं और सेना के समान पियादे आदि जो सात प्रकार के देव हैं उन्हें अनीक कहते हैं (हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गन्धर्व और नृत्य करने वाली देवियाँ यह सात प्रकार की देवों की सेना है) ॥२८॥
नगर तथा देशों में रहने वाले लोगों के समान जो देव हैं उन्हें प्रकीर्णक जानना चाहिए और जो नौकर-चाकरों के समान हैं वे आभियोग्य कहलाते हैं ॥२९॥
जिनके किल्विष अर्थात् पापकर्म का उदय हो उन्हें किल्विषिक देव कहते हैं । ये देव अन्त्यजों की तरह अन्य देवों से बाहर रहते हैं । उनके जो कुछ थोड़ा-सा पुण्य का उदय होता है उसी के अनुरूप उनके थोड़ी-सी ऋद्धियाँ होती हैं ॥३०॥
इस प्रकार प्रत्येक निकाय में ये ऊपर कहे हुए दश-दश प्रकार के देव होते हैं परन्तु व्यन्तर और ज्योतिषीदेव त्रायस्त्रिंश तथा लोकपाल भेद से रहित होते हैं ॥३१॥
अब इन्द्र के ऐरावत हाथी का भी वर्णन करते हैं-उसका वंश अर्थात् पीठ पर की हड्डी बहुत ऊँची थी, उसका शरीर बहुत बड़ा था, मस्तक अतिशय गोल और ऊँचा था । उसके अनेक मुख थे, अनेक दाँत थे, अनेक सूंड़े थीं, उसका आसन बहुत बड़ा था, वह अनेक लक्षण और व्यंजनों से सहित था, शक्तिशाली था, शीघ्र गमन करने वाला था, बलवान् था, वह इच्छानुसार चाहे जहाँ गमन कर सकता था, इच्छानुसार चाहे जैसा रूप बना सकता था, अतिशय शूरवीर था । उसके कन्धे अतिशय गोल थे, वह सम अर्थात् समचतुरस्र संस्थान का धारी था, उसके शरीर के बन्धन उत्तम थे, वह धुरन्धर था, उसके दाँत और नेत्र मनोहर तथा चिकने थे । उसकी उत्तम सूँड नीचे की ओर तिरछी लटकती हुई चचल, लम्बी, मोटी तथा अनुक्रम से पतली होती हुई गोल और सीधी थी; पुष्कर अर्थात् सूंड का अग्रभाग चिकना और लाल था, उसमें बड़े-बड़े छेद थे और बड़ी-बड़ी अंगुलियों के समान चिह्न थे । उसके शरीर का पिछला हिस्सा गोल था, वह हाथी अतिशय गम्भीर और स्थिर था, उसकी पूँछ और लिंग दोनों ही बड़े थे, उसका वक्षःस्थल बहुत ही चौड़ा और मजबूत था, उसके कान बड़ा भारी शब्द कर रहे थे, उसके कानरूपी पल्लव बहुत ही मनोहर थे । उसके नखों का समूह अर्ध चन्द्रमा के आकार का था, अंगुलियों में खूब जड़ा हुआ था और मूंगा के समान कुछ-कुछ लाल वर्ण का था, उसकी कान्ति उत्तम थी । उसका मुख और तालु दोनों ही लाल थे, वह पर्वत के समान ऊँचा था, उसके गण्डस्थल भी बहुत बड़े थे । उसके जघन सुअर के समान थे, वह अतिशय लक्ष्मीमान् था, उसके ओठ बड़े-बड़े थे, उसका शब्द दुन्दुभी शब्द के समान था, उच्छवास सुगन्धित तथा दीर्घ था, उसकी आयु अपरिमित थी और उसका सभी कोई आदर करता था । वह सार्थक शब्दार्थ का जानने वाला था, स्वयं मङ्गलरूप था, उसका स्वभाव भी मङ्गलरूप था, वह शुभ था, बिना योनि के उत्पन्न हुआ था, उसकी जाति उत्तम थी अथवा उसका जन्म सबसे उत्तम था, वह पराक्रम, तेज, बल, शूरता, शक्ति, संहनन और वेग इन सात प्रकार की प्रतिष्ठाओं से सहित था । वह अपने कानों के समीप बैठी हुई उन भ्रमरों की पंक्तियों को धारण कर रहा था जो कि गण्डस्थलों से निकलते हुए मदरूपी जल के निर्झरनों से भीग गयी थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो मद की दूसरी धाराएँ ही हों । इस प्रकार अनेक मुखों से व्याप्त हुआ वह गजराज ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भक्तिपूर्वक आये हुए संसार के समस्त हाथी ही उसकी सेवा कर रहे हों ॥३२-४१॥
उस हाथी का तालू अशोकवृक्ष के पल्लव के समान अतिशय लाल था । इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो लाल-लाल तालु की छाया के बहाने से खाये हुए पल्लवों को अच्छे न लगने के कारण बार-वार उगल ही रहा हो ॥४२॥
उस हाथी के कर्णरूपी तालों की ताड़ना से मृदङ्ग के समान गम्भीर शब्द हो रहा था और वहीं पर जो भ्रमर बैठे हुए थे वे वीणा के समान शब्द कर रहे थे, उन दोनों से वह हाथी ऐसा जान पड़ता था मानो उसने बाजा बजाना ही प्रारम्भ किया हो ॥४३॥
वह हाथी, जिससे बड़ी लम्बी श्वास निकल रही है ऐसी शुण्ड तथा मदजल की धारा को धारण कर रहा था और उन दोनों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो निर्झरने और सर्प से सहित किसी पर्वत की ही शोभा धारण कर रहा हो ॥४४॥
इसके दाँतों में जो मृणाल लगे हुए थे उनसे वह ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो चन्द्रमा के टुकड़ों के समान उज्ज्वल दाँतों के अँकुरों से ही सुशोभित हो रहा हो ॥४५॥
वह शोभायमान हाथी एक सरोवर के समान मालूम होता था क्योंकि जिस प्रकार सरोवर पुष्कर अर्थात् कमलों की शोभा धारण करना है उसी प्रकार वह हाथी भी पुष्कर अर्थात् सूंड के अग्रभाग की शोभा धारण कर रहा था, अथवा वह हाथी एक ऊँचे कल्पवृक्ष के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार कल्पवृक्ष दान अर्थात् अभिलषित वस्तुओं की इच्छा करने वाले मनुष्यों के द्वारा उपासित होता है उसी प्रकार वह हाथी भी दान अर्थात् मदजल के अभिलाषी भ्रमरों के द्वारा उपासित (सेवित) हो रहा था ॥४६॥
उसके वक्षःस्थल पर सोने की साँकल पड़ी हुई थी जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो सुवर्णमयी लताओं से ढका हुआ पर्वत ही हो और गले में नक्षत्रमाला नाम की माला पड़ी हुई थी जिससे वह अश्विनी आदि नक्षत्रों की माला से सुशोभित शरद्ऋतु के आकाश की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था ॥४७॥
जो गले में पड़ी हुई माला से शब्दायमान हो रहा है ऐसे कण्ठ को धारण करता हुआ वह हाथी पक्षियों की पङ्क्ति से घिरे हुए किसी पर्वत के नितम्ब भाग (मध्य भाग) की शोभा धारण कर रहा था ॥४८॥
वह हाथी शब्द करते हुए सुवर्णमयी घण्टाओं से ऐसा जान पड़ता था मानो देवों को बतलाने के लिए जिनेन्द्रदेव की पूजा की घोषणा ही कर रहा हो ॥४९॥
उस हाथी का शरीर जम्बूद्वीप के समान विशाल और स्थूल था तथा वह कुलाचलों के समान लम्बे और सरोवरों से सुशोभित दाँतों को धारण कर रहा था इसलिए वह ठीक जम्बूद्वीप के समान जान पड़ता था ॥५०॥
वह हाथी अपने शरीर की सफेदी से श्वेत द्वीप की शोभा धारण कर रहा था और झरते हुए मदजल के निर्झरनों से चलते-फिरते कैलाश पर्वत के समान सुशोभित हो रहा था ॥५१॥
इस प्रकार हाथियों की सेना के अधिपति देव ने जिसके विस्तार आदि का वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसा बड़ा भारी ऐरावत हाथी बनाया ॥५२॥
जिस प्रकार किसी पर्वत के शिखर पर फूले हुए कमलों से युक्त सरोवर सुशोभित होता है उसी प्रकार उस ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हुआ इन्द्र भी अतिशय सुशोभित हो रहा था ॥५३॥
उस ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत थे, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल थे और उन लम्बे-लम्बे प्रत्येक दलों पर, जिनके मुखरूपी कमल मन्द हास्य से सुशोभित हैं, जिनकी भौंहें अतिशय सुन्दर हैं और जो दर्शकों के चित्तरूपी वृक्षों में आनन्दरूपी अंकुर उत्पन्न करा रही हैं ऐसी बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ लयसहित नृत्य कर रही थीं ॥५४-५६॥
जो हास्य और शृंगाररस से भरा हुआ था, जो भाव और लय से सहित था तथा जिसमें कैशिकी नामक वृत्ति का ही अधिकतर प्रयोग हो रहा था ऐसे अप्सराओं के उस नृत्य को देखते हुए देव लोग बड़े ही प्रसन्न हो रहे थे ॥५७॥
उस प्रयाण के समय इन्द्र के आगे अनेक अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और जिनके कण्ठ अनेक राग रागिनियों से भरे हुए हैं ऐसी किन्नरी देवियाँ जिनेन्द्रदेव के विजयगीत गा रही थीं ॥५८॥
तदनन्तर जिनमें अनेक पताकाएं फहरा रही थी, जिनमें छत्र और चमर सुशोभित हो रहे थे, और जिनमें चारों ओर देव ही देव फैले हुए थे ऐसी बत्तीस इन्द्रों की सेनाएं फैल गयी ॥५९॥
जिसमें अप्सराओं के केसर से रँगे हुए स्तनरूपी चक्रवाक पक्षियों के जोड़े निवास कर रहे हैं, जो अप्सराओं के मुखरूपी कमलों से ढका हुआ है, जिसमें अप्सराओं के नेत्ररूपी नीले कमल सुशोभित हो रहे हैं और जिसमें उन्हीं अप्सराओं के हारों की किरणरूप ही स्वच्छ जल भरा हुआ हैं ऐसे आकाशरूपी सुन्दर सरोवर में देवों के ऊपर जो चमरों के समूह ढोले जा रहे थे वे ठीक हंसों के समान जान पड़ते थे ॥६०-६१॥
स्वच्छ तलवार के समान सुशोभित आकाश कहीं-कहीं पर इन्द्रनीलमणि के बने हुए आभूषणों को कान्ति से व्याप्त होकर अपनी निराली ही कान्ति धारण कर रहा था ॥६२॥
वही आकाश कहं पर पद्मराग मणियों की कान्ति से व्याप्त हो रहा था जिससे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो समस्त दिशाओं को अनुरंजित करने वाली सन्ध्याकाल की लालिमा ही धारण कर रहा हो ॥६३॥
कहीं पर मरकतमणि की छाया से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शैवाल से सहित और किनारे पर स्थित समुद्र का जल ही हो ॥६४॥
देवों के आभूषणों में लगे मोतियों के समूह से चित्र-विचित्र तथा मूंगाओं से व्याप्त हुआ वह नीला आकाश समुद्र की शोभा को धारण कर रहा था ॥६५॥
