ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 6
From जैनकोष
इसके अनन्तर किसी समय उस ललिताङ्गदेव के आभूषण सम्बन्धी निर्मलमणि अकस्मात् प्रातःकाल के दीपक के समान निस्तेज हो गये ।।१।। जन्म से ही उसके विशाल वक्षःस्थल पर पड़ी माला ऐसी म्लान हो गयी मानो उसके वियोग से भयभीत हो उसकी लक्ष्मी ही म्लान हो गयी हो ।।२।। उसके विमानसम्बन्धी कल्पवृक्ष भी ऐसे काँपने लगे मानो उसके वियोगरूपी महावायु से कम्पित होकर भय को ही धारण कर रहे हों ।।३।। उस समय उसके शरीर की कान्ति भी शीघ्र ही मन्द पड़ गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यरूपी छत्र का अभाव होने पर उसकी छाया कहां रह सकती है ? अर्थात् कहीं नहीं ।।४।। उस समय कान्ति से रहित तथा निष्प्रभता को प्राप्त हुए ललिताङ्गदेव को देखकर ऐशानस्वर्ग में उत्पन्न हुए देव शोक के कारण उसे पुन: देखने के लिए समर्थ न हो सके ।।५।। ललिताङ्गदेव की दीनता देखकर उसके सेवक लोग भी दीनता को प्राप्त हो गये सो ठीक है वृक्ष के चलने पर उसकी शाखा उपशाखा आदि क्या विशेष रूप से नहीं चलने लगते ? अर्थात् अवश्य चलने लगते हैं ।।६।। उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस देव ने जन्म से लेकर आज तक जो देवों सम्बन्धी सुख भोगे हैं वे सबके सब दुःख बनकर ही आये हों ।।७।। जिस प्रकार शीघ्र गति वाला परमाणु एक ही समय में लोक के अन्त तक पहुँच जाता है उसी प्रकार ललिताङ्गदेव की कण्ठ माला की म्लानता का समाचार भी उस स्वर्ग के अन्त तक व्याप्त हो गया था ।।८।। अथानन्तर सामाजिक जाति के देवों ने उसके समीप आकर उस समय के योग्य तथा उसका विषाद दूर करने वाले नीचे लिखे अनेक वचन कहे ।।९।। हे धीर, आज अपनी धीरता का स्मरण कीजिए और शोक को छोड़ दीजिए । क्योंकि जन्म, मरण, बुढ़ापा रोग और भय किसे प्राप्त नहीं होते ।।१०। स्वर्ग से च्युत होना सबके लिए साधारण बात है क्योंकि आयु क्षीण होनेपर यह स्वर्ग क्षण-भर भी धारण करने के लिए समर्थ नहीं है ।।११।। सदा प्रकाशमान रहने वाला यह स्वर्ग भी कदाचित् अन्धकाररूप प्रतिभासित होने लगता है क्योंकि जब पुण्यरूपी दीपक बुझ जाता है तब यह सब ओर से अन्धकारमय हो जाता है ।।१२।। जिस प्रकार पुण्य के उदय से स्वर्ग-निरन्तर प्रीति रहा करती है उसी प्रकार पुण्य क्षीण हो जाने पर उसमें अप्रीति होने लगती है ।।१३।। आयु के अन्त में देवों के साथ उत्पन्न होने वाली माला ही म्लान नहीं होती है किन्तु पापरूपी आतप के तपते रहने पर जीवों का शरीर भी म्लान हो जाता है ।।१४।। देवों के अन्त समय में पहले हृदय कम्पायमान होता है, पीछे कल्पवृक्ष कम्पायमान होते हैं । पहले लक्ष्मी नष्ट होती है फिर लजा के साथ शरीर की प्रभा नष्ट होती है ।।१५।। पाप के उदय से पहले लोगों में अस्नेह बढ़ता है फिर जँभाई की वृद्धि होती है, फिर शरीर के वस्त्रों में भी अप्रीति उत्पन्न हो जाती है ।।१६।। पहले मान भंग होता है पश्चात् विषयों की इच्छा नष्ट होती है । अज्ञानान्धकार पहले मन को रोकता है पश्चात् नेत्रों को रोकता है ।।१७।। अधिक कहाँ तक कहा जाये, स्वर्ग से च्युत होने के सम्मुख देव को जो तीव्र दुःख होता है वह नारकी को भी नहीं हो सकता । इस समय उस भारी हरख का आप प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं ।।१८।। जिस प्रकार उदित हुए सूर्य का अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्ग में प्राप्त हुए जीवों के अभ्युदयों का पतन होना भी निश्चित है ।।१९।। इसलिए हे आर्य, कुयोनिरूपी आवर्त में गिराने वाले शोक को प्राप्त न होइए तथा धर्म में मन लगाइए, क्योंकि धर्म ही परम शरण है ।।२०।। हे आर्य, कारण के बिना कभी कोई कार्य नहीं होता है और चूंकि पण्डितजन पुण्य को ही स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण कहते हैं ।।२०।। इसलिए पुण्य के साधनभूत जैनधर्म ही अपनी बुद्धि लगाकर खेद को छोड़िए, ऐसा करने से तुम निश्चय ही पापरहित हो जाओगे ।।२१।। इस प्रकार सामानिक देवों के कहने से ललिताङ्गदेव ने धैर्य का अवलम्बन किया, धर्म में बुद्धि लगायी और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन-चैत्यालयों की पूजा की ।।२२।। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करता हुआ वह आयु के अन्त में वहीं सावधान चित्त होकर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्चस्वर से नमस्कार मन्त्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया ।।२४-२५।।
इसी जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में जो महामनोहर पुष्कलावती नाम का देश है वह स्वर्णभूमि के समान सुन्दर है । उसी देश में एक उत्पलखेटक नाम का नगर है जो कि कमलों से आच्छादित धान के खेतों, कोट और परिखा आदि की शोभा से उस पुष्कलावती देश को भूषित करता रहता है ।।२६-२७।। उस नगरी का राजा बज्रबाहु था जो कि इन्द्र के समान आज्ञा चलाने में सदा तत्पर रहता था । उसकी रानी का नाम वसुन्धरा था । वह वसुन्धरा सहनशीलता आदि गुणों से ऐसी शोभायमान होती थी मानो दूसरी वसुन्धरा पृथिवी ही हो ।।२८।। ललिताङ्ग नाम का व स्वर्ग च्युत होकर उन्हीं वज्रबाहु और वसुन्धरा के, वज्र के समान जंघा होने से ‘वज्रजंघ’ इस सार्थक नाम को धारण करने वाला पुत्र हुआ ।।