परस्परकल्याण
From जैनकोष
एक व्रत । इस व्रत की साधना के लिए कल्याणकों के पाँच, प्रातिहार्यों के आठ और अतिशयों के चौंतीस कुल सैंतालीस उपवासों को चौबीस बार गिनने पर उपलब्ध संख्यानुसार (ग्यारह सौ अट्ठाईस) उपवास किये जाते हैं । इसमें आरम्भ में एक बेला (दो उपवास) और अन्त में एक तेला (तीन उपवास) करना होता है । हरिवंशपुराण 34.124-125