जो शरीर से पतली हैं, जिनका आकार सुन्दर हैं और जिनके वस्त्र तथा आभूषण अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी देवांगनाएं उस समय आकाश में ठीक कल्पलताओं के समान सुशोभित हो रही थीं ॥६६॥
उन देवाङ्गनाओं के कुछ-कुछ हँसते हुए मुख कमलों के समान थे, नेत्र नीलकमल के समान सुशोभित थे और स्वयं लावण्यरूपी जल से भरी हुई थीं इसलिए वे ठीक सरोवरों के समान शोभायमान हो रही थीं ॥६७॥
कमल समझकर उन देवांगनाओं के मुखों की ओर दौड़ती हुई भ्रमरों की माला कामदेव के धनुष की डोरी के समान सुशोभित हो रही थी ॥६८॥
जिनके स्तनों के समीप भाग में हार पड़े हुए हैं ऐसी वे देवांगनाएँ उस समय ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो साँप की काँचली के समान कान्ति वाली चोली ही धारण कर रही हों ॥६९॥
उस समय वह देवों का आगमन एक समुद्र के समान जान पड़ता था क्योंकि समुद्र जिस प्रकार अपनी गरजना से वेला अर्थात् ज्वार-भाटा को धारण करता है उसी प्रकार वह देवों का आगमन भी देवों के नगाड़ों के बड़े भारी शब्दों से पूजा-वेला अर्थात् भगवान् की पूजा के समय को धारण कर रहा था, और समुद्र में जिस प्रकार लहरें उठा करती हैं उसी प्रकार उस देवों के आगमन में इधर-उधर चलते हुए देवरूपी लहरें उठ रही थी ॥७०॥
जिस समय वह प्रकाशमान देवों की सेना नीचे की ओर आ रही था उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो ज्योतिषी देवों की एक दूसरी ही सृष्टि उत्पन्न हुई हो और इसलिए ही ज्योतिषी देवों के समूह लज्जा से कान्तिरहित होकर अदृश्य हो गये हों ॥७१॥
उस समय देवांगनाओं के रूपों और ऊँचे-नीचे हाथी, घोड़े आदि की सवारियों से वह आकाश एक चित्रपट की शोभा धारण कर रहा था ॥७२॥
अथवा उस समय यह आकाश देवों के शरीर की कान्तिरूपी बिजली, देवों के आभूषणरूपी इन्द्रधनुष और देवों के हाथीरूपी काले बादलों से वर्षाऋतु की शोभा धारण कर रहा था ॥७३॥
इस प्रकार जब सब देव अपनी-अपनी देवियोंसहित सवारियों और विमानों के साथ-साथ आ रहे थे तब खेद की बात थी कि स्वर्गलोक बहुत देर तक शून्य हो गया था ॥७४॥
इस प्रकार उस समय समस्त आकाश को घेरकर आये हुए सुर और असुरों से यह जगत् ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उत्पन्न होता हुआ कोई दूसरा दिव्य स्वर्ग ही हो ॥७५॥
अथानन्तर जिसमें देवरूपी कारीगरों ने सैकड़ों प्रकार की उत्तम-उत्तम रचनाएँ की हैं ऐसा भगवान् वृषभदेव का समवसरण देवों ने दूर से ही देखा ॥७६॥
जो बारह योजन विस्तार वाला है और जिसका तलभाग अतिशय देदीप्यमान हो रहा है ऐसा इन्द्रनील मणियों से बना हुआ वह भगवान् का समवसरण बहुत ही सुशोभित हो रहा था ॥७७॥
इन्द्रनील मणियों से बना और चारों ओर से गोलाकार वह समवसरण ऐसा जान पड़ता था मानो तीन जगत् की लक्ष्मी के मुख देखने के लिए मंगलरूप एक दर्पण ही हो ॥७८॥
जिस समवसरण के बनाने में सब कामों में समर्थ इन्द्र स्वयं सूत्रधार था ऐसे उस समवसरण की वास्तविक रचना का कौन वर्णन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं, फिर भी उसकी शोभा के समूह का कुछ थोड़ा-सा वर्णन करता हूँ क्योंकि उसके सुनने से भव्य जीवों का मन प्रसन्नता को प्राप्त होता है ॥७९-८०॥
उस समवसरण के बाहरी भाग में रत्नों की धूलि से बना हुआ एक धूलीसाल नाम का घेरा था जिसकी कान्ति अतिशय देदीप्यमान थी ओर जो अपने समीप के भूभाग को अलंकृत कर रहा था ॥८१॥
वह धूलीसाल ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो अतिशय देदीप्यमान और वलय (चूड़ी) का आकार धारण करता हुआ इन्द्रधनुष ही धूलीसाल के बहाने से उस समवसरण भूमि की सेवा कर रहा हो ॥८२॥
कटिसूत्र की शोभा को धारण करता हुआ और वलय के आकार का वह धूलीसाल का घेरा जिनेन्द्रदेव के उस समवसरण को चारों ओर से घेरे हुए था ॥८३॥
अनेक प्रकार के रत्नों की धूलि से बना हुआ वह धूलीसाल कहीं तो अंजन के समूह के समान काला-काला सुशोभित हो रहा था, कहीं सुवर्ण के समान पीला-पीला लग रहा था और कहीं मूंगा की कान्ति के समान लाल-लाल भासमान हो रहा था ॥८४॥
जिसकी किरणें ऊपर की और उठ रही है ऐसे तोते के पंखों के समान हरित वर्ण की मणियों की धूलि से कही-कहीं व्याप्त हुआ वह धूलीसाल ऐसा अच्छा सुशोभित हो रहा था मानो कमलिनी के छोटे-छोटे नये पत्तों से ही व्याप्त हो रहा हो ॥८५॥
वह कहीं-कहीं पर चन्द्रकान्तमणि के चूर्ण से बना हुआ था और चांदनी की शोभा धारण कर रहा था फिर भी लोगों के चित्त को अनुरक्त अर्थात लाल-लाल कर रहा था यह भारी आश्चर्य की बात थी (परिहार पक्ष में-अनुराग से युक्त कर रहा था) ॥८६॥
कहीं पर परस्पर में मिली हुई मरकतमणि और पद्मरागमणि की किरणों से वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी आंगन में इन्द्रधनुष की शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥८७॥
कहीं पर पद्मरागमणि और इन्द्रनीलमणि के प्रकाश से व्याप्त हुआ वह धूलीसाल ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के द्वारा चूर्ण किये गये काम और क्रोध के अंशों से ही बना हो ॥८८॥
कहीं-कहीं पर सुवर्ण की धूलि के समूह से देदीप्यमान होता हुआ वह धूलीसाल ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो 'वह धूर्त कामदेव कहाँ छिपा है उसे देखो, वह हमारे द्वारा जलाये जाने के योग्य है' ऐसा विचारकर ऊँची उठी हुई अग्नि का समूह हो । इसके सिवाय वह छोटे-बड़े रत्नों की किरणावली से आकाश को भी व्याप्त कर रहा था ॥८९-९०॥
इस धूलीसाल के बाहर चारों दिशाओं में सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार तोरणद्वार सुशोभित हो रहे थे, उन तोरणों में मत्स्य के आकार बनाये गये थे और उन पर रत्नों की मालाएँ लटक रही थीं ॥९१॥
उस धूलीसाल के भीतर कुछ जाकर गलियों के बीचो-बीच में सुवर्ण के बने हुए और अतिशय ऊँचे मानस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे । भावार्थ-चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तम्भ था ॥९२॥
जिस जगती पर मानस्तम्भ थे वह जगती चार-चार गोपुरद्वारों से युक्त तीन कोटों से घिरी हुई थी, उसके बीच में एक पीठिका थी । वह पीठिका तीनों लोकों के स्वामी जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के जल से पवित्र थी, उस पर चढ़ने के लिए सुवर्ण की सोलह सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, मनुष्य देव-दानव आदि सभी उसकी पूजा करते थे और उस पर सदा पूजा के अर्थ पुष्पों का उपहार रखा रहता था, ऐसी उस पीठिका पर आकाश को स्पर्श करते हुए वे मानस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे जो दूर से दिखाई देते ही मिथ्यादृष्टि जीवों का अभिमान बहुत शीघ्र नष्ट कर देते थे ॥९३-९५॥
वे मानस्तम्भ आकाश का स्पर्श कर रहे थे, महाप्रमाण के धारक थे, घण्टाओं से घिरे हुए थे, और चमर तथा ध्वजाओं से सहित थे इसलिए ठीक दिग्गजों के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि दिग्गज भी आकाश का स्पर्श करने वाले, महाप्रमाण के धारक, घण्टाओं से युक्त तथा चमर और ध्वजाओं से सहित होते हैं ॥९६॥
चार मानस्तम्भ चार दिशाओं में सुशोभित हो रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो उन मानस्तम्भों के छल से भगवान् के अनन्तचतुष्टय ही प्रकट हुए हो ॥९७॥
उन मानस्तम्भों के मूल भाग में जिनेन्द्र भगवान् की सुवर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान थीं जिनकी इन्द्र लोग क्षीरसागर के जल से अभिषेक करते हुए पूजा करते थे ॥९८॥
वे मानस्तम्भ निरन्तर बजते हुए बड़े-बड़े बाजों से निरन्तर होने वाले मङ्गलमय गानों और निरन्तर प्रवृत्त होने वाले नृत्यों से सदा सुशोभित रहते थे ॥९५॥
ऊपर जगती के बीच में जिस पीठिका का वर्णन किया जा चुका है उसके मध्यभाग में तीन कटनीदार एक पीठ था । उस पीठ के अग्रभाग पर ही वे मानस्तम्भ प्रतिष्ठित थे, उनका मूल भाग बहुत ही सुन्दर था, वे सुवर्ण के बने हुए थे, बहुत ऊँचे थे, उनके मस्तक पर तीन छत्र फिर रहे थे, इन्द्र के द्वारा बनाये जाने के कारण उनका दूसरा नाम इन्द्रध्वज भी रूढ़ हो गया था । उनके देखने से मिथ्यादृष्टि जीवों का सब मान नष्ट हो जाता था, उनका परिमाण बहुत ऊँचा था और तीन लोक के जीव उनका सम्मान करते थे इसलिए विद्वान् लोग उन्हें सार्थक नाम से मानस्तम्भ कहते थे ॥१००-१०२॥
जो अनेक प्रकार के कमलों से सहित थीं, जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो भव्य जीवों की विशुद्धता के समान जान पड़ती थीं ऐसी बावड़ियाँ उन मानस्तम्भों के समीपवर्ती भूभाग को अलंकृत कर रही थीं ॥१०३॥
जो फूले हुए सफेद और नीले कमलरूपी सम्पदा से सहित थीं ऐसी वे बावड़ियाँ इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं मानो भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की लक्ष्मी को देखने के लिए पृथ्वी ने अपने नेत्र ही उघाड़े हों ॥१०४॥
जिन पर भ्रमरों का समूह बैठा हुआ है ऐसे फूले हुए नीले और सफेद कमलों से ढँकी हुई वे बावड़ियाँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो अंजनसहित काले और सफेद नेत्रों से ही ढँक रही हों ॥१०५॥