२९।। वह वज्रजंघ शत्रुरूपी कमलों को संकुचित करता हुआ बन्धुरूपी कुमुदों को हर्षित (विकसित) करता था तथा प्रतिदिन कलाओं (चतुराई, पक्ष में चन्द्रमा का सोलहवाँ भाग) की वृद्धि करता था इसलिए द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा ।।३०।। जब वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तब उसकी रूपसंपत्ति अनुपम हो गयी जैसे कि चन्द्रमा क्रम-क्रम से बढ़कर जब पूर्ण हो जाता है तब उसकी कान्ति अनुपम हो जाती है ।।३१।। उसके शिर पर काले कुटिल और लम्बे बाल ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कामदेवरूपी काले सर्प के बढ़े हुए बच्चे ही हों ।।३२।। वह वज्रजंघ, नेत्ररूपी भ्रमर और हास्य की किरणरूपी केशर से सहित अपने मुखकमल में मकरन्दरस के समान मनोहर वाणी को धारण करता था ।।३३।। कानों से मिले हुए उसके दोनों नेत्र ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो वे अनेक शास्त्रों का श्रवण करने वाले कानों के समीप जाकर उनसे सूक्ष्मदर्शिता (पाण्डित्य और बारीक पदार्थ को देखने की शक्ति) का अम्यास ही कर रहे हों ।।३४।। वह वज्रजंघ अपने कण्ठ के समीप जिस हार को धारण किये हुए था वह नीहार—बरफ के समान स्वच्छ कान्ति का धारक था तथा ऐसा मालूम होता था मानो मुखरूपी चन्द्रमा की सेवा के लिए तारों का समूह ही आया हो ।।३५।। वह अपने विशाल वक्षस्थल पर चन्दन का विलेपन धारण कर रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो अपने तट पर शरद् ऋतु की चाँदनी धारण किये हुए मेरु पर्वत ही हो ।।३६।। मुकुट से शोभायमान उसका मस्तक ठीक मेरु पर्वत के समान मालूम होता था और उसके समीप लम्बी भुजाएँ नील तथा निषध गिरि के समान शोभायमान होती थीं ।।३७।। उसके मध्य भाग में नदी की भँवर के समान गम्भीर नाभि ऐसी जान पड़ती थी मानो स्त्रियों की दृष्टिरूपी हथिनियों को रोकने के लिए कामदेव के द्वारा खोदा हुआ एक गड्ढा ही हो ।।३८।। करधनी से घिरा हुआ उसका कटिभाग ऐसा शोभायमान था मानो सुवर्ण की वेदिका से घिरा हुआ जम्बूवृक्ष के रहने का स्थान ही हो ।।३९।। स्थिर गोल और एक दूसरे से मिली हुई उसकी दोनों जांघें ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्त्रियों के मनरूपी हाथी को बाँधने के लिए दो स्तम्भ ही हों ।।४०।। उसकी वज्र के समान स्थिर जंघाओं (पिंडरियों) का तो मैं वर्णन ही नहीं करता क्योंकि वह उसके वज्रजंघ नाम से ही गतार्थ हो जाता है । इतना होने पर भी यदि वर्णन करूँ तो मुझे पुनरुक्ति दोष की आशंका है ।।४१।। उस वज्रजंघ के कुछ लाल और कोमल दोनों चरण ऐसे जान पड़ते थे मानो अविनाशिनी लक्ष्मी से आश्रित चलते-फिरते दो स्थल कमल ही हों ।।४२।। शास्त्रज्ञान से भूषित उसकी यह रूपसम्पत्ति नेत्रों को उतना ही आनन्द देती थी जितना कि शरद् ऋतु की चाँदनी से भूषित चन्द्रमा की मूर्ति देती है ।।४३।। पद वाक्य और प्रमाण आदि के विषय में अतिशय प्रवीणता को प्राप्त हुई उसकी बुद्धि सब शाखों में दीपिका के समान देदीप्यमान रहती थी ।।४४।। वह समस्त कलाओं का ज्ञाता विनयी जितेन्द्रिय और कुशल था इसलिए राज्यलक्ष्मी के कटाक्षों का भी आश्रय हुआ था, वह उसे प्राप्त करना चाहती थी ।।४५।। उसके स्वाभाविक गुण सब लोगों को प्रसन्न करते थे तथा उसका स्वाभाविक मनुष्य प्रेम उसकी बड़ी भारी योग्यता को पुष्ट करता था ।।४६।। वह वज्रजंघ सरस्वती में अनुराग, कीर्ति में स्नेह और राज्यलक्ष्मी पर भोग करने का अधिकार (स्वामित्व) रखता था इसलिए विद्वानों में सिरमौर समझा जाता था ।।४७।। यद्यपि वह बुद्धिमान वज्रजंघ उत्कृष्ट यौवन को प्राप्त हो गया था तथापि स्वयंप्रभा के अनुराग से वह प्राय: अन्य स्त्रियों में निस्पृह ही रहता था ।।४८।।
इस प्रकार उस बुद्धिमान वज्रजंघ का समय बड़े आनन्द से व्यतीत हो रहा था । अब स्वयंप्रभा महादेवी स्वर्ग से च्युत होकर कहाँ उत्पन्न हुई इस बात का वर्णन किया जाता है ।।४९।। ललिताङ्गदेव के स्वर्ग से च्युत होने पर वह स्वयंप्रभा देवी उसके वियोग से चकवा के बिना चकवी की तरह बहुत ही खेदखिन्न हुई ।।५०।। अथवा ग्रीष्मऋतु में जिस प्रकार पृथ्वी प्रभारहित होकर संताप धारण करने लगती है उसी प्रकार वह स्वयंप्रभा भी पति के विरह में प्रभारहित होकर संताप धारण करने लगी और जिस प्रकार वर्षा ऋतु में कोयल अपना मनोहर आलाप छोड़ देती है उसी प्रकार उसने भी अपना मनोहर आलाप छोड़ दिया था—वह पति के विरह में चुपचाप बैठी रहती थी ।।५१।। जिस प्रकार दिव्य औषधियों के अभाव में अनेक कठिन बीमारियाँ दुःख देने लगती हैं उसी प्रकार ललिताङ्गदेव के अभाव में उस पतिव्रता स्वयंप्रभा को अनेक मानसिक व्यथाएँ दुःख देने लगी थीं ।।५२।। तदनन्तर उसकी अन्तःपरिपक्व के सदस्य दृढ़धर्म नाम के देव ने उसका शोक दूर कर सन्मार्ग में उसकी मति लगायी ।।५३।। उस समय वह स्वयंप्रभा चित्रलिखित प्रतिमा के समान अथवा मरण के भय से रहित शूर-वीर मनुष्य की बुद्धि के समान भोगों से निस्पृह हो गयी थी ।।५४।। जो आगामी काल में श्रीमती होने वाली है ऐसी वह मनस्विनी (विचारशक्ति से सहित) स्वयंप्रभा, भव्य जीवों की श्रेणी के समान धर्म सेवन करती हुई छह महीने तक बराबर जिनपूजा करने में उद्यत रही ।।५५।। तदनन्तर सौमनस वनसम्बन्धी पूर्वदिशा के जिनमन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पञ्चपरमेष्ठियों का भले प्रकार स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हो गयी । वहाँ से च्युत होते ही वह रात्रि का अन्त होने पर तारिका की तरह में अदृश्य हो गयी ।।५६-५७।।
जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है ऐसे विदेह क्षेत्र में एक पुण्डरीकिणी नगरी है । वज्रदन्त नामक राजा उसका अधिपति था । उसकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था जो वास्तव में लक्ष्मी के समान ही सुन्दर शरीर वाली थी । वह राजा उस रानी से ऐसा शोभायमान होता था जैसे कि कल्पलता से कल्पवृक्ष ।।५८-५९।। वह स्वयंप्रभा उन दोनों के श्रीमती नाम से प्रसिद्ध पुत्री हुई । वह श्रीमती अपने रूप और सौन्दर्य की लीला से कामदेव की पता का के समान मालूम होती थी ।।६०।। जिस प्रकार चैत्र मास को पाकर चन्द्रमा की कला लोगों को अधिक आनन्दित करने लगती है उसी प्रकार नवयौवन को पाकर वह श्रीमती भी लोगों को अधिक आनन्दित करने लगती थी ।।६१।। उसके गुलाबी नखों ने कुरवक पुष्प की कान्ति को जीत लिया था और चरणों की आभा ने अशोकपल्लवों की कान्ति को तिरस्कृत कर दिया था ।।६२।। वह श्रीमती, रुनझुन शब्द करते हुए नूपुररूपी मत्त भ्रमरों की झंकार से मुखरित तथा लक्ष्मी के सदा निवासस्थान स्वरूप चरणकमलों को धारण कर रही थी ।।६३।। मैं मानता हूँ कि कमल ने चिरकाल तक पानी में रहकर कण्टकित (रोमाञ्चित, पक्ष में काँटेदार) शरीर धारण किये हुए जो व्रताचरण किया था उसी से वह श्रीमती के चरणों की उपमा प्राप्त कर सका था ।।६४।। उसकी दोनों जंघाएँ कामदेव के तरकस के समान शोभित थीं, और ऊरुदण्ड (जाँघें) कामदेवरूपी हस्ती के बन्धनस्तम्भ की शोभा धारण कर रहे थे ।।६५।। शोभायमान वस्त्ररूपी जल से तिरोहित हुआ उसका नितम्बमण्डल किसी सरसी के मरने टीले के समान शोभा को प्राप्त हो रहा था ।।६६।। वह त्रिवलियों से सुशोभित तथा दक्षिणावर्त्त नाभि से युक्त मध्यभाग को धारण कर रही थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो भँवर से शोभायमान और लहरों से युक्त जल को धारण करने वाली नदी ही हो ।।६७।। उसका मध्यभाग स्तनों का बोझ बढ़ जाने की चिन्ता से ही मानो कृश हो गया था और इसीलिए उसने रोमावलि के छल से मानों सहारे की लकड़ी धारण की थी ।।६८।। वह नाभिरन्ध्र के नीचे एक पतली रोमराजि को धारण कर रही थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो दूसरा आश्रय चाहने वाले कामदेवरूपी सर्प का मार्ग ही हो ।।६९।। वह श्रीमती स्वयं लता के समान थी, उसकी भुजाएँ शाखाओं के समान थीं और नखों की किरणें फूलों की शोभा धारण करती थीं ।।७०।। जिनका अग्रभाग कुछ-कुछ श्यामवर्ण है ऐसे उसके दोनों स्तन शोभायमान होते थे मानो कामरस से भरे हुए और नीलरत्न की मुद्रा से अंकित दो कलश ही हों ।।७१।। उसके स्तन तट पर पड़ी हुई हरे रंग की चोली ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो कमलमुकुल पर पड़ा हुआ शैल ही हो ।।७२।। उसके स्तनों के अग्रभाग पर पड़ा हुआ बरफ के समान श्वेत और निर्मल हार कमलकुड्मल (कमल पुष्ट की बौंड़ी) को छूने वाले फेन की शोभा धारण कर रहा था ।।७३।। अनेक रेखाओं से उपलक्षित उसकी ग्रीवा रेखासहित शंख की शोभा धारण कर रही थी तथा वह स्वयं मनोहर कन्धों को धारण किये हुए थी जिससे ऐसी मालूम होती थी मानो निर्मल पंखों के मूलभाग को धारण किये हुए हंसी हो ।।७४।। नेत्रों को आनन्द देने वाला उसका मुख एक ही साथ चन्द्रमा और कमल दोनों की शोभा धारण कर रहा था क्योंकि वह हास्यरूपी चाँदनी से चन्द्रमा के समान जान पड़ता था और दाँतों की किरणरूपी केशर से कमल के समान मालूम होता था ।।७५।। चन्द्रमा ने अपनी कलाओं की वृद्धि और हानि के द्वारा चिरकाल तक चान्द्रायण व्रत किया था इसलिए मानो उसके फलस्वरूप ही वह श्रीमती के मुख की उपमा को प्राप्त हुआ था ।।७६।। उसके नेत्र इतने बड़े थे कि उन्होंने उत्पल धारण किये हुए कानों का भी उल्लंघन कर दिया था सो ठीक ही है अपना विस्तार रोकने वाले को कौन सह सकता है भले ही वह समीपवर्ती क्यों न हो ।।७७।। उसके नेत्रों के समीप कर्ण फूलरूपी कमल ऐसे दिखाई देते थे मानो अपनी शोभा पर हँसने वाले नेत्रों की शोभा को देखना ही चाहते हैं ।।७८।। वह श्रीमती अपने मुखकमल के ऊपर (मस्तक पर) काली अलकावली को धारण किये हुए थी सो ठीक ही है, आश्रय में आये हुए निरुपद्रवी मलिन पदार्थों को भी कौन धारण नहीं करता ? अर्थात् सभी करते हैं ।।७९।। वह कुछ नीचे की ओर लटके हुए, कोमल और कुटिल केशपाश को धारण कर रही थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो काले सर्प के लम्बायमान शरीर को धारण किये हुए चन्दनवृक्ष की लता ही हो ।।८०।। इस प्रकार वह श्रीमती कामदेव को भी उन्मत्त बनाने वाली रूप सम्पत्ति को धारण करने के कारण ऐसी मालूम होती थी मानो देवांगनाओं के रूप के सारभूत अंशों से ही बनायी गयी हो ।।८१।। ऐसा मालूम पड़ता था कि ब्रह्मा ने लक्ष्मी को चंचल बनाकर जो पाप उपार्जन किया था वह उसने श्रीमती को बनाकर धो डाला था ।।८२।। चन्द्रमा की कला के समान जनसमूह को आनन्द देने वाली उस श्रीमती को देख-देखकर उसके माता-पिता अत्यन्त प्रीति को प्राप्त होते थे ।।८३।।
