मोक्षपाहुड गाथा 67
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं कि आत्मा को जानकर भी भावना बिना संसार में ही रहता है -
अप्पा णाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्ठा ।
हिडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा ।।६७।।
आत्मानं ज्ञात्वा नर: केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टा: ।
हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिता: मूढा: ।।६७।।
निज आतमा को जानकर भी मूढ़ रमते विषय में ।
हो स्वानुभव से भ्रष्ट भ्रते चतुर्गति संसार में ।।६७।।
अर्थ - कई मनुष्य आत्मा को जानकर भी अपने स्वभाव की भावना से अत्यंत भ्रष्ट हुए विषयों में मोहित होकर अज्ञानी मूर्ख चार गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं ।
भावार्थ - पहिले कहा था कि आत्मा को जानना, भाना, विषयों से विरक्त होना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाये जाते हैं, विषयों में लगा हुआ प्रथम तो आत्मा को जानता नहीं है ऐसे कहा, अब यहाँ इसप्रकार कहा कि आत्मा को जानकर भी विषयों के वशीभूत हुआ भावना नहीं करे तो संसार ही में भ्रमण करता है, इसलिए आत्मा को जानकर विषयों से विरक्त होना यह उपदेश है ।।६७।।