वे बावड़ियों एक-एक दिशा में चार-चार थीं और उनके किनारे पर पक्षियों की शब्द करती हुई पंक्तियां बैठी हुई थीं जिनसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन्होंने शब्द करती हुई ढीली करधनी ही धारण की हो ॥१०६॥
उन बावड़ियों में मणियों की सीढ़ियाँ लगी हुई थीं, उनके किनारे की ऊँची उठी हुई जमीन स्फटिकमणि की बनी हुई थी और उनमें पृथिवी से निकलता हुआ लावण्यरूपी जल भरा हुआ था, इस प्रकार वे प्रसिद्ध बावड़ियाँ कृत्रिम नदी के समान सुशोभित हो रही थीं ॥१०७॥
वे बावड़ियाँ भ्रमरों की गुंजार से ऐसी जान पड़ती थीं मानो अच्छी तरह से अरहन्त भगवान् के गुण ही गा रही हो, उठती हुई बड़ी-बड़ी लहरों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्र भगवान् की विजय से सन्तुष्ट होकर नृत्य ही कर रही हों, चकवा-चकवियों के शब्दों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्रदेव का स्तवन ही कर रही हों, स्वच्छ जल धारण करने से ऐसी जान पड़ती थीं मानो सन्तोष ही प्रकट कर रही हों, और किनारे पर बने हुए पाँव धोने के कुण्डों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपने-अपने पुत्रों से सहित ही हों, इस प्रकार नन्दोत्तरा आदि नामों को धारण करने वाली बावड़ियाँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं ॥१०८-११०॥
उन बावड़ियों से थोड़ी ही दूर आगे जाने पर प्रत्येक वीथी (गली) को छोड़कर जल से भरी हुई एक परिखा थी जो कि कमलों से व्याप्त थी और समवसरण की भूमि को चारों ओर से घेरे हुए थी ॥१११॥
स्वच्छ जल से भरी हुई और मनुष्यों को पवित्र करने वाली वह परिखा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो परिखा का रूप धरकर आकाशगंगा ही भगवान् की सेवा करने के लिए आयी हो ॥११२॥
वह परिखा स्फटिकमणि के निष्यन्द के समान स्वच्छ जल से भरी हुई थी और उसमें समस्त तारा तथा नक्षत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, इसलिए वह आकाश की शोभा धारण कर रही थी ॥११३॥
वह परिखा अपने रत्नमयी किनारों पर मधुर शब्द करती हुई पक्षियों की माला धारण कर रही थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो लहरोंरूपी हाथों से पकड़ने योग्य, उत्तम कान्ति वाली करधनी ही धारण कर रही हो ॥११४॥
जलचर जीवों की भुजाओं के संघट्टन से उठी हुई और वायु-द्वारा ताड़ित हुई लहरों से वह परिखा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवान् के विजयोत्सव में सन्तोष से नृत्य ही कर रही हो ॥११५॥
लहरों के भीतर घूमते-घूमते जब कभी ऊपर प्रकट होने वाली मछलियों के समूह से भरी हुई वह परिखा ऐसी जान पड़ती थी मानो देवांगनाओं के नेत्रों के विलासों (कटाक्षों) का अभ्यास ही कर रही हो ॥११६॥
जो मछलियाँ उस परिखा की लहरों के बीच में बार-बार डूब रही थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो देवांगनाओं के नेत्रों के विलासों से पराजित होकर ही लज्जावश लहरों में छिप रही थीं ॥११७॥
उस परिखा के भीतरी भूभाग को एक लतावन घेरे हुए था, वह लतावन लताओं, छोटी-छोटी झाड़ियों और वृक्षों में उत्पन्न हुए सब ऋतुओं के फूलों से सुशोभित हो रहा था ॥११८॥
उस लतावन में पुष्परूपी हास्य से उज्ज्वल अनेक पुष्पलताएँ सुशोभित हो रही थीं जो कि स्पष्टरूप से ऐसी जान पड़ती थीं मानो देवांगनाओं के मन्द हास्य का अनुकरण ही कर रही हों ॥११९॥
मनोहर गुंजार करते हुए भ्रमरों से जिनका अन्त भाग ढका हुआ है ऐसी उस वन की लताएँ इस भाँति सुशोभित हो रही थीं मानो उन्होंने अपना शरीर नील वस्त्र से ही ढक लिया हो ॥१२०॥
उस लतावन की अशोक लताएँ लाल-लाल नये पत्ते धारण कर रही थी । और उनसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अप्सराओं के लाल-लाल हाथरूपी पल्लवों के साथ स्पर्द्धा ही कर रही हों ॥१२१॥
मन्द-मन्द वायु के द्वारा उड़ी हुई केशर से व्याप्त हुआ और जिसने समस्त दिशाएँ पीली-पीली कर दी है ऐसा वहाँ का आकाश सुगन्धित चूर्ण (अथवा चँदोवे) की शोभा धारण कर रहा था ॥१२२॥
उस लतावन में प्रत्येक फूल पर मधुर शब्द करते हुए भ्रमर बैठे हुए थे जिनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो हजार नेत्रों को धारण करने वाले इन्द्र के विलास की विडम्बना ही कर रहा हो ॥१२३॥
फूलों की मंजरियों के समूह से सघन पराग को ग्रहण करता हुआ और लताओं को हिलाता हुआ वायु उस लतावन में धीरे-धीरे बह रहा था ॥१२४॥
उस लतावन में बने हुए मनोहर क्रीड़ा पर्वत, शय्याओं से सुशोभित लतागृह और ठण्डी-ठण्डी हवा देवांगनाओं को बहुत ही सन्तोष पहुंचाती थी ॥१२५॥
उस वन में अनेक कुसुमित अर्थात् फूली हुई और रजस्वला अर्थात् पराग से भरी हुई लताओं का मधुव्रत अर्थात् भ्रमर स्पर्श कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि मधुपायी अर्थात् मद्य पीने वालों के पवित्रता कहाँ हो सकती है । भावार्थ-जिस प्रकार मधु (मदिरा) पान करने वाले पुरुषों के पवित्र और अपवित्र का कुछ भी विचार नहीं रहता, वे रजोधर्म से युक्त ऋतुमती स्त्री का भी स्पर्श करने लगते हैं, इसी प्रकार मधु (पुष्परस) का पान करने वाले उन भ्रमरों के भी पवित्र-अपवित्र का कुछ भी विचार नहीं था, क्योंकि वे ऊपर कही हुई कुसुमित और रजस्वला लतारूपी स्त्रियों का स्पर्श कर रहे थे । यथार्थ में कुसुमित और रजस्वला लताएँ अपवित्र नहीं होतीं । यहाँ कवि ने श्लेष और समासोक्ति अलंकार की प्रधानता से ही ऐसा वर्णन किया है ॥१२६॥
उस वन के लतागृहों के बीच में पड़ी हुई बर्फ के समान शीतल स्पर्श वाली चन्द्रकान्तमणि की शिलाएं इन्द्रों के विश्राम के लिए हुआ करती थीं ॥१२७॥
उस लतावन के भीतर की ओर कुछ मार्ग उल्लंघन कर निषध पर्वत के आकार का सुवर्णमय पहला कोट था जो कि उस समवसरण भूमि को चारों ओर से घेरे हुए था ॥१२८॥
उस समवसरण भूमि के चारो ओर स्थित रहने वाला वह कोट ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मनुष्यलोक की भूमि के चारों ओर स्थित हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो ॥१२९॥
उस कोट को देखकर ऐसा मालूम होता था मानो आकाशरूपी आँगन को चित्र-विचित्र करने वाला सैकड़ों इन्द्रधनुषों का समूह ही कोट के बहाने से आकर उस समवसरण भूमि को अलंकृत कर रहा हो ॥१३०॥
उस कोट के ऊपरी भाग पर स्पष्ट दिखाई देते हुए जो मोतियों के समूह जड़े हुए थे वे क्या यह ताराओं का समूह है, इस प्रकार लोगों की शंका के स्थान हो रहे थे ॥१३१॥
उस कोट में कहीं-कहीं जो मूँगाओं के समूह लगे हुए थे वे पद्मरागमणियों की किरणों से और भी अधिक लाल हो गये थे और सन्ध्याकाल के बादलों की शोभा प्रकट करने के लिए समर्थ हो रहे थे ॥१३२॥
वह कोट कहीं तो नवीन मेघ के समान काला था, कहीं घास के समान हरा था, कहीं इन्द्रगोप के समान लाल-लाल था, कहीं बिजली के समान पीला-पीला था और कहीं अनेक प्रकार के रत्नों की किरणों से इन्द्रधनुष की शोभा उत्पन्न कर रहा था । इस प्रकार वह वर्षाकाल की शोभा की विडम्बना कर रहा था ॥१३३-१३४॥
वह कोट कहीं तो युगल रूप से बने हुए हाथी-घोड़े और व्याघ्रों के आकार से व्याप्त हो रहा था, कहीं तोते, हंस और मयूरों के जोड़ों से उद्भासित हो रहा था, कहीं अनेक प्रकार के रत्नों से बने हुए मनुष्य और स्त्रियों के जोड़ों से सुशोभित हो रहा था, कहीं भीतर और बाहर की ओर बनी हुई कल्पलताओं से चित्रित हो रहा था, कहीं पर चमकते हुए रत्नों की किरणों से हँसता हुआ-सा जान पड़ता था और कहीं पर फैलती हुई प्रतिध्वनि से सिंहनाद करता हुआ-सा जान पड़ता था ॥१३५-१३७॥
जिसका आकार बहुत ही देदीप्यमान है, जिसने अपने चमकीले रत्नों की किरणों से आकाशरूपी आँगन को घेर लिया है और जो निषध कुलाचल के साथ ईर्ष्या करने वाला है ऐसा वह कोट बहुत ही अधिक शोभायमान हो रहा था ॥१३८॥
उस कोट के चारों दिशाओं में चाँदी के बने हुए चार बड़े-बड़े गोपुरद्वार सुशोभित हो रहे थे जो कि विजयार्ध पर्वत के शिखरों के समान आकाश का स्पर्श कर रहे थे ॥१३९॥
चांदनी के समूह के समान निर्मल, ऊँचे और तीन-तीन खण्ड वाले वे गोपुरद्वार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो तीनों लोकों की शोभा को जीतकर हँस ही रहे हों ॥१४०॥
वे गोपुरद्वार पद्मरागमणि के बने हुए और आकाश को उल्लंघन करने वाले शिखरों से सहित थे तथा अपनी फैलती हुई लाल-लाल किरणों के समूह से ऐसे जान पड़ते थे मानो दिशाओं को नये-नये कोमल पत्तों से युक्त ही कर रहे हों ॥१४१॥
इन गोपुर-दरवाजों पर कितने ही गाने वाले देव जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव के गुण गा रहे थे, कितने ही उन्हें सुन रहे थे और कितने ही मन्द-मन्द मुसकाते हुए नृत्य कर रहे थे ॥१४२॥
उन गोपुर-दरवाजों में से प्रत्येक दरवाजे पर भृंगार कलश और दर्पण आदि एक सौ आठ मङ्गलद्रव्यरूपी सम्पदाएं सुशोभित हो रही थी ॥१४३॥
तथा प्रत्येक दरवाजे पर रत्नमय आभूषणों की कान्ति के भार से आकाश को अनेक वर्ण का करने वाले सौ-सौ तोरण शोभायमान हो रहे थे ॥१४४॥