तदनन्तर किसी एक दिन वह श्रीमती सूर्य की किरणों के समान निर्मल, महामूल्य रत्नों से शोभायमान और स्वर्ग विमान को भी लज्जित करने वाले राजभवन में सो रही थी ।।८४।। उसी दिन उससे सम्बन्ध रखने वाली यह विचित्र घटना हुई कि उसी नगर के मनोहर नामक उद्यान में श्रीयशोधर गुरु विराजमान थे उन्हें उसी दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए स्वर्ग के देव अपनी विभूति के साथ विमानों पर आरूढ़ होकर उनकी पूजा करने के लिए आये थे ।।८५-८६।। उस समय भ्रमरों के साथ-साथ, दिशाओं को व्याप्त करने वाली जो पुष्पवर्षा हो रही थी वह ऐसी सुशोभित होती थी मानो यशोधर महाराज के दर्शन करने के लिए स्वर्ग लक्ष्मी द्वारा भेजी हुई नेत्रों की परम्परा ही हो ।।८७।। उस समय मन्द-मन्द हिलते हुए मन्दारवृक्षों की सघन केशर से कुछ पीला हुआ तथा इकट्ठे हुए भ्रमरों की गुंजार से मनोहर वायु शब्द करता हुआ बह रहा था ।।८८।। और बजते हुए दुन्दुभि बाजों के शब्दों से दसों दिशा को व्याप्त करता हुआ देवों के हर्ष से उत्पन्न होनेवाला बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ।।८९।। वह श्रीमती प्रातःकाल के समय अकस्मात् उस कोलाहल को सुनकर उठी और मेघों की गर्जना सुनकर डरी हुई विमान समान भयभीत हो गयी ।।९०।। उस समय देवों का आगमन देखकर उसे शीघ्र ही अजन्म का स्मरण हो आया, जिससे वह ललिताङ्गदेव का स्मरण कर बार-बार उत्कण्ठित होती हुई मूर्च्छित हो गयी ।।९१।। तत्पश्चात् सखियों ने अनेक शीतलोपचार और पंखा की वायु से आश्वासन देकर उसे सचेत किया परन्तु फिर भी उसने अपना मुँह ऊपर नहीं उठाया ।।९२।। उस समय मनोहर, प्रभा से देदीप्यमान, सुन्दर और अनेक उत्तम-उत्तम लक्षणों से सहित उस ललिताङ्ग का शरीर श्रीमती के हृदय में लिखे हुए के समान शोभायमान हो रहा था ।।९३।। अनेक आशंकाएँ करती हुई सखियों ने उससे उसका कारण भी पूछा परन्तु वह चुपचाप बैठो रही । ललिता की प्राप्ति पर्यन्त मुझे मौन रखना ही श्रेयस्कर है ऐसा सोचकर मौन रह गयी ।।९४।। तदनन्तर घबड़ायी हुई सखियों ने पहरेदारों के साथ जाकर उसके माता-पिता से सब वृत्तान्त कह सुनाया ।।९५।। सखियों की बात सुनकर उसके माता-पिता शीघ्र ही उसके पास गये और उसकी वह अवस्था देखकर शोक को प्राप्त हुए ।।९६।। हे पुत्री, हमारा आलिंगन कर, गोद में आ इस प्रकार समझाये जाने पर भी जब वह मूर्च्छित हो चुपचाप बैठी रही तब समस्त चेष्टाओं और मन के विकारों को जानने वाले वज्रदन्त महाराज रानी लक्ष्मीमती से बोले—हे तन्वि, अब यह तुम्हारी पुत्री पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हो गयी है ।।९७-९८।। हे सुन्दर दाँतों वाली, देख, यह इसका शरीर कैसा अनुपम और कान्ति युक्त हो गया है । ऐसा शरीर स्वर्ग की दिव्यांगनाओं को भी दुर्लभ है ।।९९।। इसलिए हे सुन्दरि, इस समय इसका यह विकार कुछ भी दोष उत्पन्न नहीं कर सकता । अतएव हे देवि, तू अन्य-रोग आदि की शंका करती हुई व्यर्थ ही भय को प्राप्त न हो ।।१००।। निश्चय ही आज इसके ह्रदय में कोई पूर्वभव का स्मरण हो आया है क्योंकि संसारी जीव प्राय: पुरातन संस्कारों का स्मरण कर मूर्च्छित हो ही जाते हैं ।।१०१।। यह कहते-कहते वज्रदन्त महाराज कन्या को आश्वासन देने के लिए पण्डिता नामक धाय को नियुक्त कर लक्ष्मीमती के साथ उठ खड़े हुए ।।१०२।। कन्या के पास से वापस आने पर महाराज वज्रदन्त के सामने एक साथ दो कार्य आ उपस्थित हुए । एक तो अपने गुरु यशोधर महाराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतएव उनकी पूजा के लिए जाना और दूसरा आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था अतएव दिग्विजय के लिए जाना ।।१०३।। महाराज वज्रदन्त एक साथ इन दोनों कार्यों का प्रसंग आने पर निश्चय नहीं कर सके कि इनमें पहले किसे करना चाहिए और इसीलिए वे क्षण-भर के लिए व्याकुल हो उठे ।।१०४।। तत्पश्चात् इनमें पहले किसे करना चाहिए इस बात का विचार करते हुए बुद्धिमान् वज्रदन्त ने निश्चय किया कि सबसे पहले गुरुदेव-यशोधर महाराज के केवलज्ञान की पूजा करनी चाहिए ।।१०५।। क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषों को दूरवर्ती कार्य की अपेक्षा निकटवर्ती कार्य ही पहले करना चाहिए, उसके बाद दूरवर्ती मुख्य कार्य करना चाहिए । इसलिए जिस अर्हन्त पूजा से पुण्य होगा है, जिससे बड़े-बड़े अभ्युदय प्राप्त होते हैं, तथा जो धर्ममय आवश्यक कार्य हैं ऐसे अर्हन्तपूजा आदि प्रधान कार्य को ही पहले करना चाहिए ।।१०७।।
मन में ऐसा विचार कर वह राजा वज्रदन्त पुण्य बढ़ाने वाली यशोधर महाराज की उत्कृष्ट पूजा करने के लिए उठ खड़ा हुआ ।।१०८।। तदनन्तर सेना के साथ जाकर उसने जगद्गुरु यशोधर महाराज की पूजा की । पूजा करते समय उसका मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित हो रहा था ।।१०९।। प्रकाशमान बुद्धि के धारक वज्रदन्त ने ज्यों ही यशोधर गुरु के चरणों में प्रणाम किया त्यों ही उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया, सो ठीक ही है, विशुद्ध परिणामों से की गयी भक्ति क्या फलीभूत नहीं होगी? अथवा क्या-क्या फल नहीं देगी ? ।।११०।। उस अवधिज्ञान से राजा ने जान लिया कि पूर्वभव में मैं अच्युत स्वर्ग का इन्द्र था और यह मेरी पुत्री श्रीमती ललितांगदेव की स्वयंप्रभा नामक प्रिया थी ।।१११।। वह बुद्धिमान् वज्रदन्त वन्दना आदि करके वहाँ से लौटा और पुत्री श्रीमती को पण्डिता धाय के लिए सौंपकर शीघ्र ही दिग्विजय के लिए चल पड़ा ।।