शीलपाहुड गाथा 1
From जैनकोष
अब शीलपाहुड ग्रंथ की देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद लिखते हैं -
( दोहा ) भव की प्रकृति निवारिकै, प्रगट किये निजभाव । ह्वै अरहंत जु सिद्ध फुनि, वंदूं तिनि धरि चाव ।।१।।
इसप्रकार इष्ट के नमस्काररूप मंगल करके शीलपाहुड नामक ग्रंथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कृत प्राकृत गाथाबंध की देशभाषामय वचनिका का हिन्दी भाषानुवाद लिखते हैं । प्रथम श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथ की आदि में इष्ट को नमस्काररूप मंगल करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हैं -
वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोलस्समप्पायं ।
तिविहेण पणमिऊण सीलगुणाणं णिसामेह ।।१।।
वीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोलसमपादम् ।
त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ।।१।।
विशाल जिनके नयन अर रक्तोत्पल जिनके चरण ।
त्रिविध नम उन वीर को मैं शील गुण वर्णन करूँ ।।१ ।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं वीर अर्थात् अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी परम भट्टारक को मन वचन काय से नमस्कार करके शील अर्थात् निजभावरूप प्रकृति उसके गुणों को अथवा शील और सम्यग्दर्शनादिक गुणों को कहूँगा, कैसे हैं श्री वर्द्धमानस्वामी - विशालनयन हैं, उनके बाह्य में तो पदार्थो को देखने को नेत्र विशाल हैं, विस्तीर्ण हैं, सुन्दर हैं और अंतरंग में केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नेत्र समस्त पदार्थो को देखनेवाले हैं और वे कैसे हैं - `रक्तोत्पलकोलसमपादं' अर्थात् उनके चरण रक्त कमल के समान कोल हैं, ऐसे अन्य के नहीं हैं, इसलिए सबसे प्रशंसा करने के योग्य हैं, पूजने योग्य हैं । इसका दूसरा अर्थ ऐसा भी होता है कि रक्त अर्थात् रागरूप आत्मा का भाव, उत्पल अर्थात् दूर करने में कोल अर्थात् कठोरतादि दोष रहित और सम अर्थात् रागद्वेष रहित, पाद अर्थात् जिनके वाणी के पद हैं, जिनके वचन कोल हितमित मधुर राग द्वेषरहित प्रवर्तते हैं, उनसे सबका कल्याण होता है ।
भावार्थ - इसप्रकार वर्द्धमान स्वामी को नमस्काररूप मंगल करके आचार्य ने शीलपाहुड ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है ।।१।।