उन प्रत्येक तोरणों में जो आभूषण बँधे हुए थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वभाव से ही सुन्दर भगवान् के शरीर में अपने लिए अवकाश न देखकर उन तोरणों में ही आकर बँध गये हों ॥१४५॥
उन गोपुरद्वारों के समीप प्रदेशों में जो शंख आदि नौ निधियाँ रखी हुई थीं वे जिनेन्द्र भगवान् के तीनों लोकों को उल्लंघन करने वाले भारी प्रभाव को सूचित कर रही थी ॥१४६॥
अथवा दरवाजे के बाहर रखी हुई वे निधियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो मोहरहित, तीनों लोकों के स्वामी भगवान् जिनेन्द्रदेव ने उनका तिरस्कार कर दिया था इसलिए दरवाजे के बाहर होकर दूर से ही उनकी सेवा कर रही हों ॥१४७॥
उन गोपुर-दरवाजों के भीतर जो बड़ा भारी रास्ता था उसके दोनों ओर दो नाट्यशालाएँ थीं, इस प्रकार चारों दिशाओं के प्रत्येक गोपुर-द्वार में दो-दो नाट्यशालाएं थीं ॥१४८॥
वे दोनों ही नाट्यशालाएँ तीन-तीन खण्ड की थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो लोगों के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन भेद वाला मोक्ष का मार्ग ही बतलाने के लिए तैयार खड़ी हों ॥१४९॥
जिनके बड़े-बड़े खम्भे सुवर्ण के बने हुए हैं, जिनकी दीवालें देदीप्यमान स्फटिक मणि की बनी हुई हैं और जिन्होंने अपने रत्नों के बने हुए शिखरों से आकाश के प्रदेश को व्याप्त कर लिया है ऐसी वे दोनों नाट्यशालाएँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं ॥१५०॥
उन नाट्यशालाओं की रङ्गभूमि में ऐसी अनेक देवांङ्गनाएँ नृत्य कर रही थीं, जिनके शरीर अपनी कान्तिरूपी सरोवर में डूबे हुए थे और जिससे वे बिजली के समान सुशोभित हो रही थीं ॥१५१॥
उन नाट्यशालाओं में इकट्ठी हुई वे देवांगनाएँ जिनेन्द्रदेव की विजय के गीत गा रही थीं और उसी विजय का अभिनय करती हुई पुष्पाञ्जलि छोड़ रही थीं ॥१५२॥
उन नाट्यशालाओं में वीणा की आवाज के साथ-साथ जो मृदंग की आवाज उठ रही थी वह मयूरों को वर्षाऋतु के प्रारम्भ होने की शंका उत्पन्न कर रही थीं ॥१५३॥
वे दोनों ही नाट्यशालाएँ शरद्ऋतु के बादलों के समान सफेद थीं इसलिए उनमें नृत्य करती हुई वे देवाङ्गनाएँ ठीक बिजली की शोभा फैला रही थीं ॥१५४॥
उन नाट्यशालाओं में किन्नर जाति के देव उत्तम संगीत के साथ-साथ मधुर शब्दों वाली वीणा बजा रहे थे जिससे देखने वालों की चित्तवृत्तियाँ उनमें अतिशय आसक्ति को प्राप्त हो रही थी ॥१५५॥
उन नाट्यशालाओं से कुछ आगे चलकर गलियों के दोनों ओर दो-दो धूपघट रखे हुए थे जो कि फैलते हुए धूप के धुएँ से आकाशरूप आँगन को व्याप्त कर रहे थे ॥१५६॥
उन धूपघटों के धुएँ से भरे हुए आकाश को देखकर आकाश में चलने वाले देव अथवा विद्याधर असमय में ही वर्षाऋतु के मेघों की आशंका करने लगे थे ॥१५७॥
मन्द-मन्द वायु के वश से उड़ा हुआ और दिशाओं को सुगन्धित करता हुआ वह धूप ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उच्छ्वास लेने से प्रकट हुई पृथिवी देवी के मुख की सुगन्धि ही हो ॥१५८॥
उस धूप की सुगन्धि को सूँघकर सब ओर फैली हुई भ्रमरों की पङ्क्तियाँ दिशारूपी स्त्रियों के मुख पर फैले हुए केशों की शोभा बढ़ा रहे थे ॥१५९॥
एक ओर उन धूपघटों से सुगन्धि निकल रही थी और दूसरी ओर देवांगनाओं के मुख से सुगन्धित निश्वास निकल रहा था सो व्याकुल हुए भ्रमर दोनों को ही सूँघ रहे थे ॥१६०॥
वहाँ पर मेघों की गर्जना को जीतने वाले मृदंगों के शब्दों से तथा पड़ती हुई पुष्पवृष्टि से सदा वर्षाकाल विद्यमान रहता था ॥१६१॥
धूपघटों से कुछ आगे चलकर मुख्य गलियों के बगल में चार-चार वन की वीथियाँ थी जो कि ऐसी जान पड़ती थीं मानो नन्दन आदि वनों की श्रेणियाँ ही भगवान् के दर्शन करने के लिए आयी हो ॥१६२॥
वे चारों वन, अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम के वृक्षों के थे, उन सब पर फूल खिले हुए थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सन्तोष से हंस ही रहे हों ॥१६३॥
फल और फूलों से सुशोभित अनेक प्रकार के वृक्षों से वे वन ऐसे जान पड़ते थे मानो जगद्गुरु जिनेन्द्रदेव के लिए अर्घ लेकर ही खड़े हों ॥१६४॥
उन वनों में जो वृक्ष थे वे पवन से हिलती हुई शाखाओं से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हर्ष से हाथ हिला-हिलाकर बार-बार नृत्य ही कर रहे हों ॥१६५॥
अथवा वे वृक्ष, उत्तम छाया से सहित थे, अनेक फलों से युक्त थे, तुंग अर्थात् ऊँचे थे, मनुष्यों के सन्तोष के कारण थे, सुख देने वाले और शीतल थे इसलिए किन्हीं उत्तम राजाओं के समान जान पड़ते थे क्योंकि उत्तम राजा भी उत्तम छाया अर्थात् आश्रय से सहित होते हैं, अनेक फलों से युक्त होते हैं, तुंग अर्थात् उदारहृदय होते हैं, मनुष्यों के सुख के कारण होते हैं और सुख देने वाले तथा शान्त होते हैं ॥१६६॥
फूलों की सुगन्धि से बुलाये हुए और इसीलिए आकर इकट्ठे हुए तथा मधुर गुंजार करते हुए भ्रमरों के समूह से वे वृक्ष ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्रदेव का गुणगान ही कर रहे हों ॥१६७॥
कहीं-कहीं विरलरूप से वे वृक्ष ऊपर से फूल छोड़ रहे थे जिनसे ऐसे मालूम होते थे मानो जगद्गुरु भगवान् के लिए भक्तिपूर्वक फूलों की भेंट ही कर रहे हों ॥१६८॥
कहीं-कहीं पर मधुर शब्द करते हुए भ्रमरों के मंद-मनोहर शब्दों से ये वन ऐसे जान पड़ते थे मानो चारों ओर से कामदेव की तर्जना ही कर रहे हों ॥१६९॥
उन वनों में कोयलों के जो मधुर शब्द हो रहे थे उनसे वे वन ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्र भगवान की सेवा करने के लिए इन्द्रों को ही बुला रहे हों ॥१७०॥
उन वनों में वृक्षों के नीचे की पूरी फूलों के पराग से ढकी हुई थी जिससे वह ऐसी मनोहर जान पड़ती थी मानो उसका तलभाग सुवर्ण की धूलि से ही ढक रहा हो ॥१७१॥
इस प्रकार वे वन वृक्षों से बहुत ही रमणीय जान पड़ते थे, वहाँ पर होने वाली फूलों की वर्षा ऋतुओं के परिवर्तन को कभी नहीं देखती थी अर्थात् वहाँ सदा ही सब ऋतुओं के फूल फूले रहते थे ॥१७२॥
उन वनों के वृक्ष इतने अधिक प्रकाशमान थे कि उनसे वहाँ न तो रात का ही व्यवहार होता था और न दिन का ही । वहां सूर्य की किरणों का प्रवेश नहीं हो पाता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वहाँ के वृक्षों की शीतलता से डरकर ही सूर्य ने अपने कर अर्थात् किरणों (पक्ष में हाथों) का संकोच कर लिया हो ॥१७३॥
उन वनों के भीतर कहीं पर तिखूंटी और कहीं पर चौखूँटी बावड़ियाँ थीं तथा वे बावड़ियाँ स्नान कर बाहर निकली हुई देवांगनाओं के स्तनों पर लगी हुई केसर के घुल जानें से पीली-पीली हो रही थीं ॥१७४॥
उन वनों में कहीं कमलों से युक्त छोटे-छोटे तालाब थे, कहीं कृत्रिम पर्वत बने हुए थे और कहीं मनोहर महल बने हुए थे और कहीं पर क्रीड़ा-मण्डप बने हुए थे ॥१७५॥
कहीं सुन्दर वस्तुओं के देखने के घर (अजायबघर) बने हुए थे, कहीं चित्रशालाएँ बनी हुई थी, और कहीं एक खण्ड की तथा कहीं दो तीन आदि खण्डों की बड़े-बड़े महलों की पंक्तियाँ बनी हुई थीं ॥१७६॥
कहीं हरी-हरी घास से युक्त भूमि थी कहीं इन्द्रगोप नाम के कीड़ों से व्याप्त पृथ्वी थी, कहीं अतिशय मनोज्ञ तालाब थे और कहीं उत्तम बालू के किनारों से सुशोभित नदियाँ बह रही थीं ॥१७७॥
वे चारों ही वन उत्तम स्त्रियों के समान सेवन करने योग्य थे क्योंकि वे वन भी उत्तम स्त्रियों के समान ही मनोहर थे, मेदुर अर्थात् अतिशय चिकने थे, उन्निद्रकुसुम अर्थात् फूले हुए फूलों से सहित (पक्ष में ऋतुधर्म से सहित) थे, सश्री अर्थात् शोभा से सहित थे, और कामद अर्थात् इच्छित पदार्थों के (पक्ष में काम के) देने वाले थे ॥१७८॥
अथवा वे वन स्त्रियों के उत्तरीय (ओढ़ने की चूनरी) वस्त्र के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार स्त्रियों का उत्तरीय वस्त्र आतप की बाधा को नष्ट कर देता है उसी प्रकार उन वनों ने भी आतप की बाधा को नष्ट कर दिया था, स्त्रियों का उत्तरीय वस्त्र जिस प्रकार उत्तम पल्लव अर्थात् अंचल से सुशोभित होता है उसी प्रकार वे वन भी पल्लव अर्थात् नवीन कोमल पत्तों से सुशोभित हो रहे थे और स्त्रियों का उत्तरीय वस्त्र जिस प्रकार पयोधर अर्थात् स्तनों का स्पर्श करता है उसी प्रकार वे वन भी ऊँचे होने के कारण पयोधर अर्थात् मेघों का स्पर्श कर रहे थे ॥१७९॥
उन चारों वनों में से पहला अशोक वन जो कि प्राणियों के शोक को नष्ट करने वाला था, लाल रंग के फूल और नवीन पत्तों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अपने अनुराग (प्रेम) का ही वमन कर रहा हो ॥१८०॥
प्रत्येक गाँठ पर सात-सात पत्तों को धारण करने वाले सप्तछन्द वृक्षों का दूसरा वन भी सुशोभित हो रहा था जो कि ऐसा जान पड़ता था मानो वृक्षों के प्रत्येक पर्व पर भगवान् के सज्जातित्व सद्गृहस्थत्व पारिव्राज्य आदि सात परम स्थानों को ही दिखा रहा हो ॥१८१॥
फूलों के भार से सुशोभित तीसरा चम्पक वृक्षों का वन भी सुशोभित हो रहा था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान की सेवा करने के लिए दीपांग जाति के कल्पवृक्षों का वन ही आया हो ॥१८२॥