११२।। इन्द्र के समान कान्ति का धारक वह चक्रवर्ती चक्ररत्न की पूजा करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे, देव और विद्याधर इस प्रकार पडंग सेना के साथ दिशाओं को जीतने के लिए गया ।।११३।। तदनन्तर अतिशय चतुर पण्डिता नाम की धाय किसी एक दिन एकान्त में श्रीमती को समझाने के लिए इस प्रकार चातुर्य से भरे वचन कहने लगी ।।११४।। वह उस समय अशोकवाटिका के मध्य में चन्द्रकान्त शिलातल पर बैठी हुई थी तथा अपने कोमल हाथों से [सामने बैठी हुई] श्रीमती के अंगों का बड़े प्यार से स्पर्श कर रही थी । बोलते समय उसके मुखकमल से जो दाँतों की किरणरूपी जल का प्रवाह बह रहा था उससे ऐसी मालूम होती थी मानो वह श्रीमती के हृदय का सन्ताप ही दूर कर रही हो ।।११५-११६।। वह कहने लगी—हे पुत्रि, मैं समस्त कार्यों की योजना में पण्डिता हूँ—अतिशय चतुर हूँ । इसलिए मेरा पण्डिता यह नाम सत्य है—सार्थक है । इसके सिवाय मैं तुम्हारी माता के समान हूँ और प्राणों के समान सदा साथ रहने वाली प्रियसखी हूँ ।।११७।। इसलिए हे धन्य कन्ये, तू यहाँ मुझसे अपने मौन का कारण कह । क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि रोग माता से नहीं छिपाया जाता ।।११८।। मैंने अपने चित्त में तेरी इस चेष्टा का अच्छी तरह से विचार किया है परन्तु मुझे कुछ भी मालूम नहीं हुआ इसलिए हे कन्ये, ठीक-ठीक कह ।।११९।। हे सखि, क्या यह काम का उन्माद है अथवा किसी ग्रह की पीड़ा है? प्राय: करके यौवन के प्रारम्भ में कामरूपी ग्रह का उपद्रव हुआ ही करता है ।।१२०।। इस तरह पण्डिता धाय के द्वारा पूछे जाने पर श्रीमती ने अपना मुरझाया हुआ मुख इस प्रकार नीचा कर लिया जिस प्रकार कि सूर्यास्त के समय कमलिनी मुरझाकर नीचे झुक जाती है । वह मुख नीचा करके कहने लगी—यह सच है कि मैं ऐसे वचन किसी के भी सामने नहीं कह सकती क्योंकि मेरा हृदय लज्जा से पराधीन हो रहा है ।।१२१-१२२।। किंतु आज मैं तुम्हारे सामने कहती हुई लज्जित नहीं होती हूँ उसका कारण भी है कि मैं इस समय अत्यन्त दुःखी हो रही हूँ और: आप हमारी माता के तुल्य तथा चिरपरिचिता है ।।१२३।। इसलिए हे मनोहरांगि, सुन, मैं कहती हूँ । यह मेरी कथा बहुत बड़ी है । आज देवों का आगमन देखने से मुझे अपने पूर्वभव के चरित्र का स्मरण हो आया है ।।१२४।। वह पूर्वभव का चरित्र कैसा है अथवा वह कथा कैसी है ? इन सब बातों को मैं विस्तार के साथ कहती हूँ । वह सब विषय मेरी स्मृति में अनुभव किये के समान स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा है ।।१२५।।
हे कमलनयने, इसी मध्यलोक में एक धातकीखण्ड नाम का महाद्वीप है वनों अपनी शोभा से स्वर्गभूमि को तिरस्कृत करता है । इस द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है जो कि अपनी शोभा से देवकुरु और उत्तरकुरु को भी जीत सकता है । उस देश में एक पाटली नाम का आम है उसमें नागदत्त नाम का एक वैश्य रहता था । उसकी स्त्री का नाम सुमति था और उन दोनों के क्रम से नन्द, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन ये पाँच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई । पूर्वभव में मैं इन्हीं के घर निर्नामा नाम की सबसे छोटी पुत्री हुई थी ।।१२६-१३०।। किसी दिन मैंने चारणचरित नामक मनोहर वन में अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञान से सहित तथा अनेक ऋद्धियों से भूषित पिहितास्रव नामक मुनिराज के दर्शन किये । दर्शन और नमस्कार कर मैंने उनसे पूछा कि हे भगवन्, मैं किस कर्म से इस दरिद्रकुल में उत्पन्न हुई हूँ । हे प्रभो, कृपा कर इसका कारण कहिए और मुझ दीन तथा अतिशय उद्विग्न स्त्री-जन पर अनुग्रह कीजिए ।।१३१-१३३।। इस प्रकार पूछे जाने पर वे मुनिराज मधुर वाणी से कहने लगे कि हे पुत्रि, पूर्वभव में तू अपने कर्मोदय से इसी देश के पलालपर्वत नामक ग्राम में देविलमाम नामक पटेल की सुमति ली के उदर से धनश्री नाम से अप्रसिद्ध पुत्री हुई थी ।।१३४-१३५।। किसी दिन तूने पाठ करते हुए समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मरे हुए कुत्ते का दुर्गन्धित कलेवर डाला था और अपने इस अज्ञानपूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी । यह देखकर मुनिराज ने उस समय तुझे उपदेश दिया था कि बालिके, तूने यह बहुत ही विरुद्ध कार्य किया है, भविष्य में उदय के समय यह तुझे दुःखदायी और कटुक फल देगा क्योंकि पूज्य पुरुषों का किया हुआ अपमान अन्य पर्याय में अधिक सन्ताप देता है ।।१३६-१३८।। मुनिराज के ऐसा कहने पर धनश्री ने उसी समय उनके सामने जाकर अपना अपराध क्षमा कराया और कहा कि हे भगवन् मैंने यह कार्य अज्ञानवश ही किया है इसलिए क्षमा कर दीजिए ।।१३९।। उस उपशम भाव से क्षमा माँग लेने से तुझे कुछ थोड़ा-सा पुण्य प्राप्त हुआ था उसी से तू इस समय मनुष्ययोनि में इस अतिशय दरिद्र कुल में उत्पन्न हुई है ।।१४०।। इसलिए हे कल्याणि, कल्याण करने वाले जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान इन दो उपवास व्रतों को क्रम से ग्रहण करो ।।१४१।। हे आर्य, विधिपूर्वक किया गया यह अनशन तप, किये हुए कर्मों को बहुत शीघ्र नष्ट करनेवाला माना गया है ।।