योगसार - जीव-अधिकार गाथा 39
From जैनकोष
आत्मध्यान से विमुख योगी का स्वरूप -
य: करोति परद्रव्ये रागमात्मपराङ्गमुख: ।
रत्नत्रयमयो नासौ न चारित्रचरो यति: ।।३९ ।।
अन्वय :- य: यति: आत्म-पराङ्गमुख: परद्रव्ये रागं करोति असौ न रत्नत्रयमय: न चारित्रचर: ।
सरलार्थ :- जो योगी आत्मस्वभाव से विमुख होकर परद्रव्य में राग/प्रीति करता है, वह योगी न रत्नत्रयसम्पन्न है और न सम्यक् चारित्र का आचरण करनेवाला है ।