तथा कोयलों के मधुर शब्दों से मनोहर चौथा आम के वृक्षों का वन भी ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पवित्र उपदेश देने वाले भगवान की भक्ति से स्तुति ही कर रहा हो ॥१८३॥
अशोक वन के मध्य भाग में एक बड़ा भारी अशोक का वृक्ष था जो कि सुवर्ण की बनी हुई तीन कटनीदार ऊंची पीठिका पर स्थित था ॥१८४॥
वह वृक्ष, जिनमें चार-चार गोपुरद्वार बने हुए हैं ऐसे तीन कोटों से घिरा हुआ था तथा उसके समीप में ही छत्र चमर, भृङ्गार और कलश आदि मंगलद्रव्य रखे हुए थे ॥१८५॥
जिस प्रकार जम्बूद्वीप की मध्यभूमि में जम्बूवृक्ष सुशोभित होता हे उसी प्रकार उस अशोकवन की मध्यभूमि में वह अशोक नामक चैत्यवृक्ष सुशोभित हो रहा था ॥१८६॥
जिसने अपनी शाखाओं के अग्रभाग से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रखा है ऐसा वह अशोक वृक्ष ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो समस्त संसार को अशोकमय अर्थात् शोकरहित करने के लिए ही उद्यत हुआ हो ॥१८७॥
समस्त दिशाओं को सुगन्धित करने वाले फूलों से जिसने आकाश को व्याप्त कर लिया है ऐसा यह चैत्यवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सिद्ध-विद्याधरों के मार्ग को ही रोक रहा हो ॥१८८॥
वह वृक्ष नीलमणियों के बने हुए अनेक प्रकार के पत्तों से व्याप्त हो रहा था और पद्मराग मणियों के बने हुए फूलों के गुच्छों से घिरा हुआ था ॥१८९॥
सुवर्ण की बनी हुई उसकी बहुत ऊँची-ऊँची शाखाएँ थीं, उसका देदीप्यमान भाग वज्र का बना हुआ था तथा उस पर बैठे हुए भ्रमरों के समूह जो मनोहर झंकार कर रहे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेव की तर्जना ही कर रहा हो ॥१९०॥
वह चैत्यवृक्ष सुर, असुर और नरेन्द्र आदि के मनरूपी हाथियों के बाँधने के लिए खंभे के समान था तथा उसने अपने प्रभामण्डल से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रखा था ॥१९१॥
उस पर जो शब्द करते हुए घंटे लटक रहे थे उनसे उसने समस्त दिशा बहिरी कर दी थी और उनसे वह ऐसा जान-पड़ता था कि भगवान् ने अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक में जो विजय प्राप्त की है सन्तोष से मानो वह उसकी घोषणा ही कर रहा हो ॥१९२॥
वह वृक्ष ऊपर लगी हुई ध्वजाओं के वस्त्रों से पोंछ-पोंछकर आकाश को मेघरहित कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारी जीवों की देह में लगे हुए पापों को ही पोंछ रहा हो ॥१९३॥
वह वृक्ष मोतियों की झालर से सुशोभित तीन छत्रों को अपने सिर पर धारण कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के तीनों लोकों के ऐश्वर्य को बिना वचनों के ही दिखला रहा हो ॥१९४॥
उस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएँ थीं जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक करते थे ॥१९५॥
देव लोग वहाँ पर विराजमान उन जिनप्रतिमाओं की गन्ध, पुष्पों की माला, धूप, दीप, फल और अक्षत आदि से निरन्तर पूजा किया करते थे ॥१९६॥
क्षीरसागर के जल से जिनके अंगों का प्रक्षालन हुआ है और जो अतिशय निर्मल हैं ऐसी सुवर्णमयी अरहंत की उन प्रतिमाओं को नमस्कार कर मनुष्य, सुर और असुर सभी उनकी पूजा करते थे ॥१९७॥
कितने ही उत्तम देव अर्थ से भरी हुई स्तुतियों से उन प्रतिमा की स्तुति करते थे, कितने ही उन्हें नमस्कार करते थे और कितने ही उनके गुणों का स्मरण कर तथा चिन्तवन कर गान करते थे ॥१९८॥
जिस प्रकार अशोकवन में अशोक नाम का चैत्यवृक्ष है उसी प्रकार अन्य तीन वनों में भी अपनी-अपनी जाति का एक-एक चैत्यवृक्ष था और उन सभी के मूलभाग जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं से देदीप्यमान थे ॥१९९॥
इस प्रकार ऊपर कहे हुए चारों वनों में क्रम से अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नाम के चार बहुत ही ऊँचे चैत्यवृक्ष थे ॥२००॥
मूलभाग में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा विराजमान होने से जो 'चैत्यवृक्ष' इस सार्थक नाम को धारण कर रहे हैं और इन्द्र जिनकी पूजा किया करते हैं ऐसे वे चैत्यवृक्ष बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥२०१॥
पार्थिव अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न हुए वे वृक्ष सचमुच ही पार्थिव अर्थात् पृथिवी के स्वामी-राजा के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा अनेक फलों से अलंकृत होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी अनेक फलों से अलंकृत थे, राजा जिस प्रकार तेजस्वी होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी तेजस्वी (देदीप्यमान) थे, राजा जिस प्रकार अपने पाद अर्थात् पैरों से समस्त पृथिवी को आक्रान्त किया करते हैं (समस्त पृथिवी में अपना यातायात रखते हैं) उसी प्रकार वे वृक्ष भी अपने पाद अर्थात् जड़ भाग से समस्त पृथिवी को आक्रान्त कर रहे थे (समस्त पृथिवी में उनकी जड़ें फैली हुई थीं) और राजा जिस प्रकार पत्र अर्थात् सवारियों से भरपूर रहते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी पत्र अर्थात् पत्तों से भरपूर थे ॥२०२॥
वे वृक्ष अपने पल्लव अर्थात् लाल-लाल नयी कोपलों से ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्तरंग का अनुराग (प्रेम) ही प्रकट कर रहे हों और फूलों के समूह से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हृदय की प्रसन्नता ही दिखला रहे हों-इस प्रकार वे वृक्ष भगवान् की सेवा कर रहे थे ॥२०३॥
जब कि उन वृक्षों का ही ऐसा बड़ा भारी माहात्म्य था तब उपमारहित भगवान् वृषभदेव के केवलज्ञानरूपी विभव के विषय में कहना ही क्या है-वह तो सर्वथा अनुपम ही था ॥२०४॥
उन वनों के अन्त में चारों ओर एक-एक वनवेदी थी जो कि ऊंचे-ऊंचे चार गोपुर-द्वारों से आकाशरूपी आँगन को रोक रही थी ॥२०५॥
वह सुवर्णमयी वनवेदिका सब ओर से रत्नों से जड़ी हुई थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो उस वन की करधनी ही हो ॥२०६॥
अथवा वह वनवेदिका भव्य जीवों की बुद्धि के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार भव्य जीवों की बुद्धि उदग्र अर्थात् उत्कृष्ट होती है उसी प्रकार वह वनवेदिका भी उदग्र अर्थात् बहुत ऊँची थी, भव्य जीवों की बुद्धि जिस प्रकार सचर्या अर्थात् उत्तम चारित्र से सहित होती है उसी प्रकार वह वनवेदिका भी सचर्या अर्थात् रक्षा से सहित थी और भव्य जीवों की बुद्धि जिस प्रकार समयावनं (समय+अवनं संश्रित्य) अर्थात् आगमरक्षा का आश्रय कर प्रवृत्त रहती है उसी प्रकार वह वनवेदिका भी समया वनं (वनं समया संश्रित्य) अर्थात् वन के समीप भाग का आश्रय कर प्रवृत्त हो रही थी ॥२०७॥
अथवा वह वनवेदिका, सुगुप्तांगी अर्थात् सुरक्षित थी, सती अर्थान् समीचीन थी, रुचिरा अर्थात् देदीप्यमान थी, सूत्रपा अर्थात् सूत्र (डोरा) की रक्षा करने वाली थी-सूत के नाप में बनी हुई थी-कहीं ऊँची-नीची नहीं थी, और वन को चारों ओर से घेरे हुए थी इसलिए किसी सत्पुरुष की बुद्धि के समान जान पड़ती थी क्योंकि सत्पुरुष की बुद्धि भी सुगुप्तांगी अर्थात् सुरक्षित होती है-पापाचारों से अपने शरीर को सुरक्षित रखती है, सती अर्थात् शंका आदि दोषों से रहित होती है, रुचिरा अर्थात् श्रद्धागुण प्रदान करने वाली होती है, सूत्रपा अर्थात् आगम की रक्षा करने वाली होती है और सूत्रपावनं अर्थात सूत्रों से पवित्र जैनशास्त्र को घेरे रहती है-उन्हीं के अनुकूल प्रवृत्ति करती है ॥२०८॥
उस वेदिका के प्रत्येक गोपुर-द्वार में घण्टाओं के समूह लटक रहे थे, मोतियों की झालर तथा फूलों की मालाएँ सुशोभित हो रही थी ॥२०९॥
उस वेदिका के चाँदी के बने हुए चारों गोपुर-द्वार अष्टमंगलद्रव्य, संगीत, बाजों का बजना, नृत्य तथा रत्नमय आभरणों से युक्त तोरणों से बहुत ही सुशोभित हो रहे थे ॥२१०॥
उन वेदिकाओं से आगे सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर लगी हुई अनेक प्रकार की ध्वजाओं की पंक्तियाँ महावीथी के मध्य की भूमि को अलंकृत कर रही थीं ॥२११॥
वे ध्वजाओं के खम्भे मणिमयी पीठिकाओं पर स्थिर थे, देदीप्यमान कान्ति से युक्त थे, जगत्मान्य थे और अतिशय ऊँचे थे इसलिए किन्हीं उत्तम राजाओं के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि उत्तम राजा भी मणिमय आसनों पर स्थित होते हैं-बैठते हैं, देदीप्यमान कान्ति से युक्त होते हैं, जगत्मान्य होते हैं-संसार के लोग उनका सत्कार करते हैं और अतिशय उन्नत अर्थात् उदारहृदय होते हैं ॥२१२॥
उन खम्भों की चौड़ाई अट्ठासी अंगुल कही गयी है और उनका अन्तर पच्चीस-पच्चीस धनुष प्रमाण जानना चाहिए ॥२१३॥
सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, कोट, वनवेदिका, स्तूप, तोरणसहित मानस्तम्भ और ध्वजाओं के खम्भे ये सब तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे होते हैं और विद्वानों ने इनकी चौड़ाई आदि इनकी लम्बाई के अनुरूप बतलायी है ॥२१४-२१५॥
इसी प्रकार आगम के जानने वाले विद्वानों ने वन, वन के मकान और पर्वतों की भी यही ऊँचाई बतलायी है अर्थात् ये सब भी तीर्थंकर के शरीर से बारह गुने ऊँचे होते हैं ॥२१६॥