१४२।। तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के कारणभूत सोलह भावनाएँ, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन तिरसठ गुणों को उद्देश्य कर जो उपवास व्रत किया जाता है उसे जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति कहते हैं । भावार्थ—इस व्रत में जिनेन्द्र भगवान् के तिरसठ गुणों को लक्ष्य कर तिरसठ उपवास किये जाते हैं जिनकी व्यवस्था इस प्रकार है—सोलह कारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा, पंच कल्याणकों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी तथा चौदह चतुर्दशी इस प्रकार तिरसठ उपवास होते हैं ।।१४३-१४४।। पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रगुणसम्पत्तिनामक व्रत में तिरसठ उपवास करना चाहिए ऐसा गणधरादि मुनियों ने कहा है । अब इस समय श्रुतज्ञान नामक उपवास व्रत का स्वरूप कहा जाता है ।।१४५।। अट्ठाईस, ग्यारह, दो, अठासी, एक, चौदह, पाँच, छह, दो और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदों की एक सौ अठावन संख्या होती है । उनका नामानुसार क्रम इस प्रकार है कि मतिज्ञान के अट्ठाईस, अंगों के ग्यारह, परिकर्म के दो, सूत्र के अट्ठासी, अनुयोग का एक, पूर्व के चौदह, चूलिका के पाँच, अवधिज्ञान के छह, मनःपर्ययज्ञान के दो और केवलज्ञान का एक—इस प्रकार ज्ञान के इन एक सौ अट्ठावन भेदों की प्रतीति कर जो एक सौ अट्ठावन दिन का उपवास किया जाता है उसे श्रुतज्ञान उपवास व्रत कहते हैं । हे पुत्रि, तू भी विधिपूर्वक ऊपर कहे हुए दोनों अनशन व्रतों को आचरण कर ।।१४६-१५०।। हे पुत्रि, इन दोनों व्रतों का मुख्य फल केवलज्ञान की प्राप्ति और गौण फल स्वर्गादि की प्राप्ति है ।।१५१।। हे कल्याणि, देख, मुनि शाप देने तथा अनुग्रह करने—दोनों में समर्थ होते हैं, इसलिए उनका अपमान करना दोनों लोकों में दुःख देने वाला है ।।१५२।। जो पुरुष वचन द्वारा मुनियों का उल्लंघन-अनादर करते हैं वे दूसरे भव में गूँगे होते हैं । जो मन से निरादर करते हे उनकी मन से सम्बन्ध रखने वाली स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें ऐसे कौनसे दुःख हैं जो प्राप्त नहीं होते हैं ? इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को तपस्वी मुनियों का कभी अनादर नहीं करना चाहिए । हे मुग्धे, जो मनुष्य, क्षमारूपी धन को धारण करने वाले मुनियों की, मोहरूपी काष्ठ से उत्पन्न हुई, विरोधरूपी वायु से प्रेरित हुई, दुर्वचनरूपी तिलगों से भरी हुई और क्षमारूपी भस्म से ढकी हुई क्रोधरूपी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं उनके द्वारा, दोनों लोकों में होने वाला अपना कौन-सा हित नष्ट नहीं किया जाता ।।१५३-१५६।। इस प्रकार मैं मुनिराज के हितकारी वचन मानकर और जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति तथा श्रुतज्ञान नामक दोनों व्रतों के विधिपूर्वक उपवास कर आयु के अन्त में स्वर्ग गयी ।।१५७।। वहाँ ललितांगदेव की स्वयंप्रभा नाम की मनोहर महादेवी हुई और वहाँ से ललितांगदेव के साथ मध्यलोक में आकर मैंने व्रत देने वाले पिहितास्रव गुरु की पूजा की ।।१५८।। बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाली मैंने उस ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभविमान के अधिपति ललितांगदेव के साथ अनेक भोग भोगे तथा बलों से च्युत होकर यहाँ वज्रदन्त चक्रवर्ती के श्रीमती नाम की पुत्री हुई हूँ । हे सखि, यहाँ तक ही मेरी पूर्वभव की कथा है ।।१५९।। हे कृशोदरि, ललितांगदेव के स्वर्ग से च्युत होने पर मैं छह महीने तक जिनेन्द्रदेव की पूजा करती रही फिर वहां से चलकर यहाँ उत्पन्न हुई हूँ ।।१६०।। मैं इस समय उसी का स्मरण कर उसके अन्वेषण के लिए प्रयत्न कर रही हूँ और इसीलिए मैंने मौन धारण किया है ।।१६१।। हे सखी, देख, यह ललितांग अब भी मेरे मन में निवास कर रहा है । ऐसा मालूम होता है मानो किसी ने टाँकी द्वारा उकेरकर सदा के लिए मेरे मन में स्थिर कर दिया हो । यद्यपि आज उसका वह दिव्य-वैक्रियिक शरीर नहीं है तथापि वह अपनी दिव्य शक्ति से अनंगता (शरीर का अभाव और कामदेवपना) धारण कर मेरे मन में अधिष्ठित है ।।१६२।। हे सुमुखि, जो अतिशय सौम्य है, सुन्दर है, साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र तथा माला आदि से सहित हे, प्रकाशमान आभरणों से उज्जवल है और सुखकर स्पर्श से सहित है ऐसे ललितांगदेव के शरीर को मैं सामने देख रही हूँ, उसके हाथ के स्पर्श से लालित सुखद स्पर्श को भी देख रही हूं परन्तु उसकी प्राप्ति के बिना मेरा यह शरीर कृशता को नहीं छोड़ रहा है ।।१६३-१६४।। ये अश्रुबिन्दु निरन्तर मेरे नेत्रों से निकल रहे हैं जिससे ऐसा मालूम होता है कि ये हमारा दुःख देखने के लिए असमर्थ होकर उस ललितांग को खोजने के लिए ही मानो उद्यत हुए हैं ।।१६५।। इतना कहकर वह श्रीमती फिर भी पण्डिता सखी से कहने लगी कि हे प्रिय सखी, तू ही मेरे पति को खोजने के लिए समर्थ है । तेरे सिवाय और कोई यह कार्य नहीं कर सकता ।।१६६।। हे कमलनयने, आज तेरे रहते हुए मुझे दुःख कैसे हो सकता है ? सूर्य की प्रभा के देदीप्यमान रहते हुए भी क्या कमलिनी को दुःख होता है ? अर्थात् नहीं होता ।।१६७।। हे सखी, तू समस्त कार्यों के करने में अतिशय निपुण है अतएव तू सचमुच में पण्डिता है—तेरा पण्डिता नाम सार्थक है । इसलिए मेरे इस कार्य की सिद्धि तुझ पर ही अवलम्बित हैं ।।१६८।। हे सखि, मेरे प्राणपति ललितांग को खोजकर मेरे प्राणों की रक्षा कर क्योंकि स्त्रियों की विपत्ति दूर करने के लिए स्त्रियाँ ही अवलम्बन होती हैं ।।१६९।। इस कार्य की सिद्धि के लिए मैं आज तुझ एक उपाय बताती हूँ । वह यह है कि मैंने पूर्वभव सम्बन्धी चरित्र को बताने वाला एक चित्रपट बनाया है ।।१७०।। उसमें कही-कहीं चित्त प्रसन्न करने वाले गूढ़ विषय भी लिखे गये हैं । इसके सिवाय वह धूर्त मनुष्यों के मन को भ्रान्ति में डालने वाला हे । हे सखी, तू इसे लेकर जा ।।१७१।। धृष्टता के कारण उद्धत बुद्धि को धारण करने वाले जो पुरुष झूठमूठ ही यदि अपने-आपको पति कहें—मेरा पति बनना चाहें उन्हें गूढ़ विषयों के संकट में हास्यकिरणरूपी वस्त्र से आच्छादित करना अर्थात् चित्रपट देखकर झूठमूठ ही हमारा पति बनना चाहें उनसे तू गूढ़ विषय पूछना जब वे उत्तर न दे सकें तो अपने मन्द हास्य से उन्हें लज्जित करना ।।१७२।। इस प्रकार जब श्रीमती कह चुकी तब ईषत् हास्य की किरणों के बहाने पुष्पांजलि बिखेरती हुई पण्डिता सखी, उसके चित्त को आश्वासन देनेवाले वचन कहने लगी ।।१७३।। हे मधुरभाषिणि, मेरे रहते हुए तेरे चित्त को सन्ताप नहीं हो सकता क्योंकि आम्रमंजरी के रहते हुए कोयल को दुःख कैसे हो सकता है ? ।।१७४।। हे सखी, जिस प्रकार कवि की बुद्धि सुश्लिष्ट—अनेक भावों को सूचित करने वाले उत्तम अर्थ को और लक्ष्मी जिस प्रकार उद्योगशाली मनुष्य को खोज लाती है उसी प्रकार मैं भी तेरे पति को खोज लाती हूँ ।।१७५।। हे सखी , मैं चतुर बुद्धि की धारक हूँ तथा कार्य करने में हमेशा उद्यत रहती हूँ इसलिए तेरा यह कार्य अवश्य सिद्ध कर दूंगी । तू यह निश्चित जान कि मुझे इन तीनों लोकों में कोई भी कार्य कठिन नहीं है ।।१७६।। इसलिए हे सुन्दरि, जिस प्रकार माधवी लता प्रकट होते हुए प्रवालों और अंकुरों के समूह को धारण करती है उसी प्रकार अब तू अनेक प्रकार के आभरणों के विन्यास को धारण कर ।।१७७।। इस कार्य की सिद्धि में तुझे संशय नहीं करना चाहिए क्योंकि श्रीमती के द्वारा चाहे हुए पदार्थों की सिद्धि निःसन्देह ही होती है ।।१७८।। वह पण्डिता इस प्रकार कहकर तथा उस श्रीमती को समझाकर उसके द्वारा दिये हुए चित्रपट को लेकर शीघ्र ही महापूत नामक अथवा अत्यन्त पवित्र जिनमन्दिर गयी ।।१७९।। वह जिनमन्दिर रत्नों की किरणों से शोभायमान अपने ऊँचे उठे हुए शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानो फण ऊँचा किये हुए शेषनाग ही सन्तुष्ट होकर पाताल लोक से निकला हो ।।१८०।। उस मन्दिर की दीवालें ठीक वेश्याओं के समान थीं क्योंकि जिस प्रकार वेश्याएँ वर्णसंकरता (ब्राह्मणादि वर्णों के साथ व्यभिचार) से उत्पन्न हुई तथा अनेक आश्चर्यकारी कार्यों से सहित होकर जगत् के कामी पुरुषों की चित्त हरण करती हैं उसी प्रकार वे दीवालें भी वर्णसंकरता (काले पीले नीले लाल आदि रंगों के मेल) से बने हुए अनेक चित्रों से सहित होकर जगत् के सब जीवों का चित्त हरण करती थी ।।१८१।। रात को भी दिन बनाने में समर्थ और मणियों से चित्र-विचित्र रहने वाले अपने ऊँचे-ऊँचे शिखरों से वह मन्दिर ऐसा मालूम होता था मानो स्वर्ग का उन्मीलन ही कर रहा है—स्वर्ग को भी प्रकाशित कर रहा हो ।।१८२।। उस मन्दिर में निरन्तर अनेक मुनियों के समूह गम्भीर शब्दों से स्तोत्रादिक का पाठ करते रहते थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह आये हुए भव्य जीवों के साथ सम्भाषण ही कर रहा दो ।।१८३।। उसकी शिखरों के अग्रभाग पर लगी हुई तथा वायु के द्वारा हिलती हुई पताकाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो वन्दना भक्ति आदि के लिए देवों को ही बुला रही हों ।।१८४।। उस मन्दिर के झरोखों से निकलते हुए धूम के धूम ऐसे मालूम होते थे मानो स्वर्ग को भेंट देने के लिए नवीन मेघों को ही बना रहे हों ।।१८५।। उस मन्दिर के शिखरों के चारों ओर जो चंचल किरणों के धारक तारागण चमक रहे थे वे ऊपर आकाश में स्थित रहने वाले देवों को पुष्पोपहार की भ्रान्ति उत्पन्न किया करते थे अर्थात देव लोग यह समझते थे कि कहीं शिखर पर किसी ने फूलों का उपहार तो नहीं चढ़ाया है ।।१८६।। वह चैत्यालय सद्वृत्तसंगत-सम्यक्चारित्र के धारक मुनियों से सहित था, अनेक चित्रों के समूह से शोभायमान था, और स्तोत्रपाठ आदि के शब्दों से सहित था इसलिए किसी महाकाव्य के समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि महाकाव्य भी, सद्वृत्त-वसन्ततिलक आदि सुन्दर-सुन्दर छन्दों से सहित होता है, मुरज कमल छत्र हार आदि चित्र श्लोकों से मनोहर होता है और उत्तम-उत्तम शब्दों से सहित होता है ।।१८७।। उस चैत्यालय पर पताकाएँ फहरा रही थीं, भीतर बजते हुए घण्टे लटक रहे थे, स्तोत्र आदि के पढ़ने से गम्भीर शब्द हो रहा था, और स्वयं अनेक मजबूत खम्भों से स्थिर था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो कोई बड़ा हाथी ही हो क्योंकि हाथी पर भी पताका फहराती है, उसके गले में मनोहर शब्द करता हुआ घण्टा बँधा रहता है । वह स्वयं गम्भीर गर्जना के शब्द से सहित होता है तथा मजबूत खम्भों से बँधा रहने के कारण स्थिर होता है ।।१८८।। वह चैत्यालय पाठ करने वाले मनुष्यों के पवित्र शब्दों तथा वन्दना करने वाले मनुष्यों की जय-जय ध्वनि से असमय में ही समूहों को मदोन्मत्त बना देता था अर्थात् मन्दिर में होने वाले शब्द को मेघ का शब्द समझकर मयूर वर्षा के बिना ही मदोन्मत्त हो जाते थे ।।