पर्वत अपनी ऊंचाई से आठ गुने चौड़े होते है और स्तूपों का व्यास विद्वानों ने अपनी ऊँचाई से कुछ अधिक बतलाया है ॥२१७॥
परमज्ञानरूपी समुद्र के पारगामी गणधर देवों ने वनवेदियों की चौड़ाई वन की ऊँचाई से चौथाई बतलायी है ॥२१८॥
ध्वजाओं में माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र के चिह्न थे इसलिए उनके दस भेद हो गये थे ॥२१९॥
एक-एक दिशा में एक-एक प्रकार की ध्वजाएँ एक सौ आठ-एक सौ आठ थीं, वे ध्वजाएँ बहुत ही ऊँची थीं और समुद्र की लहरों के समान जान पड़ती थी ॥२२०॥
वायु से हिलता हुआ उन ध्वजाओं के वस्त्रों का समुदाय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने के लिए मनुष्य और देवों को बुलाना ही चाहता हो ॥२२१॥
मालाओं के चिह्न वाली ध्वजाओं पर फूलों की बनी हुई दिव्यमालाएँ लटक रही थीं और वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो भव्य-जीवों का सौमनस्य अर्थात् सरल परिणाम दिखलाने के लिए ही इन्होंने उन्हें बनाया हो ॥२२२॥
वस्त्रों के चिह्न वाली ध्वजाएँ महीन और सफेद वस्त्रों की बनी हुई थी तथा वे वायु से हिल-हिलकर उड़ रही थीं जिससे ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो आकाशरूपी समुद्र की उठती हुई बड़ी ऊँची लहरें ही हो ॥२२३॥
मयूरों के चिह्न वाली ध्वजाओं में जो मयूर बने हुए थे वे लीलापूर्वक अपनी पूंछ फैलाये हुए थे और साँप की बुद्धि से वस्त्रों को निगल रहे थे जिससे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो साँप की काँचली ही निगल रहे हो ॥२२४॥
कमलों के चिह्न वाली ध्वजाओं में जो कमल बने हुए थे वे अपने एक हजार दलों के विस्तार से ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो आकाशरूपी सरोवर में कमल ही फूल रहे हों ॥२२५॥
रत्नमयी पृथ्वी पर उन ध्वजाओं में बने हुए कमलों के जो प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे वे कमल समझकर उन पर पड़ते हुए भ्रमरों को भ्रम उत्पन्न करते थे ॥२२६॥
उन कमलों की दूसरी जगह नहीं पायी जाने वाली उस समय की शोभा देखकर लक्ष्मी ने अन्य समस्त कमलों को छोड़ दिया था और उन्हीं में अपने रहने का स्थान बनाया था । भावार्थ-वे कमल बहुत ही सुन्दर थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी अन्य सब कमलों को छोड़कर उन्हीं में रहने लगी हो ॥२२७॥
हंसों की चिह्न वाली ध्वजाओं में जो हंसों के चिह्न बने हुए थे वे अपने चोंच से वस्त्र को ग्रस रहे थे और ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो उसके बहाने अपनी द्रव्यलेश्या का ही प्रसार कर रहे हो ॥२२८॥
जिन ध्वजाओं में गरुड़ों के चिह्न बने हुए थे उनके दण्डों के अग्रभाग पर बैठे हुए गरुड़ अपने पंखों के विक्षेप से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो आकाश को ही उल्लंघन करना चाहते हो ॥२२९॥
नीलमणिमयी पृथ्वी में उन गरुड़ के जो प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे उनसे वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो नागेन्द्रों को खींचने के लिए पाताल लोक में ही प्रवेश कर रहे हों ॥२३०॥
सिंहों के चिह्न वाली ध्वजाओं के अग्रभाग पर जो सिंह बने हुए थे वे छलांग भरने की इच्छा से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो देवों के हाथियों को जीतने के लिए ही प्रयत्न कर रहे हैं ॥२३१॥
उन सिंहों के मुखों पर जो बड़े-बड़े मोती लटक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बड़े-बड़े हाथियों के मस्तक विदारण करने से इकट्ठे हुए यश ही लटक रहे हों ॥२३२॥
बैलों की चिह्न वाली ध्वजाओं में, जिनके सींगों के अग्रभाग में ध्वजाओं के वस्त्र लटक रहे हैं ऐसे बैल बने हुए थे और वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे माना शत्रुओं को जीत लेने से उन्हें विजयपताका ही प्राप्त हुई हो ॥२३३॥
हाथी की चिह्न वाली ध्वजाओं पर जो हाथी बने हुए थे वे अपनी ऊँची उठी हुई सूंडों से पताकाएँ धारण कर रहे थे और उनसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके शिखर के अग्रभाग से बड़े-बड़े निर्झरने पड़ रहे हैं ऐसे बड़े पर्वत ही हों ॥२३४॥
और चक्रों के चिह्न वाली ध्वजाओं में जो चक्र बने हुए थे उनमें हजार-हजार आरियाँ थीं तथा उनकी किरणें ऊपर की ओर उठ रही थीं, उन चक्रों से वे ध्वजाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं, मानो सूर्य के साथ स्पर्द्धा करने के लिए ही तैयार हुई हों ॥२३५॥
इस प्रकार वे महाध्वजाएँ ऐसी फहरा रही थीं मानो आकाश को साफ ही कर रही हों, अथवा दिशारूपी स्त्रियों को आलिंगन ही कर रही हों अथवा पृथिवी का आस्फालन ही कर रही हों ॥२३६॥
इस प्रकार मोहनीय कर्म को जीत लेने से प्राप्त हुई वे ध्वजाएँ अन्य दूसरी जगह नहीं पाये जाने वाले भगवान् के तीनों लोकों के स्वामित्व को प्रकट करती हुई बहुत ही सुशोभित हो रही थीं ॥२३७। एक-एक दिशा में वे सब ध्वजाएँ एक हजार अस्सी थीं और चारों दिशाओं में चार हजार तीन सौ बीस थीं ॥२३८॥
उन ध्वजाओं के अनन्तर ही भीतर के भाग में चाँदी का बना हुआ एक बड़ा भारी कोट था, जो कि बहुत ही सुशोभित था और अद्वितीय अनुपम होने पर भी द्वितीय था अर्थात् दूसरा कोट था ॥२३९॥
पहले कोट के समान इसके भी चाँदी के बने हुए चार गोपुर-द्वार थे और वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वे गोपुर-द्वारों के बहाने से इकट्ठी हुई पृथिवीरूपी देवी के हास्य की शोभा ही हों ॥२४०॥
जिनमें अनेक आभरणसहित तोरण लगे हुए हैं ऐसे उन गोपुर-द्वारों में जो निधियाँ रखी हुई थीं वे कुबेर के ऐश्वर्य की भी हंसी उड़ाने वाली बड़ी भारी कान्ति को फैला रही थीं ॥२४१॥
उस कोट की और सब विधि पहले कोट के वर्णन के साथ ही कही जा चुकी है, पुनरुक्ति दोष के कारण यहाँ फिर से उसका विस्तार के साथ वर्णन नहीं किया जा रहा है ॥२४२॥
पहले के समान यहाँ भी प्रत्येक महावीथी के दोनों ओर दो नाट्यशालाएँ थीं और दो धूपघट रखे हुए थे ॥२४३॥
इस कक्षा में विशेषता इतनी है कि धूपघटों के बाद गलियों के बीच के अन्तराल में कल्पवृक्षों का वन था, जो कि अनेक प्रकार के रत्नों की कान्ति के फैलने से देदीप्यमान हो रहा था ॥२४४॥
उस वन के वे कल्पवृक्ष बहुत ही ऊँचे थे, उत्तम छाया वाले थे, फलों से सुशोभित थे और अनेक प्रकार की माला, वस्त्र तथा आभूषणों से सहित थे इसलिए अपनी शोभा से राजाओं के समान जान पड़ते थे क्योंकि राजा भी बहुत ऊँचे अर्थात् अतिशय श्रेष्ठ अथवा उदार होते हैं, उत्तम छाया अर्थात् कान्ति से युक्त होते हैं, अनेक प्रकार की वस्तुओं की प्राप्तिरूपी फलों से सुशोभित होते हैं और तरह-तरह की माला, वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त होते हैं ॥२४५॥
उन कल्पवृक्षों को देखकर ऐसा मालूम होता था मानो अपने दस प्रकार के कल्पवृक्षों की पंक्तियों से युक्त हुए देवकुरु और उत्तरकुरु ही भगवान् की सेवा करने के लिए आये हों ॥२४६॥
उन कल्पवृक्षों के फल आभूषणों के समान जान पड़ते थे, नवीन कोमल पत्ते वस्त्रों के समान मालूम होते थे और शाखाओं के अग्रभाग पर लटकती हुई मालाएँ बड़ी-बड़ी जटाओं के समान सुशोभित हो रही थीं ॥२४७॥
उन वृक्षों के नीचे छायातल में बैठे हुए देव और धरणेन्द्र अपने-अपने भवनों में प्रेम छोड़कर वहीं पर चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहते थे ॥२४८॥
ज्योतिष्कदेव ज्योतिरङ्ग जाति के कल्पवृक्षों में, कल्पवासी देव दीपांग जाति के कल्पवृक्षों में और भवनवासियों के इन्द्र मालांग जाति के कल्पवृक्षों में यथायोग्य प्रीति धारण करते थे । भावार्थ-जिस देव को जो वृक्ष अच्छा लगता था वे उसी के नीचे क्रीड़ा करते थे ॥२४९॥
वह कल्पवृक्षों का वन वधू-वर के समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार वधू-वर मालाओं से सहित होते उसी प्रकार वह वन भी मालाओं से सहित था, वधू-वर जिस प्रकार आभूषणों से युक्त होते हैं उसी प्रकार वह वन भी आभूषणों से युक्त था, जिस प्रकार वधू-वर सुन्दर वस्त्र पहिने रहते हैं उसी प्रकार उस वन में सुन्दर वस्त्र टंगे हुए थे, जिस प्रकार वर-वधू के अधर (ओठ) पल्लव के समान लाल होते हैं उसी प्रकार उस वन के पल्लव (नये पत्ते) लाल थे । वर-वधू के आसपास जिस प्रकार दीपक जला करते हैं उसी प्रकार उस वन में भी दीपक जल रहे थे और वर-वधू जिस प्रकार अतिशय सुन्दर होते हैं उसी प्रकार वह वन भी अतिशय सुन्दर था । भावार्थ-उस वन में कहीं मालांग जाति के वृक्षों पर मालाएँ लटक रहीं थीं, कहीं भूषणांग जाति के वृक्षों पर भूषण लटक रहे थे, कहीं वस्त्रांग जाति के वृक्षों पर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र टँगे हुए थे, कहीं उन वृक्षों में नये-नये, लाल-लाल पत्ते लग रहे थे, और कहीं दीपांग जाति के वृक्षों पर अनेक दीपक जल रहे थे ॥२५०॥
उन कल्पवृक्षों के मध्यभाग में सिद्धार्थ वृक्ष थे, सिद्ध भगवान् की प्रतिमाओं से अधिष्ठित होने के कारण उन वृक्षों के मूल भाग बहुत ही देदीप्यमान हो रहे थे और उन सबसे वे वृक्ष सूर्य के समान प्रकाशमान हो रहे थे ॥२५१॥