१८९।। वह चैत्यालय अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सहित था, अनेक चारण (मागध स्तुतिपाठक) सब उसकी स्तुति किया करते थे और अनेक विद्याधर (परमागम के जानने वाले) उसको सेवा करते थे इसलिए ऐसा शोभायमान होता था मानो मेरु पर्वत ही हो क्योंकि मेरु पर्वत भी अत्यन्त ऊँचे शिखरों से सहित है, अनेक चारण (ऋद्धि के धारक मुनिजन) उसकी स्तुति करते रहते हैं तथा अनेक विद्याधर उसकी सेवा करते हैं ।।१९०।। इत्यादि वर्णनयुक्त उस चैत्यालय में जाकर पण्डिता धाय ने पहले जिनेन्द्र देव की वन्दना की फिर वह वहाँ की चित्रशाला में अपना चित्रपट फैलाकर आये हुए लोगों की परीक्षा करने की इच्छा से बैठ गयी ।।१९१।। विशाल बुद्धि के धारक कितने ही पुरुष आकर बड़ी सावधानी से उस चित्रपट को देखने लगे और कितने ही उसे देखकर यह क्या है इस प्रकार जोर से बोलने लगे ।।१९२।। वह पण्डिता समुचित वाक्यों से उन सबका उत्तर देती हुई और पण्डितामास-मूर्ख लोगों पर मन्द हास्य का प्रकाश डालती हुई गम्भीर भाव से वहाँ बैठी थी ।।१९३।।
अनन्तर जिसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है और जिसे समस्त मनुष्य विद्याधर और देव नमस्कार करते हैं ऐसा वज्रदन्त चक्रवर्ती दिग्विजय से वापस लौटा ।।१९४।। उस समय चक्रवर्ती ने बत्तीस हजार राजाओं द्वारा किये हुए राज्याभिषेक महोत्सव को प्राप्त किया था सो ठीक ही है, पुण्य से क्या-क्या नहीं प्राप्त होता ? ।।१९५।। यद्यपि वह चक्रवर्ती और वे बत्तीस हजार राजा हाथ, पाँव, मुख आदि अवयवों से समान आकार के धारक थे तथापि वह चक्रवर्ती अपने पुण्य के माहात्म्य से उन सबके द्वारा पूज्य हुआ था ।।१९६।। इसका शरीर अनुपम था, मुख चन्द्रमा के समान सौम्य था, और नेत्र कमल के समान सुन्दर थे । पुण्य के उदय से वह समस्त मनुष्य और देवों से बढ़कर शोभायमान हो रहा था ।।१९७।। इसके दोनों पाँवों में जो शंख, चक्र, अंकुश आदि के चिह्न शोभायमान थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी ने ही चक्रवर्ती के ये सब लक्षण लिखे हैं ।।१९८।। अव्यर्थ आज्ञा के धारक महाराज वज्रदन्त जब पृथ्वी का शासन करते थे तब कोई भी प्रजा अपराध नहीं करती थी इसलिए कोई भी पुरुष दण्ड का भागी नहीं होता था ।।१९९।। वह चक्रवर्ती वक्षःस्थल पर लक्ष्मी को और मुखकमल में सरस्वती को धारण करता था परन्तु अत्यन्त प्रिय कीर्ति को धारण करने के लिए उसके पास कोई स्थान ही नहीं रहा इसलिए उसने अकेली कीर्ति को लोक के अन्त तक पहुँचा दिया था । अर्थात् लक्ष्मी और सरस्वती तो उसके समीप रहती थीं और कीर्ति समस्त लोक में फैली हुई थी ।।२००।। वह राजा चन्द्रमा के समान कान्तिमान और सूर्य के समान उत्कर (तेजस्वी अथवा उत्कृष्ट टैक्स वसूल करने वाला) था । आश्चर्यकारी उदय को धारण करने वाला वह राजा कान्ति और तेज दोनों को उत्कृष्ट रूप से धारण करता था ।।२०१।। पुष्य-रूपी कल्पवृक्ष के बडे से बड़े फल इतने ही होते हैं यह वात सूचित करने के लिए ही मानो उस चक्रवर्ती के चौदह महारत्न प्रकट हुए थे ।।२०२।। उसके यहाँ पुण्य की राशि के समान नौ अक्षय निधियाँ प्रकट हुई थीं, उन निधियां से उसका भण्डार हमेशा भरा रहता था ।।२०३।। इस प्रकार वह पुण्यवान चक्रवर्ती छह खण्डों से शोभित पृथिवी का पालन करता हुआ चिरकाल तक दस प्रकार के भोग, भोगता रहा ।।२०४।। इस प्रकार देदीप्यमान मुकुट और प्रकाशमान रत्नों के कुण्डल धारण करने वाला वह कार्यकुशल चक्रवर्ती कुछ ही दिनों में दिग्विजय कर लौटा और अपनी विजय सेना के साथ राजधानी में प्रविष्ट हुआ । उस समय वह ऐसा शोभायमान हो रहा था जैसा कि देदीप्यमान मुकुट और रत्न-कुण्डलों को धारण करने वाला कार्यकुशल इन्द्र अपनी देवसेना के साथ अमरावती में प्रवेश करते समय शोभित होता है ।।२०५।। समस्त कार्य कर चुकने पर भी जिसके ह्रदय में पुत्री—श्रीमती के विवाह की कुछ चिन्ता विद्यमान है, ऐसे उत्कृष्ट शोभा के धारक उस वज्रदन्त चक्रवर्ती ने मन्द-मन्द वायु के द्वारा हिलती हुई पताकाओं से शोभायमान तथा अन्य अनेक उत्तम-उत्तम शोभा से श्रेष्ठ अपने नगर में प्रवेश किया था ।।२०६।। जिसकी सेना के लोगों ने लवंग की लताओं से व्याप्त समुद्रतट के वनों में चन्दन लताओं का चूर्ण किया है, उन वनों में बैठी हुई देवांगनाओं ने जिन्हें अपने आलस्य भरे सुशोभित नेत्रों से धीरे-धीरे देखा है और जिन्होंने विजयार्ध पर्वत की गुफाओं को स्वच्छ कर उनमें आश्रय प्राप्त किया है ऐसा वह सर्वत्र विजय प्राप्त करने वाला वज्रदन्त चक्रवर्ती अपने पुण्य के फल से प्राप्त हुई पृथिवी का चिरकाल तक पालन करता रहा ।।२०७।। दिग्विजय के समय जो समुद्र के समीप वन वेदिका के मध्यभाग को प्राप्त हुआ, जिसने विजयार्ध पर्वत के तटों का उल्लंघन किया जिसने तरंगों से चंचल समुद्र की स्त्रीरूप गंगा और सिन्धु नदी को पार किया और हिमवत् कुलाचल की ऊँचाई को तिरस्कृत किया—उस पर अपना अधिकार किया ऐसा वह जिनशासन का ज्ञाता वज्रदन्त चक्रवर्ती समस्त दिशाओं को जीतकर चक्रवर्ती की पर्ण लक्ष्मी को प्राप्त हुआ ।।२०८।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, मगवज्जिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में ललितांगदेव का स्वर्ग से च्युत होने आदिका वर्णन करने वाला छठा पर्व पूर्ण हुआ ।।६।।