पहले चैत्यवृक्षों में जिस शोभा का वर्णन किया गया है वह सब इन सिद्धार्थवृक्षों में भी लगा लेना चाहिए किन्तु विशेषता इतनी ही है कि ये कल्पवृक्ष अभिलषित फल के देने वाले थे ॥२५२॥
उन कल्पवृक्षों के वनों में कहीं बावड़ियाँ, कहीं नदियाँ, कहीं बालू के ढेर और कहीं सभागृह आदि सुशोभित हो रहे थे ॥२५३॥
उन कल्पवृक्षों की वनवीथी को भीतर की ओर चारों तरफ से वनवेदिका घेरे हुए थी, वह वनवेदिका सुवर्ण की बनी हुई थी, और चार गोपुरद्वारों से सहित थी ॥२५४॥
उन गोपुर-द्वारों में तोरण और मंगलद्रव्यरूप सम्पदाओं का वर्णन पहले ही किया जा चुका है तथा उनकी लम्बाई चौड़ाई आदि भी पहले के समान ही जानना चाहिए ॥२५५॥
उन गोपुरद्वारों के आगे भीतर की ओर बड़ा लम्बा-चौड़ा रास्ता था और उसके दोनों ओर देवरूप कारीगरों के द्वारा बनायी हुई अनेक प्रकार के मकानों की पंक्तियाँ थीं ॥२५६॥
जिनके बड़े-बड़े खम्भे सुवर्ण के बने हुए हैं, जिनके अधिष्ठान-बन्धन अर्थात् नींव वज्रमयी हैं, जिनकी सुन्दर दीवालें चन्द्रकान्तमणियों की बनी हुई हैं और जो अनेक प्रकार के रत्नों से चित्र-विचित्र हो रहे हैं ऐसे वे सुन्दर मकान कितने ही दो खण्ड के थे, कितने ही तीन खण्ड के और कितने ही चार खण्ड के थे, कितने ही चन्द्रशालाओं (मकानों के ऊपरी भाग) से सहित थे तथा कितने ही अट्टालिका आदि से सुशोभित थे ॥२५७-२५८॥
जो अपनी ही प्रभा में डूबे हुए हैं ऐसे वे मकान अपने शिखरों के अग्रभाग से आकाश का स्पर्श करते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो चाँदनी से ही बने हों ॥२५९॥
कहीं पर कूटागार (अनेक शिखरों वाले अथवा झूला देने वाले मकान), कहीं पर सभागृह और कहीं पर प्रेक्षागृह (नाट्यशाला अथवा अजायबघर) सुशोभित हो रहे थे, उन कूटागार आदि में शय्याएँ बिछी हुई थीं, आसन रखे हुए थे, ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ लगी हुई थीं और उन सबने अपनी कान्ति से आकाश को सफेद-सफेद कर दिया था ॥२६०॥
उन मकानों में देव, गन्धर्व, सिद्ध (एक प्रकार के देव), विद्याधर, नागकुमार और किन्नर जाति के देव बड़े आदर के साथ सदा क्रीड़ा किया करते थे ॥२६१॥
उन देवों में कितने ही देव तो गाने में उद्यत थे और कितने ही बाजा बजाने में तत्पर थे इस प्रकार वे देव संगीत और नृत्य आदि की गोष्ठियों-द्वारा भगवान की आराधना कर रहे थे ॥२६२॥
महावीथियों के मध्यभाग में नौ-नौ स्तूप खड़े हुए थे, जो कि पद्मरागमणियों के बने हुए बहुत ऊँचे थे और अपने अग्रभाग से आकाश का उल्लंघन कर रहे थे ॥२६३॥
सिद्ध और अर्हन्त भगवान् की प्रतिमाओं के समूह से वे स्तूप चारों ओर से चित्र-विचित्र हो रहे थे और ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मनुष्यों का अनुराग ही स्तूपों के आकार को प्राप्त हो गया हो ॥२६४॥
वे स्तूप ठीक मेरु पर्वत के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार मेरु पर्वत अपनी ऊँचाई से आकाश को घेरे हुए है उसी प्रकार वे स्तूप भी अपनी ऊँचाई से आकाश को घेरे हुए थे, जिस प्रकार मेरु पर्वत विद्याधरों के द्वारा आराधना करने योग्य है उसी प्रकार वे स्तूप भी विद्याधरों के द्वारा आराधना करने योग्य थे और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत पूजा को प्राप्त है उसी प्रकार वे स्तूप भी पूजा को प्राप्त थे ॥२६५॥
सिद्ध तथा चारण मुनियों के द्वारा आराधना करने योग्य वे अतिशय ऊँचे स्तूप ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्तूपों का आकार धारण करती हुई भगवान् की नौ केवललब्धियाँ ही हों ॥२६६॥
उन स्तूपों के बीच में आकाशरूपी आँगन को चित्र-विचित्र करने वाले रत्नों के अनेक बन्दनवार बँधे हुए थे जो कि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो इन्द्रधनुष के ही बँधे हुए हों ॥२६७॥
उन स्तूपों पर छत्र लगे हुए थे, पताकाएँ फहरा रही थीं, मंगलद्रव्य रखे हुए थे और इन सब कारणों से वे लोगों को बहुत ही आनन्द उत्पन्न कर रहे थे इसलिए ठीक राजाओं के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि राजा लोग भी छत्र, पताका और सब प्रकार के मंगलों से सहित होते हैं तथा लोगों को आनन्द उत्पन्न करते रहते हैं ॥२६८॥
उन स्तूपों पर जो जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाएँ विराजमान थीं भव्य लोग उनका अभिषेक कर उनकी स्तुति और पूजा करते थे तथा प्रदक्षिणा देकर बहुत ही हर्ष को प्राप्त होते थे ॥२६९॥
उन स्तूपों में और मकानों की पंक्तियों से घिरी हुई पृथ्वी को उल्लंघन कर उसके कुछ आगे आकाश के समान स्वच्छ स्फटिकमणि का बना हुआ कोट था जो कि ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो आकाश ही उस कोटरूप हो गया हो ॥२७०॥
अथवा विशुद्ध परिणाम (परिणमन) होने से और जिनेन्द्र भगवान् के समीप ही सेवा करने से वह कोट भव्यजीव के समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि भव्यजीव भी विशुद्ध परिणामों (भावों) का धारक होता है और जिनेन्द्र भगवान् के समीप रहकर ही उनकी सेवा करता है । इसके सिवाय वह कोट भव्य जीव के समान ही तुङ्ग अर्थात ऊंचा (पक्ष में श्रेष्ठ) और सद्वृत्त अर्थात् सुगोल (पक्ष में सदाचारी) था ॥२७१॥
अथवा वह कोट बड़े-बड़े विद्याधरों के द्वारा सेवनीय था, ऊँचा था, और अचल था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो विजयार्ध पर्वत ही कोट का रूप धारण कर भगवान की प्रदक्षिणा दे रहा हो ॥२७२॥
उस उत्तम कोट की चारों दिशाओं में चार ऊँचे गोपुर-द्वार थे जो पद्मरागमणि के बने हुए थे, और ऐसे मालूम पड़ते थे मानो भव्य जीवों के अनुराग से ही बने हों ॥२७३॥
जिस प्रकार पहले कोटों के गोपुर-द्वारों पर मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ रखी हुई थी उसी प्रकार इन गोपुर-द्वारों पर भी मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएं जानना चाहिए । और पहले की तरह ही इन गोपुर-द्वारों के समीप में भी देदीप्यमान तथा गम्भीर आकार वाली निधियां रखी हुई थीं ॥२७४॥
प्रत्येक गोपुर-द्वार पर पंखा, छत्र, चामर, ध्वजा, दर्पण, सुप्रतिष्ठक (ठौना) मुकर और कलश ये आठ-आठ मंगल द्रव्य रखे हुए थे ॥२७५॥
तीनों कोटों के गोपुर-द्वारों पर क्रम से गदा आदि हाथ में लिये हुए व्यन्तर भवनवासी और कल्पवासी देव द्वारपाल थे । भावार्थ-पहले कोट के दरवाजों पर व्यन्तर देव पहरा देते थे, दूसरे कोट के दरवाजों पर भवनवासी पहरा देते थे और तीसरे कोट के दरवाजों पर कल्पवासी देव पहरा दे रहे थे । ये सभी देव अपने-अपने हाथों में गदा आदि हथियारों को लिये हुए थे ॥२७६॥
तदनन्तर उस आकाश के समान स्वच्छ स्फटिकमणि के कोट से लेकर पीठ पर्यन्त लम्बी और महवीथियों (बड़े-बड़े रास्तों) के अन्तराल में आश्रित सोलह दीवालें थीं । भावार्थ-चारों दिशाओं की चारों महावीथियों के अगल बगल दोनों ओर आठ दीवालें थीं और दो-दो के हिसाब से चारों विदिशाओं में भी आठ दीवालें थीं इस प्रकार सब मिलाकर सोलह दीवालें थी । ये दीवालें स्फटिक कोट से लेकर पीठ पर्यन्त लम्बी थीं और बारह सभाओं का विभाग कर रही थी ॥२७७॥
जो आकाशस्फटिक से बनी हुई है; जिनकी निर्मल कान्ति चारों ओर फैल रही है और जो प्रथम पीठ के किनारे तक लगी हुई हैं ऐसी वे दीवालें चाँदनी के समान आचरण कर रही थीं ॥२७८॥
वे दीवालें अतिशय पवित्र थीं, समस्त वस्तुओं के प्रतिबिम्ब दिखला रहीं थीं और बड़े भारी ऐश्वर्य से सहित थी इसलिए ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जगत् के भर्ता भगवान् वृषभदेव की श्रेष्ठ विद्याएं हो ॥२७९॥
उन दीवालों के ऊपर रत्नमय खम्भों से खड़ा हुआ और आकाशस्फटिकमणि का बना हुआ बहुत बड़ा भारी शोभायुक्त श्रीमण्डप बना हुआ था ॥२८०॥
वह श्रीमण्डप वास्तव में श्रीमण्डप था क्योंकि वहाँ पर परमेश्वर भगवान् वृषभदेव ने मनुष्य, देव और धरणेन्द्रों के समीप तीनों लोकों की श्री (लक्ष्मी) स्वीकृत की थी ॥२८१॥
तीनों लोकों के समस्त जीवों को स्थान दे सकने के कारण जिसे बड़ा भारी वैभव प्राप्त हुआ है ऐसा वह श्रीमण्डप आकाश के अन्तभाग में ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो प्रतिबिम्बित हुआ दूसरा आकाश ही हो । भावार्थ-उस श्रीमण्डप का ऐसा अतिशय था कि उसमें एक साथ तीनों लोकों के समस्त जीवों को स्थान मिल सकता था, और वह अतिशय ऊँचा तथा स्वच्छ था ॥२८२॥
उस श्रीमण्डप के ऊपर यक्षदेवों के द्वारा छोड़े हुए फूलों के समूह नीचे बैठे हुए मनुष्य के हृदय में ताराओं की शंका कर रहे थे ॥२८३॥
उस श्रीमण्डप में मदोन्मत्त शब्द करते हुए भ्रमरों के द्वारा सूचित होने वाली फूलों की मालाएँ मानो जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों की छाया की शीतलता के आश्रय से ही कभी म्लानता को प्राप्त नहीं होती थीं-कभी नहीं मुरझाती थीं । भावार्थ-उस श्रीमण्डप में स्फटिकमणि की दीवालों पर जो सफेद फूलों की मालाएँ लटक रही थीं वे रंग की समानता के कारण अलग से पहचान में नहीं आती थीं परन्तु उन पर शब्द करते हुए जो काले-काले मदोन्मत्त भ्रमर बैठे हुए थे उनसे ही उनकी पहचान होती थी । वे मालाएँ सदा हरी-भरी रहती थीं कभी मुरझाती नहीं थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के चरण-कमलों की शीतल छाया का आश्रय पाकर ही नहीं मुरझाती हों ॥२८४॥
उस श्रीमण्डप में नीलकमलों के उपहारों पर बैठी हुई भ्रमरों की पंक्ति रंग की सदृशता के कारण अलग से दिखाई नहीं देती थी केवल गुंजार शब्दों से प्रकट हो रही थी ॥२८५॥
अहा, जिनेन्द्र भगवान् का यह कैसा अद्भुत माहात्म्य था कि केवल एक योजन लम्बे-चौड़े उस श्रीमण्डप में समस्त मनुष्य, सुर और असुर एक-दूसरे को बाधा न देते हुए सुख से बैठ सकते थे ॥२८६॥
उस श्रीमण्डप में स्वच्छ मणियों के समीप आया हुआ हंसों का समूह यद्यपि उन मणियों के समान रंग वाला ही था-उन्हीं के प्रकाश में छिप गया था तथापि वह अपने मधुर शब्दों से प्रकट हो रहा था ॥२८७॥
जिनकी शोभा जगत् की लक्ष्मी के दर्पण के समान है ऐसी श्रीमण्डप की उन दीवालों में तीनों लोकों के समस्त पदार्थों के प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे और उन प्रतिबिम्बों से वे दीवालें ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो उनमें अनेक प्रकार के चित्र ही खींचे गये हों ॥२८८॥
उस श्रीमण्डप की फैलती हुई कान्ति के समुदायरूपी जल से जिनके शरीर नहलाये जा रहे हैं ऐसे देव और दानव ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी तीर्थ में स्नान ही कर रहे हों ॥२८९॥
उसी श्रीमण्डप से घिरे क्षेत्र के मध्यभाग में स्थित पहली पीठिका सुशोभित हो रही थी, वह पीठिका वैडूर्यमणि की बनी हुई थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कुलाचल का शिखर ही हो ॥२९०॥
उस पीठिका पर सोलह जगह अन्तर देकर सोलह जगह ही बड़ी-बड़ी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं । चार जगह तो चार महादिशाओं अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में चार महावीथियों के सामने थीं और बारह जगह सभा के कोठों के प्रत्येक प्रवेशद्वार पर थीं ॥२९१॥
उस पीठिका को अष्ट मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएं और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकों पर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे ॥२९२॥
जिनमें लगे हुए रत्नों की किरणें ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे हजार-हजार आराओं वाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचल से उदय-होते हुए सूर्य के बिम्ब ही हों ॥२९३॥
उस प्रथम पीठिका पर सुवर्ण का बना हुआ दूसरा पीठ था, जो सूर्य की किरणों के साथ स्पर्धा कर रहा था और आकाश को प्रकाशमान बना रहा था ॥२९४॥
उस दूसरे पीठ के ऊपर आठ दिशाओं में आठ बड़ी-बड़ी ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं, जो बहुत ऊँची थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो इन्द्रों को स्वीकृत आठ लोकपाल ही हो ॥२९५॥
चक्र, हाथी, बैल, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला के चिह्न से सहित तथा सिद्ध भगवान् के आठ गुणों के समान निर्मल वे ध्वजाएं बहुत अधिक सुशोभित हो रही थीं ॥२९६॥
वायु से हिलते हुए देदीप्यमान वस्त्रों की फटकार से वे ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो पापरूपी धूलि का सम्मार्जन ही कर रही हों अर्थात् पापरूपी धूलि को झाड़ ही रही हों ॥२९७॥
उस दूसरे पीठ पर तीसरा पीठ था जो कि सब प्रकार के रत्नों से बना हुआ था, बड़ा भारी था और चमकते हुए रत्नों की किरणों से अन्धकार के समूह को नष्ट कर रहा था ॥२९८॥
वह पीठ तीन कटनियों से युक्त था तथा श्रेष्ठ रत्नों से बना हुआ था इसलिए ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उस पीठ का रूप धरकर सुमेरु पर्वत ही भगवान की उपासना करने के लिए आया हो ॥२९९॥
वह पीठरूपी पर्वत चक्रसहित था इसलिए चक्रवर्ती के समान जान पड़ता था, ध्वजासहित था इसलिए ऐरावत हाथी के समान मालूम होता था और सुवर्ण का बना हुआ था इसलिए महामेरु के समान सुशोभित हो रहा था ॥३००॥
पुष्पों के समूह को छूने के लिए जो भ्रमर उस पीठ पर बैठे हुए थे उन पर सुवर्ण की छाया पड़ रही थी जिससे वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सुवर्ण के ही बने हों ॥३०१॥
जिसने समस्त लोक को नीचा कर दिया है, जिसकी कान्ति अतिशय देदीप्यमान है और जो देव तथा धरणेन्द्रों के द्वारा पूजित है ऐसा वह पीठ जिनेन्द्र भगवान् के शरीर के समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् के शरीर ने भी समस्त लोकों को नीचा कर दिया या, उसकी कान्ति भी अतिशय देदीप्यमान थी, और वह भी देव तथा धरणेन्द्रों के द्वारा पूजित था ॥३०२॥
अथवा वह पीठ सुमेरु पर्वत की शोभा धारण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु पर्वत ज्योतिर्गण अर्थात् ज्योतिषी देवों के समूह से घिरा हुआ है उसी प्रकार वह पीठ भी ज्योतिर्गण अर्थात् किरणों के समूह से घिरा हुआ था, जिस प्रकार सुमेरुपर्वत सर्वोत्तर अर्थात् सब क्षेत्रों से उत्तर दिशा में है उसी प्रकार वह पीठ भी सर्वोत्तर अर्थात् सबसे उत्कृष्ट था, और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत (जन्माभिषेक के समय) जगद्गुरु जिनेन्द्र भगवान को धारण करता है उसी प्रकार वह पीठ भी (समवसरण भूमि में) जिनेन्द्र भगवान् को धारण कर रहा था ॥३०३॥
इस प्रकार तीन कटनीदार वह पीठ था, उसके ऊपर विराजमान हुए जिनेन्द्र भगवान् ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे कि तीन लोक के शिखर पर विराजमान हुए सिद्ध परमेष्ठी सुशोभित होते हैं ॥३०४॥
आकाश के समान स्वच्छ स्फटिकमणियों से बने हुए तीसरे कोट के भीतर का विस्तार एक योजन प्रमाण था, इसी प्रकार तीनों वन (लतावन, अशोक आदि के वन और कल्पवृक्ष वन) तथा ध्वजाओं से रुकी हुई भूमि का विस्तार भी एक-एक योजन प्रमाण था और परिखा भी धूलीसाल से एक योजन चल कर थी, यह सब विस्तार जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है ॥३०५-३०६॥
आकाशस्फटिकमणियों से बने हुए कोट से कल्पवृक्षों के वन की वेदिका आधा योजन दूर थी और उसी साल से प्रथमपीठ पाव योजन दूरी पर था ॥३०७॥
पहले पीठ के मस्तक का विस्तार आधे कोश का था, इसी प्रकार दूसरे और तीसरे पीठ की मेखलाएँ भी प्रत्येक साढ़े सात सौ धनुष चौड़ी थीं ॥३०८॥
महावीथियों अर्थात् गोपुर-द्वारों के सामने के बड़े-बड़े रास्ते एक-एक कोश चौड़े थे और सोलह दीवालें अपनी ऊंचाई से आठवें भाग चौड़ी थीं । उन दीवालों की ऊँचाई का वर्णन पहले कर चुके हैं-तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई से बारहगुनी ॥३०९॥
प्रथम पीठरूप जगती आठ धनुष ऊँची जाननी चाहिए और विद्वान् लोग द्वितीय पीठ को उससे आधा अर्थात् चार धनुष ऊँचा जानते हैं ॥३१०॥
इसी प्रकार तीसरा पीठ भी चार धनुष ऊँचा था, तथा सिंहासन और धर्मचक्र की ऊँचाई एक धनुष मानी गयी है ॥३११॥
इस प्रकार ऊपर कहे अनुसार जिनेन्द्र भगवान् की समवसरण सभा बनी हुई थी । अब उसके बीच में जो जिनेन्द्र भगवान् के विराजमान होने का स्थान अर्थात् गन्धकुटी बनी हुई थी उसका वर्णन भी मेरे मुख से सुनो ॥३१२॥
इस प्रकार जब गणनायक गौतम स्वामी ने अतिशय स्पष्ट, मधुर, योग्य और तत्त्वार्थ के स्वरूप का बोध कराने वाले वचनों से जिनेन्द्र भगवान् की समवसरण-सभा का वर्णन किया तब जिस प्रकार प्रातःकाल के समय कमलिनियों का समूह प्रफुल्लित कमलों को धारण करता है उसी प्रकार जिसका अन्तःकरण प्रबोध को प्राप्त हुआ है ऐसे श्रेणिक राजा ने अपने प्रफुल्लित मुख को धारण किया था अर्थात् गौतम स्वामी के वचन सुनकर राजा श्रेणिक का मुखरूपी कमल हर्ष से प्रफुल्लित हो गया था ॥३१३॥
मिथ्यादृष्टियों के मिथ्यामतरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली, अतिशय योग्य और वचन सम्बन्धी दोषों से रहित गणधर गौतम स्वामी की उस वाणी को सुनकर सभा में बैठे हुए सब लोग मुनियों के साथ-साथ जिनेन्द्र भगवान् में परम प्रीति को प्राप्त हुए थे, उस समय उन सभी सभासदों के नेत्र हर्ष से प्रफुल्लित हो रहे थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य की किरणरूपी लक्ष्मी का आश्रय पाकर फूले हुए कमलों के समूह ही हों ॥३१४॥
जिनके केवलज्ञान की उत्तम पूजा करने का अभिलाषी तथा अद्भुत विभूति को धारण करने वाला इन्द्र चारों निकायों के देवों के साथ आकर दूर से ही एकीकृत हुआ था और समवसरण भूमि को देखता हुआ अतिशय प्रसन्न हुआ था ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त रहें ॥३१५॥
क्या यह देवलोक की नयी सृष्टि है ? अथवा यह जिनेन्द्र भगवान् का प्रभाव है, अथवा ऐसा नियोग ही है, अथवा यह इन्द्र का ही प्रभाव है । इस प्रकार अनेक तर्क-वितर्क करते हुए देवों के समूह जिसे बड़े कौतुक के साथ देखते थे ऐसी वह भगवान् की समवसरण भूमि सदा जयवन्त रहे ॥३१६॥
इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण के संग्रह में समवसरण का वर्णन करने वाला बाईसवां पर्व समाप्त हुआ ॥२२॥